चालीस साल लम्बा स्वप्न

चालीस साल लम्बा स्वप्न

दिन ढल चुका था और उसके पीछे चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था। पहाड़ियों के बीच से गुरजती हुई ट्रेन के लोहे का पुल पार करते ही एक चौड़ी सी निर्जन घाटी शुरू हो जाती थी। घाटी में दूर-दूर पर खड़े दरख्त साँझ के धुंधलके में घुलते से लग रहे थे। ऊबड़-खाबड़ और झाड़-झंखाड़ भरी घाटी में नीलिमा फैली थी। ऊँट के कूबड़ वाली आकृति सदृश पहाड़ी कोई सुलगता हुआ चाँद धर गया था। समस्त घाटी उस आकाशी लालटेन की पीली रोशनी में आलोकित था। पिछले सात-आठ वर्षों में मैंने ऐसी अनोखी शाम नहीं देखी थी।

दरअसल मैं रेल विभाग के सरकारी दफ्तर में एक मामूली क्लर्क था। जितनी पगार सरकार से मिलती थी, उतने में राजधानी जैसे बड़े शहर में डेरा-डंडा जमाकर गुजर-बसर करना मुश्किल काम था। सो मैं भी औरों की तरह गाँव से तीस किलोमीटर दूर इस शहर में डेली पैसेंजरी कर बेनागा ड्यूटी बजाता था। हालाँकि घाटी सूनी और बेढब शक्ल की थी फिर भी न मालूम क्यों, यह मुझे सुंदर और लुभावनी लगती थी। जिस रोज किसी वजह से इस घाटी के दर्शन नहीं होते थे, उस रोज ऐसा लगता मानो मेरे हृदय में व्यथा के सन्नाटेदार कुएँ खुद गये हों। पैसेंजर गाड़ी मेरे गाँव के स्टेशन से दो स्टेशन पहले एक कस्बाई शहर से खुलती थी। सो अक्सर खिड़की वाली सीट मिल जाती थी और मैं पुलकित नजरों उस घाटी को पीछे छूट जाने तक निहारता। कोयलेवाली काली कलूटी इंजन अठबोगिया गाड़ी को हिचकोले देकर खिंचती। उसकी चाल बेहद उबाऊ और लिद्दड़ किस्म के हुआ करती थी। इंजन के धुएँ से खिड़की पर बैठे मुसाफिरों के धुले हुए लिबास फायरमैन की सरकारी पोशाक की माफिक एकदम काले हो जाते थे। लिहाजा मैं जेठ की तपती दोपहरी या भादो आश्विन की उमस भरी सुबह में भी एक रेशमी चादर ओढ़े सफर तय किया करता। लेकिन यह सब अधिक दिनों तक नहीं चला। अस्सी के दशक से गाड़ी डीजल इंजन से खींचने लगी। डिब्बे बढ़कर अठारह हो गये, भीड़ भी उसी अनुपात में बढ़ गयी।

घाटी में प्रवेश कर पुल पार कर रेलवे लाइन एल-टर्न लेकर कुछ दूर नदी किनारे-किनारे चलती और फिर से पश्चिमोत्तर दिशा में बढ़कर पहाड़ी गुफा में गुम हो जाती थी।

इधर कुछ दिनों से एल-टर्न के पास ढलान पर एक अदना-सा झोपड़ी आकार लेने लगी थी। तब मेरी सारी उत्सुकता उस आकृति पर केंद्रित हो चुकी थी। चंद दिनों बाद ही उस झोपड़े के आगे एक ताम्रवर्णी युवक नजर आया। वह निस्पृह भाव से रेलगाड़ी का गुजरना देख रहा था और मैं उसे।

