विपदा

विपदा

विश्वविद्यालय में शिक्षण सत्रारंभ का पहला सप्ताह बहुत गहमागहमी भरा हुआ था। पुराने विद्यार्थियों की अपेक्षा नए युवा चेहरे अधिक संख्या में दिखाई दे रहे थे। इनमें बुन्देलखंड के दूरदराज़ के गाँवों के बच्चों की संख्या ज्यादा थी। एडमिशन के सिलसिले में लड़कियों के साथ उनके अभिभावक भी आए हुए थे। वे विभागों का पता पूछते हुए भटक रहे थे। विज्ञान और मानविकी एवं लैंग्वेज के विभागों में पहुँचने का रास्ता अलग-अलग था। सभी को  विभाग ढूँढ़ने में दिक्कत आ रही थी। वर्षों से प्रशासन से कहा जाता रहा है कि एक पूछताछ केंद्र बनाया जाए ताकि बाहर से आने वाले आगंतुकों को परेशान न होना पड़े। पर कहाँ किसी के कान में जूँ रेंगती है। खैर…

विश्वविद्यालय के माहौल से परिचित होने की ललक और झिझक, दोनों एक साथ नए छात्र-छात्राओं में देखी जा सकती थी। मौसम बहुत सुहावना था। आषाढ़ के बदराये हुए वातावरण में विश्वविद्यालय परिसर गुलजार था। प्रकृति का अद्भुत नेह पाकर वादियाँ चहक उठी थीं। घहराती हुई घटाओं के मेले में सूरज का लुकाछिपी का खेल लुभावना था। सघन वृक्षावलियों पर पंछियों की चहलकदमी बढ़ गई थी। यह सारा मनोरम दृश्य विश्वविद्यालय कैंपस में आने वाले हर आगंतुक को आकर्षित कर रहा था। 

सुंदर भविष्य का स्वप्न सँजोए युवाओं के लिए विश्वविद्यालय ज्ञान का सबसे बड़ा केंद्र है। कैरियर का गंभीर पाठ पढ़ने का अवसर यहीं मिलता है। नवाचार हम यहीं सीखते हैं। राजनीति का ककहरा सीखने की पहल भी यहीं होती है। सच यह भी है कि कुसंगति में भटकाव की राह भी यहीं खुलती है। और भी बहुत कुछ…ढेर सारी बातें…।

पूरा सप्ताह…मुख्यत: एडमिशन, काउंसिलिंग और छात्रों के ओरिएंटेशन में बीत गया। अब विद्यार्थी अपने-अपने विभागों में पहुँचने लगे थे। टाइम टेबल, पाठ्यक्रम आदि की जानकारी के साथ अध्यापकों से रूबरू होने का अवसर उन्हें विभाग में मिला। स्कूलों से एकदम भिन्न परिवेश और पढ़ाई का स्तर देशभर के विद्यार्थियों के आकर्षण का सबब था।

कक्षारंभ का पहला दिन था वह। हिंदी साहित्य के एम.ए. प्रथम सेमेस्टर के प्रथम प्रश्नपत्र आधुनिक कविता का पहला पीरियड रामप्रताप मिश्र सर का था। क्लास में उनका आगमन हुआ। छात्र-छात्राओं ने सामूहिक रूप से उनका अभिवादन किया। उनका संकेत पाकर सभी विद्यार्थी अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए। पूरी क्लास लगभग भरी हुई थी। यह देखकर मिश्र सर को सुखद आश्चर्य हुआ।

हाजिरी के दौरान मिश्र सर का ध्यान हाजिरी रजिस्टर में दर्ज एक नाम पर अटक गया। यकायक उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि किसी का ऐसा भी नकारात्मक नाम हो सकता है? वह भी एक लड़की का? यह नाम उन्हें विचित्र लगा? उनका मन पलभर के लिए उस नाम पर अटक गया। वे सोच में पड़ गए। फिर उनका ध्यान क्लास में बिल्कुल शांत मुद्रा में बैठे हुए विद्यार्थियों की ओर गया। वे सभी सर को बहुत गौर से निहार रहे थे।

ओह! इतना बुरा नाम? यह कैसी मानसिकता? कैसी सोच? और यह समाज? कहने को स्त्री सशक्तीकरण का दौर…? मन में उमड़ रहे विचारों के बवंडर को इस वक्त थाम लेना रामप्रताप सर ने उचित समझा। उन्हें लगा कि जरूर यह नाम अटेंडेंस सीट में गलत टाइप हो गया है। प्रूफ रीडिंग ठीक से नहीं हुई। बाबुओं को इतनी समझ कहाँ होती है कि स्पेलिंग सुधार लें? ज़रूर स्पेलिंग मिस्टेक के कारण इस नाम में त्रुटि आई है और ‘विपदा’ टाइप हो गया। यह विचारते हुए मिश्र सर ने अटेंडेंस रजिस्टर का पुनः अवलोकन किया। लेकिन उनका ध्यान उसी नाम पर टिका हुआ था। पहली बार ऐसा नाम सुना हो उन्होंने, ऐसा भी नहीं है। किंतु, किसी पढ़ी-लिखी लड़की का नाम इतना निगेटिव होगा, यह उनकी कल्पना में नहीं था। उन्होंने अपनी ओर से करेक्शन करके नाम पुकारा, ‘विरुदा! विरुदा!!’ उन्हें लगा कि यह नाम ‘विपदा’ नहीं, ‘विरुदा’ ही होगा। पूरी क्लास में किसी ने प्रेजेंट सर नहीं कहा। मिश्र सर ने दुबारा वही नाम पुकारा जो उन्होंने करेक्ट कर बोला था। क्लास में बैठे विद्यार्थियों में किसी की ओर से कोई रिस्पांस नहीं मिला। मिश्र सर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं। यह कैसे हो सकता है? उन्होंने क्लास में बैठी हुई छात्राओं पर एक सिरे से अपनी दृष्टि दौड़ाई। पूरी क्लास में शांति थी, पर सबकी आँखों में जिज्ञासा का भाव प्रबल हो उठा था। मिश्र सर ने अपनी ग़लती दुरुस्त करते हुए रजिस्टर में छपा नाम पुकारा ‘विपदा’ और कौतूहलभरी निगाह से छात्राओं की ओर देखा, वे आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने देखा कि क्लास की तीसरी पंक्ति में बीच की सीट पर बैठी एक साँवली-सी लड़की उठ खड़ी हुई है। मिश्र सर और उसकी निगाहें मिलीं। क्लास के विद्यार्थी कभी विपदा को देखते और कभी सर की ओर। उन दोनों के बीच मौन का अद्भुत क्षण था वह।

