राजनीति

राजनीति

‘वह जाति, जिसमें मैं पैदा हुआ, सदियों तक भीषण अमानवीय प्रथा को झेलती हुई कराहती रही, को नेस्तोनाबूद करने में नाकामयाब रहा, तो, मैं अपने आपको गोली मारकर खत्म कर लूँगा।’

‘साथियो, यही प्रतिज्ञा ली थी हमारे मार्गदाता, हमारे जीवनदाता और हमारे समाज के उद्धारकर्ता ने। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ महामानव बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन शोषित पीड़ित मानवता के लिए स्वाह कर दिया। सोचकर देखो, अगर आज वे नहीं होते तो हम सब भी नहीं होते। हिंदू धर्म व्यवस्था जिसकी जड़ें गैर बराबरी, अन्याय और अत्याचार की नींव पर रखी हैं, महामानव ने इस व्यवस्था की चूलें हिला दी थीं। और आज भी, आप जरा से विचलित होते हैं तो आप इस व्यवस्था के शिकार हो जाएँगे। आपको जीना है तो स्वाभिमान और आत्मसम्मान से जिओ। कायर तो रोज मरता है। हमारी साँसें चलें, तो बाबासाहब के नाम से और रुकें तो बाबासाहब के नाम से। मेरे सभी साथियों को मेरा यही संदेश है। इसी के साथ सादर जयभीम करती हूँ और विश्वास रखती हूँ कि इन बातों पर आप सब ध्यान देंगे और जीवन में आत्मसात करेंगे।’ सुजाता की आवाज में आक्रोश था, विद्रोह था और जीतती-हारती व्यवस्था से लड़ने का आग्रह था।

सभा में आए लोग बाबासाहब की जय-जयकार कर रहे थे तो, ‘सुजाता दीदी जिंदाबाद-जिंदाबाद’ या फिर ‘सुजाता दीदी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’ के नारों से दशो दिशाएँ गूँज रही थीं।

सामाजिक सुधारों के लिए आयोजित किया गया यह एक सादा समारोह था जिसमें राज्य के विभिन्न हिस्सों से समाज सुधारक और बुद्धिजीवी तथा विचारक आए हुए थे। जितने भी लोग आए थे उनमें सुजाता ही सबसे कम उम्र की लड़की थी। सुजाता बी.ए. के अंतिम वर्ष की छात्रा थी। वह जितनी कुशाग्र थी उससे कहीं ज्यादा सुंदर थी। युवा या कॉलेज के लड़के उसे सुनने कम, उसकी सुंदरता को देखने ज्यादा आते थे। कितने ही तो उसके दीवाने थे और कितने उसकी बुद्धिमत्ता, समाज के लिए उसकी निष्ठा और ईमानदारी के कायल थे।

सुजाता के पिता गंगादीन कोई धनवान या नौकरी-पेशा व्यक्ति नहीं थे। वे एक मेहनत-मजदूरी करने वाले साधारण व्यक्ति थे। इस समारोह में वे भी बैठे थे पीछे की ओर। वे हमेशा पीछे की ओर ही बैठते थे और अपनी बेटी को सुनते–खुश होते, उस पर गर्व करते। सही कहें तो सुजाता के पिता, पिता होने साथ-साथ उसकी माँ भी तो थे। सुजाता की माँ नहीं थी।

धीरे-धीरे समारोह समापन की ओर अग्रसर होने लगा था। वे लौट आए थे घर। उनके लौटने के कुछ समय पश्चात, सुजाता भी आ गई थी। आते ही पिता के गले लगते हुए बोली थी, ‘कैसा रहा मेरा भाषण, पापा।’

‘खूब अच्छा।’ गंगादीन बोले थे।

‘आपको खुशी हुई न।’ सुजाता बोली थी।

‘बेटा, जब तुम बोलती हो और लोग तुम्हें सुनते हैं तो मुझे बहुत खुशी होती है। बस एक बात का ध्यान रखना कि कभी अपने लक्ष्य से भटकना नहीं। तुम्हारा लक्ष्य दुधारी तलवार पर चलना है, जिसमें बहुत सारे लालच होंगे, ऊँच-नीच होगी। तुम कभी विचलित मत होना। और सबसे ज्यादा सतर्क ब्राह्मणों और ब्राह्मणवादी व्यवस्था से रहना। वे तुम्हें भटकाने की हजारों कोशिशें करेंगे। कभी भटकना नहीं।’ गंगादीन बेटी को समझा रहे थे या फिर मन में कोई टीस साल रही थी या कुछ अंदर-ही-अंदर कसक रहा था, कोई फाँस थी जो निकल ही नहीं रही थी। बेटी जान गई थी कि उसके पिता वह बात कभी नहीं भूल पाएँगे जिसने उनके जीवन को तहस-नहस कर दिया।

‘पापा।’ कहकर बेटी गंगादीन के सिर में अपनी अँगुलियों से कंधी करने लगी थी। अभी पिता और बेटी की बातें चल ही रही थीं कि पाँच-सात लंबी-लंबी, महँगी कारें उनके छोटे से घर के सामने आकर रुकीं। उनमें से लोग बाहर आए और सीधे गंगादीन के घर में घुस गए थे।

‘सुजाता जी, आपको बहिन जी ने बुलाया है।’

‘मुझे!’

