निठल्ले
- 1 June, 2024
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- 1 June, 2024
निठल्ले
माघ महीने की ऊधम मचाती शीतलहरी। श्मशान-सा साँय-साँय करता हुआ सन्नाटा। रात की गाढ़ी होती स्याही। समूचा गाँव घोड़े बेचकर ऊँघ रहा है। दुआर पर सुलगते हुए अलाव अब ठंढा चुके हैं। रमरतिया की माई लेवा-गूदड़ ओढ़कर रमरतिया को छाती से चिपकाए पड़ी है, पर बिटिया ठंड से कँपकँपाकर बार-बार घिघियाने लगती है। रमरतिया की माई के दाँत भी किटकिटा रहे हैं। अबकी बार का जाड़ा, लगता है, जान लेकर ही दम लेगा। खेदन काका की खाँसी रह-रहकर जोर मार रही है और वह खाँसते हैं तो बस खाँसते ही चले जाते हैं। ‘आफत है ई ससुरी कुकुर खाँसी!’ कफ का कुल्ला थूककर वह फिर साँस फूल जाने की वजह से हफर-हफर हाँफने लगते हैं। तीन-चार पिल्लों की समवेत कुनमुनाहट रह-रहकर मनहूस माहौल की चुप्पी को चीरते हुए गूँज उठती है। बाबा की बारी से एक उल्लू की डरावनी आवाज़ बरछी की नाईं मन के किसी कोने को बेधती चली जा रही है।
गिद्धूदास के डीह पर पलानी में एक ढिबरी अब भी टिमटिमा रही है। कभी पलानी में हँसी-ठहाकों का दौर चलता है तो कभी बहस-मुबाहिसों का। गाँजे की चिलम तैयार हो चुकी है। चिलम के मुँह पर आग रखकर दास जी उसे विद्यार्थी जी की ओर बढ़ा देते हैं। विद्यार्थी जी ‘बम-बम लहरी’ की गुहार लगाते हुए चिलम को यूँ थाम लेते हैं जैसे सिपाही युद्ध के मैदान में बंदूक थामता है। साफी को चिलम से लपेटकर वह होंठों से लगा लेते हैं। आग की लपटें उठने लगती हैं और नाक-मुँह से धुएँ को विचित्र अंदाज में निकालते हुए विद्यार्थी जी चिलम को व्यास जी की ओर बढ़ा देते हैं। चिलम बारी-बारी से दास जी, विद्यार्थी जी, व्यास जी और बंगाली काका के हाथों में घूमती रहती है। धुएँ के साथ ही बतकही में छूटते बातों के गुबार पछुआ बयार में घुल-मिलकर इधर-उधर छितरा रहे हैं। बातें कभी गाँव के चहुँमुखी विकास और ग्रामीण रोजगार योजना की होती हैं तो कभी देश-दुनिया के ताजा हालात की। बड़ी-बड़ी लच्छेदार बातें। महँगाई, बाज़ारभाव और चुनाव की बातें। गंभीर भारी-भरकम बातें तो मज़ेदार इन्द्रधनुषी बातें भी। नशे की खुमारी बातों का जाल बुनने में ख़ासी मदद करती है। नये-नये रोजगार के अवसर की तलाश शुरू हो जाती है। लाल-गुलाबी आँखों में भविष्य के सतरंगे सपने दीप्तिमान हो तैरने लगते हैं। भकसावन अँधियारी रात में अच्छे दिन के ऐसे लुभावने सपने, जो कभी सच नहीं होते।
पलानी के उत्तरी कोने में पुआल बिछे लेवा-गूदड़ के मखमली बिछौने पर फौजी कंबल को फटही चादर से साटकर ओढ़े हुए भिलोटन किकुरा पड़ा है। वह भिरुग बाबा का हलवाहा है। जब से ट्रैक्टर आ जाने से हल-बैल गधे के सिर पर सींग-से सिरे से गायब हो गए, भिलोटन की जिम्मेवारी और भी बढ़ गई है। मजूर की बेटी को न नइहरे सुख, न ससुरे सुख! सोचा था कि हल-हेंगा, माल-मवेशी से मुकुती पाकर राहत की साँस लेगा, मगर जीते-जिनिगी वह