विपदा आत्मविश्वास भरे स्वर में बोली–‘यस, प्रेजेंट सर! मैं विपदा। मेरा नाम विपदा है।’ 

मिश्र सर के आश्चर्य की सीमा न रही। उनका दिमाग एक पल के लिए सुन्न-सा हो गया था। उनके मुँह से निकला, ‘ओह, तुम! विपदा! विपदा!!’ सहसा उन्हें विश्वास नहीं हुआ। विपदा ने अपने नाम की स्वीकृति देते हुए पुनः कहा, ‘जी सर! विपदा हूँ मैं। मेरा नाम विपदा!!’ अपना नाम बताने के उसके लहजे में कहीं हीन भाव नहीं झलका था, ऐसा मिश्र सर को आभासित हुआ। 

वे सोचने लगे थे–‘यह भी कोई नाम है? किसी लड़की का नाम?’ 

कक्षा के स्टूडेंट्स विपदा की ओर गहरी उत्सुकता भरी नजरों से देखने लगे थे। मिश्र सर ने विपदा को अपनी सीट पर बैठने को कहकर हाजिरी कंप्लीट की। तत्पश्चात् उन्होंने हरेक विद्यार्थी का परिचय जाना। पाठ्यक्रम की चर्चा के साथ क्लास में रेगुलर आने, अनुशासन बनाए रखने, पाठ्य पुस्तकें खरीदने इत्यादि जरूरी बातें कीं और नियमित क्लास अटेंड करने की समझाइश दी। उनकी कही हुई बातें विद्यार्थियों द्वारा कितना अमल की जाएँगी यह तो उन्हें धीरे-धीरे पता ही चल जाएगा। 

पीरियड ओवर होने पर मिश्र सर सीधे स्टाफ रूम में आकर बैठ गए थे। उस समय वे अकेले ही थे। विपदा के परिचय से ज्यादा उसके नाम को लेकर वे उद्विग्न दिखाई दिए। उनके सामने उस लड़की का चेहरा और नाम बार-बार घूम जाता है।

इस प्रसंग में उन्हें चिरकुट की याद आई। कई और भी ऊटपटाँग नाम मन-मस्तिष्क में उभरे। नकल और इमला पति-पत्नी का नाम याद आया। प्रेमचंद का गोबर और झिंगुरी सिंह भी उनकी यादों की कुंडी खटखटाने लगे थे। बचपन में अपने गाँव के कोदई पांड़े, बेचन बाबू, चमेला तिवारी, लखेदुआ और झगड़ू सिंह की याद आई। अपने गाँव के दलित टोले के बरखू के बेटे हरखू को रामप्रताप मिश्र भला कैसे भूल सकते थे।‌ हरखू आई.पी.एस. अफसर हो गया है। 

उन्हें याद आया है कि घर में काम करने वाली महरी का इकलौता बेटा है, देखने में अच्छा-खासा, पर नाम है चिरकुट। उसकी माँ गुड़िया ने बताया था कि उसके  बच्चे पैदा होने के बाद दो-तीन साल के होकर मर गए थे। गाँव की किसी बूढ़ी महिला ने उसे एक टोटका बताया कि बच्चे का नाम कुछ खराब-सा रखे। गुड़िया ने अगली बार पैदा हुए बेटे का नाम रखा चिरकुट। इस नाम को लेकर उसके परिवार और पास-पड़ोस में लोगों ने कुछ दिनों तक टोका-टाकी की, परंतु उसकी माँ गुड़िया रंचमात्र भी टस-से-मस नहीं हुई। चिरकुट जवान और शादीशुदा हुआ। एक स्वर में सभी के कहने के बावजूद भी चिरकुट के नाम में कोई बदलाव नहीं किया गया। बेचन बाबू का किस्सा भी सुनने लायक है। उनके पैदा होने पर माता-पिता ने पड़ोस के एक दलित परिवार में कुछ रुपये में बेचकर पुनः अधिक रुपये में खरीद लिया था। पिता ने ब्राह्मण कुलोद्भव  उस बालक का नाम बेचन रखा। सयाने होने पर गाँव के लोग और हमजोली बच्चे बेचन को बेचनू, बेचना, बेचवा इत्यादि कहकर चिढ़ाते। विचित्र नामों के और भी किस्से हमें लोक जीवन में सुनने को मिल जाएँगे। किसी का भी नाम विचित्र टाइप का हो तो सुनने वाले को अटपटा लगना स्वाभाविक है। यह कहने का कोई अर्थ नहीं है कि अरे! नाम में क्या रखा है। नाम के लिए ही दुनिया मरती है। नाम कमाने के लिए आज हर कोई बावला है। नाम के लिए लोग शॉर्टकट तरीके अपनाने लगे हैं। नाम के  आधार पर ज्योतिषज्ञ उस व्यक्ति का भाग्य बाँच देते हैं। भविष्य बखान देते हैं। नाम का प्रभाव व्यक्तित्व पर भी पड़ता है। नाम के गुन बहुत हैं यह रहस्य जाने कोई ज्ञानी। 