‘जी, आपको। अभी।’ उनमें से एक बोला था जिसकी लंबी-लंबी मूँछें थीं, खूब बड़ी-बड़ी। घुटनों से भी लंबा कुर्ता था। गले में पंद्रह-सोलह तोले की चेन थी। उसके साथ तीन-चार गनर भी थे।

‘अभी चलना है। पापा को खाना खिला देती तब चलती तो।’ सुजाता की साँसें तो अपने पापा में ही बसती थीं। इसके पहले कि वह कुछ बोलती, गंगादीन ही बोले थे, ‘चली जाओ बेटी। वे इतनी बड़ी हैं। उन्होंने तुम्हें बुलाया है। लोग तो उनके दर्शनों के लिए उनके पास जाते हैं। मैं खाना लेकर खुद ही खा लूँगा।’

‘नहीं पापा। वे बड़ी हैं, एक बात लेकिन मेरे लिए तो आपसे बड़ा कोई भी नहीं है।’ फिर आए हुए लोगों से बोली थी, ‘थोड़ा वेट करो, पापा खाना खा लें फिर चलती हूँ आपके साथ।’ और उनके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही अपने पापा के लिए खाना परोस लाई थी। गंगादीन खाना खा रहे थे, वह, उन्हें निहारे जा रही थी। जब वे खाना खा चुके तो वह उन लोगों के साथ चलने लगी थी। ‘पापा अपना ध्यान रखना। मैं आती हूँ जल्दी।’ कहकर उन लोगों की गाड़ी में बैठ गई थी। गाड़ियाँ हवा से बातें कर रही थीं और कुछ ही समय बाद, एक बहुत बड़े बंगले के सामने रुकी थीं।

बंगला क्या, राजमहल था। उन लोगों के साथ चल रही थी वह। कितने ही कमरों के अंदर कमरे, फिर कमरे और अंत में जाकर, उसके साथ आए लोग, बाहर ही रुक गए थे। एक साधारण सा आदमी उसे बहिन जी के पास ले गया था।

ऊँची-सी कुर्सी। उस पर बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला। पैरों को छूता भक्क सफेद कुर्ता जिसमें नीचे थोड़ी सी चमक रही सलवार और फिर चप्पल। बाल पीछे की ओर मुड़े हुए। ‘सुजाता नाम है तेरा।’ लगा कि कोई मर्द बोला हो।

‘जी।’

‘अच्छा बोलती है। तेरा वीडियो दिखाया था योगेश ने। आग है तेरे अंदर समाज के लिए। खुशी हुई।’ बहिन जी बोली थीं।

सुजाता कुछ नहीं बोली।

‘क्या करती है।’

‘पढ़ती हूँ।’

‘किस कक्षा में।’

‘बी.ए. फाइनल में।’

‘क्या बनना चाहती है।’

‘आई.ए.एस.।’

‘अगर दस आई.ए.एस. आकर तेरे तलवे चाटें, ऐसा बना दूँ तो। बहिन जी की आवाज में गुरूर था।

‘आई.ए.एस. कभी किसी के तलवे नहीं चाटता। नेताओं को लगता है कि उन्होंने उसे वश में कर लिया है। फिर भी कहाँ आई.ए.एस. की बुद्धि और कहाँ झूठे, मक्कार, धोखेबाज, ढोंगी पोलिटिशियन।’ सुजाता पढ़ने में भी बुद्धिमान थी इसलिए अपनी बुद्धि का गुमान तो उसे भी था।

‘चुप्प मूर्ख। तू जानती है किसके सामने खड़ी है। आज मैं चाहूँ तो राजनीति का मुँह जिधर चाहूँ उधर ही मोड़ दूँ। देश के सबसे बड़े प्रदेश की मैं एकछत्र राजा हूँ। न जाने कितने बड़े-बड़े लोग मेरे एक इशारे पर क्या न कर डालें। आज प्रदेश में पोलिटिक्श का दूसरा नाम बहिन जी है और तू…।’ बहिन जी का पारा सातवें आसमान पर था, लेकिन सुजाता निडर थी और स्वाभिमानी भी।

