साँप

साँप

जीने से ऊपर बढ़ती हुई निर्भया हफर-सफर हाँफ रही थी। पूरी देह पसीने से लथपथ हो आई थीं। उसने अविलंब दरवाज़ा खोला और भीतर से सिटकनी चढ़ाकर वैनिटी बैग को एक कोने में फेंक पलंग पर निढाल हो गई। पंखे का स्वीच दबाने की गरज से वह कुहनी के बल उठी और साड़ी को एक झटके के साथ खींचकर सोफे पर फेंकती हुई पलंग पर फिर पसर गई। आजकल अपनी थकान पर ख़ुद ही अचरज से भर उठती थी वह–भला इस कदर कोई थकता है? पता नहीं, किस लाइलाज मर्ज ने आ दबोचा है उसे।

पूरी रफ्तार से पंखा चलने के बावजूद निर्भया अब भी पसीने से तर-ब-तर थी। दफ्तर से लौटते हुए पूरी राह उसने किसी अज्ञात डर और आशंका के बीच किस प्रकार काटी थी, बस वही जानती है। क्या ठिकाना, कब विषैले गेहुँअन उसके चारों ओर जीभ लपलपाते हुए फन काढ़कर खड़े हो जाएँ और उसकी बोलती बंद कर दें! जब से उसने उस हादसे को अपनी आँखों से देखा था, उसके सोच की दिशा ही बदल गई थी। सिर्फ़ सोच की दिशा ही क्यों, उसके जीवन का मकसद और जीने का ढंग भी तो कितना तब्दील हो गया था। बस, चलती-फिरती लाश ही तो बनकर रह गई थी वह। अंदर-ही-अंदर कोई धधकती आग, कोई अपराध-बोध उसे झुलसाए जा रहा था।

दोनों बाँहों को मोड़कर तकिये के रूप में सिर के नीचे रखते हुए निर्भया टकटकी बाँधे छत की ओर देखने लगी। तेजी से नाचते पंखे के बीच उसे किसी के हाँफने की आवाज़ आई। आखिर कौन हो सकता है वहाँ? कहीं वह शिल्पा तो नहीं? एकाएक एक भयावह दृश्य नाचते पंखे की परिधि में नाच उठा और निर्भया की घुटी-घुटी-सी चीख गूँजी–‘नहीं!’ अगले ही क्षण वह माथा पकड़कर बैठ गई। ललाट पर पसीने की बूँदें फिर चुहचुहा आई थीं।

निर्भया चाहती थी कि वह सब कुछ भूल जाए–उस वीभत्स हादसे को, अपने आप को भी। मगर ज्यों ही वह इसे भुलाने की कोशिश करती, और भी गहरे उलझती चली जाती थी। कैसी भयग्रस्तता और आतंक का शिकार हो गई थी निर्भया!

आज वह पहले वाली निर्भया नहीं रह गई थी। हर विपदा का दृढ़ संकल्प और साहस के साथ सामना करनेवाली निर्भया। पुरुषों को मुँहतोड़ जवाब देनेवाली निर्भया। निर्भया, जिसकी बचपन की निर्भयता को परखकर ही माँ-बाप ने वैसा नामकरण किया था, क्योंकि अबोधावस्था में वह एक ज़िंदा साँप से ही खेलने और फिर उसे मुँह में रखकर चबाने लगी थी। साँप चुपचाप सरसराता हुआ भाग निकला था। मगर क्या वह निर्भया मर गई? फिर ज़िंदा कौन है? महज उसकी देह? तो क्या सचमुच ही उसकी आत्मा की हत्या हो गई?

जितने लाड़-प्यार और दुलार से उसे उसके माँ-बाप ने पाला-पोसा था, उससे कहीं ज्यादा ही उसने शिल्पा की परवरिश पर ध्यान दिया था। एक बस-दुर्घटना में माँ-बाप की मौत हो जाने पर हर तरह से बेसहारा होने के बावजूद उसने न सिर्फ़ अपनी मरजी से अपनी शर्तों पर शादी रचाई, बल्कि इकलौती बहन शिल्पा को ससुराल में ही रखकर उस पर बेटी की-सी ममता लुटाई और उसकी पढ़ाई-लिखाई में कोई कोर-कसर न रखी। अपनी बिटिया अस्मिता के पैदा होने पर भी नहीं। चूँकि पति-पत्नी दोनों ही सरकारी सेवा में थे, अतः आर्थिक तंगी से भी वह मुक्त ही रही।

शिल्पा में भी कूट-कूटकर आत्मविश्वास भर गया था, कहीं निर्भया से भी बढ़कर। वह मर्दों की तरह वस्त्र पहनती, नियमित रियाज करती और पुलिस सेवा की जमकर तैयारी करने में मशगूल रहती। युवक मित्रों से भी वह खुलकर बातें करती। न कोई हिचक, न लिंगभेद की यौन-कुंठा ही। उसके आधुनिक विचारों से कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था।

अगर वह हादसा घटित नहीं होता, तो आज वह सचमुच पुलिस सेवा की एक कर्मठ और चर्चित अधिकारी होती। मगर सिर्फ़ उसकी कर्मठता और आधुनिक विचारशीलता से भला क्या होना था!