नसीब कहाँ! अब तो भिरुग बाबा के खेत-बधार, घर-दुआर, टियूबेल, चक्की की सारी जिम्मेवारी भिलोटन के माथे पर ही आ गई है। चलो मन, जैसे मुरदा पर एक मन माटी, वैसे सौ मन माटी! मरता क्या न करता! दिनभर जाँगर ठेठाता है वह, तब कहीं जाकर सुबहित अन्न मयस्सर हो पाता है। यहाँ आकर रात में थका-माँदा सोना चाहता है। जोरू-न-जाँता, खुदा से नाता! मगर उसकी नींद में खलल डालने के लिए बड़मुँहवा लोगों के ये बड़बोले बेटे पहले से ही हाजिर रहते हैं–दाल-भात में मूसलचंद की तरह। वह भलामानुस बस मन-ही-मन कुनमुनाता रह जाता है।
भिरुग बाबा ने भी कई बार टोककर इन नवहों को रात में अपने घर-दुआर पर रहने की हिदायत दी थी, मगर लात के देवता भला बात से मानते! कह-सुनकर बेचारे ख़ुद ही थक गए। शुरू-शुरू में तो नवहे आरजू-मिन्नत करते, ‘अपनी छत्र-छाया में रहने दीजिए, बाबा! जाएँ कहाँ तजि सरन तिहारो!’ मगर आगे चलकर तो बाकायदा अपना हक़ ही जताने लगे थे, गोया वह पलानी इन सबकी सामूहिक बपौती हो! अँगुली के सहारे पाहुँच पकड़ना इसी को तो कहते हैं!
संत सुभाव के बूढ़े बरगद सरीखे भिरुग बाबा आखिर करते भी क्या? ठीके है, नीलकंठ भोलेनाथ के भूत-बैताल की तरह पड़े रहो। हालाँकि भिरुग बाबा पुलिस महकमे की नौकरी में रहे थे, पर गाँव के मनई अचरज से भरकर बतियाते कि भिरुग बाबा जैसा साधु आदमी किस तरह सिपाही की ड्यूटी बजाता होगा। दो छोटे भाइयों की पढ़ाई-लिखाई और तीमारदारी में ही ख़ुद की शादी की उमर सरक गई। अच्छी-ख़ासी सरकारी चाकरी मिलने के बाद शादीशुदा दोनों भाई जब जोरू-जाँता को साथ लेकर अलग-अलग शहर में जा बसे, तब उन्होंने मातृ-पितृ-ऋण से ख़ुद को उऋण माना, क्योंकि मरते वक्त माँ-बाप की यही तो अंतिम इच्छा थी जिसकी पूर्ति कर भिरुग बाबा बिलकुल निफिकिर हो गए थे। लोग-न-लरिका, चलो दुअरिका! सेवानिवृत्ति के बाद जमा-पूँजी जोड़कर उन्होंने डीह के अगल-बगल के खेत खरीदे, पंपिंगसेट लगवाया, आटा-चक्की बैठाई और अकेलेपन की चिंता से मुक्त हो समूचे गाँव के हो गए। लोग-बाग कहते–‘भिरुग मड़ैया गह-गह करे, चारों कोन दरब से भरे।’
कुछ लोग मकई-बूँट-गेहूँ चक्की में दरवाने-पिसवाने के लिए मँड़राते रहते तो कुछेक अपने खेत में पानी पटवाने के लिए। वक्त काटने, बाँचने के लिए अखबार भी वहाँ सुलभ रहता। ख़ूब गलचौर होता। दिनभर तो चहल-पहल रहती ही, रात में भी नवहों की चौकड़ी जमती। भिरुग बाबा की नींद में खलल पड़ती, भिलोटन भी बार-बार शिकवा-शिकायत करता, पर वही ढाक के तीन पात! शुरुआती दौर में भिरुग बाबा मन-ही-मन सोचते–‘चलो, इनके रहने से मनसायन रहेगी, यहाँ की रखवाली तो होगी ही।’ मगर यह भ्रम शीघ्र ही टूट गया। चाम के घर में कुकुर रखवार! आँख झपकते ही कुछ-न-कुछ गायब कर देना, चुरा लेना, छिपाकर ले भागना आम बात है। भिलोटन को भी टका-सा जवाब–‘तुम्हारे बाप का क्या जाता है…क्या बक-बक किए रहते हो!’ उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे!