‘आपने जो भी कहा, हो सकता है वह सच हो। लेकिन मैं क्या करूँ। मेरे तो आराध्य बाबासाहब हैं। मैं उनके अलावा किसी को नहीं जानती।’ सुजाता के पिता ने उसे बाबासाहब नाम का अमृत पिलाया था, उसी की शक्ति उसे मजबूत बना रही थी।

‘मेरे साथ काम करोगी। मैं तुझे अपनी पार्टी से लड़ाऊँगी, जिताऊँगी। मैं चाहती हूँ तू मेरा सीधा हाथ बने। तेरी बहादुरी और निडरता की मैं कायल हूँ। मुझे अच्छा लगा। मैं तेरी परीक्षा ले रही थी। तू पास हुई।’ कहकर बहिन जी ने उसे आशीर्वाद दे दिया था। हालाँकि वे सुजाता से विचलित भी थीं। बड़े-बड़े ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया, उनके आगे सिर झुकाते थे फिर ये…ये बित्तीभर की लड़की। बहिन जी के मन में कहीं कुछ खटका था।

सुजाता ने हाँ में सिर हिला दिया था।

बहिन जी ने न जाने क्या इशारा किया कि वही व्यक्ति जो उसे बहिन जी के पास लाया था, वापिस ले गया था।

बाहर वही सब लोग उसका इंतजार कर रहे थे। उसी गाड़ी में, जिसमें वह अपने घर से आई थी, उसे घर छोड़ दिया गया था।

गंगादीन बाहर ही इंतजार कर रहे थे। बेटी पापा कहकर उनके गले लग गई थी। वे उसका माथा चूमे चले जा रहे थे कि गाड़ी में आया बड़ी-बड़ी मूँछोंवाला आदमी बोला था, ‘बाबू जी, अब आपकी बेटी सिर्फ आपकी नहीं, सभी शोषित समाज की बेटी बन गई है। बहिन जी ने इन्हें आशीर्वाद दे दिया है। अगले विधान सभा के चुनाव जो दिसंबर में होने हैं उनमें आपकी बेटी चुनाव लड़ेगी। कोई दुनिया की ताकत उन्हें नहीं हरा सकती। बहिन जी खुद उनके साथ कैंपेनिंग करेंगी।’

पापा ने बेटी की ओर देखा था फिर अपनी बाँहों में भर लिया था मानो दुनिया की बलाओं से बचाना चाह रहे हों। फिर बोले थे, ‘साब आप राजा लोग हैं, जो कह रहे हैं, सही ही कह रहे होंगे।’

उस व्यक्ति ने हाथ जोड़ दिए थे और ‘अच्छा चलते हैं’, कहकर सभी अपनी-अपनी गाड़ियों में बैठ गए थे। गाड़ियाँ हवा से बातें कर रही थीं। दिन ढलने लगा था। शाम के बाद रात ने अपने पंख फैला दिए थे। बेटी अपनी चारपाई पर पढ़ने बैठ गई थी। गंगादीन उसे देखते जा रहे थे। बेटी पढ़ रही थी इसलिए उससे बात नहीं करना चाहते थे, लेकिन मन में शंका थी उसे निकाल भी देना चाहते थे कि ‘बेटा’ बोल गए थे।

‘पापा।’ बेटी व्याकुल होने लगी थी और अपनी चारपाई छोड़ पापा के पास आ गई थी–‘आप ठीक तो हैं।’

‘हाँ बेटा!’

‘फिर!’

‘बेटा तुम चाहे कितनी ही बड़ी बन जाना, लेकिन अपने रास्ते को…अपने मार्गदाता को…और अपने आतताइयों को कभी मत भूलना।’ फिर सुजाता के माथे पर हाथ फेरते हुए बोले थे, ‘बहिन जी बहुत ताकतवर हैं। वे जिसे छू लेती हैं, वह सोने का हो जाता है। तुम्हें छू लिया है उन्होंने, अब तुम्हें सोने का बनने से कोई रोक नहीं पाएगा, लेकिन तुम, जो-जो मैंने तुम्हें सिखाया उसे भूलना मत। तुम विचलित हुई तो वह दिन तुम्हारे पापा का…आ…खि…री…दि…न।’ नहीं बोलने दिया था इसके आगे। होंठों पर हाथ रख दिया था अपने पापा के, सुजाता ने। फिर सिर्फ इतना ही बोली थी, ‘पापा, आपसे बढ़कर तो मेरे लिए कुछ भी नहीं है। और आपका बताया रास्ता मेरे लिए जीने का साधन।’