आई.पी.एस. हरखू का रामहर्ष हो जाने की घटना याद कर रामप्रताप सर बहुत उत्साहित हुए। हरखू को अपने नाम पर बहुत शर्म आती थी। उसने एफीडेविट देकर अपना नाम रख लिया रामहर्ष। मिश्र सर को विपदा का नाम बदलवाने का एक पुख्ता आधार मिल गया था।

पर इस वक्त तो रामप्रताप सर इस चिंता में थे कि इस लड़की को क्या नहीं लगता होगा कि उसका नाम विचित्र है–विपदा यानी विपत्ति। गाँव की यशोदा चाची की कही हुई बातें उन्हें याद आ गईं जो वह अपनी बेटी के लिए नाराजगी में कभी-कभी कह दिया करती थीं–‘बिपतनौनी’। बेटी को अपनी गलतियों के लिए माँ से बिपतिनौनी सुनने की आदत पड़ गई और अब वह बुरा भी नहीं मानती है। बिपतिनौनी एक तरह की गाली है किसी लड़की के लिए। विपदा नाम रखते हुए उसके माँ-बाप ने तनिक भी विचार नहीं किया? उन्हें अच्छा नाम न सूझा हो, यह कैसे कह सकते हैं?  यह सब विचारते हुए मिश्र सर के ध्यान में रहीमदास का यह दोहा बरबस ध्यान में आ गया–‘रहिमन विपदा हूँ भली जो थोड़े दिन होय।’ रहीम भी व्यक्ति के जीवन में विपदा को थोड़े ही दिनों तक के लिए स्वीकार करने के पक्ष में हैं। किंतु, इस क्लास की विपदा तो जीवनपर्यंत अपने नाम को गले लगाए रखेगी। उसका नाम बदलने की जहमत आज भी कोई नहीं लेना चाहता है। किसी को क्या पड़ी है विपदा का नाम बदलवाने की। उसकी ओर से भी कभी पहल नहीं हुई।

मिश्र सर इस उलझन में थे कि कैसा है हमारा समाज? ये पढ़े-लिखे लोग कैसे हैं? यह विचार किसी को भी नहीं सूझा कि इस लड़की का नाम बदलवा दे। विपदा, एक प्रश्न बनकर मिश्र सर के सम्मुख उपस्थित हुई थी? अन्य अध्यापकों को भी विपदा का नाम सुनकर विचित्र लगा। धीरे-धीरे पूरा विभाग विपदा के नाम से परिचित हो गया। परंतु मिश्र सर के हृदय-तार को विपदा ने ऐसा छेड़ दिया था कि वह बहुत दिनों तक उसकी झनझनाहट महसूस करते रहे। विपदा के नाम को लेकर उनका हद से कुछ ज्यादा इमोशनल होना उनके सहकर्मियों को अजीब लगा था। यादव सर बोले, ‘अरे भाई मिश्रा जी! आप भी लगे हैं, बाल की खाल निकालने में। विपदा के नाम पर इतना चिंतन करने की क्या जरूरत है? बीत गई सो बात गई।’

यादव जी की बातें आँख बंद करके स्वीकार कर लेना रामप्रताप सर के लिए सहसा संभव नहीं था। यादव जी ने बहुत गंभीर मुखमुद्रा बनाकर कहा–‘अब आप कर भी क्या सकते हैं? आप तो जानते ही हैं कि विपदा का नाम हाई स्कूल बोर्ड परीक्षा में ही बदल सकता था। वह समय तो बहुत आगे सरक गया है। हाई स्कूल में किसी शिक्षक ने पहल की होती। उसके पिता को बुलाकर समझाया होता तो विपदा का नाम अवश्य बदल गया होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ‘अवसर चूके पुनि पछितै हैं।’ अब कोई उपाय शेष नहीं रह गया है।’ यादव सर की ये बातें सुनकर रामप्रताप सर को थोड़ा अटपटा सा लगा, किंतु विपदा का यही सच है, जिसे स्वीकार करने के अलावा मिश्र सर के पास कोई अन्य रास्ता नहीं था। फिर भी, उनका मन आसानी से इस सच को स्वीकार नहीं  कर पाया। उन्होंने विचलित भाव से यादव जी से कहा–‘हम सब बुद्धिजीवी हैं, शिक्षक हैं। हमारी सोच कुछ अलग और बेहतर होनी चाहिए।’ 