बार-बार करवट बदलता है भिलोटन–‘का-से-का हो गया गाँव। इहाँ की सब सुघराई, मनभावन गमक बदबू-सड़ाँध में कइसे बदल गई? सोना-रूपा वाला गाँव कब-कइसे ज़मींदोज़ हो गया। कुकुरमुत्ता मतिन फैलती-पसरती रावन की जमात कहाँ ले जाएगी गाँव को? हे दइब!’ जमुहाई लेता भिलोटन किकुरी मारकर सोने की जुगत भिड़ाता है।
उधर गाँजे का दम लगाने के बाद व्यास जी जब खैनी के लिए बेचैन हो जाते हैं तो दास जी हथेली पर सुरती को रगड़ते हुए कहते हैं, ‘यार! तुम तो हर काम में ही हड़बड़ा जाते हो और इस हड़बड़ी की वजह से ही गड़बड़ी हो जाती है। खैनी अभी बन ही रही है कि तुम उतावले हो गए। जानते नहीं, अस्सी चुटकी, नब्बे ताल, तब देखो खैनी का हाल! यह तुम लोगों की खुशनसीबी है वरना दास जी के हाथों की खैनी सबको थोड़े ही मयस्सर होती है!’
‘अच्छा-अच्छा! ज्यादा शेखी मत बघारो। निकालो ताश, दो-चार हाथ फेंटा जाय।’ बंगाली काका को हँसिया के ब्याह में खुरपी का गीत गाना बखूबी आता है।
फिर तो शुरू हो जाती है ताश की फेंटाई। ‘ट्वेंटी नाइन’ का यह खेल अब अबाध गति से तब तक चलता रहेगा, जब तक कि ढिबरी का तेल पेंदी तक पहुँचकर जवाब न दे दे। बीच-बीच में बोरसी की आग उकसा दी जाती है और गोइँठा के टुकड़े उसके अंदर बराबर सुलगते रहते हैं। भिरुग बाबा का इस पलानी में लगा हुआ पंपिंगसेट इन नवहा लोगों को राहत पहुँचाने का एकमात्र जरिया है। यहाँ न तो किसी प्रकार की रोक-टोक है और न ही समय-असमय का कोई प्रतिबंध और हरहर-पटपट। पंपिंगसेट को चलाने वाले भिरुग बाबा चूँकि चौबीस घंटे यहीं डेरा डाले रहते हैं, अतः ताले-चाभी का भी कोई झंझट मोल लेना नहीं पड़ता। जब जी में आए, गाँजे का दम लगा लो, नदिया के पार से ठर्रे के पाउच मँगाकर चिखना के साथ गटक जाओ अथवा गरमी की सँझा में भाँग का गोला निगलो। कभी-कभी रात में लिट्टी-फुटेहरी लगाकर चोखा के साथ या दिन की दोपहरी में सत्तू-अचार-चटनी पर हाथ साफ कर पिकनिक का आनंद भी ले लिया जाता है। गँवई चिल्ल-पों और बाप-महतारी की डाँट-डपट से बचकर समय काटने का और मन बहलाने का नायाब स्थल है यह पलानी। एकांत-का-एकांत और मनोरंजन का मनोरंजन।
‘देख लिया न, व्यास जी! तुम्हें और तुम्हारे पार्टनर बंगाली काका को ताश की धुन सवार हुई थी, मगर लाल पंजी का पहला सेट ले लिया न हमने? हमसे टक्कर लेने के लिए सोचना पड़ता है, समझे! जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा। विद्यार्थी और दास की जोड़ी लाजवाब! सलामत रहे दोस्ताना हमारा…!’ दास जी अपनी सफाचट मूँछों पर ताव देकर छेड़ने की गरज से कह उठते हैं।
