यशस्वी भव

यशस्वी भव

मोबाइल उठाते ही अखिलेश मामा का नंबर देख प्रवीर का चेहरा मुस्कुराहट से खिल उठा था, पर मामा की रुआँसी आवाज में कहे गए टूटते-बिखरते शब्दों ने उसे अवाक् कर दिया। हाहाकार की लपटें जैसे उसे चेतना-शून्य करने लगी हों। गश खाकर गिरते-गिरते वह बचा था। तत्क्षण कनाट प्लेस के अपने ऑफिस से घर पहुँचने का उसे होश भी नहीं रहा। बड़ी मुश्किल से अपने बिखरे लहूलुहान मन को उसने समेटा था। ऑफिस के कलीग ने सँभालकर उसे घर पहुँचाया। उसे तो यह भी सुध नहीं रही कि किसी को खबर करे। वह तो उसकी पत्नी सुनीता थी जिसने घरभर के मन-मिजाज को काम चलाने भर सँभाला था। वैसे खुद भी वह इस समाचार से कम विचलित नहीं थी।

…प्रवीर और सुनीता के लिए हत्या सिर्फ एक शब्द भर नहीं था, उसमें समाहित चीत्कार-हाहाकार, पीड़ा-यंत्रणा, वेदना, विषाद और दुनिया-जहान के संताप थे, जो उनके मन-प्राणों को किसी धारदार हथियार से जैसे गहरे तक चीरे लगा रहे थे, जिससे उबर पाना उनके लिए आसान था क्या? वह हत्या भी जब अपने ही पिता की कर दी गई हो, पिता से भी ज्यादा एक ऐसे शख्स की जिसके पैर के नीचे अनजाने में भी एक चींटी तक नहीं मरी होगी।

…सुनीता को प्लेन का टिकट दूसरे दिन का मिल पाया था। प्रवीर को तो बड़ी मुश्किल से उसी दिन का प्लेन का एक टिकट मिला था, वह भी सीनियर एयरपोर्ट अथारिटी के रिक्वेस्ट पर। रिक्वेस्ट तो उन्होंने राँची जा रहे एक सज्जन से दिखने वाले यात्री से भी की थी, लेकिन उस यात्री ने टका-सा जवाब दिया था कि मृत्यु आपके पिता की हुई है, मेरे पिता की नहीं, फिर मैं क्यों अपना टिकट कैंसिल करके आपको दे दूँ? अब पता नहीं, एक महिला यात्री को क्या सूझी कि उसने अपना टिकट कैंसिल कराके प्रवीर को जाने का मौका दे दिया। दरअसल वह महिला बड़ी देर से प्रवीर की हताशा, उसके शोक-संतप्त चेहरे के हावभाव को देखे जा रही थी तभी उस सज्जन के टके से जवाब ने शायद ऐसा करने के लिए उसे प्रेरित किया था। सुनीता ने प्रत्यक्ष में उस भद्र महिला का शुक्रिया अदा किया और मन ही मन सोच गई कि कैसे कभी-कभी इंसान अपने जज्बात के हाथों मजबूर होकर अपने ऐसे फैसले से दूसरे को सुकून पहुँचाता है।