‘भाई यादव जी, हमारे शिक्षकों का अधिक दोष है। संभव है कि विपदा के माँ-बाप अशिक्षित रहे हों। वह दलित परिवार की है। पिछड़े हुए गाँव की है। पर वे स्कूली शिक्षक? वे तो समझदार थे। उन्होंने कोई प्रयास क्यों नहीं किया? उनकी नैतिक जिम्मेदारी थी।’

यादव सर ‌मिश्र सर की बातें सुनकर निरुत्तर हो गए थे। रामप्रताप सर का भावुक मन विपदा के नाम पर पूरी तरह से अटका हुआ था।

‘ओह! विपदा का नाम बदलवाने में किसी भी स्कूली शिक्षक ने रुचि नहीं ली। किसी को उसके नाम से लेना-देना नहीं; क्योंकि वह एक दलित लड़की है। पिछड़े हुए गाँव-समाज की है। ओह! कहीं इस कारण से तो उसकी उपेक्षा नहीं कर दी गई? ऐसी दकियानूसी सोच पढ़े-लिखे लोगों के लिए कतई उचित नहीं है। किसी ने भी पहल की होती तो विपदा का नाम अवश्य बदल गया होता? पर किसी ने सही क़दम उठाना लाजिमी नहीं समझा। भाई यादव जी, मुझे तो बहुत बुरा लग रहा है।’ उस दिन बात आई-गई हो गई। विपदा के नाम का चुभा काँटा रामप्रताप सर के हृदय में करकने लगा था।

एम.ए. हिंदी की अपनी कक्षा में विपदा सबसे अव्वल है, पढ़ने में और देखने में भी। अध्यापकों के सराहना भरे शब्दों को सुनकर उसका दिल गुलजार हो जाता है। शिक्षक की प्रशंसा और प्रोत्साहन पाकर उसकी पढ़ने-लिखने की इच्छा नित परवान चढ़ती गई। स्कूली शिक्षा के बाद उसकी उच्च शिक्षा की पढ़ाई जारी रही। उसके बाबू ने हाड़-तोड़ मेहनत-मजदूरी कर उसकी आशाओं का अंकुर मुरझाने नहीं  दिया। विपदा ने भी स्वयं को पढ़ाई-लिखाई में झोंक दिया था। वह कुछ बड़ा बनना चाहती थी। पिता की ग़रीबी को उसने बचपन से देखा और सहा है। उसका प्रण था कि वह एक दिन गरीबी की दीवार ढहा देगी पढ़-लिखकर। कमाएगी वह और पिता का सहारा बनेगी। माँ की बीमारी का इलाज होगा। इसी दृढ़ संकल्प के साथ विपदा ने पढ़ाई को जिंदगी बदलने का कारगर हथियार बना लिया है।

उसकी सहपाठिनें उससे ईर्ष्या न करें, ऐसा कैसे संभव है? रागिनी सच्ची  सहपाठिन है, वह बेमुलाहिजा उस पर कटाक्ष करती है–‘बड़ी पढ़ाकू बनी है तू। बड़े गुमान में रहती है। हम सब तो तेरे सामने जैसे अनपढ़ हैं। तेजूखाँ है तू, चल हट।’ यह टाँट करते हुए रागिनी खिलखिलाकर विपदा को गले लगा लेती है। उसके साथ हँसी-मजाक करती है। रागिनी के लिए विपदा एक आदर्श मित्र है, आईकॉन। रागिनी बड़े घर की बेटी है। पैसे वालों के घर की। पिता सरकारी नौकरी में हैं। लेकिन घमंड की लगछुआन तक नहीं है उसमें। रागिनी की विपदा से खूब पटती है, क्लास की अन्य लड़कियाँ भी विपदा के टैलेंट से प्रभावित हैं और उसका साहचर्य पाना चाहती हैं। दो-चार लड़कियाँ हैं जो इन दोनों की दोस्ती को देखकर खार खाती हैं। 

वैसे भी विपदा किसी के कहे-सुने का बुरा नहीं मानती है। रागिनी तो उसकी घनिष्ठतम मित्र है। उसके कहे-सुने का बुरा मानने का कोई सवाल ही नहीं है। विपदा अजीब सी लड़की है। किसी के कुछ बुरा कहने पर भी वह सिर्फ मुस्कुरा देती है। उसके व्यवहार पर सहेलियाँ पानी-पानी हो जाती हैं। वह मिलनसार है। हर किसी की मददगार  है। विपदा का यही स्वभाव कक्षा में पढ़ रही सब लड़कियों पर भारी पड़ता है। मन के भीतर न कोई दरार और न ही मलाल। सभी उससे दोस्ती करना चाहते हैं। उसके लिखे नोट्स पाने की जुगत में लगे रहते हैं। अनेक बार उसने साथियों की मदद की। लेकिन सही सलामत उसे अपने नोट्स नहीं मिले। किसी ने वापस भी किया तो महीनों बाद। एक्जाम सिर पर आ जाने पर।

क्लास के लड़के भी नोट्स पाने वाली क्यू में लगे रहते थे। एक दिन विपदा रागिनी से बता रही थी–‘अरे वह लखेरा, अरे गोविंद लखेरा, जानती हो, वह तो हाथ धोकर पीछे पड़ गया था। उसे काव्यशास्त्र का नोट्स चाहिए था।’ लखेरा के बार-बार रिरियाने पर विपदा ने काव्यशास्त्र का नोट्स उसे दे दिया। फिर क्या? विपदा वापस माँगती रह गई अपने नोट्स। लखेरा आज और कल देने का कहकर कब ग़ायब हो गया किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई। और एक दिन पता चला कि उसका एडमिशन कैंसिल हो गया। उसने अपना माइग्रेशन नहीं जमा किया था। मरता क्या न करता। विपदा को दुबारा काव्यशास्त्र का नोट्स तैयार करना पड़ा था। 

