आख़िरी पहर

आख़िरी पहर

‘मयूर विहार अब ‘शोर विहार’ हो चला है। देखते ही देखते बदल गया सब। बाहर रात देर से होती है, पर यहाँ तो हम सारे बुड्ढे खाने के बाद ही अपने-अपने कमरों में क़ैद हो जाते हैं। करें भी तो क्या? कितना टीवी देखें। अब जी नहीं करता! रात के बारह ही बजे हैं, अभी तो बहुत देर है सूरज उगने में। करूँ क्या तब तक?’

नींद बुलाने की कोशिश करते सौ वर्षीय मि. बेदी दूसरी बार बाथरूम से लौटे और बिस्तर पर दाहिनी करवट लेट गए। पत्नी से बात करने का यही सुनहरा मौका था। आज बड़े दिनों बाद नींद रूठी तो उन्हें अवसर हाथ लग गया कुछ कहने-सुनने-सुनाने का।

‘हँस रही है, हँस ले, हँस ले। साथ छोड़ कर चली गई, अब दीवार में सजी मज़ा लेती रहती है मेरे अकेलेपन का। मगर देख, मैं अब भी चंगा हूँ। एकदम फिट! तुझे तो जल्दी मची थी। अब है न चैन से…चौंतीस बरस बीत गए जब हम यहाँ आए थे। नीतू ने बड़ी सेवा दी तुझे। याद है न या भूल गई? सेवादारों को भूलना नी चाइए!…लो जी, इत्ती-सी बात पर रूठ गईं। देवी जी रूठोगी तो किसके साथ गल करूँगा।

तुझे याद है, जब हम यहाँ आए थे तो लगता था जंगल के बीच में कोठरियाँ हों। दूर से सियार की आवाज़ भी आती थी। मोर तो कित्ते ही भरे पड़े थे। उनका ही तो बसेरा था। नाचते-थिरकते मोर अब कम दिखते हैं। न के बराबर। दिखेंगे भी कैसे, आसपास कंक्रीट के महल खड़े होते गए। मेट्रो लाइनें, चौड़ी सड़कें, सबने तो मोर के इस जंगल को ही निगला। सोच ज़रा, लोग मोर देखने चिड़ियाघर जाते हैं मगर उन्हें अपने घर में चैन से रहने नहीं दिया। आते हैं अब भी एक-दो मोर…अपना पुराना आशियाना ढूँढ़ने, मगर ढूँढ़ पाएँगे क्या, अब तो उनके आने के रास्ते भी बंद हो रहे हैं। हैरान हो रही है? कभी तस्वीर से निकल कर बाहर भी देख आया कर। पिछले तीन-चार दशक में कितना बदल गया है सब कुछ! मगर यह बुड्ढा टिका पड़ा है अब तक!

तूने जैसा छोड़ा था, वैसा ही सजा रखा है अब भी। तू तो जानती है, मुझे सजे कमरे कितने पसंद हैं! जो गमले बाहर थे, उन्हें खुले में रख दिया है। अब धूप-हवा पाकर वो भी ख़ुश हैं। दलजीते मेरा बड़ा ख़याल रखता है। वह नहीं चाहता कि मैं यहाँ रहूँ, मगर मेरा जाने को जी नहीं करता। सोच न, यहाँ दिनभर कोई न कोई मिलने आता-जाता रहता है। आए दिन प्रोग्राम होते हैं। कभी किसी को कुछ भी प्रॉब्लम होती है, सबसे बड़ा होने के नाते मैं ही मदद करता हूँ। सबका गार्जियन जो ठहरा।…और तेरी यादें जो महकती रहती हैं यहाँ। तेरे दुःख-तकलीफ़ की गवाह बनी ये दीवारें मेरा कितना साथ देती हैं, कितना सँभालती हैं, उसे कैसे समझाऊँ। कहता है, घर में साथ नहीं रहना तो चौबीस घंटे के लिए केयरटेकर रखो। न जी न! फिर तेरे से बात कैसे करूँगा। उसे तो लगेगा, बुड्ढे का दिमाग चल गया है जो रात को अपने में बड़बड़ा रहा है।

