प्रतिध्रुव
- 1 October, 2016
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- 1 October, 2016
प्रतिध्रुव
{बीते दिनों दिल्ली में हिमांशु जोशी से उनके निवास पर हुई मुलाकात में यह जानकर चकित रह गया कि उन्हें अपनी ऐसी 25-30 गुमशुदा कहानियाँ मिली हैं, जो अब तक उनके किसी संकलन में शामिल नहीं की जा सकी हैं। अपने समय में ये कहानियाँ विभिन्न अखबारों में छपी थीं और वहीं दब कर रह गई। उनमें 1967 में लिखी एक ऐसी भी कहानी है, जो तब चार लेखकों ने मिलकर लिखीं थीं, जो उस समय की चर्चित पत्रिका ‘कल्पना’ में छपी थी। ‘प्रतिध्रुव’ नाम की इस कहानी को ‘नई धारा’ के पाठकों के लिए पुनः प्रस्तुत कर रहे हैं। –संपादक}
प्रभाकर माचवे–
आज उस सड़क से गुजर रहा था तो ईंट बिखरी दिखाई दी। मन ही तो है। न जाने क्या-क्या सोचने लगता हूँ। पर इस सबके बावजूद, कोई दार्शनिक भाव जागा हो, मुझे याद नहीं।
हाँ, एक बंगाली लड़की की आवाज अवश्य याद आ गई है। दरवाजे पर हलकी थाप। फिर जरा जोर से, घबरायी थपकी–फिर बार-बार–
दरवाजा खोल कर देखता हूँ–न किशोरी, न तरुणी–नाक-नक्श साफ–कोई खास सुंदरी नहीं–साँवली-सी बड़ी-बड़ी आँखों वाली–जल्दी से कह रही है–अभि जाबो! आमि-जा-बो।
हाँ, जाबो जाबो…अभि…अभि…! आमि आम जावो! वह क्षण भर भी मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा नहीं करती। निस्संकोच भीतर आ जाती है। सबेरे-सबेरे बजने वाले वीतरागी भक्तिगान का गला घोंट कर, पत्नी घबरायी हुई उठ खड़ी होती है। शायद उसकी भी समझ में मेरी तरह कुछ नहीं आ पाता।
अनामा कुछ कहती है, जिसका आशय है–वह मेरे बित्ते भर के कमरे में मुझसे कुछ व्यक्तिगत बातें कहने के लिए एकांत चाहती है। उस अबोध देहाती लड़की को क्या पता कि एकांत बड़े शहरों में कहीं नहीं हुआ करता है।
मैं अपने बिना पहिये के डिब्बानुमा कमरे की ओर देखता हूँ, जहाँ बक्स के ऊपर छोटी चारपाई, छोटी चारपाई के ऊपर बड़ी चारपाई सोयी हुई है और उसके ऊपर पलंग। बक्सा, बक्से के ऊपर बक्सा और एक और बक्सा…छोटी-छोटी वस्तुओं को कई कुतुबमीनारें और उनके साये में खोये हुए–हम दो अँगुल भर के बौने प्राणी…पालतू चूहों की तरह…
मुझे लगता है, किसी दिन बिजली खराब हो गई तो हम दोनों इस संग्रहालय में अपने को ढूँढ़ नहीं पाएँगे। चिल्लाने पर भी आवाज चारों ओर के कोलाहल-जल में कंकड़ी की तरह डूब जाएगी। सुबह सूरज उगने तक दोनों पति-पत्नी इस पिंजड़े के भीतर, सिर टकराते हुए, अलग-अलग भटकते रहेंगे…