उन दिनों अल्लसुबह वह दौड़ का रियाज किया करती थी और उसके साथ कुछ लड़के भी हुआ करते थे। मगर वह सबको पछाड़ते हुए आगे–काफी आगे जा निकलती थी।

मगर वे युवकनुमा गुंडे ख़ुद का पिछड़ना कब तक बर्दाश्त करते? यह उनकी मर्दानगी को चुनौती-सी लगी। एक रोज़ दो-तीन युवकों ने उसे राह चलते ही चारों ओर से घेर लिया और लगे फिकरे कसते हुए छेड़खानी करने। देखते ही उसकी आँखों में खून उतर आया। उसने दनादन किसी को घूँसे जमाये, तो किसी को लात। एक का मुँह फूटा, तो दूसरे को नानी याद आई। शिल्पा बीच रास्ते से ही वापस लौट आई।

मगर उसने दीदी और जीजा को कुछ बताया तक नहीं, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

रात के ग्यारह बजे अचानक किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी।

‘कौन?’ निर्भया की नींद टूटी थी।

‘कूरियर!’ उधर से आवाज़ आई।

‘कूरियर? इतनी रात गए!’ शिशिर भी हड़बड़ाकर उठा था, ‘हो सकता है, कोई ज़रूरी सामान आया हो!’

मगर ज्यों ही उसने सिटकनी खोलकर बाहर नज़र दौड़ाई, उसके गाल पर एक भरपूर घूँसा आ जमा और वह धड़ाम-से नीचे गिर पड़ा।

तभी एक ही साथ कई लोग भीतर आ घुसे।

सबके चेहरे काले गमछों से बँधे हुए थे। उनके हाथों में पिस्तौल, छुरे और तमंचे थे। ‘जरा भी कोई हिला, तो गोलियों से भूनकर रख देंगे’, एक की कर्कश खलनायकी आवाज़ गूँजी।

दो-तीन लोगों ने तत्काल एक मोटे रस्से से निर्भया और शिशिर को एक ही साथ खंभे से बाँध दिया और बेहयाई से हँसते हुए कहा, ‘तुम दोनों मज़े लो और हमें भी मज़ा लेने दो!’

‘कमीनो! तुम सबको मैं अभी छठी का दूध याद कराती हूँ’, शिल्पा ने दहाड़ते हुए कहा और कलाबाजी दिखाते हुए एक को दो-तीन घूँसे जमा दिए।

तभी एक ही साथ छह-सात दरिंदों ने उसे धर दबोचा और धड़ाम-से फर्श पर पटक दिया। शर्ट-पैंट फाड़ने के बाद भीतरी वस्त्र भी नोच फेंके गए। शिल्पा ज्यों-ज्यों अपने गठीले बदन और मछलियों की-सी मांसपेशियों को फुरती से झटकती, त्यों-त्यों चारों ओर से दबाव बढ़ता ही चला गया। उसका तड़पना, छटपटाना भी काम न आया।

उन्हीं में से एक काला-कलूटा नीचे की ओर झुका। रोती-बिलखती शिल्पा की मिमियाहट और हैवानियत का कसता शिकंजा। कामुक अट्टहास। चुटकियों, हथेलियों, नाखूनों, दाँतों के एक ही साथ झपट्टे। थरथराहट, परपराहट, चीख, धमाके, खून की धार और अट्टहास। विजय जुलूस की मुद्रा में वापस लौटते आततायी। पूरा शहर यथावत नींद के आगोश में था।

निर्भया की बेहोशी अस्पताल में जाकर टूटी थी। मगर थोड़ी देर में ही वह फिर अपने होशोहवास खो बैठी थी। महीनों बाद ही निर्भया बेहोशी से निजात पा, दफ्तर जाने के काबिल हो पाई थी। कितने दिन बीते, रातें गुजरीं, मौसम बदला, मगर नहीं बदली तो निर्भया की मन:स्थिति।

गनीमत थी कि उस रात उसकी बिटिया अस्मिता एक सहेली का जन्मदिन मनाकर उसी के घर में सो गई थी, वरना कहीं उसके साथ भी…!