गंगादीन सहज होने लगे थे। बेटी अब फिर पढ़ने बैठ गई थी। पढ़ते-पढ़ते थक गई थी सो अब लाइट बुझाकर सोने की तैयारी कर रही थी। उसे भ्रम था कि उसके पापा सो गए हैं, लेकिन पापा की आँखों से नींद कोसों दूर थी। धुप्प अँधेर में गंगादीन आँखें खोले सपना देख रहे थे…

‘सुनो।’

‘ऑ।’

‘एक बात पूछनी थी आपसे।’

‘तो पूछो न।’

‘अब बिटिया एक महीने की हो गई है। मेरा मन कर रहा था मंदिर चली जाती। उसके पैदा होने से पहले ही तो माँगा था भगवान से। अब भगवान ने मेरी सुन ली है। अब भगवान बुला रहे हैं। आप कह देते तो चली जाती।’ सरावती ने बहुत प्यार से पूछा था।

‘पहले भी तो कहाँ गई थी तुम मंदिर। घर में ही पूजा करते समय माँगा था बेटी को तो अब क्यों जाना चाहती हो।’ मन में शंका घनी थी। वही साकार होने लगी थी या फिर ये कहें कि मंदिर में जाना और जाकर पूजा-अर्चना करना भंगी-चमारों के लिए वर्जित था सो डर लग रहा था गंगादीन को।

‘हम जानते हैं आप डर रहे हैं। कहीं मंदिर का पुजारी हमें भगा न दे।’ पत्नी थी वह। सब जानती थी कि उसका पति किस डर से मंदिर जाने के लिए मना कर रहा था।

‘ठीक है। मैं मना नहीं कर रहा, लेकिन बहुत सँभलकर जाना। सोहर का शरीर है तुम्हारा और फिर उस पर मंदिर की पच्चीस ऊँची-ऊँची सीढ़ियाँ। ध्यान रखना अपना। न जाने मेरा मन क्यों परेशान सा है।’ डर था, भय था लेकिन पत्नी की इच्छा भी थी सो स्वयं को सरेंडर कर दिया था गंगादीन ने।

‘आप बिल्कुल फिक्र न करें।’ कहकर अगले दिन जब शाम को सूर्यास्त हो गया था तभी गई थी सरावती भगवान शिव के मंदिर। पूजा की थाली सजी थी, जिसमें–रोली, चंदन, घी, कपूर और फल-फूल रखे थे। चारों ओर देखा, कोई नहीं था। अकेली नहीं गई थी सरावती। पास में रहती थी नंदिनी। उसकी दूर की ननद थी। बारह-चौदह साल की। उसी को साथ ले गई थी।

नंदिनी बाहर पहरा दे रही थी। सरावती पूजा करके अभी सँभल भी न पाई थी कि न जाने कहाँ से मंदिर का पुजारी प्रकट हो गया था। सरावती ने कोशिश भी की थी कि जल्दी से मंदिर छोड़कर चल दे। और उसने जैसे ही उठकर, बाहर, ऊपर वाली सीढ़ी पर पैर रखा ही था कि…कि…चीखा था मंदिर का पुजारी, ‘हरामजादो, तुम्हें कितनी बार मना किया है मंदिर के गर्भगृह तक मत जाओ। मगर नहीं, मानते ही नहीं। कर दिया न मंदिर अपवित्र। अब पूरा मंदिर धोना पड़ेगा।’ फिर सरावती के बहुत पास जाकर उसे जोर का धक्का दिया था। सँभल न पाई थी। ऊपर की पच्चीसवीं सीढ़ी से लुढ़कती-लुढ़कती नीचे गिरी थी। पूजा की थाली हवा में लहरा गई थी। माथे से लहू बह रहा था। गिरते ही बेहोश हो गई थी। साथ आई ननद, ‘भाभी-भाभी’ चिल्ला रही थी। सरावती कोई जवाब नहीं दे पा रही थी। ननद को और तो कुछ नहीं सूझा तो वह भागकर गंगादीन के पास आ गई थी, ‘भइया…भइया…भाभी…वहाँ…मंदिर…वहाँ भाभी बेहोश…भाभी…भइया।’

गंगादीन समझ गया था कि जरूर कोई अनहोनी हुई है उसकी सरावती के साथ। बस जैसा बैठा था, वैसा ही भागा था। तब तक कुछ लोग इकट्ठे हो गए थे। सरावती को उठाकर ले जाने की कोशिश कर रहे थे। सरावती में कोई हलचल नहीं थी।

कहने को तो यह गाँव ही था, लेकिन सुविधाएँ सभी थी जो प्रायः छोटे-मोटे शहरों में होती हैं सो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले गए थे सरावती को। गंगादीन बार-बार यही कह रहा था, ‘नहीं…नहीं सरवतिया तुम्हें कुछ नहीं होगा। तुम ठीक हो जाओगी। तुमसे मना किया था मंदिर मत जाओ। मंदिर हम दलितों के लिए अनिष्ट है, धोखा है मंदिर हमारे लिए। मेरी बात नहीं मानी तुमने, कभी तो मान लिया करो मेरी बात। सरावती तुम्हें कुछ नहीं होगा।’