किसी ने एक दिन मुझसे कहा था–यदि तुम इस कोलाहल-जल में डूब जाओ तो तुम्हें सवा दो सौ रुपये महीना दूँगा। मैं पिछले दस साल में समाधि लगाये डूबा हूँ। जानता हूँ, किसी दिन इंच भर भी ऊपर उठा तो पैसे नहीं मिलेंगे और पैसे नहीं मिलेंगे तो मैं जी नहीं सकूँगा और जी नहीं सकूँगा तो मर जाऊँगा। मरने पर स्वर्ग में परमात्मा मुझसे पूछेंगे–तुमने वहाँ क्या-क्या देखा? तो मैं क्या कहूँगा? इसी ‘क्या कहूँगा’ के भय से मैं मौनव्रत धारण किए बैठा हूँ। इसी उम्मीद में कि मैं किसी दिन अवश्य ‘कुछ’ देखूँगा।
अभी तक मैंने आदमियों के जंगलों, काले अजगरों-सी पसरी सड़कों के ऊपर उठते मकानों और गर्भवती बसों के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं देखा है…और अनामा।
हाँ, अनामा मुझसे कुछ कहना चाहती है। इसीलिए बार-बार इधर-उधर देखती है–छतों पर, दीवारों और दरवाजों पर अंगूर के गुच्छों की तरह लटकी आँखें ही आँखें दिखाई देती हैं उसे।
उन आँखों से घबरा कर वह अपनी आँखें बंद कर लेती है। बाहर निकल जाती है। मुझे भी निकल आने को विवश कर देती है।
बाहर कदम रखते ही दिखाई देता है–हमारा नया पड़ोसी सरदार बन्तासिंह, मात्र लुंगी पहने–अपने अखबार वाले को ललकारता हुआ पैसों का बिल गालियों से चुका रहा है। अखबार वाले के हाथ में पत्थर से दबी चिड़िया की तरह, कागज का छोटा-सा टुकड़ा फड़फड़ा रहा है। कुछ और पड़ोसी इकट्ठे होकर उसे बुरा-भला कह कर अपना धर्म निभा रहे हैं। और अखबार वाले की हालत वियतनाम की जैसी हो रही है।
उसकी यह हालत कब तक रहेगी? मैं निश्चय नहीं कर पाता हूँ। हताश होकर सीढ़ियों वाले गलियारे की ओर बढ़ता हूँ, मेरा पाँव हलवे की तरह परोसी गई किसी गिजगिजी चीज पर रपट पड़ता है। मैं घृणा से मुँह बिचका कर देखता हूँ, छह सौ चालीस वाले की करामात होगी यह। हजार बार कह चुका हूँ–कुत्ते को बाँध कर रख, पर कंजर रखे तब न!
मन में उपजा आक्रोश घूँट-घूँट स्वयं पी जाता हूँ। सने हुए नंगे पाँव को इधर-उधर फर्श की छाती पर बुरी तरह रगड़ता हूँ और भागता हूँ स्नानघर में चला जाता हूँ।
नल की धार के नीचे पाँव रखा ही है कि अनामा भी भीतर आ घुसी है और भीतर घुसते ही अपने कुंडा चढ़ा दिया है। मेरे बहुत पास आ कर कह रही है–उसने सचमुच आज, फिर मेरे साथ, अभी-अभी, सबके सामने…बस, अब और नहीं…
अपने तार-तार कपड़ों को उघाड़ कर वह सामने रख देती है–यह देखो!