अब तो विपदा बहुत सजग हो गई है। उसने कसम खा ली है। नोट्स देने का चक्कर बंद कर दिया है क्लास में। नोट्स, बुक आदि की चर्चा करना उसे गुनाह लगने लगा है। वह अपने कैरियर के साथ कोई खिलवाड़ नहीं करना चाहती है। उसने घर पर एक छोटी सी लायब्रेरी बना ली है। कुछ पत्रिकाएँ भी खरीद कर पढ़ने लगी है। 

अभी पिछले माह उसकी लिखी कहानी ‘नई पीढ़ी’ एक स्थानीय पत्रिका में छपी थी। यह विपदाओं से घिरे एक अभावग्रस्त परिवार की एक लड़की की मार्मिक  कथा है। इस कहानी पर अपने शिक्षकों से भी उसे भरपूर सराहना मिली। उसके कई क्लासमेट्स ने भी कहानी को सराहा। विपदा ने साहित्य के मनचाहे विषयों पर लेख भी लिखना शुरू किया है। रामप्रताप मिश्र सर, अनिमेष सर आदि से उसने लेख/शोध लेख लिखने की कला सीखी है। गुरुजनों, ख़ासतौर पर मिश्र सर से लेख/शोध लेख जँचवाने में वह तनिक भी संकोच नहीं करती है। शिक्षकों के इस सहयोग को वह अपना अधिकार मानती है। उसकी समझदारी और प्रतिभा पर उसके शिक्षकों को बहुत भरोसा है। सभी एक स्वर में कहते हैं कि विपदा एक दिन इस विभाग का नाम रौशन करेगी।

अकेले रामप्रताप सर का मन अभी हलका नहीं हुआ था। ज़ेहन में विपदा के नाम को लेकर एक कशमकश चलती रही है। उन्हें बार-बार यही लगता था कि एक होनहार और अच्छी लड़की का इतना खराब नाम शोभा नहीं देता है। उसके व्यक्तित्व और व्यवहार के बिल्कुल विपरीत यह नाम उनके गले नहीं उतर रहा था। 

एक दिन रामप्रताप सर स्टाफ रूम में अकेले बैठे हुए थे। विपदा ने काव्यशास्त्र के प्रश्न-पत्र का नोट्स तैयार किया था। कई दिनों से वह मिश्र सर से मिलने की ताक में थी। नोट्स दिखाना चाहती थी। नेट और जे.आर.एफ. की तैयारी के संबंध में भी उसे कुछ बातें करना था। इत्तेफाकन आज विपदा को रामप्रताप सर से मिलने का मौका मिल गया। उन्होंने विपदा के नोट्स देखने के बाद उससे नामकरण का कारण जानना चाहा। पर विपदा स्वयं अनभिज्ञ थी अपने नामकरण के सच से। मिश्र सर ने विपदा से उसका नाम बदलने की बात कही और सहायता करने का आश्वासन दिया। विपदा ने कहा, ‘सर अब यह नाम ही मेरी पहचान है।’

हिंदी विभाग के एक साहित्यिक कार्यक्रम में कुलपति मैडम को आमंत्रित किया गया था। विपदा को कार्यक्रम संचालन का दायित्व दिया गया। वह डायस पर आई। कुलपति की आज्ञा से कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। दीप प्रज्ज्वलन और सरस्वती वंदना के बाद रामप्रताप सर का स्वागत भाषण हुआ। उन्हें डायस पर बुलाने के पहले विपदा ने कहा था कि माननीया कुलपति जी, अन्य मंचस्थ अतिथिगण, गुरुजन तथा मेरे सभी सहपाठीगण। मैं विपदा, आप सभी का स्वागत करती हूँ। विपदा का नाम सुनकर कुलपति मैडम को भी अजीब लगा। अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने विपदा का जिक्र किया। और यह दुःख भी व्यक्त किया कि एक लड़की का नाम विपदा क्यों?  वह परिवार और समाज के लिए विपत्ति कैसे? यह मानसिकता बहुत ख़तरनाक है। आज के युग में लड़कियाँ विपदा नहीं हैं। संपदा हैं अपने परिवार की और राष्ट्र की भी। देश में आगे बढ़ रही हैं लड़कियाँ। और भी कई महत्त्वपूर्ण बातें कुलपति ने अपने  उद्बोधन में कहीं।

उस दिन विश्वविद्यालय से घर लौट कर विपदा फिर एक बार अपने नाम को लेकर उलझन में पड़ गई थी। यह उलझन उसके जीवन में कोई पहली बार नहीं आई थी। पहले भी अनेक बार, घर-परिवार, रिश्तेदारी, गाँव, स्कूल यहाँ तक कि कॉलेज और अब विश्वविद्यालय स्तर पर। हर जगह, उसके नाम को लेकर लोगों के मन में हलचल मचती रही है। हर किसी को उसका नाम विचित्र लगता है। एक-दो दिन की चर्चा के बाद सब सामान्य हो जाता है। किसी के मन में न कोई उत्तेजना और न कोई चिंता की लकीरें। बात आई-गई हो गई।  

अपने नाम के प्रति हर किसी के मन में अजीब सी उपेक्षा का भाव देख-सुनकर विपदा के कान पक गए थे। उसका नाम सुनकर कौतूहल भरी नजरों से उसे हर कोई देखता है। वह भी लज्जा का अनुभव करती और यह सोचकर दुःखी होती है कि आरंभिक स्कूली कक्षाओं में उसका नाम पिता ने या उसके स्कूली शिक्षकों ने क्यों नहीं बदलवाया?