सुबह के चले हुए प्रवीर को दिल्ली से राँची की दूरी तय करने में, जो सिर्फ कोई डेढ़ घंटे में तय की जाती है, दिनभर लग गया। कब से एयरपोर्ट पर कोशिश-पैरवी करते-करते किंगफिशर में उस महिला की कृपा से जगह मिली, एक बजकर कुछ मिनट पर प्लेन उड़ी, तो राँची एयरपोर्ट, फिर वहाँ से घर पहुँच पाया। उसे न भूख थी, न प्यास, बस तत्काल पलक झपकते घर पहुँचने की विकलता थी, माँ को ढाढस बँधाना था, पापा को अंतिम बार भर नजर देखना था। …सबसे पहले तो माँ से प्रवीर का सामना हुआ, हालाँकि घर में घुसते ही माँ का इस रूप में सामना करना वह कतई नहीं चाहता था। कभी ऐसे दृश्य देखने को मिलेंगे, सोचा भी नहीं था।… पापा फूलों से लदे, जमीन पर लेटाये गए थे। बदन पूरा ढँका हुआ था, सफेद चादर से। चेहरा शांत, निश्चल, जैसे कहने-सुनने को अब बचा क्या रहा। प्रवीर ने बड़ी मुश्किल से अपने को सँभाला और माँ के आँसू पोंछते-पोंछते स्वयं माँ से लिपटकर फफक पड़ा। माँ-बेटे के हृदयविदारक रुदन से सभी भाई-बहन एक-दूसरे से लिपट कर रोने लगे थे। ड्राइंग रूम, डाइनिंग रूम के साझे की चौड़ी-सी जगह रिश्तेदारों, मित्रों से भरी थी। प्रवीर के बाकी भाई बहन कुछ देर पहले ही आ गए थे। उसके अखिलेश मामा अभी रूलिंग पार्टी में विधायक थे। बहन-बहनोई से अखिलेश का रिश्ता काफी गहराई से जुड़ा था। जब अखिलेश पांडेय के सर से माता-पिता का साया बहुत कम उम्र में ही उठ गया था, तो इन्हीं बहनोई ने उन्हें अपने गले से लगा लिया था। पिता की कमी कभी भूले से भी उसे खलने नहीं दी थी, चाहे आर्थिक जरूरतें हों या फिर भावनात्मक, और आज अखिलेश के उसी जीजा की नृशंस हत्या कर दी गई थी। प्रवीर की माँ से भी ज्यादा प्रवीर का मामा शोक-संतप्त था।

…दाह संस्कार के बाद प्रवीर के साथ उसके मामा गुमसुम अपने आपमें खोये, लेटे हुए थे। नींद तो घर में किसी की आँखों में आ ही नहीं रही थी। ले-देकर सुभाष पांडेय की हत्या की ही बातें हो रही थी। प्रवीर से मुखातिब, धीमी आवाज में अखिलेश बतला रहा था कि यही करीबन एक या डेढ़ महीने हुए होंगे कि सुभाष पांडेय ने एक दिन अखिलेश से कहा था कि अभी जो बिपिन बिहारी के नाम का ड्राइवर उन्होंने रखा है, उसके चाल-ढाल तो ठीक-ठाक हैं, लेकिन बातें वह ऐसे करता है जैसे किसी आपराधिक गिरोह से ताल्लुक रखता हो। ऐसा सुनते ही अखिलेश के कान खड़े हो गए, जैसे राजनेता के ऐंटिना सक्रिय हो गए हों–‘क्या कहता है?’

‘एक तो हमेशा राइफल, पिस्टल, कितना पावरफुल, कहाँ मिलता है जैसी बातें करता है, जैसे ये बच्चों के खेलने की चीजें हों। उन राइफलों-पिस्टलों और गोलियों के साथ जुड़े संदर्भ और कहानियाँ भी बतलाता है। बात-बात में एके 47 राइफल की चर्चा जरूर करता है…।’

अखिलेश ने बीच में ही टोका, ‘क्या यह सब आपसे कहता है?’

‘नहीं भाई, मुझसे कहता तो मैं कुछ जवाब भी देता। वह सब तो जब प्रवीर की माँ के साथ बाजार या मंदिर या फिर किसी किट्टी पार्टी में जाता है, तो रास्ते में गाड़ी चलाते हुए चटखारे ले लेकर बतलाता है। तुम्हारी दीदी तो डर गई हैं। वैसे वह बिपिन बिहारी उसी की खोज थी। ड्राइवर कई दिनों से मिल नहीं रहा था। और एक दिन किसी से पता-ठिकाना लेकर उसके घर पहुँच गई थी। उसके गले में वैष्णो देवी का चित्रखुदा लॉकेट देखकर वह प्रभावित हुई थी। बात तय होने पर जब वह आने लगी, तो बिपिन बिहारी ने उनके पैर छूकर प्रणाम किया और कल समय पर अपने पहुँच जाने की बात कही…।’

बीच में ही संदर्भ को रोकते हुए अखिलेश ने पूछा, ‘आपसे कभी कुछ ऐसी बातें कही थी या नहीं?’