मैं क्षण भर विस्मित-सा खड़ा रहता हूँ। मेरे पाँवों पर क्या लगा है, भूल जाता हूँ। कहाँ खड़ा हूँ, भूल जाता हूँ। कुंडी भीतर से लगी है–पत्नी बाहर खड़ी है–इस बात का भी अहसास मुझे नहीं रहता…
हिमांशु जोशी–
नल की धार बहती ही रही है और मेरे पैर पर लगी गिजगिजी चीज घुल-घुल कर स्नान घर में भर गई है–तेज बदबू के साथ। और मैं अनामा के धक्के से उस गिजगिजेपन में गिर पड़ा हूँ। कुछ भी समझ नहीं पाया है। बस उसे धक्के देते देखा है और बाहर की रोशनी को एकाएक स्नानघर में घुसते पाया हूँ और पाया है कि मैं दुर्गंध में सना हुआ पड़ा हूँ और अनामा बाहर सड़क पर भागती चली जा रही है। उसके कपड़े…तार-तार कपड़े…
पत्नी हिकारत भरी आँखों से देख रही है–दरवाजे की चौखट पकड़े। सोचता हूँ, सहायता के लिए आएगी–मुझे इस गंदगी से उठाने–पर वह लौट जाती है–कुछ-आहत।
मैं उसकी परवाह नहीं करता, उठ कर तेज कदमों से अनामा के पीछे दौड़ जाता हूँ। अनामा के पीछे मैं धरती के छोर तक दौड़ा जा सकता हूँ लेकिन अनामा चौराहे की भीड़ में खो गई है…।
पुलिस ने अनामा के बदले घोषाल को पकड़ लिया है। पुलिस इलजाम लगाती है कि आत्महत्या करने घोषाल ही जा रहा था–उसी के बाल बिखरे हुए थे–वही पागलों की तरह चिल्ला रहा था…पुलिस रोज एक अपराधी को पकड़ती है। घोषाल को पकड़ कर उसे अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। और अब घोषाल के स्वीकार करने या न करने से क्या अंतर पड़ता है? अपराध के स्वीकार-अस्वीकार से अपराधी का सरोकार नहीं होता। जो स्वीकार करता है और जो स्वीकार कराता है, उन दोनों को आराम से देखता हुआ वह मुस्कुराता होता है, कहीं किसी खुली जगह में बैठा हुआ…
अनामा चौराहे की भीड़ में खो गई है और पुलिस ने घोषाल को पकड़ लिया है। वे उससे पूछ रहे हैं कि अनामा उसकी कौन थी और वह उसके साथ बदसलूकी क्यों करता था? लेकिन घोषाल पहले प्रश्न का उत्तर भी नहीं दे पा रहा है–बस बोलता जा रहा है–चीख-चीख कर–माँ, पत्नी, बहन, अध्यापिका, नर्स, प्रेमिका और वेश्या में कोई अंतर नहीं होता है!
घोषाल पागल हो गया है।
उस दिन पड़ोसी बन्तासिंह सामने खड़ा अपनी हथेली पर खाद और पानी छिड़क रहा था। कहता था–मैं हथेली पर भी बाल उगाऊँगा। कर ले मेरा, जिसे जो करना हो…बन्तासिंह दहाड़ कर हँसता है। वह भी पागल है। जरा-सी बात पर आदमियों को खाने के लिए दौड़ता है और उसके सामने सब आदमियों की हालत वियतनाम जैसी हो जाती है। लोग उसे कहते हैं–गुंडा, राक्षस! वह लोगों से कहता है–मुझे कच्चा माँस बहुत पसंद है। माँस में भी आदमी का माँस सबसे अच्छा होता है…कम से कम एक आदमी को तो मैं रोज खा ही सकता हूँ। पानी में डूबोने पर आदमी मछली बन जाता है। उसकी हड्डियाँ काँटों में बदल जाती है।
मैं जानता हूँ, बन्तासिंह ने बहुतों से कहा है–तुम इस कोलाहल-जल में डूब जाओ तो तुम्हें सवा दो सौ रुपया दूँगा। और लोग बन्तासिंह के लिए जल में डूब कर मछली बन गए हैं–जानता हूँ। मेरी ही तरह और बन्तासिंह जानता है, मेरे जैसे लोग ‘कुछ देखने’ की उम्मीद में जल-समाधि लिए बैठे रहेंगे।
बन्तासिंह चाहे तो एक वाक्य कह कर घोषाल को पुलिस से छुड़ा सकता है कि आत्महत्या करने घोषाल नहीं जा रहा था–अनामा ही गई है।
अनामा कहाँ चली गई है? अपने गिजगिजेपन से त्रस्त मैं पुलिस और बन्तासिंह और अभी-अभी जुट आई भीड़ से आँखें चुरा रहा हूँ। इस भीड़ में मेरी पत्नी भी है। भीड़ है पर उसका शोर थम गया है–उस पर आरोपित है अनामा की आवाज–आमि जाबो! आमि जाबो!