इस निर्जन-दुर्गम पहाड़ियों के बीच उसके बसने की बात मेरे जेहन में घर कर गयी। उसके बास की वजह या मजबूरी चाहे जो भी रही हो, था वह बड़ा ही जीवट और अदम्य साहसी किस्म का। दो-तीन महीने बाद उस झोपड़ी में कुछ और जीवों की आमद हुई, मसलन दो जोड़े मुर्गे-मुर्गियाँ, एक चितकबरी बकरी और उसे दो नन्हें बच्चे–शावक की तरह एकदम सफेद। उनके नथुने गुलाबी गुलाब सूँधते से लगते। जंगली बिलारों और लकड़बग्घों से इन सीधे जीवों की सुरक्षा के लिए सूखी लकड़ियों के बाड़ बन गये। उसके सप्ताह भर बाद एक भूरा कुत्ता भी दिखने लगा। वह अक्सर मूर्गों और बकरी के बच्चों से घिरा रहता या उन्हें दैनिक जीवन में काम आने वाले छोटे-मोटे दावपेंच सीखाता। जब रेलगाड़ी उधर से गुजरती तो वह झोपड़े के आगे बने कच्चे चबूतरे पर खड़े होकर भूँका करता। यह उसकी दिनचर्या में शामिल था।

ऐसे बयाबान में घर-गृहस्थी का बसना कुछ अन्य डेली-पैसेंजरों के लिए भी उत्सुकता का विषय था लेकिन वे शीघ्र ही इन गैर जरूरी बात से उब कर ताश के पत्तों में मगन रहने लगे। सतत परिवर्तनों के बीच वक्त तेजी से गुजर रहा था। मेरी घनी मूँछों में इक्के-दूक्के सफेद बाल नजर आने लगे। बिना चश्में के पेपर पढ़ना मुश्किल होने लगा। झोपड़ी से लाइन की तरफ आती हुई एक पगडंडीनुमा लीक घास के बीच उभर आयी थी। मैं अनुमान लगाने लगा था कि हो-न-हो युवक इस लीक से होकर लाइन किनारे-किनारे चलते हुए आसपास बने फैक्ट्रियों में मजदूरी के लिए जाता होगा। एक वैसी ही राह ढलान से नदी तक जाती थी।

साल बीतते-बीतते उसी तरह की सात-साठ झोपड़ियाँ तनिक-तनिक फासले पर लाइन से खड़ी हो गयीं। नदी की तराई में सीढ़ीदार खेतों में धान की फसलें लहलहाने लगी। मुझे लग रहा था कि एक नयी सभ्यता उसी नदी घाटी में विकसित हो रही है। सिंधु और गंगा की घाटियों में प्रारंभिक सभ्यता का उदय भी इसी तरह हुआ होगा।

उस वर्ष होली के बाद से मुर्गे और बकरी के वयस्क हो चुके बच्चे कभी नहीं दिखे। जाहिर था वे कभी न लौटने के लिए दूसरी दुनिया में जा चुके थे। उनकी अनुपस्थिति से उत्पन्न शून्य से मेरा मन पीड़ा से तड़प उठा–एक दिन आदमी के साथ भी ऐसा ही होना निश्चित है। हालाँकि इनसान इस पर आसानी से विश्वास नहीं करता। वह कुत्ता भी बाड़े के दरवाजे पर अपने पेट में नथुना घुसेड़े गुमसुम बैठता रहा था। गाड़ी को देखकर अब वह भूँकता भी नहीं था। बाड़े पर नेनुआ और लौकी के लतर फैल चुके थे और चंद दिनों बाद उनमें सफेद-पीले फूल खिल उठे। पपीते और छप्पर पर फैले सेम में भी नन्हें-नन्हें फूल निकल आये।

इन सबके बीच मैं अक्सर सोचता कि मुझे उनके बीच जाना चाहिए। मैं उन बाशिंदों को बहुत निकट से देखता आ रहा था। उनकी एक-एक गतिविधियों और घर-गृहस्थी के लिए जुटाये गये तमाम इंतजामात से वाकिफ था। लेकिन वहाँ न तो रेलगाड़ी रुकती थी और न दूर-दूर तक कोई सड़क-रास्ता ही दिखता था। वैसे भी मुझे सुबह दफ्तर जाने की जल्दी रहती थी और शाम को बीवी बच्चों के बीच लौटने की हड़बड़ी।