निर्भया को पुरुष की पाशविकता से घृणा हो आई थी। शिशिर लाख समझाने की कोशिश करता, पर कोई असर नहीं। दोनों अगल-बगल लेटते, शिशिर शुरुआत करता, साँप-सीढ़ी का खेल। निर्भया के अंतर्मन में क्षणिक सिहरन-सी दौड़ जाती। समेटने, सहलाने और श्वास की खुशबू को अधरों में भरने की चाहत। तभी निर्भया को लगता, जैसे एक साथ कई करैत-गेहुँअन साँप उसकी देह पर रेंग रहे हों और वह सहसा चिल्ला उठती–‘साँप-साँप…बचाओ-बचाओ…!’

‘क्या बात है, निर्भया? होश में आओ।’ शिशिर लज्जित-सा पसीने से तर-ब-तर हो रहा होता। निर्भया के ललाट से भी पसीने की बूँदें टपक रही होतीं।

शिशिर समझ नहीं पाता कि आख़िर क्या हो गया है निर्भया को? निर्भया भी कहाँ अंदाजा लगा पाती थी कि क्या हो गया था उसे! हर पुरुष में उसे कामुकता व पशुता की बू आती। दफ्तर में यदि कोई आदमी उसकी ओर देखता, तो वह काँप उठती। कई अंग कपड़ों की गिरफ्त से बाहर आकर उसे झाँकते हुए-से लगते और यदि अनजाने में ब्लाउज पर से साड़ी का आवरण हट गया होता तो वह तत्काल ढँकना शुरू कर देती। फिर तो हड़बड़ाहट में सहज होने के बजाय वह और भी असहज होने लगती। छि:! चमड़ी के कैसे निर्ल्लज सौदागर होते हैं सभी मर्द! ऐसा प्रतीत होता, मानो वह निर्वस्त्र हो गई हो और कोई कामुकता से उसके एक-एक अंग का मुआयना कर रहा हो।

निर्भया बार-बार सोचती, औरत में आख़िर क्या देखते हैं ये लोग? जिन छातियों से सींचने पर इनमें जीवन-रस भरा, जिन घाटियों से बाहर निकलकर दुनिया की हरीतिमा देखने और जीने का हुनर सीखा, उन्हीं को क्षत-विक्षत कर बेआबरू करने की हवस! हद है नीचता पर उतरने की भी!

मगर कभी-कभी निर्भया स्वयं हैरत में पड़ जाती थी, यह सोचकर कि नारीदेह में कोई-न-कोई मादक गंध ज़रूर होती है। कस्तूरी मृग की गंध की मानिंद। तभी तो पुरुष उसके पीछे पगलाया हुआ फिरता है। उसे याद हो आती उसके साथ कभी-कभी शिल्पा की हरकतें। खुशी के क्षणों में जब वह लेटी रहती, तो शिल्पा उसकी देह पर ही आ लेटती थी और उसको अपनी बाँहों में भरकर उसे वर्णनातीत सुख की अनुभूति होती थी। शिल्पा का कसाव भी बढ़ता जाता और वह भी सिहर-सिहर उठती थी।

पता नहीं, वह शिल्पा की मदमाती देह का असर था अथवा आम नारीदेह का प्रभाव? तभी तो दफ्तर में घुसते ही कई जोड़ी आँखें एक ही साथ उसके लुके-छिपे अंगों का निरीक्षण करने लगती हैं और कभी-कभी तो लगता है जैसे उन आँखों में कपड़ों की परत-दर-परत को भेदकर सब कुछ साक्षात देख लेने की क्षमता हो, वरना कई तहों के भीतर तहखाने को छुपाने की भला क्या ज़रूरत होती!

मगर जब भी शिशिर उसकी बगल में आकर लेटता, उसे थुकथुकी होने लगती। शिशिर साँसों की सरगम पर सुर के सितार छेड़ने के बजाय पर्वत शिखर पर चढ़ने व घाटियों में उतरने को उतावला होता, मगर निर्भया को वह महज एक कीड़ा नज़र आता, नाली में रेंगता हुआ, कीचड़ की सड़ाँध में मुँह मारता हुआ कीड़ा। निर्भया को उकताहट होने लगती और वह करवट बदलकर अनिच्छा जाहिर करते हुए आँखें मूँद लेती थी।

निर्भया रात-दिन अब अस्मिता को लेकर चिंतातुर नज़र आती। दूध का जला छाछ फूँककर पीता है न? उसने शिशिर के लाख विरोध के बावजूद न सिर्फ़ अस्मिता की पढ़ाई छुड़ाकर घर में बिठा दिया, बल्कि अपने दफ्तर में नई-नई नौकरी पर लगे निखिल के साथ उसकी मँगनी भी कर दी।

एक माह बाद ही शादी का दिन भी पक्का कर दिया।

‘मगर इतनी जल्दी क्या है?’ शिशिर के बार-बार पूछने पर वह सिर्फ़ इतना ही जवाब देती, ‘क्या पता, अगले पल क्या हो जाए!’