और मेरे गले में एक प्रश्न-शब्द घुट रहा है–कोथाय? कोथाय?–लगता है, मैं गूँगा हो गया हूँ। अब बोल नहीं पाऊँगा कभी। सिर्फ सोचूँगा–सोचता रहूँगा कि अनामा सावित्री थी। बात बस इतनी सी थी कि यमराज की नीयत खराब हो गई थी। वह सत्यवान के बदले सावित्री को उठा लाया था और उसने सावित्री को नर्क में शरणार्थी बना कर छोड़ दिया था–नर्क में पड़े घोषाल के पास।
पूर्वी बंगाल से पश्चिमी बंगाल तक आते-आते धरती नर्क हो गई थी क्या अनामा के लिए? मैं अपने आप से जिरह कर रहा हूँ। घोषाल के आसपास घिरी भीड़ बोल रही है–घोषाल दयालु है। सावित्री की देखरेख करता है। सावित्री जब-तब सीढ़ी बन जाती है, उसे नर्क से स्वर्ग पहुँचाने की। घोषाल उस पर पाँव रखता हुआ ऊपर ही ऊपर चढ़ता गया है। लोग कहते हैं–वह बहुत ऊपर चला गया है और सावित्री की बहुत कम जरूरत उसे रह गई है। इसीलिए स्वर्ग की मुँडेर पर बैठा वह अपने पागलपन के हाथों उस सीढ़ी को झकझोर देता है। वह सीढ़ी को तोड़ डालना चाहता है कि कहीं इसी के सहारे उसे नीचे न उतरना पड़े।
वहाँ, जहाँ मैं खड़ा हूँ? मुझे लगता है, अनामा चौराहे की भीड़ में खोयी नहीं है, मेरे बहुत पास आ कर कह रही है–उसने सचमुच आज, फिर मेरे साथ, अभी-अभी सबके सामने…और मुझे धक्का दे कर वह भाग गई है। चौराहे तक दौड़ती चली गई है, पागलों की तरह, बाल बिखेरे…और मेरी पत्नी, बन्तासिंह, घोषाल, सुंदरम् और सुंदरम् के असंख्य बच्चे उसके पीछे-पीछे चल दिए हैं।
रमेश उपाध्याय–
पत्नी मुझे झकझोर रही है–अंदर चलो। सुनते ही, अब चलो यहाँ से नहीं तो वे तुम्हें भी पकड़ेंगे।
निश्चय नहीं कर पाता हूँ कि मुझे दाहिने मुड़ना है या बायें, ऊपर जाना है या नीचे, आगे चलना है या पीछे…। पत्नी पर खूब गुस्सा आता है–सचमुच आज इसके साथ अभी यहीं, सबके सामने…।
इसी के लिए मैं जल-समाधि लिए बैठा हूँ और यह मेरे लिए कभी सीढ़ी नहीं बन सकती। बनेगी तो सिर्फ फिसलन, जहाँ मैं अँधेरे स्नानघर की गंदगी में स्वयं को गिरा हुआ पाऊँगा और बाहर की रोशनी अचानक मुझ पर खुल जाएगी। आमि जाबो…।
–कोथाय?