‘उस तरह की बातें तो नहीं, लेकिन जब दूसरे दिन वह आया, मुझे फैक्ट्री ले जाने, जो स्वभावतः मैंने उससे पूछा था कि इसके पहले वह कहाँ काम करता था। उसने बताया कि वह भाई के यहाँ काम करता था। इस पर मैंने पूछा कि किस भाई के यहाँ? क्या तुम्हारा अपना कोई भाई है?’ वह बोला, ‘मेरा कोई अपना भाई नहीं साहब, वह भाई कोई और नहीं कृष्णदेव भगत हैं, आपने उनका नाम नहीं सुना है? अखबार में भी कभी नहीं पढ़ा है? उन्हें ही तो लोग ‘भाई’ कहते हैं। भाई जब बाहर निकलते हैं तो बॉडी गार्ड, राइफल, बंदूक से लैस रहते हैं।’ उस दिन उसकी बातें सुनकर मुझे बड़ी कोफ्त हुई, जैसे उसका यह भाई गुंडा, मवाली न होकर कोई वीर योद्धा हो, कोई महात्मा हो…।’ अखिलेश के कान खड़े हो गए, ‘क्या नाम कहा, कृष्णदेव भगत? खूब अच्छी तरह मैं उस मवाली को जानता हूँ। आर्म्स ऐक्ट के तहत पूरे परिवार को घर से बाहर निकलवाकर मैंने उसके घर की तलाशी लिवाई थी। वह भाई कृष्णदेव भगत लुंगी-गंजी में बाहर आया था। उसी थाने के दारोगा को अपना ट्रांसफर करवाना था। वह मेरे पास पैरवी कर रहा था। मैंने भी कृष्णदेव भगत की खोज-खबर लेने को कह दिया था। हमारी पार्टी के कुछ कार्यकर्ता को वह डरा-धमका रहा था, अपने लोगों से रंगदारी वसूलवा रहा था। आज का पैदा हुआ अपराधी उस इलाके में हुड़दंग मचाए हुए था।’

इस पर जीजा ने मुस्कुराते हुए कहा था, ‘अखिलेश’ दोनों बातें तुम्हीं कह रहे हो! एक तो यह कि वैसे कुछ करने की उसकी हिम्मत नहीं है, फिर कहते हो कि उसे हटा देना जरूरी है। मेरी मानो तो मैं उसे हटा देना चाहता हूँ, लेकिन कोई ढंग का ड्राइवर तो खोज दो। तुम्हारी दीदी का गॉल ब्लाडर (पथरी) का ऑपरेशन होने वाला है। ड्राइवर की जरूरत होगी। मैं कॉलोनी में भले गाड़ी चला लूँ, लेकिन मेन रोड ले जाना मुश्किल है। ‘सेवा सदन’ अस्पताल के रास्ते में वैसे ही काफी भीड़ रहती है। किसी को टक्कर मार दी तो अलग परेशानी हो जाएगी।’

‘ठीक है, खोजता हूँ। दीदी से कह दीजिएगा शाम को आऊँगा।’