विपदा के लिए वे और दिन थे, नासमझ और भोले बचपन के, जब वह अपने नाम का अर्थ नहीं जानती थी। उसकी सखी-सहेलियों में भी उसके नाम को लेकर कोई चर्चा या तिरस्कार भाव नहीं प्रकट हुआ था। नाम पुकारने पर वह सहज रूप से रिस्पांस देती थी। किंतु, ज्यों-ज्यों वह बड़ी होने लगी अपने नाम का अर्थ जब उसने पहली बार स्कूल में मास्टर साहब से जान लिया तब अपने नाम के प्रति उसमें अजीब सी जुगुप्सा उत्पन्न हुई। किसी के विपदा पुकारने पर उसकी साँसें अटक जाती थीं। वह लजा जाती थी। अपने जैसा नाम उसे किसी अन्य का पास-पड़ोस और स्कूल में नहीं सुनाई दिया था।

अब तो अपने नाम से विपदा को प्रेम हो गया है। किसी को भी अपना नाम बताने में न वह झिझकती है और न किसी तरह की कुंठा का अनुभव करती है। यह नाम उसकी पहचान बन गई है। फिर भी, यदा-कदा मन के किसी कोने में बहुत गहरे विपदा अपने नाम को लेकर एक मानसिक चुभन महसूस करती है। खासकर उस वक्त जब कोई व्यक्ति उसके नाम पर उसे टोकता  है।

तभी तो झल्लाकर उस दिन विपदा अपनी माँ से बोली–‘माँ! माँ!! सुनती हो माँ!!’ माँ घर की साफ-सफाई में लगी हुई थी। ‘माँ! पहले मेरी बात सुनो’ कहते हुए विपदा माँ का हाथ पकड़कर कमरे से बाहर बरामदे में ले आई। माँ को लगा कि आज क्या बात है जो विपदा इस तरह हाथ पकड़कर अपने पास ले आई है। ‘हाथ तो छोड़, चल, बता क्या बात है? कोई समस्या है तेरी?’ 

‘हाँ, बहुत बड़ी और बहुत टेढ़ी समस्या। तेरे और बाबूजी के कारण।’ माँ अचरज में पड़ गई। सोचने लगी ऐसी क्या बात हो गई है। माँ ने लगभग डाँटते हुए कहा। ‘बोल क्या बात है विपदा?’ अपना नाम लेते ही विपदा माँ पर फट पड़ी थी। ‘मेरा यह नाम आखिर किस कारण से रखा गया। क्यों रखा आपने? बाबूजी ने? जो भी व्यक्ति पहली बार मेरा नाम सुनता है, बहुत आश्चर्य प्रकट करता है और दुःख भी।’ यद्यपि विपदा अपने नाम को लेकर इसके पहले भी कई बार माँ से उलझ चुकी थी। आज नए सिरे से उसके भीतर अपने नाम को लेकर तूफान उठा है।

विपदा ने पूछा, ‘मेरे जन्म पर कोई विपत्ति आई थी घर में क्या? या मेरा लड़की होना आपको विपत्ति जान पड़ा था। लड़का होने का इंतजार था और मैं लड़की हुई।’

उस दिन बहुत खीझ कर विपदा बोल पड़ी थी माँ से। ‘बोलती क्यों नहीं हो माँ? बताओ? क्यों मेरा नाम विपदा रखा? किसके कहने पर? और कोई नाम नहीं मिला? क्यों माँ? चुप क्यों हो? कुछ बोलो तो। मैं कोई विपदा लेकर आई थी आपके जीवन में। मेरा नाम विपदा क्यों रखा गया? आखिर मैं परिवार की इकलौती बेटी हूँ। बेटियों का कोई बोझ भी तो नहीं था बाबू पर। फिर भी, मेरा ऐसा नाम, यह भी कोई नाम है? अपने  रिश्ते, गाँव-पड़ोस में कहीं भी मेरे जैसा नाम सुनाई दिया है आज तक? जब कहने और सुनने में बहुत बुरा लगता है दूसरे लोगों को, तो सोचो माँ! कितना बुरा लगता है मुझे।’ 