बरसात के दिन उनके लिए सर्वाधिक कष्टदायक होते थे। पहाड़ी नदी का जल मटमैला व गंदला हो जाता था। पता नहीं उन दिनों पीने का पानी कहाँ से लाते थे? संभवतः पहाड़ी से गिरने वाले जलधार को प्लास्टिक के कनस्तरों में संचित कर अपना काम चलाते थे या कोई अन्य विधि विकसित कर ली होगी।

वैसे ही एक बरसाती दिन को युवक डंडा लिये झाड़ियों के बीच चौकस नजरों से कुछ ढूँढ़ रहा था। उसके चिंतित चेहरे को पढ़कर कोई भी अंदाज लगा सकता था कि कम-से-कम वह उन झाड़ियों में तीतर-बटेर तो नहीं ढूँढ़ रहा था। जरूर कोई अजगर-करैत दीख गया होगा। जाड़े के दिनों में दिनभर अलाव जलता रहता और निठल्ले स्त्री-पुरुष उसे घेरे बैठे बतकही में मशगूल दिखते। उन्हें देखकर मेरा भी मन होता कि घंटा दो घंटा अलाव की गर्मी का आनंद लूँ लेकिन यह सब मेरे लिए जीवित सपने की तरह था। इन्हीं सबके बीच मुझे प्रथम ए.सी.पी. का लाभ मिल चुका था, दूसरे में सिर्फ तीन साल की देरी थी। सरकारी कार्यक्रम के तहत मुझे दो माह की ट्रेनिंग के लिए दिल्ली जाने का आदेश हुआ। यह मेरे लिए बहुत ही कष्टप्रद बात थी कि मैं इतने दिनों तक इन घाटियों की नयनाभिराम दृश्यों एवं नई-नई बस रही बस्ती से दूर हो जाऊँगा। मैं उन बाशिंदों से एक अदृश्य संबंधों की डोर से बंधा था और वे मेरे लिए कौतूहल का विषय थे। लेकिन यह सोचकर बहुत उदासी होती थी कि न तो वह युवक और न ही कोई और वाशिंदा मुझे पहचान पायेगा। मेरा यह अनोखा संबंध निहायत ही एकतरफा और कुछ-कुछ वायवीय तरह का भी।

ट्रेनिंग से लौटा तो दफ्तर में बहुत कुछ बदल चुका था। सींकिया बॉस की जगह तोंदिल और खलवाट खोपड़ी का कड़क मिजाज बॉस उस वातानुकूलित चैंबर पर कब्जा जमाये था। बड़े बाबू शंकर प्रसाद जी रिटायर हो गये। उनकी जगह अभी कोई नहीं आया था। उनकी खाली कुर्सी मेरे मन में वैराग्य भाव पैदा करता। शेफाली ब्याह कर अपने पति के शहर वाराणसी चली गयी और उसकी नौकरी भी वहीं स्थानांतरित हो गयी। उसकी अनुपस्थिति पूरे दफ्तर को बेतरह प्रभावित किये था। सेक्शन में भरे बसंत में भी पतझड़ी उदासी भाँय-भाँय करती।

उधर नई बस्ती में युवक की झोपड़ी पर एस्बेस्टस के छप्पर चढ़ गये। दो-तीन और झोपड़ियों में भी इसी तरह की बहुत मामूली तब्दीली दिखी। उसकी झोपड़ी के आगे एक मचान खड़ा हो गया जिस पर उसने बूढ़े माता-पिता या इसी तरह के कोई अन्य रिश्तेदार नजर आने लगे। झोपड़ी के समीप वाले सेमल वृक्ष और पपीते के छतरीनुमा पेड़ से बंधे बंदनवार अभी भी चमचम करते हवा में लहरा रहे थे। युवक की शादी हो गयी। कुछ पपीते पक कर पीले हो गये और किसी-किसी रोज उस पर चोंच मारते कौवे दिख जाते। जब हमारी गाड़ी उधर से गुजरती तो अक्सर वह किरमिच के जूते पहने कंधे पर मिट्टी का घड़ा सँभाले नदी में उतरता दिखाई पड़ता।