तेरे सामने जो भी थे, सब तेरे पास चले गए। बाद को भी बहुत लोग आए। उनमें से भी कई लोग चले गए। मैं गवाह बना बैठा हूँ सब के आने और जाने का। मिस शीला, मि. सक्सेना, मिसेज आहूजा, वो रामण, शोभना के पति सुरेश…सारे के सारे पके पत्ते इस पेड़ से झड़ गए, यह पीला पत्ता तो सुनहरा हो चला, फिर भी टिका है, तेरे से बातें कर रहा है। रब दी मर्ज़ी! जब बुलावा आवे, मैं तो तैयार बैठा हूँ। एक सदी! मेरी आँखों ने देख लीं पूरी की पूरी सदी! उथल-पुथल जहाँ भर का। बापू और उनके मुँह बोले बेटे बोस के साथ बैठ-बैठ कर जिसका बचपन बीता हो, उसके साथ तूने भी निभा ही लिए 35 साल। 35 साल भी कुछ कम थोड़े न होते हैं! और तू जा कर भी गई कहाँ, रह गई यहीं मेरे भीतर-बाहर। इस कमरे से लेकर उस कमरे तक आज भी तेरी वो ख़ुशबू उड़ती है और मैं तरोताज़ा हो जाता हूँ। जानती है, हर कोई एक ही सवाल करता है, ‘आप इतने फिट कैसे हो?’ लिफ्ट भी यूज़ नहीं करता तो और हैरान होते हैं। मैं तो इसको तेरी दुआ और रब दी मेहर मानता हूँ।

पिछले दो सालों में कोरोना के कहर से सारा संसार कराह रहा है। यहाँ की तो पूछ ही मत! इस देश की माटी कितना रोती है, पता है तुझे? तू तो बस टुकुर-टुकुर तमाशा देख! बच्चे-बूढ़े-जवान…सब गए, लेकिन सब कोरोना से नहीं गए। तुझे तो पता ही है देश का हाल! भूखमरी और बेरोजगारी के साथ ही, अपने ही देश में प्रवासी होने की पीड़ा से गुज़रता हज़ारों बेसहारों का रेला और उनकी मौत का तांडव! कितने किरायेदार नौकरी जाने से सड़क पर आ गए और कितने व्यापारी कंगाल हो गए। बीमारी, भूख, अचानक बेरोजगारी की आर्थिक तंगी से उपजी मन की बिगड़ी हालत में आत्महत्या की ख़बरें सुन-सुनकर मैं तो जैसे बहरा हो जाना चाहता था। दिल को धक्का लगने लगा था। अपनी बिटिया की भी नौकरी छिन गई, वो भी तब जब बिस्तर पर पड़ी मौत से लड़ रही थी। मुझे महीने भर बताया ही नहीं। वो तो दलजीते ने फोन पर बता दिया। सच कहता हूँ, उस समय लगता था, किसी से मिले बिना चल दूँगा तो मिलने की हसरत रह जाएगी। गुप्ता गया…। अरे वही मेरा यार गुप्ता, अपने पिछले क्वार्टर में भी तो आता था। यहाँ भी जब-तब आ ही जाता था मिलने। उसी ने तो लिफ्ट लगवा दी। …चल दिया उठकर। उससे मिलना न हो सका, यही तड़प रह गई।

शीला कोरोना से नहीं गई, मगर उससे भी मिलना न हो सका। सालभर तक उसका बंद कमरा मुझे बुलाता था। मैंने ही उसे यहाँ कमरा दिलवाया था। शादी की नहीं जो कोई आगे-पीछे होता। बस, रिटायर कर के यहीं शिफ्ट हो गई। मैंने ही मैनेजर से कहकर डबल बेड दिलवाया था। तेरी सिक्योरिटी मनी मैंने तो इसी आश्रम को दान कर दी, मगर शीला की बहन सारे कागज़ तैयार कर ले गई पैसे। ये रिश्ते भी बड़े अज़ीब होते हैं। कई बार तो रिश्तों के ढकोसले सहे नहीं जाते। मैं लकी हूँ जो तेरे दोनों पुत्तर संतोषी हैं। अनीता ने तो फिर भी शीला की थोड़ी सेवा की थी, अरे अनीता…शीला की बहन! कित्ती बार तो तूने देखा है उसे। हाँ तो मैं क्या कह रहा था, हाँ! अनीता ने सेवा की तो ले गई सारा सामान चुन-चुनकर। अरे, पैसे तो ले ही गई।