‘ठीक है, तुम्हारी दीदी से तुम्हारे आने की बात कह दूँगा,’ कहते हुए जीजा उस दिन चले गए थे। शाम को मैं दीदी के घर पहुँचा था। बाकी बहुत तरह की बातें बिपिन बिहारी के बारे में दीदी ने बतलायी थी कि उसकी बात, उसका व्यवहार कुछ अजीब था। एक दिन वह दीदी को बतला रहा था कि भाई (कृष्णदेव भगत) को जब कई दिनों बाद आदमी भेजने पर भी रंगदारी नहीं मिलती थी तो वह हमलोग को हुक्म देते थे कि अमुक व्यक्ति की जितनी पिटाई कर सकते हो करके जाओ, ऐसा कहते हुए उसने अपनी मुट्ठी बाँधकर उँगलियों की गाँठें दिखाईं, जहाँ घट्ठा पड़ा हुआ था। उसने यह भी बतलाया कि ऐसी मारपीट की नौबत करीबन रोज ही आ जाती थी। दीदी ने बतलाया था कि यह सब बखान करते हुए उसकी आँखों में उभरे हिंसक भावों को तो कभी उसके चेहरे के वहशीपन को परखती आश्चर्यचकित उसे बस देखती रहती थीं। पहली मुलाकात वाला बिपिन बिहारी जैसे वहाँ था ही नहीं, विनम्र सौम्य धार्मिक दिखने वाला वह व्यक्ति जैसे कोई और था। लेकिन थोड़ी देर के बाद ही वह अपने उसी दिनवाले विनम्र खोल में छुपा दिखा था। जैसे दीदी कोई बच्ची हों, जिसे वह सब सुनाकर उसने डरा दिया हो। फिर सहज करने के ख्याल से अपना चोंगा बदल लिया हो।

‘…पिता सरीखे जीजा की चांडाल विनोद बिहारी ने हत्या कर दी, रुपया-पैसा जो लेना था, ले ही लिया फिर हत्या क्यों कर दी?’ कहते हुए अखिलेश ने डबडबाई आँखों से करवट बदल ली, जैसे प्रवीर उसकी आँखों में आँसू देखेगा, तो फिर से बच्चों की तरह उसे पकड़कर रोने लगेगा। लेकिन अखिलेश की डबडबाई आँखें प्रवीर के मन में गहराई तक उतर आई थीं…।’ किस्सा तो यही था कि उस दिन पापा फैक्ट्री गए थे और वापसी में एक-दो जगह से मोटी रकम लेकर लौट रहे थे। लेकिन बिपिन बिहारी तो गाड़ी में ही बैठा म्यूजिक सिस्टम पर गाना सुन रहा था। वह तो कार से बाहर गया ही नहीं, फिर कैसे सूँघ लिया कि पापा मोटी रकम लेकर कार में बैठे हैं? प्रवीर के भीतर से आह निकली…सवालों का क्या? जो होना था वह तो हो गया न। पापा को तो वापस पाया नहीं जा सकता है।’

…अवधेश ने अपनी आँखें पोंछीं, अपने आपको स्थिर किया और प्रवीर की तरफ मुँह घुमाया। प्रवीर का स्थिर और पथराया चेहरा देखकर वह सहम गया। उसने प्रवीर को टोका, तो जैसे वह नींद से चौंका हो, ‘हाँ, कहिए मामा?’

‘तुम चिंता नहीं करो। बिपिन बिहारी चाहे दुनिया के जिस भी कोने में छिपा हो, उसे तो खोज निकालेंगे ही। दीदी का बिंदीविहीन चेहरा मुझे हरपल धिक्कारता रहता है। एक बार वह मिल तो जाए, अपने हाथों से उसे ऐसी सजा दूँगा कि फिर  वह ताजिंदगी कानून के शिकंजे में घायल पक्षी की तरह फड़फड़ाता अपनी जिंदगी की भीख माँगेगा, जो उसे कभी नहीं मिलेगी।’ मामा की बातों से प्रवीर के जख्म का दर्द कम होने लगा, ‘मामा, अब पापा तो लौटकर आने से रहे, लेकिन कम से कम उनके हत्यारे को सजा दिलाकर मन को थोड़ी शांति मिलेगी। मैं यहाँ रहता, तो शायद कुछ कर पाता। इस घटना ने मुझे बहुत कुछ समझा दिया है। अपनी जड़ से उखड़ कर दिल्ली जैसे महानगर में खो-सा गया हूँ। कहने को नामी-गिरामी इंस्टीच्यूट से सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की, वाहवाही लूटी, मल्टीनेशनल कंपनी का एम.डी हूँ, लेकिन जिस महानगर में देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति रहते हों वहाँ क्या मेरी आवाज ऊपर तक पहुँच पाती? वहाँ ऐसी घटना होती तो क्या मैं खोज पाता अपने पिता के हत्यारे को? मिल भी जाता, तो क्या उसे सजा दिला पाता? यह सब आप ही कर सकते हैं। आप तो बड़े ही रसूख वाले हैं। पूरा झारखंड पुलिस महकमा ऊपर से नीचे तक आपका कहा सर आँखों पर लेगा।’