पैसेंजर गाड़ी में बिजली के इंजन जुड़ गये। इसे ई.एम.यू. पुकारा जाना लगा। यह खूब तेज चलती थी लेकिन इसकी तेजी मुझे कभी-कभी निराश करने वाली लगती। पलक झपकते यह आसपास के दृश्यों को पीछे छोड़ देती। उस बस्ती को भी। सो मैं उस बस्ती को पहले के बनिस्बत कम समय के लिए देख पाता था। मैं बड़ी हसरत भरी निगाहों से उसकी झोपड़ी की ओर ताकता ताकि उसकी दुल्हन की एक झलक पा जाऊँ लेकिन महीनों उसके दर्शन नहीं हुए। अलबत्ता बाड़े के आगे नायलोन की अलगनी पर दुल्हन के जोड़े धूप में नहाते दिख जाते। उन दिनों छप्पर पर अचार के दो मर्तबान भी धरे रहते। अपनी बिटिया की शादी के बाद काम पर लौटते एक दिन अनायास ही उसकी पत्नी दिख गयी। दुबली, पतली, लंबी और रंग गेहुआँ। गोद में नवजात बच्चा सँभाले गाड़ी को गुजरती देख रही थी। उस वक्त मैंने अनुभव किया कि मेरी दूर की नजर को भी उम्र की नजर लग चुकी है। और उस रोज मैं आँख की जाँच के लिए मरीजों की पंक्ति में खड़ा था। डॉक्टर ने चश्में में बाई-फोकल लेंस की सिफारिश की और साथ में नेक सलाह दी कि मोतियाबिंद पक रहा है। अगले साल तक ऑपरेशन करा लूँ। मैंने पहली बार अनुभव किया कि अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ और उधर बाहर की दुनिया उसी रफ्तार से जवान हो रही है। बस्ती भी दिनोंदिन पुरानी होती जा रही थी। युवक की बच्ची बड़ी हो रही थी और रंग-बिरंगी फ्रॉक पहने अपनी माँ की उँगली थामें स्कूल जाती दिखती। रेलवे लाइन से दस-बारह फर्लांग की दूरी पर पुराने बरगद की छाया में एक बूढ़े शिक्षक दर्जन भर बच्चों को पढ़ाते दिखते। जब ट्रेन उधर से गुजरती तो बच्चे हवा में हाथ लहराते हुए चिल्लाते और शिक्षक उन्हें छड़ी दिखाकर शांत करने का उपक्रम करते।

सबसे अच्छी बात यह थी कि उस छोटी से बस्ती में अभी धर्मस्थलों के प्रतीक मंदिर-मस्जिद या गिरजाघर नहीं दिख रहे थे जिससे वहाँ अमन-चैन व्याप्त था। बूढ़े दंपति मचान पर बैठे खुसुर-पुसुर करते जीवन काट रहे थे। इधर बस्ती से नदी की ओर जाने वाले रास्ते के किनारे भद्दे शक्ल वाले खजूर के पेड़ पर मोजे की शक्ल के बया के खोंते झूलते दिखने लगें। अपनी माँओं की गैर मौजूदगी में बच्चे चीं-चीं करते उसमें हिंडोरे का मजा लेते। जाड़े के दिनों में सफेद एस्बेस्टस के छप्पर पर छतनार कदम की छाया बेचैन पंछियों की तरह झिलमिलाते और पीपल का पेड़ बेवजह तालियाँ पीटता रहता।