‘अमाँ यार, यह क्यों नहीं कहते कि जहाँ मिली विद्यार्थी-दास की जोड़ी कि बना-बनाया काम भी हुआ चौपट। जहँ-जहँ पाँव पड़े दोनों के, तहँ-तहँ बँटाधार! जानते नहीं, पहली जीत मँगाए भीख! जनाब, आगे-आगे देखिए, होता है क्या!’ व्यास जी मन-ही-मन जल-भुनकर कह ही उठते हैं। फिर तो शुरू हो जाता है…जली-कटी कहने और सुनने-सुनाने का सिलसिला। चंडाल चौकड़ी अनंत और उसकी कथा अनंता…।
करवट बदल लेता है भिलोटन। उसे मन-ही-मन हँसी आती है इन निफिकिर लोगों की रोजमर्रा की दिनचर्या पर। न घर-परिवार की चिंता, न अपने भविष्य की ही फिकर। अपनी संतान के कैरियर की भी परवाह नहीं…‘जब चाह थी तब चाह थी, अब चाह नहीं है! चूल्हे में चली जाए तो परवाह नहीं है’ और ‘होइहें सोइ जो राम रचि राखा’… जैसा भाग्यवादी नज़रिया। लाजवाब है यह गाँव के पढ़ुआ लोगों की चौकड़ी…विद्यार्थी जी, दास जी, व्यास जी, बंगाली। चारों अपने मूल नामों से नहीं, बल्कि इन ख़ास नामों से ही जाने जाते हैं। चारों की आयु सीमा पच्चीस से चालीस साल के आसपास है। चारों ही बाल-बच्चेदार, मगर फिर भी अपने-अपने परिवार के गैर जिम्मेदार युवक।
विद्यार्थी जी को बचपन से ही पढ़ाई से बेहद लगाव था। उनके बाबू जी ने उन्हें ऊँची शिक्षा दिलाने के लिए शहर में बुला लिया था। उन दिनों वह पटना में स्टेट बैंक के लोकल हेड ऑफिस में बड़े साहब के यहाँ जमादार थे और जमादार का वह चतुर्थ वर्गीय पद गाँव में एक रौब-दाब व प्रतिष्ठा का पद माना जाता है। हाँ, तो विद्यार्थी जी बाबू जी के साथ शहर में गए ऊँची शिक्षा लेने, पर उन्हें शहर की हवा लग गई। धूम्रपान-सुरापान का नशा और नेतागिरी उनके व्यक्तित्व के साथ घुल-मिल गए। बाबू जी को भी उनके स्वभाव में बदलाव की भनक मिली और उन्होंने बड़े साहब से बात कर बैंक में ही चपरासी के पद पर उनकी नियुक्ति के लिए सिफारिश की। संयोग की बात कि बड़े साहब ने उनकी सिफारिश को मंजूरी दे दी और विद्यार्थी जी को बुला लाने के लिए कहा।
मगर विद्यार्थी जी अड़ गए तो अड़ गए, ‘हुँह! मैं पढ़-लिखकर चपरासी की नौकरी करूँगा? मुझे तो ग्रेजुएशन पूरा करके आईएएस की तैयारी करनी है।’
फिर तो बाबू जी के पास कोई जवाब नहीं था इस बात का। मगर उन्होंने यह मौका हाथ से जाने नहीं दिया। छोटे बेटे श्रीनिवास को गाँव से बुलाकर उन्होंने उस पद पर उसकी बहाली करा दी।
उन्हीं दिनों आपातकाल की घोषणा हुई थी और विद्यार्थी जी जयप्रकाश जी के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में कूद पड़े थे। गाँव जाने पर भी बात-बेबात वह एक ही नारा उछाल दिया करते थे–‘संपूर्ण क्रांति एक नारा है, भावी इतिहास हमारा है।’ कुछ दिनों तक विद्यार्थी जी को भी जेल की हवा खानी पड़ी थी।