‘देखता हूँ प्रवीर। तुम चिंता नहीं करो। मैं हूँ न। जब तक उसे ढूँढ़ न निकालूँ, मुझे खुद चैन नहीं मिलेगा। गुंडे और पुलिस, दोनों शिकारी कुत्ते की तरह उसे खोज रहे हैं, ताकि झपट्टा मारकर उसे क्षत-विक्षत किया जा सके, उसकी बोटी-बोटी काटकर चील-कौवे को खिलायी जा सके।’ प्रवीर को मामा के कहे हर एक हर्फ में जैसे प्रतिशोध लेने की कट्टर भावना का एहसास हुआ था।

…तेरह दिन के बजाय तीन दिन में ही सुभाष पांडेय का क्रिया-कर्म आर्य समाज विधि से कर दिया गया। कट्टरपंथी पांडेय-परिवार में कोई ऐसा नहीं था जो कहता कि आजतक 13 दिनों में अंतिम संस्कार होता आया है, घर के मुखिया के संस्कार में ही ये बदलाव क्यों? दरअसल शमशान-वैराग्य से जल्दी ही उबरकर सबका ध्यान उस जघन्य हत्यारे को पकड़वाने और सजा दिलाने में ही लगा हुआ था, जैसे इन कर्म-कांडों से नहीं बल्कि हत्यारे को मौत की सजा दिलाने से ही सुभाष पांडेय की आत्मा को शांति मिल सकती है और यह सब तभी संभव हो सकता था जब परिवार के लोग इस विधि-विधान में समय नहीं गँवाकर, हत्यारे का पता लगाने में लग जाएँ।

…क्रिया-कर्म से निपटे भी कई दिन बीत गए थे, लेकिन अभी तक बिपिन बिहारी का कोई सुराग मिल नहीं पाया था। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, वैसे-वैसे प्रवीर की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। अखिलेश पांडेय अभी भी प्रवीर को तोष-भरोस दे रहा था कि जाएगा कहाँ, एक न एक दिन पकड़ा जाएगा ही।