कोई उत्तर नहीं।
आज जो इस सड़क से गुजरते हुए मुझे ईंट-ईंट बिखरी दिखाई देती है, यह किसी बात का उत्तर नहीं है। यह भी नहीं कि मैं इसके लिए उत्तरदायी हूँ। मैं तो यों ही फँस गया था।
सुबोध ठीक कहता है–मैं बेकार ही फँस जाता हूँ हर जगह।
लेकिन मैंने सारी गुत्थियाँ सुलझा कर स्वयं को मुक्त करना सीख लिया है। ठीक इसी जगह बन्तासिंह ने मुझे उठा कर पटक दिया था और इसी जगह घोषाल मेरी छाती पर चढ़ बैठा था और इसी जगह से पुलिस मुझे पकड़ ले गई थी और कई महीनों तक मुझसे पूछती रही थी कि अनामा और मेरी पत्नी में क्या अंतर है।
उन दिनों और इन दिनों में यही तो अंतर है–अब कोई भी मुझसे कुछ नहीं पूछता है। परमात्मा भी अब मुझसे नहीं पूछेंगे कि मैंने यहाँ क्या-क्या देखा है। मैं सारी उम्मीदें छोड़ कर जल-समाधि से ऊपर उठ आया हूँ और अब मुझे सवा दो सौ रुपये नहीं मिलते हैं। चौरंगी से एस्प्लेनेड और एस्प्लेनेड से लेक्स और लेक्स से अलीपुर पार्क प्लेस तक आता-जाता हुआ, मैं अपनी खोयी हुई पत्नी को ढूँढ़ता रहता हूँ और अनामा से बदला लेने के लिए उसके तार-तार कपड़ों को और ज्यादा फाड़ देना चाहता हूँ ताकि सारी शरणार्थी अनामाएँ नंगी ही चौराहे तक भागती चली जाएँ और जब वे चौराहे की भीड़ में खो जाएँ तो मैं भी भीड़ के पास शरणार्थी बन कर पहुँच जाऊँ।
–पूर्वी पाकिस्तान से आए हो? कोई मुझसे पूछता है।
–नहीं।
–तो बिहार से? सुना है, वहाँ बड़ी भुखमरी फैली हुई है?
–मैं बिहार से नहीं आया हूँ।
–तब क्या अमरीका से? गेहूँ के जहाज से लद कर?
–मैं पूछने वाले के गाल पर चाँटा मारना चाहता हूँ लेकिन पाता हूँ कि पूछने वाला बन्तासिंह है। उसकी हथेलियों पर लंबे-लंबे बाल उग आए हैं, जिन्हें वह हमेशा काटता रहता है। रस्सी बना रहा है–घोषाल के स्वर्ग में कमंद फेंकने के लिए। लेकिन हथेली के बालों की रस्सी के छोर सुंदरम् के असंख्य बच्चों ने पकड़ रखे हैं और वे ऊपर चढ़ने के लिए कसमसा रहे हैं। पत्नी न जाने कहाँ चली गई है।
सुंदरम् का दर्शन भी विचित्र है। रोज सुबह उठ कर तस्करी की हुई घड़ियाँ, कैमरे और ट्रांजिस्टर बेच आएगा और लौट कर पत्नी को पीटेगा, बच्चों को बढ़िया कपड़े पहनाएगा और शीशेदार अल्मारी में रखा बढ़िया भोजन दिखाएगा, फिर बच्चों के कपड़े उतार कर दूसरी शीशेदार अल्मारी में बंद कर देगा और जिन्हें अच्छे खाने और अच्छे कपड़ों के लिए तरसा-तरसा कर बताएगा तस्करी की घड़ियाँ कितना ठीक समय देती हैं, कैमरे कितनी साफ तस्वीरें खींचते हैं, और ट्रांजिस्टर कितनी अच्छी आवाज में बजते हैं…।
–अनामा की मौत की खबर रेडियो ने प्रसारित की थी?
–नहीं।
–अखबार में छपी थी?
–अखबार? वह क्या होता है?