आपातकाल के बाद उनका मन पढ़ाई से बिलकुल ही उचट गया। तभी बाबू जी सेवानिवृत्त होकर गाँव बैठ गए और विद्यार्थी जी का शहर में बना-बनाया माहौल तितर-बितर हो गया। काफी दिनों तक उन्होंने नौकरी के लिए हाथ-पाँव मारे, पर निराशा ही हाथ लगी। अब तो गाँव में आकर रहने के अलावा दूसरा कोई चारा ही न था। कुछ दिनों तक धनबाद में रहकर उन्होंने व्यवसाय करने की योजना बनाई थी। बाबू जी ने जोड़-जोड़कर सँजोई हुई खून-पसीने की पूँजी उन्हें थमा दी थी, मगर वहाँ से भी कोयले की दलाली में हाथ काला करके तथा घर का आटा भी गीला करके वह अंततः हाथ मलते हुए गाँव लौट आए थे।
अब जब उनका छोटा भाई श्रीनिवास गाहे-बगाहे अपनी कमाई का रौब झाड़ता है और विद्यार्थी जी की बुद्धि को कोसता है, तब उन्हें बेहद पश्चाताप होता है कि काश, बैंक की उस चपरासीगिरी को वह सहर्ष स्वीकार कर लिए होते! तब तो यह स्थिति हरगिज़ नहीं आती। मगर अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत! गाँव में खेती-बारी का मेहनत-मशक्कत वाला काम तो उनसे होता नहीं, नतीजतन घर के लोगों की जली-कटी बातें सुनकर भी अनसुनी कर देना और परिवार वालों के सामने पड़ने से कतराना उनकी नियति बन गई है। बस, दिन-रात का अधिकाधिक समय वह गिद्धूदास की डीहवाली भिरुग बाबा की पलानी में नशेबाजी तथा गप्पें हाँकने में ही व्यतीत कर देते हैं। सारी जवाबदेही और जिम्मेदारियों से कतराने की सदा एक ही दलील–‘दास मलूका कह गए, सबके दाता राम!’ एकदम नियतिवादी दृष्टिकोण। दैव-दैव आलसी पुकारे!
दास जी भी बेरोजगारी की चक्की में पिस रहे हैं–गेहूँ के साथ पिसती हुई घुन की तरह। उन्होंने एम.ए. तक की शिक्षा ली है। गाँव के मिडिल स्कूल से उन्होंने मिडिल की परीक्षा में जिले में अव्वल दर्जा हासिल किया था। घरवालों का दिल बाग-बाग हो उठा था और उनका नाम बलिया शहर के राजकीय इंटरमीडिएट कॉलेज में लिखवा दिया गया था। दास जी रोज ही ट्रेन से बलिया जाते और फिर शाम को गाँव लौट आते। शहर के फैशन और सिनेमा में उनका मन आहिस्ता-आहिस्ता रमने लगा था। हाईस्कूल में तो उन्हें किसी तरह द्वितीय श्रेणी मिल गई थी, पर आगे एम.ए. तक उन्हें तीसरा दर्जा ही नसीब हो पाया था। पिता जी उन्हें डाॅक्टर बनाना चाहते थे, मगर इंटरमीडिएट में जब उन्हें तृतीय श्रेणी हासिल हुई तो परिवारजनों का दिल बैठ गया। मगर फिर भी वह आगे पढ़ने की जिद पर अड़े रहे। बी.एससी. में प्रवेश नहीं हो पाने की वजह से उन्हें विज्ञान छोड़कर आर्ट्स फैकल्टी में आना पड़ा। किसी तरह उन्होंने एम.