नाइट ड्यूटी शुरू हो गई थी; फिर भी, अभी दिन की डॉक्टर उपस्थित थी। डॉक्टर महिला थी सो ममता और स्नेह से बोली थी, ‘आप थोड़ी देर शांत रहें, मुझे देखने दो। मैं पूरी कोशिश करूँगी आपकी वाइफ को बचाने की।’

गंगादीन अंगोछा बाँधे था सिर पर, उसे ही रख दिया था डॉक्टरनी के पाँवों पर। ‘बचा लो…बचा लो जिज्जी मेरी सरावती को। सरावती के अलावा कोई नहीं है मेरा इस दुनियाँ में…जिज्जी।’

‘आईल ट्राई माय बेस्ट टु’ कहकर डॉक्टरनी ने गंगादीन को हिम्मत बँधाई थी। तब तक गंगादीन के पड़ोसी भी आ गए थे। वे सभी उसे साहस दे रहे थे। लेकिन…लेकिन…ठीक रात के एक बजे आखिरी साँस ली थी सरावती ने। बस सब कुछ लुट गया था गंगादीन का। सरावती का पार्थिव शरीर लेकर चले आए थे सभी लोग गंगादीन के घर। सुबह हुई थी।

जिद्दी था गंगादीन, ‘सरावती की लाश तभी उठेगी जब पुजारी को पुलिस पकड़ेगी।’

गाँववाले भी उसी के साथ हो गए थे। ग्राम प्रधान भी आ गया था। तभी न जाने किसने खबर कर दी थी थानेदार को, सो वह भी आ गया था।

‘देखा गंगादीन तुम्हारी जाति के लोगों को मंदिर में पूजा-अर्चना की साफ मनाही है। तुम्हारी औरत ने नहीं माना। उसी का फल है।’ ग्राम प्रधान ने दो टूक कह दिया था।

‘लेकिन पुजारी हत्यारा है। उसी ने धक्का मारा मेरी सरावती को।’ गंगादीन थानेदार के आगे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था। 

‘तुम वहाँ थे।’ थानेदार ने पूछा था। 

‘नहीं, मैं नहीं था। नंदिनी ने बताया। नंदिनी मेरी बहिन है।’ गंगादीन बोला था। 

‘अरे मूर्ख…पुजारी जी ने धक्का नहीं मारा…तेरी औरत का पैर फिसला और वह लुढ़कते-लुढ़कते सीधी नीचे आ लगी…और वह…। ये बात पुजारी जी ने आकर मुझे बताई है। पुजारी जी थाने में बैठे हैं। वे निर्दोष हैं।’ थानेदार झूठ बोल गया था।

‘नहीं…नहीं…पुजारी झूठ बोल रहा है। आप छोड़ भी देंगे उसे लेकिन मैं…मैं नहीं छोडूँगा। मार दूँगा उसे…मार दूँगा।’ तेज-तेज चीख रहा था गंगादीन।

आवाज इतनी तेज थी कि पास में सो रही बेटी की नींद खुल गई थी सो अपनी चारपाई छोड़कर आ गई थी पापा के पास। बेटी जान गई थी कि उसके पापा ने वही सपना देखा है जिसे वे अक्सर देखते हैं और मार दूँगा…मार दूँगा कहते हैं। उनकी साँसें तेज चल रही थीं। बेटी पापा…पापा कहकर उनके माथे पर हाथ फेरने लगी थी।

गंगादीन सिर्फ बेटी ही कह पाए थे। बेटी ने पानी दिया था। पानी पीकर अब वह शांत थे। ‘तुम सो जाओ बेटा।’ कहकर खुद भी सोने लगे थे, लेकिन नींद…नींद कोसों दूर थी कि…कि फिर…थानेदार ने बजाय पुजारी को पकड़ने के गंगादीन को ही पकड़ लिया था, ‘गंगा तूने अभी-अभी पुजारी को धमकी दी है कि तू उन्हें मार डालेगा…चल…मादरचो…थाने, तुझे बंद करता हूँ और एक धर्म के रक्षक को मार डालने, धमकी देने के केस में अंदर करते हैं हरामजादे।’