हर कदम पर घिस-घिस कर पुराने पड़ चुके लोग मिल जाते हैं और सवाल पूछने लगते हैं। मैं अनामा पर एक कहानी लिखना चाहता हूँ–एक फिल्म भी बनाना–पर उसमें मेरी पत्नी नायिका नहीं बन सकती है। हमने प्रेम-विवाह कभी नहीं किया था।
हुआ यह था कि अनामा का माँस बहुत अच्छा लगा था और मैंने उसे खाने की चेष्टा की थी–केवल चेष्टा–और पुलिस कई महीनों तक मुझसे पूछती रही थी।
सुबोध नाराज हो गया है। खलासी टोला में जा कर ठर्रा पी आता है और नंगा हो कर सड़क पर लेट जाता है–भूखा–यातायात रोक देता है। बन्तासिंह उसे रोज मिलता और उसे पैसे उधार दे जाता है कि वह ठर्रा पी आए–इतना पी आए कि उसे सड़क पर लेटने का होश न रहे और बन्तासिंह अपनी हथेलियों पर उगे बालों की रस्सियों में सारे कलकत्ते को बाँधे चौरंगी से घसीटता ले जा सके। सुबोध की नाराजगी दूर करने के लिए बन्तासिंह ने सुंदरम् को मना लिया है कि वह सुबोध को एक ट्रांजिस्टर दे दे जिससे वह सारे दिन रेडियो सीलोन और विविध भारती के फिल्मी गानों की शराब कानों में उँड़ेलता रहे। बन्तासिंह ने घोषाल को भी मना लिया है कि वह सुबोध के लिए महज एक आइसक्रीम की कीमत पर कोई अनामा जुटा दे–पूर्वी बंगाल से आई हुई कोई शरणार्थी लड़की…।
पर मैं…मेरी कोई नहीं सुनता है। मेरी पत्नी खो गई है और छोटे-बड़े सामान की छोटी-बड़ी कुतुबमीनारों में घिरा मेरा घर न जाने कहाँ रह गया है। अनामा के पीछे दौड़ता मैं न जाने जहाँ तक चला आया हूँ कि मुझे रास्ता नहीं बताता है और हर जगह बिखरी ईंटों की ठोकरें मेरी उँगलियाँ कुचल कर लहू बहाती रहती हैं…।
योगेश गुप्त–
यह मैं कहाँ निकल आया हूँ। अब तो सड़क पर उभरी ईंटें भी नहीं हैं। कैसी सपाट बर्फीली सफेद धरती है। मेरी उँगलियों से निकला लहू जम गया है। पत्नी की बात अब बहुत पीछे रह गई है। घोषाल को पुलिस खा गई या शायद पुलिस को घोषाल खा गया है। वह भीड़ भी कहाँ है जिसमें अनामा खो सकती थी? उसके तार-तार कपड़े अब उसके बदन से टूट कर गिर गए होंगे। बन्तासिंह रास्ते में मिला था। वह अब बड़ बरगद का पेड़ हो गया है। हथेलियों पर उगे बाल लटक कर धरती में गड़ गए हैं। वह किसी को अपनी छाया में बैठने नहीं देता। उसके कोटर में एक गुरैया रहती है। उसने बन्तासिंह को खूब अंदर तक खोद दिया हैं। सुंदरम् के तमाम बच्चे कोलाहल-जल में मछलियों की तरह तैर रहे हैं। उन्हें अब सवा दो सौ रुपये मिल रहे हैं। पर मैं…।
मैं कहा हूँ? जल समाधि तो कब की टूट चुकी है। मैं अनामा के पीछे भागा था। उस गिजगिजे पदार्थ की तीखी गंध अब भी मेरे शरीर से उठ रही है। अनामा के पीछे मैं धरती के उस छोर तक भाग सकता था–तो क्या धरती का छोर आ गया है? यहाँ न जीव है, न जड़, न जंगम और आगे भाग भी नहीं सकता। चारों तरफ प्रपात की तरह गिरता हुआ ढलान है। पैर मेरी धरती को छू रहे हैं, और सिर आसमान में धँसा है। पर यह मैं हूँ, मैं ही हूँ। मैं कहाँ हूँ?