यह संसदीय चुनावों का साल था। चुनावी ड्यूटी के बाद मैं इसी कार्यालय में प्रोन्नत होकर कार्यालय अधीक्षक बन गया। दाढ़ी के बाल करीब-करीब सफेद हो चुके थे। सिर के बाल का घनापन कम हो गया और ललाट पर अनुभव का चाँद निकल आया। शेफाली अपने पियक्कड़ पति को तलाक देकर फिर से इसी दफ्तर में लौट आयी। एक बार फिर से इस दफ्तर में बहारें लौट आयी। वह एक बच्चे की माँ बन गयी थी और कभी-कभी नन्हें बच्चे को अपने साथ लाती थी। मायके से भी रिश्ता टूट चुका था, सो निहायत अकेली थी। बच्चे के बहाने कर्मचारी उसका सामीप्य पाने की जुगत में लगे रहते। बच्चे की जेब चॉकलेट-टॉफी से भरा रहता और शेफाली के टेबुल पर उपहार में मिले खिलौनों की अंबार लगा रहता। लेकिन बाजी मार ले गये तो बजट सेक्सन के विदुर सेक्सन ऑफिसर सुनंदा घोष। दोनों लिव-इन-रिलेशन में रहने लगे। अबकी उस पहाड़ी नदी में विनाशकारी बाढ़ आयी। मौसम वैज्ञानिकों का कहना था कि पहाड़ पर बादल फटने से ऐसे हालात बने। तीन दिनों तक लाइन पानी में डूबा रहा और गाड़ी का परिचालन पूरी तरह ठप्प हो गया। कभी-कभी गाड़ी कॉशन पर बस्ती के पास रुक जाती थी। बस्ती वालों के दिन मचान पर या लाइन किनारे बीत रहे थे। ऐसे ही एक दिन गाड़ी रुकी और मैं फूर्ति से उस परिवार के पास जा पहुँचा। अपनी नतिनी के लिए खरीदे गये फ्रॉक और चॉकलेट उस दंपति की बच्ची को दे दी और स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरी। वे मुझे बड़ी हैरत से देख रहे थे। मेरा वहाँ जाना अजगुत की बात थी। ‘मैं आपलोग को वर्षों से देखता आ रहा हूँ लेकिन कभी मिलने का मौका नहीं मिल पाया’–गाड़ी यहाँ ठहरती ही नहीं। हालाँकि उन्हें खिलौने के बनिस्बत रोटी-ब्रेड की नितांत आवश्यकता थी सो उन्हें कोई विशेष खुशी नहीं हुई। अलबत्ता बालिका के चेहरे पर मुस्कान और कौतूहल एक साथ दिखी।

‘कल ब्रेड लाऊँगा, शाम को इसी वक्त यहीं प्रतीक्षा कीजिएगा’–मैं सिर्फ इतना ही कह पाया। हबड़दबड़ सीटी दे रही गाड़ी की तरफ भागा और सरकती बोगी के पायदान पर चढ़ गया। इसके पहले चलती गाड़ी में सवार होने की कभी जुर्रत नहीं की थी। अगले दिन वापसी में मैंने ब्रेड और बटर के पैकेट प्लास्टिक के थैले में भर कर निर्धारित स्थान पर गिरा दी–वे बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। भोजन के पैकेट पाकर उनके चेहरे की प्रसन्नता देखने लायक थी। मुझे इतनी खुशी कब हुई थी याद नहीं। मैं चाह रहा था कि बाढ़ का पानी जल्दी न उतरे ताकि मैं इसी बहाने उनसे मिलता रहूँ। वैसे यह अत्यंत क्रूर कामना थी। खैर, पाँचवें दिन वे अपने ठिकाने में फिर से लौट गये और कई दिनों तक तहस-नहस हो चुके आसियाने को रहने लायक बनाते रहे। कहीं से कोई मदद मिलता नहीं दिख रहा था।