दरअसल अब गंगादीन सपना नहीं देख रहा था, अब तो याद कर रहा था…या ये कहें कि बातें थीं जो भुला ही नहीं पाया था कभी…ग्राम प्रधान ठाकुर था। ठकुराइत उसमें कूट-कूटकर भरी थी सो थानेदार से बोला था, ‘क्या गजब करते हो थानेदार साहब, गंगादीन की औरत मरी है…उसका गुस्सा होना लाजिमी है। आप ऐसे कैसे ले जाएँगे थाने। छोड़िए उसे। थानेदार सहम गया था। छोड़ दिया था गंगादीन को। गंगादीन ने ग्राम प्रधान की ओर याचक की निगाहों से देखा था।

ग्राम प्रधान ने उसे हिम्मत दी थी।

सभी ने मिलकर उसकी पत्नी का अंतिम संस्कार कर दिया था।

अपनी सरावती के अंतिम संस्कार से लौटकर, अब सबसे बड़ी समस्या उसके सामने मुँहबाये खड़ी थी, वह थी, बेटी को पालने-पोसने की। एक माह की बेटी–कैसे होगा, क्या होगा। याद कर रहा था कि वहीं से थोड़ी सी गर्दन उचकाकर अपनी बेटी को देख भी लिया था। बेटी सो रही थी।

फिर याद करने लगा था…

पास पड़ोसियों और गाँव के सभी लोगों ने उसका साथ दिया था। और सबसे बड़ा साथ रहा था नंदिनी का। नंदिनी खुद भी बड़ी नहीं थी फिर भी वह उसका पूरा ध्यान रखती थी।

गंगादीन दिन में मजदूरी पर जाता और रात में बेटी की देखभाल करता था। चूर-चूर शरीर आराम माँगता, लेकिन हिम्मत और साहस का दूसरा नाम था तब गंगादीन। बिन माँ की बेटी…धीरे-धीरे बड़ी होने लगी थी और एक दिन वह भी आया जब बेटी स्कूल गई। उस दिन गंगादीन ने न जाने क्यों ऊपर की ओर हाथ उठा दिए थे और अपनी कमीज का दामन फैला दिया था।

बेटी बड़ी होने लगी थी। बेटी साहसी थी और पढ़ने-लिखने में भी अव्वल। एक…दो…तीन…पाँच-सात…नौ…ग्यारह कक्षा छलाँगती बेटी बारहवीं में आ गई थी। गंगादीन को जीने का अर्थ मिलने लगा था।

अब वह अपनी बेटी को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का यथार्थ, ब्राह्मणों का ढोंग, उनकी चालबाजी, वेद-पुराणों, स्मृतियों, थोथे ग्रंथों में छिपी दलितों, असहायों के साथ धोखे की दास्तानें, उनके दमन के किस्से बताता। बेटी को लाकर अच्छी-अच्छी किताबें देता। बाबासाहब के संदेश, उनकी आत्मकथा, उनका जीवन संघर्ष सिखाता। हिंदू धर्म और उसकी अमानवीयता को समझाता। बेटी आत्मसात कर लेती। बेटी में विद्रोह, साहस, हिम्मत और मानवीयता कूट-कूट कर भरने लगी। गंगादीन ने सुजाता को तपाकर सोना बनाया था।

और आज उसी सोने की पहचान बहिन जी ने कर ली थी। लौट आया था वापस। अब याद नहीं कर रहा था गंगादीन। अब अपने आप पर खुश हो रहा था कि न जाने कब पक्षियों की कलरव से जान गया था सुबह हो गई है। उठकर बैठ गया था। खटर-पटर सुनकर सुजाता भी जाग गई थी। दैनिक कार्यों में लग गए थे पिता-पुत्री। समय भागने लगा था। सुजाता अब पार्टी की सक्रिय कार्यकर्ता थी। पढ़ती भी थी कि…कि…तभी एक दिन फिर वही लोग आए थे।

‘सुजाता दीदी, बहिन जी ने बुलाया है तुम्हें।’ कहकर गाड़ी का दरवाजा खोल दिया था। कुछ ही समय लगा होगा कि सुजाता बहिन जी की समक्ष थी।

‘मैंने तुझे इसलिए बुलाया है कि मैं तुझे इलेक्शन में खड़ा करना चाहती हूँ।’ सुजाता की ओर देखकर बोली थी बहिन जी। बहिन जी इस बार अकेली नहीं थी। उनके सामने अन्य नेता बैठे थे जो लगभग सभी सुजाता से ज्यादा बड़े थे, उम्रदराज थे। सुजाता उनके सामने मेमने सदृश थी।