ए. की डिग्री हथिया तो ली, पर इस पढ़ाई में घर के दो बीघे खेत पहले बंधक रखे गए, फिर बेचने पड़े। नौकरी के लिए उन्होंने हर जगह अर्जी भेजी थी, मगर कहीं से भी कोई ख़बर नहीं आई कि आख़िर क्या हुआ उनकी उन अर्जियों का। अब उन्होंने इस बात को कबूल कर लिया है कि नौकरी उनके नसीब में है ही नहीं, फिर मिलेगी कहाँ से! पहले धर्म, शास्त्र, पूजा-पाठ को अंधविश्वास और आडंबर मानते थे, मगर अब तो सुबह-शाम मठिया में जाकर घंटों पूजा-पाठ में तल्लीन रहते हैं। पिछले परधानी के चुनाव में उन्होंने एक उम्मीदवार के रूप में एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया था, पर वहाँ भी असफलता ही हाथ लगी थी। हाँ, नशेड़ी और शराबी के रूप में उन्होंने गाँव के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ने में जरूर सफलता हासिल की है। परधानी में अपने विजेता प्रतिद्वंद्वी को उन्होंने देसी ठर्रे के दरिया में इस कदर डुबो रखा था कि पाँच-छह साल तक चंडाल चौकड़ी की ख़ूब चाँदी कटती रही। झाँग से उसने दौलत बटोरी, ख़ूब जय-जयकार होती रही, मगर जब परधानी मुट्ठी की रेत-सी फिसली तो चौबीसों घंटे की नशाखोरी में तमाम ज़मीन-जायदाद के साथ वह भी ऊपर चला गया।
बंगाली काका और व्यास जी भी गाँव के बेरोजगार स्नातक हैं। व्यास जी तो गाँव की गवनई में व्यास की भूमिका अदा करते हैं और फिल्मी गीतों की पैरोडी कर रामायण गाते हैं। फलतः उन्हें व्यास जी के नाम से ही लोकप्रियता हासिल हुई है। बंगाली काका बँगलादेश के शरणार्थियों जैसी ही फटीचर वेशभूषा में रहने के कारण इस नाम से विख्यात हो गए। एक दफा नौकरी की तलाश में भूलते-भटकते कोलकाता गए थे और जब उन्होंने वहाँ एक रोमांटिक फिल्म देखी तो पिक्चर से छूटने के बाद एक बंगाली छोकरी के साथ वैसी ही भूमिका अदा करने पर उतर आए। नतीजतन, लड़की ने उन्हें अच्छी सीख दी थी और गाँव वापिस लौटने से पूर्व ही वह सबकी चर्चा का विषय बन चुके थे।
भिलोटन की आँखों में गाँव के पढ़ुआ लोगों की कई चर्चित चौकड़ियाँ और उनके अड्डे नाच रहे हैं। बाप-महतारी ने उनसे बोलना-चालना तक छोड़ दिया है। क्या फायदा नाहक थुक्का-फजीहत से। पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के पूर्व ही सबकी शादियाँ हो चुकी हैं और इसकी एकमात्र वजह यह है कि लड़के को पढ़ता-लिखता देख तिलकहरू भी लड़के के भविष्य के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं और ऐसे में तिलक-दहेज की दमदार रकम ऐंठने में आसानी होती है। मगर शादी के बंधन में बँधकर पत्नियाँ जब ससुराल आती हैं तो घर की होती हैं, न ही घाट की और तब अपने नसीब पर रोने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं रह जाता।