शिशिरांत तक पहाड़ी नदी कृशकाय जल सोते में तब्दील हो गयी। जहाँ-तहाँ छोटे-छोटे चश्में निकल आये जिसके ठहरे जल में अबकी खूब नीले सफेद कुमुदनी खिले। इतनी मानो ‘फूल के गलीचें’ बिछी हों। घाटी में नीले आसमान के नीचे हरी मुलायम घास चारों तरफ निकल आया, जिसमें जंगली पशु कूलाँचे भरते चराई करते दिख जाते। कुछ गैर-इलाकाई जानवर भी कहीं से आ गये थे जिस पर यात्रियों के बीच बहस छिड़ी रहती। पहाड़ी तराई में सरकार ने इस बार हेलीकॉप्टर से शिरीष, शीशम आदि की बीजें छिंटवायी थीं, जो उग आये थे।

जाड़ा भी उस वर्ष मजे का पड़ा। नवंबर तक बूढ़ऊ मुरेठा बाँधे मचान पर बैठा धूप सेंकते या खाना खाते दिख जाते। वे पार्किंसन रोग से पीड़ित थे जिससे उनका पूरा शरीर, विशेष कर सिर और हाथ बेतरह काँपते थे। खाना-पीना उनके लिए दुःसाध्य काम था। उनकी काँप दूर से ही दिखता था। मचान के दूसरे सिरे पर हुक्का गुड़गुडाती उनकी बूढ़ी बैठी दिखती। चिलम से फक-फक धुआँ निकलता रहता। वह यह काम बड़ी निपुणता से करती थी। मेरा मन भी हुक्का पीने का करता लेकिन यह संभव नहीं था। खूब तलब होने पर कभी-कभार सिगरेट से संतोष करना पड़ता। मोतियाबिंद का ऑपरेशन कराकर काला चश्मा लगाये ड्यूटी पर लौटा तो मचान खाली दिखा। वे जीवन के जंजाल से ऊबकर परलोक की अनंत यात्रा पर निकल चुके थे। चबूतरे पर निहायत अकेली रह गयी बूढ़ी कभी-कभार अपने दोनों हाथों में सिर थामें उदासी में डूबी बैठी दिख जाती। उसके हाथों में हुक्का फिर कभी नहीं दिखा। मार्च के बाद मोटे चश्मेवाले स्कूल मास्टर भी नहीं दिखे, वे रिटायर हो गये।

न तो वक्त ठहरा था और न दुनिया। सब पर काल के कोड़े चल रहे थे। शेखर बाबू दिसंबर की आखिरी तारीख को रिटायर हो गये और जनवरी में मेरी बारी थी। स्थापना अनुभाग में मेरे पेंशन पेपर तैयार होने लगे। मैं थोड़ी उदासी के बावजूद सोच रहा था कि मुझे दफ्तर आने-जाने के उबाऊ काम से निजात मिल जायेगी और मैं पूरी निश्चिंतता से नई बस्ती के लोगों से मिल सकूँगा, जी भर बातें करूँगा। न हो तो रात-दो-रात वहीं किसी के पास ठहर जाऊँगा। मुझे उस दंपति से बहुत सारे प्रश्न पूछने थे। वहाँ बसने के पीछे के रहस्य जानने थे और अब तक के दुश्वारियों भरे जीवन के प्रति उनके नजरिये से अवगत होना था। उनकी अदम्य साहस और मेहनत ने उस बेनूर घाटी को अत्यंत रमणिक और जीवंत बना दिया था। बस्ती में घर-गृहस्थी के तमाम बंदोबस्त उनकी संघर्ष गाथा के गवाह थे। स्त्रियों की सुघड़ हाथों ने बस्ती के हरेक दिवारों को चित्रपट में बदल डाले थे। बारहों मास उनके घरों के आगे खूब फूल खिले रहते। उनके घर एक और बच्ची आ चुकी थी।