सुजाता ने सुना तो एक बार को तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ था उसे। बहिन जी का स्वर फिर गूँजा था, ‘मैं चाहती हूँ कि तू सिकंदरपुर सीट से खड़ी हो जहाँ से देवकीनंदन त्रिपाठी पिछली छह विधानसभाओं से लगातार चुनकर आ रहा है। मेरे बड़े-बड़े ताकतवर और धुरंधर नेता वहाँ से मुँह की खाकर आए हैं। उसे अगर कोई टक्कर दे सकता है तो तू है।’ इतना कहकर उन्होंने वहाँ बैठे अपने दरबारियों को देखा था जिनकी साँसें उनके गले में ही अटकी थीं। लेकिन उनके आगे जवाब देने की या दिस-दैट करने की किसी की हिम्मत नहीं थी। फिर भी अवधनारायण ने हिम्मत की। अवधनारायण बहिन जी के थोड़ा-सा मुँह लगा था, ‘भैन्जी, वह तो जनरल सीट है। सुजाता दीदी अभी बच्ची है। उन्हें वहाँ से लड़ाना मतलब शेर के सामने मेमना खड़ा करने वाली बा…त।’

‘चोप्प अवध…अगर तुझमें इतनी ही अकल होती तो आज तू इस सीट पर होता और मैं तेरी वाली पर…चोप्प।’

अवधनारायन ने अपनी धोती को आगे की ओर छूकर देखा था। गीली होते-होते रह गई थी। सिंकदरपुर सीट से देवकीनंदन त्रिपाठी के विरुद्ध जनरल सीट से सुजाता ने चुनाव लड़ने का शंखनाद कर दिया था।

गंगादीन ने सुना तो एक बार फिर अपनी कमीज का दामन फैला दिया था। 

देवकीनंदन त्रिपाठी ने जब सुजाता का नाम सुना तो सिर्फ इतना ही कहा था अपने साथियों से, ‘कउन है ये सुजातवा।’

‘एक मजदूर की लौडिया है। बी.ए. कर रही है।’ कोई बोला था और चारों ओर अट्टाहास होने लगा था। ‘अरे हम तो सोचे रहे कि बहिन जी शेर के सामने शेर खड़ा करवे करेगी, लेकिन ये का ये तो बकरिया बाँध दी…हा…हा।’ बड़े-बड़े ताकतवर, नेता उसके सामने खड़े हुए थे और धूल चाट गए थे तो सुजाता किस खेत की मूली थी।

सुजाता ने जमीन-आसमान एक कर दिया था। कितनी देर जागना है, कितनी देर सोना है। नहीं जानती थी वह। नींद आती तो आँखों पर पानी मार लेती। पिता देखते लेकिन कुछ न कहते। देवकीनंदन त्रिपाठी…त्रिपाठी माने…ब्राह्मन…माने…पुजारी…माने उसकी पत्नी का हत्यारा…माने…विद्रोह…माने बदला…माने…। अब अगर बेटी भी दाँव पर लग जाए तो रोकूँगा नहीं।

चुनाव के दौरान तीन बार बहिन जी आई थी सुजाता के इलेक्शन कैंपेन में और दोयम नंबर के नेता हर सप्ताह देवकीनंदन त्रिपाठी के चुनाव क्षेत्र में रैली करते थे। उधर सुजाता के कॉलेज के साथी भी थे।

अब मुकाबला जाति के समीकरण को छोड़कर युवा बर्सेज बुजुर्ग हो गया था। सवर्ण लड़के भी सुजाता के साथ थे।

सुजाता अब बोलती न थी, दहाड़ती थी। चीत्कार करती थी। चारों ओर लगता मानो हवा रुक जाती हो और आश्चर्य तो उस दिन हो गया जब विशाल भीड़ के सामने बहिन जी मंच पर बैठी थीं और बड़े-बड़े दबंग नेता भी बैठे थे और उनके साथ अलायंस के नेता और उम्मीदवार भी थे। उनमें ही बोल रही थी सुजाता, ‘ईंट से ईंट बजा दूँगी मैं। ये ब्राह्मन जिन्होंने सदियों से भोली-भाली मानवता को अपने खूनी पंजों में जकड़ कर रखा है। विश्वास दिलाती हूँ उन पंजों को जड़ से उखाड़ दूँगी। मैं बाबासाहब बेटी, मैं बहिन जी लाड़ली…देवकीनंदन तेरी माँ ने सच में तुझे दूध पिलाया है तो मेरी टक्कर को झेल। मैंने अपनी माँ का दूध नहीं पिया। मैंने अपने पिता का रक्त पिया है। तेरी चीथड़े न उड़ा दिए तो मैं गंगादीन की बेटी नहीं। मैं वादा करती हूँ तेरे साम्राज्य को नेस्तनाबूद कर दूँगी।’ फिर आगे और दहाड़ी थी, ‘आज मानवता त्राहि-त्राहि कर रही है उसके जिम्मेदार सिर्फ तुम हो तुम। देवकीनंदन, तुझे मिटाकर ही दम लूँगी मैं। मैं बहिन जी के चरणों की सौगंध खाकर कहती हूँ तेरा सर्वनाश ही मेरा लक्ष्य होगा।’ और अंत में जय भीम, पूरा बोल भी नहीं पाई थी कि सभा में बैठे लोग उठ खड़े हुए थे और नारों में दसों दिशाएँ गूँजने लगी थी–