विपदा अपने नामकरण का सच जान लेना चाहती है। आज उसने ठान लिया है अपनी माँ से। मानो वह प्रण किए बैठी थी सूरदास के शब्दों में–‘एक-एक करि टरिहौं।’ माँ का दिल भीतर से अवश्य कचोटता रहा होगा। पर वह हमेशा मौन साधे रही। आखिर में विपदा की गहरी पीड़ा के एहसास ने माँ को मुँह खोलने को विवश कर दिया था। वह बहुत भावुक हो गईं, बोली, ‘बेटी विपदा! अब क्या कहूँ? कैसे कहूँ? वह समय, न चाहते हुए भी तुम याद दिला रही हो।’ माँ के होंठों तक आने में शब्द मानो  भीतर उमड़ रही भावनाओं की आँधी में कहीं फँस गए हों। पल भर का सन्नाटा दोनों के बीच। चकित मन विपदा को माँ के भीतर शब्दों की गड़गड़ाहट सुनाई देती है। माँ अतीत के उन पृष्ठों को पलटने का मन बना चुकी थी। उसकी आँखों में अतीत के दंश की छाया झलकने लगी थी। ऐसा लगा कि जैसे दिल में कहीं बहुत गहरे सुप्त पीड़ा का ज्वालामुखी फटने वाला हो। विपदा के जन्म-समय की घटना का वह पृष्ठ खुल गया था–‘कितनी भयावह थी वह रात। भादों की नागिन-सी अँधियरिया। झमाझम बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। बिजली की कड़क और चमक हर किसी के दिल को दहला रही थी। कुत्तों की झौं-झौं-भौं-भौं से वातावरण बहुत डरावना हो गया था।  बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मानो कलेजा मुँह को आ जाएगा। सनसनाती हुई सर्द हवाएँ कान के पर्दे हिला रही थीं। घर में हम दो औरतें, एक बेटा और बाहर कुल दो मर्द थे। तेरी दादी की तबीयत बहुत नासाज थी। दादा के खाँसने की आवाजें लगातार ऊँची उठने लगी थीं। टी.बी. ने जोर मार दिया था। अच्छी खुराक़ नहीं नसीब में थी। तेरे पिता अकेले बहुत परेशान थे। तेरा भाई अभी सयाना नहीं हुआ था। घर में रुपये-पैसे का अभाव पहले से ही था। मजदूरी का कोई ठिकाना नहीं था। मनरेगा जैसी योजनाएँ नहीं लागू हुई थीं। सड़क और सरकारी भवनों आदि के निर्माण में मजदूरी का काम मिलता था। कई-कई दिन काम नहीं मिलने पर चूल्हा जलाने की नौबत नहीं आती थी। साहूकार से उधार लिए रुपयों पर ब्याज दिनों-दिन मूल पर चढ़ने लगा था। तेरे बाबू कमाने शहर भी गए। लेकिन वहाँ उनका जी नहीं लगा। लौटकर बुद्धू घर को आए। आर्थिक स्थिति बेहतर करने के उद्देश्य से पाँव पसारने की कोशिशें अक्सर फेल हो रही थीं। आज की तरह उस समय सरकारी आर्थिक सहयोग दाल में नमक के बराबर भी नहीं मिलता था। हमारी फटेहाल जिंदगी में तेरा आना तय हुआ। उस वक्त तू मेरे पेट में थी।’ 

माँ का हलक सूखने लगा था। लगातार बोलने की आदत नहीं थी उनकी। प्रसंग दु:खभरा है, गर्माहट भरे शब्द माँ के मुँह से फूल जैसे कैसे झर सकते हैं। हिम्मत सहेजकर माँ ने आगे कहना शुरू किया।

‘…उस रात मीठा-मीठा दर्द मेरे पेट में शुरू हो गया था। लग रहा था कि अब अधिक देर तक मेरे पेट में टिकने वाली नहीं है तू। वह अँधेरी रात बहुत डरावनी थी। घर में जुगजुगाती एक ढिबरी भर जल रही थी। अँधेरे से लड़ने की कोशिश करती हुई। मेरी भी स्थिति उस ढिबरी जैसी थी। अभावों और बड़ों की बीमारी, बढ़ते क़र्ज़ के अँधेरे से हम लड़ रहे थे। उजाले की आस में। कोई भाग्य लेकर आ जाता इस घर में आज। उग आता मेरी कोख से कोई उजाला लेकर।’

यह सारा सच बताते हुए माँ का चेहरा मुरझाए हुए फूल-सा हो गया था। घर में फैले अँधेरे में ढिबरी की मद्धिम रोशनी में माँ के गोल-मटोल साँवले चेहरे में बड़ी-सी आँखें जुगनू-सी चमक रही थीं। विपदा का ध्यान माँ की बातों पर जम गया था। आगे का किस्सा सुनने के लिए वह उतावली हो गई थी। वह बोली, ‘तो हाँ माँ, आगे फिर क्या हुआ?’ 

माँ ने पास में रखे जग से गिलास में पानी उड़ेला और अपना गला तर करने की कोशिश की। अभी उसे अपना बयान आगे दर्ज करना बाकी था। माँ ने आगे सुनाना शुरू किया। ‘उस भयावह रात में आए आँधी-पानी में खपड़ैल वाले पुराने घर का एक सिरा भरभराकर ढह गया। उसी हिस्से में तेरे दादा की चारपाई लगी थी। उनके सिर में गहरी चोट लगी। डॉक्टर का घर गाँव से दूर था। बारिश और आँधी थोड़ा थमी। तेरे बाबू गाँव के एक झोला छाप डॉक्टर को ले आए। दादा के सिर में पट्टी बाँध दी गई। दर्द की दवाएँ दी गईं। उस समय रात के तीन बजे थे। भोर होने में अभी समय शेष था। दादा के पास बाबू आधा घंटे ही बैठ पाए थे कि मेरी प्रसव वेदना अचानक बहुत बढ़ गई। बाबू ने पड़ोस का दरवाजा खटखटाया और मिसिराइन चाची को जगाकर ले आए। उन्हें बच्चा जनने का पुराना अनुभव था। वे हॉस्पिटल में काम कर चुकी थीं। जच्चा-बच्चा के हालात का मुआयना कर वे बोलीं, ‘फिकिर करने की जरूरत नहीं है। सब ठीक है। बस कुछ दवाओं और कुछ जरूरत का सामान चाहिए। अपने घर में देखती हूँ डिलीवरी का क्या सामान रखा है?’ मिसिराइन चाची ने बाबू से कहा और झट से अपने घर पहुँचीं। एक थैले में डिलीवरी के लिए आवश्यक औजार और कुछ दवाएँ लेकर आ गईं। उन्होंने ही पानी गरम किया, पुराने साफ कपड़े लिए। घंटा भर के प्रयास में मिसिराइन चाची सफल हुईं। इस तरह तेरा जन्म हुआ। खुशी इस बात की थी कि नार्मल डिलीवरी हुई। बस एक बात परेशान करने वाली थी कि मेरी तबीयत थोड़ी खराब हो गई थी। डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा, ऐसा कहकर मिसिराइन चाची अपने घर लौट गईं।…