तयशुदा तिथि को मैं सेवानिवृत्त होकर गीता-रामायण की प्रतियाँ थामे चालीस साल के कर्मस्थल से सदा के लिए विदा हो गया। उस रोज तीन-चार और डेली पैसेंजर दोस्त भी सेवानिवृत्त हुए और हम साथ-साथ अंतिम दफ्तरी यात्रा तय कर रहे थे। पेंशन शुरू करवाने के लिए महीना भर कस्बाई शहर के बैंक का चक्कर लगाता रहा। इस्टर के अगले दिन शेफाली ने खबर दी कि मेरा सी.टी.जी. का चेक तैयार है, सोमवार को आकर ‘रिसिव’ कर लूँ।

मैंने निश्चय किया कि चेक रिसिव कर आज उस बस्ती में जरूर जाऊँगा। वहाँ से तीन किलोमीटर पूरब नया हॉल्ट बन गया था, जहाँ शटल-पैसेंजर ट्रेनें दो मिनट के लिए रुकती थीं। मेरे पास लगभग छह घंटे का समय था। खाली हाथ उनसे मिलने जाने की बेशर्मी मैं नहीं कर सकता था, सो एक जुट के झोले में पाँच किलो चूड़ा और दो भेली गुड़ के रख लिये। बगीचे से पंद्रह-बीस पके अमरूद उन बच्चियों के लिए सहेजी। शहर से उनके लिए नई फ्रॉक खरीदनी थी। साड़ी और पैंट के कपड़े भी लेने थे। एकतरफा ही सही, आखिर सालों का हमारा रिश्ता था। इसे कोई कैसे भूल सकता है!

रेलगाड़ी के पुल पार करते ही मैंने पूरी तरह चौकस उस बस्ती के आने की प्रतीक्षा में आँखें गड़ा दी और मन ही मन मना रहा था कि दोनों बच्चियों की एक झलक मिल जाये ताकि उनके लिए एकदम फिट-फाट कपड़े खरीद सकूँ।

लेकिन ये क्या? हे ईश्वर! वहाँ तो उस बस्ती का नामोनिशान तक नहीं था। मैं सरपट दरवाजे की तरफ लपका ताकि ठीक से देख सकूँ कि कहीं मेरी बूढ़ी नजरों में ही तो कोई खोंट न आ गयी हो।

‘अरे शिशिर बाबू! अब किसे ढूँढ़ रहे हो? आपकी उस बस्ती पर तो पिछले रविवार को ही सरकारी बुडोजर चल गया। बस्ती उजाड़े जाने का विरोध करते दोनों दंपति बुलडोजर की चपेट में आकर शहीद हो गये। लगता है आपने इधर समाचार-पत्र नहीं पढ़ा है? अरे भाई साहब, अब यहाँ फिल्म स्टुडियो बनेगा। सरकार ने यह घाटी एक फिल्मी प्रोड्यूशर-हिरोईन दंपति को स्थानांतरित कर दी है ताकि वे करोड़ों लोगों को सिल्वर स्क्रीन पर सुनहले सपने दिखा सकें। खालिस सपने।’ सेक्रेटेरियट के प्रशांत बाबू मुझे परेशान देखकर बोले। मैं प्रशांत बाबू को अविश्वसनीय निगाहों से देखते हुए हतप्रभ था। घाटी पीछे छूट चुकी थी। और मुझे लगा कि मैं पिछले चालीस वर्षों से सिर्फ एक सुनहरा स्वप्न देख रहा था–चालीस साल लंबा स्वप्न!

कुरुप घाटी बहुत पीछे छूट गयी थी। उपहार की पोटली ऊपरी सीट पर उदासी ओढ़े बैठी थी। मेरी पनीली आँखों के आगे वे दो सप्तरंगी तितलियाँ फिर कभी न दिखने के लिए असीम आकाश में खो गयी थीं!


Image : Train on the way
mage Source : WikiArt
Artist : Isaac-Levitan
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