‘शिल्पा की मौत से भी तुमने कुछ सबक नहीं लिया?’

‘वह बात भूल जाओ, निर्भया!’ शिशिर समझाता।

‘कैसे भूल जाऊँ कि मेरी आँखों के सामने ही मेरी बहन को बेआबरू कर मार डाला गया। कैसे भूल जाऊँ कि मैं अपनी बहन के लिए कुछ भी नहीं कर पाई। महज इसलिए न कि मेरे साथ भी वे दरिंदे वैसा ही सलूक करते। मुझे अपनी जान कुरबान कर ज्यादा खुशी होती, मगर मैं वैसा नहीं कर पाई,–हे भगवान!’ निर्भया बिलखने लगती।

‘मगर जरा सोचो, निर्भया! यदि तुम न होती, तो अस्मिता का क्या होता? मेरा क्या होता?’ शिशिर निर्भया की पीठ सहलाने लगता। फिर लंबी खामोशी छा जाती। काफी देर के बाद जाकर वह सामान्य हो पाती थी।

अब निखिल गाहे-बगाहे उनके घर आने लगा था। वह और अस्मिता बगैर कुछ बोले-चाले टकटकी बाँधे एक-दूसरे को घंटों निहारा करते और अपनी सुध-बुध तक खो बैठते थे। मगर निर्भया जब भी उन दोनों को एक साथ देखती, अस्मिता को किसी बहाने बुलाकर भीतर भेज देती। उस वक्त अस्मिता मन मसोसकर रह जाती थी।

एक रोज़ निर्भया जब कुछ देर से बाज़ार से होकर लौटी, तो अस्मिता के कमरे का दरवाज़ा भीतर से बंद पाया। उसने खिड़की से झाँककर देखा, निखिल और अस्मिता एक-दूसरे का अधरामृत पीने, आँख, कपोल और ग्रीवा पर अल्पना रचने-रचवाने में मशगूल थे। निखिल अस्मिता के गुलाबी मृगछौनों से किलककर खेलने और सुरम्य वादियों में विहार करने की तैयारी में तल्लीन था।

निर्भया की आँखों में खून के कतरे तैरने लगे। उसने क्रोधित होकर लगातार दरवाज़ा पीटना शुरू कर दिया। हड़बड़ाकर जब अस्मिता ने दरवाज़ा खोला, तो निर्भया एकाएक निखिल पर पिल पड़ी, ‘करैत साँप! मैं तुझे ज़िंदा नहीं छोड़ूँगी। तूने मेरी बहन को डँसा और अब बेटी को–तुम्हारा फन कुचलकर ही दम लूँगी मैं।’ निखिल को पटककर वह उसकी छाती पर जा बैठी और घूँसों से मार-मारकर उसके मुँह-नाक को लहूलुहान कर दिया।

‘क्या कर रही हो, माँ? अपने होने वाले जमाई के साथ ऐसा सलूक!’ अस्मिता ने उसे भरपूर ताकत से पकड़कर खींचते हुए गुस्से से भरकर कहा।

‘यह जमाई नहीं, साँप है साँप…करैत साँप!’ उठती हुई निर्भया बेतहाशा हाँफ रही थी।

निखिल दुम दबाकर बाहर भागता नज़र आया। निर्भया को अपनी मर्दानगी पर गर्व हो आया।

तभी उसकी नज़र अस्त-व्यस्त अवस्था में खड़ी अस्मिता पर पड़ी। ऐसा लगा जैसे अस्मिता नहीं, शिल्पा खड़ी हो। वही मांसलता, वही गुलाबी आभा, वही रचाव-कसाव, उतार-चढ़ाव! उसने लपककर अस्मिता को आगोश में बाँध लिया और मादक अधरों से लेकर खिलने को आतुर गुलाबी पंखुड़ियों को अपने होठों और नासिकारंध्रों में भरने लगी। अस्मिता की देह की अंधी सुरंग में पैठते हुए निर्भया को अनिर्वचनीय सुख व तृप्ति की अनुभूति हो रही थी और अस्मिता कभी अपनी माँ को तो कभी उसकी अटपटी हरकतों को विस्मित व विमुग्ध होकर निरख रही थी।


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