…सुबह होने में कुछ ही समय बाकी था। अँधेरा छँटने लगा था। भोर ने अपने उजले पंख खोल दिए थे। सुबह हो चुकी थी। बीती रात का ज़ख्म इस परिवार के दिल और दिमाग पर साफ दिखाई दे रहे थे। गाँव से दस किलोमीटर दूर शहर में हॉस्पिटल था। दादा को हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। मुझे  भी महिला अस्पताल पहुँचाना पड़ा था। चार-पाँच दिनों के इलाज के बाद मैं तो स्वस्थ होकर घर लौट आई, किंतु तुझे पीलिया हो गया था। कुछ दिनों के लिए हॉस्पिटल में एडमिट रखना पड़ा। इधर दादा की लड़ाई ठनी थी मृत्यु से। जीवन जल्दी नहीं हारना चाहता था। अंततः महाप्रयाण पर निकलना ही पड़ गया तेरे दादा को। घर में शोक का वातावरण व्याप्त हो गया था। चार दिनों के बाद तुझे हॉस्पिटल से डिस्चार्ज कराकर घर ले आए तेरे बाबू।’ 

इस दुःखभरी दास्तान को सुनकर विपदा की माँ निढाल-सी हो गई। उसकी आँखें गीली हो आई थीं। जैसे उसने बिल्कुल अभी कोई दु:स्वप्न देखा हो। माँ की विह्वलता देखकर विपदा को एहसास हुआ जैसे माँ आज फिर बीस साल पहले उसी रात के अँधेरे से निकल कर अपने हरे जख्मों के साथ हमारे सामने खड़ी हो गई है। विपदा के दिलो-दिमाग में भी एक हलचल-सी मची हुई थी। वह उठी, उसने माँ की आँखें माँ के ही आँचल से पोंछा। सिर पर हाथ फेरा और गले लग गई। दोनों निःशब्द थे।

विपदा सोचने लगी थी कि विधि के विधान के सम्मुख मनुष्य की कैसी लाचारगी है। माँ की कोख से आने का समय उसी अँधेरी रात में विधाता ने तय किया था। फिर उसका क्या दोष? उसके जन्म लेने से दादा के जीवन पर आफ़त आई? यह कैसे संभव है। मैं कारण नहीं हो सकती हूँ? लेकिन घर-परिवार, पड़ोस सभी ने उसे ही दोषी करार दिया था। किसी की जुबान पर ताला नहीं लगाया जा सकता था।

आज, तर्क-वितर्क करने का कोई अर्थ नहीं रह गया है। उस वक्त तो माँ और बाबू ही नहीं गाँव के सभी लोगों ने विपदा को दादा की मौत का दोषी मान लिया था। यह जानकर एकबारगी विपदा को लगता है कि जैसे दादा की मृत्यु के लिए वही जिम्मेदार है। लेकिन तत्क्षण उसके मन ने उसे टोका–गलत सोच रही है तू। सरासर ग़लत। वक्त को दोषी भला कौन मानता है? गलती तो इनसान की ही मानी जाती है। माँ से अपने जन्म की कथा सुनकर उस समय की कठिन परिस्थितियों की भयावहता को भुला पाना विपदा के लिए संभव नहीं हो पा रहा था। वह कभी अपने जन्मकाल को कोसती है और कभी माँ और बाबू के द्वारा दिए हुए नामकरण पर क्षोभित।

पिछले बीस सालों में देश-दुनिया बहुत तेजी से बदल गई है। विपदा के परिवार की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में भी सुधार आया। शिक्षा ने लोगों की आँखें खोलने का प्रयास किया है। किंतु, अज्ञानता और पिछड़ेपन के निशान अभी भी बाकी हैं। विपदा ने विश्वविद्यालय स्तर पर टॉप किया है। उसने नेट/जे.आर.एफ. परीक्षा पास कर ली। पीएच.डी. के लिए आवेदन किया है। रामप्रताप मिश्र, यादव सर, अनिमेष सर आदि ने विपदा को शाबाशी दी। बधाई एवं शुभकामनाएँ पाकर विपदा बहुत गदगद हुई। उसे‌ उस सुबह का इंतजार है, जब उच्च शिक्षा संस्थान में उसे कोई बड़ा मुकाम हासिल हो।


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Artist : Leonardo da Vinci
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