भिलोटन को इन पढ़ुआ सूटेड-बूटेड निठल्ले युवकों को देखकर तरस आता है। इनसे खेती-बारी के जीतोड़ कामों को कौन कहे, घर-गिरहस्ती का मामूली काम भी नहीं होता। माँ-बाप, मेहरारू से जुबान लड़ाना, रुपये, अनाज, गहना-गुरिया पर हाथ साफ कर शराब-गाँजे में झोंकना और नाच-नौटंकी या फिल्म देखने निकल पड़ना व्यास जी की दिनचर्या है। विद्यार्थी जी गाँव के डाकखाने के खिलाफ़, परधान-बीडीओ-सीओ के खिलाफ़, सरकारी स्कूली मास्टरों के खिलाफ़, आँगनबाड़ी केंद्रों के खिलाफ़ और राशन-किरासन दुकानदार के खिलाफ़ दरख्वास्त लिखकर आए दिन संबंधित व्यक्तियों को डराने-धमकाने और घूस में कुछ ऐंठने का धंधा करते रहते हैं। दास जी हर चुनाव में स्वयं को गाँव का अगुवा घोषित कर राजनीतिक पार्टियों से रुपयों की वसूली करते हैं और उन्हें जुआ-शराब में उड़ाकर फिर अगले दाता का इंतज़ार करने लगते हैं। बंगाली काका की उगाही का धंधा है–कोई-न-कोई तिकड़म भिड़ाकर सीधे-सादे गँवारों को उकसाना और उनके प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ़ मुकदमा दायर कराकर मनमानी रकम गवाही वगैरह के मद में ऐंठना। थाने की दलाली में तो सभी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करते हैं।
भिलोटन को याद हो आता है अपना बचपन। वह स्कूल जाने और पढ़ने की खातिर साथी-संघतियों को देखकर रिसियाने लगा था, मगर बाबू बार-बार गरियाते कि पढ़-लिखकर जज-कलक्टर थोड़े ही बनना है उसे! तभी महंथ बाबा ने समझाया था कि गाँव का पढ़ुआ नौकरी लगते ही जोरू-जाँता को लेकर उड़न-छू हो जाता है और माई-बाप की खोज-ख़बर भी नहीं लेता। माई-बाप बस अपने करम पर बेसहारा हो लोर चुआते रहते हैं। इससे तो बेहतर होगा कि बचवा को अनपढ़ रखो, गाँव में रहकर बाप-महतारी की सेवा-टहल तो करेगा…! और भिलोटन को स्कूल भेजने के बजाय मजूरी करने की गरज से खेत में भिड़ा दिया गया था। मगर आज वह सोचता है कि पढ़ाई-लिखाई के बगैर जिनिगी का कोई मायने-मतलब नहीं रह जाता और भला-चंगा मनई दिमागी तौर पर अपाहिज हो जाता है।
भिलोटन की आँखों की नींद काफूर हो जाती है। उसके मन-मस्तिष्क में एक-एक कर फन काढ़े सवालों के साँप रेंगने लगते हैं…क्या शिक्षा पढ़ुआ को पलायनवादी बना देती है? पढ़े-लिखे युवकों की यह दिशाहीन और कामचोर पीढ़ी नशे में अपने-आपको डुबोये हुए कब तक भटकती रहेगी? पढ़ाई-लिखाई कहीं असभ्य और गैरजिम्मेदार तो नहीं बनाती?