मगर शांता नेगी को तो कभी कोई मिलने नहीं आता था। दस बरस रही यहाँ। दस बरस कोई कम थोड़े ही न होते हैं! मगर ना जीना, भूले से भी कोई रिश्तेदार नहीं आया। देख, रब की मर्ज़ी! ऐसे तो बीमार भी हो जाती मगर जब जाना हुआ तो चट-पट पाँच मिनट में चली गई। बात करके उठी, लेटने गई तो सो ही गई…जगी ही नहीं फिर। कामिनी चाय के लिए जगाती रह गई। और उसके जाते ही दो-दो रिश्तेदार! ओ तेरे की! हम सब तमाशा देखते रह गए। मैनेजर साहब सिर पकड़कर बैठ गए। दोनों संबंध के किस खेत में उग आए, पता नहीं। एक तो ख़ुद को शांता की बहन बता रही थी, दूसरा अपने को देवर कह रहा था। मेरे को ठीक से याद है, शांता के साथ कोई नहीं आया था। वह इकल्ली थी। उदास थी, बहुत उदास। किसी से मन की बात भी नहीं कहती थी। समय के साथ ढल गई और कुछ लोगों के साथ हिल-मिल गई तो मेरे को ज़रा संतोष हुआ। और जब वो माटी के साथ माटी हो गई तो उसकी सिक्योरिटी मनी और सामान के लिए दोनों दावेदारों ने जो गंध मचाई, क्या कहूँ! लानत है ऐसे लोगों पर जो दूसरे के धन पर नज़र रखते हैं। ये भी नहीं सोचते, एक दिन सबने जाना है। क्या सिर पर लाद ले जाएँगे? लेकिन कौन समझाए ऐसों को। हार कर मल्होत्रा साहब ने मुझे बुलावा भेजा तो मैंने समझा-बुझाकर मामला रफ़ा-दफ़ा किया। अब सबसे सीनियर हूँ तो चैरिटी के हुक्मरान भी बड़ी इज्ज़त करते हैं। वरना, मैं क्या हूँ, एक मामूली-सा बंदा! …रुक, ज़रा गला तर कर लूँ।…ये कनखियों से क्या देख रही है? पानी पीने जा रहा हूँ भई!’

वह हँसा। उठकर बैठा और हाथ बढ़ाकर बिस्तर की बगल में लगे छोटे टेबल पर रखी बोतल उठा ली। गड़क-गड़क कर, दो-तीन घूँट भरी, ढक्कन कस कर फिर उसी जगह रख दिया और खिसककर अपनी जगह पर आ गया। नज़रें फिर दीवार के उसी हिस्से में टिक गईं जहाँ ख़ूबसूरत फ्रेम में जड़ी तस्वीर मुस्कुरा रही थी। निगाह भी ऐसी कि लगता सचमुच मि. बेदी को देख रही हो और आँखों से उन पर प्यार का खज़ाना लुटा रही हो।