…शाम का अँधेरा घिर रहा था बल्कि घिर ही गया था। अँधेरा घिरते जाने से प्रवीर ने एक उदासी, एक अनजानी मायूसी का एहसास किया। अब पता नहीं, यह उदासी, ये मायूसी उसके अपने मन की थी या फिर सूर्य की किरणों के विलीन होते जाने की वजह से था। उसने जैसे अपनी मायूसी से निजात पाने के लिए अखिलेश मामा के यहाँ जाने का मन बनाया। बाहर ही उसने अपनी गाड़ी लगाई। भीतर हाते में मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत गाड़ी और बॉडी-गार्ड प्लेन ड्रेस में सतर्क खड़ा था। अखिलेश पांडेय को भी सरकारी आवास मिला हुआ था, बॉडी-गार्ड वगैरह भी था। किसी व्यक्ति का भीतर जाना मना था कि भीतर अति गोपनीय मीटिंग चल रही है, लेकिन प्रवीर को वहाँ के दरबान, बॉडी-गार्ड, सभी पहचानते थे, सो वह बड़ी सहजता से भीतर चला गया। बैठक रूम से अखिलेश पांडेय की आवाज और साथ में ही किसी अजनबी की आवाज सुनकर वह समझ गया कि हो न हो, यह मुख्यमंत्री जी की ही आवाज है। ड्राइंग रूम से सटा हुआ मींटिग रूम था। और यह मीटिंग रूम खास रूम था अखिलेश पांडेय का। मंत्रणा की तथा कुछ खास कोई गुप्त बातचीत करने की वह जगह थी। बाहर खड़ा प्रवीर सोच में था कि भीतर ड्राइंग रूम में जाकर बैठे कि नहीं। घर के भीतर हिस्से में जाने का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि उसकी मामी तो उसी के घर गई हुई थी, तभी भीतर की उनकी बातचीत सुनकर वह ठिठका वहीं खड़ा रह गया… ‘पांडेय जी मैं आज तीसरी बार आपसे बातें करने, आपको समझाने आया हूँ। आप समय की नजाकत को समझने की कोशिश तो कीजिए। हमारी मिलीजुली सरकार किसी भी दिन गिर सकती है। जब-तब ये इंडिपेंडेंट पार्टी वाले तरह-तरह की शर्तें रखते रहते हैं। सरकार को अपना कार्यकाल पूरा करने ही नहीं देते हैं। और जब ये पार्टियाँ हमारी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेंगी तो ताश के पत्तों से बने घर की तरह यह सरकार भरभराकर औंधे मुँह गिर पड़ेगी, तब इसी कृष्णदेव भगत का आसरा बचा रह जाएगा। कृष्णदेव भगत अब वह कृष्णदेव भगत रह नहीं गया है जिसे लुंगी और गंजी में आपने पुलिस द्वारा घर से खिंचवा कर सड़क पर लाकर खड़ा करवा दिया था। उसकी पार्टी अपने आपमें जितना दम-खम रखती है उतने ही अक्खड़ मन-मिजाज की भी है। आज उसके हाथ में जितने एम.एल.ए. हैं उससे हम फिर से बहुमत साबित कर सरकार बना सकते हैं। और बिपिन बिहारी कहने के लिए उसका ड्राइवर है, दरअसल वह उसका दाहिना और बायाँ दोनों हाथ है। बिपिन बिहारी उसी के घर में छुपा हुआ है। मजाल है किसी पुलिस की या फिर आपके किसी आदमी की कि उसे पकड़कर बाहर निकाल सकें?’

दोनों तरफ से कुछ पल की चुप्पी के बाद… ‘अच्छा पांडेय जी आपके बहनोई की उम्र क्या हुई होगी?’

‘यही करीबन सत्तर या फिर सत्तर से कुछ ज्यादा।’

‘तो और कितने दिन बचते? पाँच साल, सात साल या फिर दस साल, यही न? आप यह भी कहते हैं कि वह आपके पिता-तुल्य थे। यदि बिपिन बिहारी को पकड़वाकर सजा दिलवाने का हठ आप छोड़ देते हैं तो नई सरकार, जिसका बनना निश्चित है और जो कृष्णदेव भगत के समर्थन से बनेगी, उसमें आपका मंत्री पद सुनिश्चित समझिए और विभाग आपको मिलेगा आपकी इच्छानुसार, मलाईदार पोर्टफोलियो के साथ, ‘कहते हुए मुख्यमंत्री ठठाकर हँसने लगे। फिर जब उनकी हँसी धीमी पड़ी, तो बोले, ‘मान लीजिए, पिता-तुल्य आपके बहनोई ने ही आपको मंत्री बनने का सुनहरा अवसर दिया है, तो उसे स्वीकार कीजिए। और फिर उस घोटाले  में जो बार-बार आपका नाम आ रहा था, वह भी हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।’ फिर वही बेशर्म हँसी ‘जब घोटाले की फाइल ही नहीं रहेगी, तो भला सजा किस आधार पर होगी’ कहते-कहते वे उठने का उपक्रम करने लगे। अखिलेश पांडेय की धीमी आवाज आई, ‘चाय तो पीकर जाइये।’