भिलोटन ने कई दफा महसूस किया है कि वे पढ़ुआ लोग उस जैसे अनपढ़ गँवार से बात करना अपनी तौहीन समझते हैं। ढिबरी की टिमटिमाती लौ में वह आँखें मींजकर अपनी हथेलियों को देखता है। हाथ में कई जगह ठेले पड़ गए हैं, क्योंकि वह कुदाल चलाता है, खेत जोतता है, सोहनी-कटनी करता है, जाँगर ठेठाकर मेहनत-मजूरी करता है। लरिकाईं से ही माई-बाप की सेवा-टहल और काम-धाम में उसने तनिक भी कोताही नहीं की और नशे में खैनी-बीड़ी तक ही ख़ुद को सीमित रखा।
इधर नवहों के घरवालों ने भिरुग बाबा को ही कोसना शुरू कर दिया है। गऊ सरीखे भिरुग बाबा की कितनी बदनामी होती है। उनकी मड़ई शराब-जुए के अड्डे के रूप में पूरे गाँव में प्रचारित हो चुकी है। गाँव वाले भी भिरुग बाबा के गले ही पढ़ुआ नवहों को बिगाड़ने का दोष मढ़ने लगे हैं। भिरुग बाबा जैसे संत मनई का ऐसा अपमान? बाबा ने नवहों को वहाँ आने से साफ मना कर दिया था–एक नहीं, सैकड़ों बार। बेजा हरकतों से बाज आने को भी चेताया था, मगर वे तो ऐसे चल देते थे जैसे कुत्ता भौंकता रहे और हाथी झूमता हुआ चला जाय।
भिलोटन ने एकांत पाकर बाबा से कहा था, ‘बाबा! सिधवा का मुँह कुकुर चाटता है। थोड़ा कड़ियल रोखी अपनाइए आ थाना में रपट लिखवा दीजिए। सोझ अँगुरी से घीव ना निकली।’
लाख कहा-सुनी के बावजूद जब स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रही तो भिरुग बाबा ने सचमुच हफ्तों पहले रेवती थाने में शिकायत दर्ज करा दी थी। मरता क्या न करता! मगर एक भी सिपाही झाँकने तक नहीं आया। ससुरे चोर-चोर मौसेरे भाई! सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जो ठहरे!
जब दास, व्यास, विद्यार्थी, बंगाली दारू के पाउच को लड़ाकर ‘चीयर्स’ की समवेत आवाज़ निकालते हैं तो भिलोटन करवट बदल कर आँखें मूँद लेता है। अब उसे वाकई नींद आ रही है। तनिक देर में ही उसकी नाक बजने लगती है।
तभी धाँय-धाँय की तेज आवाज़ गूँजती है और हड़बड़ाकर उठ बैठता है भिलोटन। अचानक सनाका खा जाता है वह।
‘हाथ-गोड़ तोड़कर भुरकुस कर दो। बुढ़वा ससुरा थाने में शिकायत करता है…मादर…’ हो-हल्ला करते हुए विद्यार्थी, दास, व्यास और बंगाली काका सफेद जटा-जूट वाले निरभेद सोए भिरुग बाबा पर पिल पड़ते हैं और उन्हें लाठी-डंडे से पीट-पीटकर लहूलुहान कर देते हैं। नाक-मुँह से खून बहने लगता है।
एकाएक भिलोटन की आँखों में खून उत्तर आता है और वह कंबल को झरहेट कर एक ही छलाँग में लपकते हुए चारों को धर दबोचता है। उसकी फौलादी भुजाओं की जकड़न लगातार बढ़ती ही जा रही है। ऐसा लग रहा है जैसे उसने बुढ़वा पीपल की आबरू रख ली हो और गाँव में सड़ाँध-गलीज फैलाने वाले गँवई शहरियों की शिनाख्त कर ली हो। तभी पीछे से भिलोटन के सिर पर लाठी से जोरदार प्रहार होता है और वह चक्कर खाकर कटे वृक्ष-सा भिरुग बाबा की देह पर ही धड़ाम-से जा गिरता है। माथे से लहू की धार फूट पड़ती है। ऐसा लगता है जैसे भिलोटन भिरुग बाबा से गले मिल रहा हो।
दारू के पाउच से दोनों को नहलाते हुए दरिंदों के अट्टहास गूँज रहे हैं। अगले पल दनदनाते हुए सभी नौ दो ग्यारह!
ढिबरी भुकभुका रही है। अँधियारी रात के निस्तब्ध सन्नाटे में समूचा गाँव घोड़े बेचकर सो रहा है। बस, रह-रहकर आ रही है उल्लू की मनहूस आवाज़, रमरतिया की रुलाई, खेदन काका की खाँसी और पलानी में पड़ी कुतिया का हृदयविदारक रुदन-विलाप।