‘तेरी आँखें अब भी कितना बोलती हैं! पुराने दिन फ़िल्म की तरह सामने चलने लगे हैं। तूने तो भुला ही दिया, क्या कह रहा था मैं!…अरे हाँ! शांता की बात बता रहा था।…तो ऐसे-ऐसे होते हैं लोग। और अपना वो रामण, अरे वही सूरदास। कैसे-कैसे होते हैं संबंध ओह! दिल दुखता है सोचकर। बड़ा भाई मीठा-मीठा बोलकर सारी उमर कपड़े की अपनी ही दुकान में काम कराता रहा, शादी भी न करवाई और न ही जायदाद में हिस्सा दिया। जब उमर ढलने लगी तो चिकनी-चुपड़ी बोलकर यहाँ पहुँचा गया। रामण सब गम सह गया। कभी शिकन नहीं देखी चेहरे पर। गज़ब का संतोष पाया था बंदे ने। और तो और कभी भाई-भतीजे के लिए मन में मलाल न रखा। और देख, वो भी चलता-फिरता ही गया। फ़र्श पर गिरा और बस माटी छोड़, उड़ गया। कोई बीमारी नहीं, कोई कष्ट नहीं। कभी-कभी लगता है, समय भाग रहा है। भागते-भागते एकदम से हाँफता हुआ ठहर जाता है। यहाँ आपस में ही लोग लड़ने-झगड़ने लगते हैं…ज़रा-ज़रा सी बात पर मुँह फुला लेते हैं…मेरे से भी कुछ कह देते हैं…उस बखत तेरी बड़ी याद आती है। जी चाहता है तेरी गोदी में सिर रखकर बह जाने दूँ लावा। अब तू उदास न हो। तुझे न बताऊँ तो किसे बताऊँ?…आज भी कहाँ सँभल पाई है स्थिति! क्या-क्या बताऊँ, सब बता न सकूँगा!’

उसने थरथराती आवाज़ को काँपते होंठों से फूटने से रोका, हाथ के सहारे उठा और फिर एक घूँट पानी से रुँधे गले को तर किया। कुछ देर तस्वीर से नज़र हटा कर सामने की दीवार तकता रहा। मिलने-जुलने वालों के साथ लगी तस्वीरें मुस्कुरा रही थीं। दीवार से सटकर टिके टेबल पर सम्मान पदक, स्मृति चिह्न और सुंदर फ्रेम में मढ़े प्रशस्तिपत्र रखे थे।

उसने चेहरा दाहिनी दीवार की ओर घुमाया। ड्रेसिंग टेबल पर रखे सामानों के अलावा मनी प्लांट का मुस्कुराता पौधा उसे ही देख रहा था। उसके चेहरे पर मुस्कान की हल्की रेख खिंच गई। धीरे-धीरे फिर लेटता हुआ वह उसी करवट हो गया, जिस करवट पत्नी को आराम से निहार सकता था।

‘तू शोभना से तो मिली नहीं। उसे देखा तो है ही यहाँ। जब उकता जाती है, आ जाती है। बेचारी रोज़ फोन पर बेटे-बहू से कहती है, ‘मुझे यहाँ नहीं रहना, ले चलो कनाडा।’

बेवा हुए एक बरस क्या हुआ, उसके लिए दशक बीत गया। पहले पति के पीछे लगी रहती थी, अब अकेलेपन ओढ़े रहती है। कहता हूँ, कुछ पढ़ा-लिखाकर, मेरे पास इतनी अच्छी-अच्छी किताबें हैं।…मगर उसको तो काले अक्षर से ही डर लगता है। बच्चे फोन पर ही मेवे-मिठाई खिला-खिलाकर बहला रहे हैं। क्या बताऊँ! सबकी तकलीफ़ देख-देखकर हिल जाता हूँ। फिर रब को ‘थैंक्यू’ कहता हूँ। उसी ने मेरे को इत्ती ताक़त, इत्ता हौंसला दे रखा है और तुझे तो हर पल महसूसता ही हूँ…तबी इतना चंगा हूँ।