अनामा ने कहा था–आमि जावो।
उसने बताया था कि घोषाल ने उसके साथ ‘कुछ’ किया है और उसके कपड़े तार-तार कर दिए हैं। घोषाल को मैंने पुलिस को सौंप दिया था। पत्नी से डर कर मैं अनामा के पीछे भाग लिया था और अनामा को अथाह कोलाहल में वियतनाम की तरह छोड़ कर मैं आगे निकल आया हूँ। और अब यहाँ खड़ा हूँ। पृथ्वी पर। शायद पूरे घूमते दायरे के बाहर, आकाश के बहुत पास, एकदम आदर्श में।
कितनी खूबसूरत जगह है! कोलाहल कितना दूर रह गया है। जगह यह भी गोल है, पर मेरे बिना पहियों के डिब्बे की तरह बंद नहीं, एकदम खुली। यहाँ मैं बहुत दूर की आवाज भी सुन सकता हूँ। सुन रहा हूँ।
–आमि जावो-मिजावो…जावो!
अनामा की आवाज ही तो है।
कहाँ से आ रही है?
अनामा कहीं पास ही है?
चारों तरफ कितना गहरा नीला आकाश है।
पश्चिमी आकाश का छोटा-सा टुकड़ा एकदम लाल है और जहाँ मैं खड़ा हूँ, वहाँ सपाट सफेद, चारों तरफ कोई भी नहीं, फिर यह आवाज?
मेरे पैरों में अब भी उस गिजगिजे पदार्थ की गुदगुदी है।
आवाज भी तो गुदगुदी करती है।
अनामा भी तो गुदगदी करती है।
अनामा मुझे शायद प्यार करती थी।
यह आवाज कहाँ से आ रही है? इस जगह कुछ फिसलन है, आकाश गोलाई में घूमता महसूस हो रहा है। मुझे चक्कर आ रहा है। धरती पर किसी भी तरफ बढ़ूँगा तो प्रपात के अदृश्य जल के साथ नीचे लुढ़क जाऊँगा। फिर क्या होगा? यह कैसा प्रपात है कि नीचे जा कर शोर भी नहीं कर रहा। फिर? फिर मैं भी गिरूँगा तो वापिसी में कोई भी आवाज नहीं फेंक सकूँगा। कितना निरर्थक रहेगा गिरना।
धरती पर फिसलन है। डर है। और आवाज लगातार आ रही है। पता भी नहीं। चलता, कहाँ से?
मैंने ध्यान से जमीन को देखा है।
इसी गोले में इस आवाज की सिहरन है।
मैं झूक गया हूँ। धरती पर कान लगा लिए है। अनामा की आवाज है। कई अनामाओं की आवाजें हैं।
मैंने कान को और धरती पर सटा लिया है। मैं बोलना चाहता हूँ, ‘कोथाय?’ पर अपने ही अंदर की आवाज कही रुक कर रह गई है।
धरती के विशाल खोखले गोले में प्रश्न गूँज रहा है। और मिट्टी में से रिस-रिस कर मेरे कानों तक आ रहा है। पर मेरा उत्तर मुझे ही फोड़ कर बाहर नहीं आ पा रहा। उसमें मिट्टी का गुण नहीं है। मैं धरती के ऊपर जो निकल आया हूँ।
मैं कान लगाये उस सहस्रमुखी प्रश्न की ध्वनि सुन रहा हूँ। और मेरा कुंठित, परास्त उत्तर मेरे शरीर को जहरीला किए दे रहा है।
धरती पर लगा कान कुछ ठंडक दे रहा है। मैं कान को धरती से चिपका देता हूँ।
बदन की गाँठ मैंने खोल दी और उसे धरती पर सपाट लिटा दिया है।
पर गाँठ खुलते ही बदन अदृश्य ढलान की जकड़ में आ गया है।
मैं सुन रहा हूँ, ‘आमि जाबो’ की असंख्य ध्वनियाँ और गिरता चला आ रहा है या शायद धरती की चारों तरफ घूम रहा हूँ और धरती एकदम स्थिर हो गई है।
Image : Portrait of a Young Girl (Louise)
Image Source : WikiArt
Artist : Amedeo Modigliani
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