‘अच्छा-अच्छा’ कहते हुए शायद वह उठते-उठते बैठ गए। हाँ, तो बोलिए, आज मैं आपसे जवाब सुनकर ही रहूँगा। आखिर मुझे तुरुप का ये पत्ता कृष्णदेव भगत के सामने भी तो खोलना पड़ेगा।’ प्रवीर को बड़ी बेसब्री से अखिलेश मामा के जवाब का इंतजार था। वैसे प्रवीर को पूरा विश्वास था कि चाहे कुछ भी हो जाए, अखिलेश मामा इस समझौते को बिल्कुल नहीं मानेंगे। उसे मामा की आवाज सुनाई पड़ी–‘आखिर अपनी पार्टी की, पार्टी के हार और जीत का सवाल है तो मुझे तो अपनी जिद छोड़कर आपकी बात माननी ही पड़ेगी न…।’

…जो प्रवीर अब तक अचल अपने मामा का जवाब सुनने के लिए खड़ा रहा अब और आगे उसे कुछ सुनना नहीं था। जल्दी से वहाँ से निकल आया। उस समय तो उसकी यही इच्छा हो रही थी कि तत्क्षण वह यहाँ से अंतर्ध्यान हो जाए।

…प्रवीर को कुछ भी याद नहीं कि वह कैसे घर पहुँचा, कैसे होश सँभाले गाड़ी चला पाया। लेकिन परिवार के लोगों ने देखा और अचंभित होकर उस दृश्य को देखते रहे जहाँ प्रवीर माँ से लिपटकर पुक्का फाड़कर रो रहा था, असहनीय पीड़ा में छटपटा रहा था। न तो उसके विषाद के आँसू थम रहे थे, न ही संताप के मनोभाव से वह उबर पा रहा था। जैसे आज और अभी उसके सामने बिपिन बिहारी बेरहमी से उसके पिता को जबह कर रहा हो, उनके अंग-अंग को काटकर अलग कर रहा हो, और यह सब वह अवश देख रहा हो।

…माँ ने उसे एक अबोध और चोटिल बच्चे की तरह जोर से अपने में समेट लिया था। बहनों ने पानी पिलाया, ले जाकर उसे बिस्तर पर लेटाया। कुछ देर बाद वह सहज हुआ, तो अपनी कातर आवाज में माँ से बोला, ‘माँ चलो यहाँ से। सब कुछ, फैक्ट्री, कारोबार बेचकर दिल्ली चलो माँ। मैं यहाँ तुम्हें पलभर भी छोड़कर नहीं जा सकता। लोग तुम्हें भी मारकर, ये घर, ये फैक्ट्री हथिया लेंगे और सिर्फ अवश देखते रहने के सिवा मैं कुछ और नहीं कर सकूँगा। यहाँ कोई अपना नहीं है माँ। इस छोटे शहर के लोगों की महत्वाकांक्षाएँ बड़े शहरों के लोगों से भी बड़ी हैं। केकड़े का बच्चा माँ के पेट से निकलने पर माँ को ही खाकर अपनी भूख मिटाता है। यहाँ इस शहर में भी अपने ही अपनों को ग्रास बना रहे हैं।

…अखिलेश पांडेय का आना, विलाप करना बदस्तूर जारी था। इधर प्रवीर लंबी छुट्टी लेकर, सब कुछ बेचकर इस शहर से ही नहीं, अपने इस मामा से भी रिश्ता खत्म कर जाने की तैयारी कर रहा था।

प्रवीर को याद आ रहा था वह दृश्य जब भारी बहुमत से जीतकर मामा अपनी दीदी से आशीर्वाद लेने आए थे और उसकी माँ ने उल्लसित स्वर में ‘यशस्वी भव’ का आशीष दिया था।… बार-बार एक अनोखा दृश्य उसकी सोच में कौंध जा रहा था जहाँ अखिलेश मामा मंत्री-पद की शपथ लेकर माँ का चरण-स्पर्श कर रहा था और माँ पुनः उसे वैसे ही आह्लादित स्वर में ‘यशस्वी भव’ का आशीष दे रही है।


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Artist : Umberto Boccioni
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रमा सिंह द्वारा भी