कभी-कभी लगता है पैसे से सब कुछ ख़रीदा जा सकता तो वो अग्रवाल! अरे वही, मिसेज ग्रोवर के बाजू वाले कमरे में जो धन्ना से ठहर रहा है, वही। इधर ही आया है। तीन बरस हुए। पाँच माले का मकान, करोड़ों का बिजनेस, फिर भी सुख-चैन नहीं। बेटों से आए दिन कलह होने लगा तो छोड़ आया सब। अपने हाथों खड़ा किया था, मगर बेटों का लालच! अपना दलजीत कितना अच्छा है। मेरे को उस पर गरब है। और देख तो! लुगाई ने भी साथ न दिया। सोच! जिसके घर चार-चार नौकर आगे-पीछे डोलते हैं, वह बंदा यहाँ वृद्धाश्रम में सुकून ढूँढ़ने आया है…यहाँ…यहाँ के तपते कमरे में कूलर भी आग उगलते हैं, फिर भी पड़ा रहता है; न चाहते हुए भी दूसरों के अनाज खा रहा है। पसंद-नापसंद कह नहीं सकता। हट्टा-कट्टा है, मगर भीतर ही भीतर घुलता रहता है। न मीठा खाता है, न तली-भुनी चीज़ें…कमरे में यानी चेपार्क में इकल्ला घूमता रहता है। चेहरे से चमक गायब है और कमरा भी बिखरा-बिखरा-सा। घमंडी लगता है, मगर गाता बहुत अच्छा है। समझता हूँ, क्यों अक्खड़ जैसा व्यवहार करता है। ‘ता जवानी तिनका-तिनका जोड़या और बुढ़ापे झेली धूप…।’ सुना है, एक घर पहाड़ पर भी लेगा। दोनों जगह रहेगा। पर सोच! यहाँ तो सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। क्या कड़का गुप्ता, क्या करोड़ पति अग्रवाल! सब रह जाएगा। ‘रह जाएगा ये खेला…माटी का ढेला।’ यहाँ आने के बाद भी जो न समझे तो क्या फ़ायदा!

वैसे, तुझे नहीं लगता कि इसे वृद्धाश्रम नहीं कहना चाहिए। आश्रम थोड़ी न है। ‘ओल्डएज़होम’ तो फिर भी ठीक लगता है, मगर अब तो उसका भी अर्थ बदल गया है। अब तो इसे वन बीएचके फ्लैट कहना चाहिए! जहाँ खाने-पीने की परवाह नहीं करनी। क्या नहीं? पवन को देख! अरी, पवन, वही टोपीवाला साँवला लड़का! अभी पचास का भी नहीं हुआ। पर उसका मालिक बड़ा अच्छा निकला। विदेश शेटल होने से पहले इसके रहने का अच्छा इंतज़ाम कर गया और कुछ नकद भी दे गया। चाहता तो नीचे के सस्ते अँधेरे कमरे भी दिलवा सकता था, जिन कमरों में गुप्ता, चोपड़ा और सेट्टी रहते हैं, मगर नहीं हमारे जैसा ही कमरा दिलवाया। टीवी भी दे गया। बंदा अब रहे मज़े में। शादी की नहीं तो इकल्ला मस्त रहता है। सिन्हा जी ने भी तो शादी नहीं की। वो तो तेरे सामने से हैं। वैसे, इकल्ले कैसे रहते होंगे ये लोग? किन यादों के सहारे? सिन्हा जी! इत्ते बड़े विद्वान्! शादी का ख़याल ही नहीं आया। रिटायर हुए और यहाँ आ गए। अब तो ऊँचा सुनने लगे हैं। दिखता भी कम है। किसी केयरटेकर को भी नहीं रखा है और न किसी को कमरे में बुलाते-बिठाते हैं। अपना कमरा उन्हें रास नहीं आता तो कमरे के बाहर रखे पुराने सोफे में धँसे रहते हैं…चुपचाप, खोए-खोए-से। कोई टोक दे तो ठीक, नहीं तो ऐसे ही। अभी उनके बाजूवाले कमरे में माता जी अपने बेटे के साथ आई हैं। कह रही हैं, बड़े घर में घबड़ाहट होती थी। बात समझ नहीं आई, मगर मान लिया। रश्मि के बाजूवाले कमरे में एक साधिका आई हैं। पढ़ी-लिखी हैं। अँग्रेज़ी और बांग्ला तो फर्राटेदार है। हिंदी भी अच्छा बोलती हैं। यहाँ क्यों आईं, कैसे आईं, न किसी ने पूछा और न उन्होंने बताया। उमर बहुत ज्यादा नहीं, मगर स्वामी जी के विचारों का प्रभाव उनमें दिखता है। बिटिया आती है तो वो मिलने आ जाती हैं। अपनी सिमरन को भी यहीं बुला लिया। सामने की हँसती-खेलती, चुलबुली बच्ची कैसी बेजान-सी हो गई है। एक केयरटेकर रखवा दिया है। मामा हूँ, ऐसे तो नहीं छोड़ सकता। उसे देखकर दुःख होता है। लगता ही नहीं, वही स्मार्ट बैंक अफ़सर है और अपनी वही हिली-मिली बच्ची। अरे, पैंसठ की हो गई तो क्या, मेरे लिए तो बच्ची ही है। वक्त कैसे–कैसे साँप-सीढ़ी के खेल खेलता है…सब देख चुका, अब भी देख रहा हूँ। सबकी देख रहा हूँ…सीढ़ी चढ़ना भी और फिसलना भी। पिछले तीन बरस में आधे रह गए लोग। इक्का-दुक्का ही आया इस बीच। जाने कैसे पूरा करते होंगे मैनेजर, चौकीदार, मज़दूर, रसोइया…आल-जाल सब ख़र्चा। कितने तो हैं पगार लेनेवाले!

ओ तेरे की! मैं तो बताना ही भूल गया। मिस्टर एंड मिसेज खन्ना इसी माले पर हैं। खन्ना जी दिख भी जाएँ, मिसेज खन्ना बिल्कुल नहीं दिखतीं। न किसी से मिलना-जुलना, न बात-व्यवहार। ऐसा लगता है, वे राजी-ख़ुशी नहीं आए हैं। नहीं तो मेरी तरह ख़ुश रहते। ख़ुद के फैसले दिमाग पर दबाव नहीं बनाते। देख तेरे गए तीन दशक से ऊपर हो गए, अब भी इस जगह से जुड़ा बैठा हूँ। देख रहा हूँ, लोग आ रहे हैं–जा रहे हैं। किसी ने हालात से समझौता कर लिया रामण की तरह, कोई शोभना की तरह निराश है। वो अमेरिका वाले मौर्या जी! देख! पूरी उमर अमेरिका में गुज़ार दी। उमर के नौवें दशक में जिद पर आए कि अपनी माटी में मिलूँगा। घरवालों ने कित्ता रोका, समझाया मगर न, मन में बात आ गई तो आ गई। एक-दो बार गए भी मगर फिर तो लॉकडाउन ने सबकी साँस ही डाउन कर दी है। दो बरस कहीं निकलना, किसी से मिलना-जुलना क्या बंद हुआ, ज़िंदगी का ताप ही चला गया। सब पर बुढ़ापा आ गया। वैसे तो पार्क इत्ता सुंदर है, इत्ता बड़ा। पीछे हरे-हरे घासों का बड़ा मैदान। उतना ही घूम लें तो बहुत है।…मगर जब मिलने-जुलने वाले नहीं आते तो हँसी खो जाती है। समय बोझिल हो जाता है। धूप, हवा, पानी की तरह ही हैं कुछ रिश्ते जो दिल को स्वस्थ रखते हैं।…बिटिया भी तो ऐसी ही है न अपनी। आज आई थी। उसका आना भीतर तक भर जाता है। मगर…मगर आज उसके चश्मे के पीछे से सूजी आँखें कुछ चुगली कर रही थीं। पूछा मगर उसने फिर हँसकर टाल दिया। कभी कुछ नहीं बताती। मगर, आज! आज कुछ और ही बात होगी, नहीं तो मेरे पूछने के बाद मुझसे छिटकी न रहती। गले भी मिली मगर पहले की तरह चुलबुलापन गायब था। भरी-भरी थी, मैं सिर पर हाथ रख कर सहला देता तो शायद चश्मा छिपा न पाता कुछ। जानता हूँ, किसी के आगे कमज़ोर होना उसे पसंद नहीं। ढेर सारी किताबें, पत्रिकाएँ लाई थी सबके लिए। जल्दी लौट भी गई। शाम से उसी का चेहरा उलझाए है। कलाकार है, छिपा लेती है सबसे, मगर मैं तो बाप न होकर भी बाप से बढ़कर हूँ। कैसे न परेशान होऊँ!..ओ तेरे की! कौवा बोला। आख़िरी पहर बीत रहा है। तू भी आराम कर! मैं भी…’ उसने आँखें मूँद ली। तस्वीर में से प्रेमभरी निगाह उन पर जमी रही।


Image : Profile Study Of A Bearded Old Man
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Artist : Anthony van Dyck
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आरती स्मित द्वारा भी