सुजाता दीदी, जिंदाबाद…जिंदाबाद।
जब तक सूरज चाँद रहेगा, दीदी तेरा नाम रहेगा।
जहाँ दीदी का बहे पसीना, वहाँ रक्त बहा देंगे।
देवकीनंदन भाग गया है, शेरनी की दहाड़ से…

आश्चर्य की बात थी कि लोगों ने बहिन जी जिंदाबाद नहीं कहा था सो स्वयं सुजाता ही बोली थी, ‘बहिन जी जिंदाबाद-जिंदाबाद…बाबासाहब जिंदाबाद…जिंदाबाद।’

बहिन जी सन्न थी। पहली बार इतनी बड़ी भीड़ देखी थी। पहली बार अपने से ज्यादा जलजला देखा था। लेकिन आज वे खुश भी थीं कि उनका निर्णय गलत न था फिर भी न जाने क्यों अंदर-ही-अंदर कुछ कसक रहा था…कुछ दरक सा गया था…कहीं टीस सी होने लगी थी।

सभा की समाप्ति पर, सब लोग अपने-अपने घरों को चले गए थे। देवकीनंदन त्रिपाठी जिसे मेमना समझा था वह तो शेरनी निकली। बस फिर क्या था, ‘रमेशवा चल उसके घर।’ 

‘किसके मालिक।’

‘उस लौड़िया के, अरे क्या नाम है उसका सुजातवा के।’ रमेश उनका ड्राइवर, राजदार, जड़खरीद सभी कुछ था।

और कुछ ही अरसे में मर्सडिज गंगादीन के घर के सामने खड़ी थी। संयोग ही था कि सुजाता घर पर ही मिल गई थी। गंगादीन भी थे। दोनों हाथ जोड़ दिए थे देवकीनंदन त्रिपाठी ने सुजाता और उसके पिता के सामने, ‘तू बेटी है मेरी। पिता-पुत्री का कैसा मुकाबला। पिछले तीस साल से कोई माई का लाल मुझे डिगा नहीं सका। उस दिन की वीडियो देखा है बेटी। तू बोलती कहाँ है। तू तो दहाड़ती है। तू सच में शेरनी है।’ फिर आगे बढ़कर सुजाता के पैर छू लिए थे। ‘इतिहास साक्षी है। पिता ने हमेशा पुत्रियों का दान किया है–कन्यादान। बेटी, इस बार मुझे भी अभयदान दे दे।’ अब ब्राह्मन अपने वास्तविक रूप में आ गया था या फिर ये कहो कि साँप-केचुली छोड़ रहा था।

‘पिता के लिए पुत्री आशीर्वाद की हकदार होती है। आप पिछले तीस साल से हैं। इस बार बेटी को अभयदान दे दो। विश्वास दिलाती हूँ, आपके मान-सम्मान में कोई कमी नहीं आने देंगे।’ थोड़ी सी चतुर भी हो गई थी सुजाता।

सत्ता का सुख जिसने भोगा हो, वह कहाँ मानने वाला था। देवकीनंदन त्रिपाठी ब्राह्मन था, हार मानना कहाँ सीखा था उसने। साम, दाम, दंड, भेद सभी तरीके जानता था वह।

‘अच्छा एक काम करते हैं।’ अब वह गंगादीन की ओर मुड़ा था। उसे अपने धन-वैभव का बहुत गुरूर था, ‘आप एक पिता हैं। एक पिता के लिए बेटी पराया धन होता है। सुजाता बिटिया के विवाह की पूरी जिम्मेदारी मेरी। इस बात से सहमत न हो और मेरा विश्वास न हो तो पाँच करोड़ लाड़ो के एकाउंट में कल आ जाएँगे।’ फिर अपने आप से ही बोला था, ‘नहीं, नहीं पाँच करोड़ कम हैं। बेटी है आखिर ग्यारह करोड़, अब ठीक है।’

इसके पहले कि गंगादीन कुछ बोलते, सुजाता गुर्राई थी, ‘देवकीनंदन त्रिपाठी मेरे घर आए हैं आप। इसलिए कुछ नहीं कह रही आपसे। मेरे पापा से बड़े हैं। अब अगर आप यहाँ से नहीं गए तो…।’ देवकीनंदन त्रिपाठी नहीं रुके थे। ‘रमेसवा चल’ कहकर अपनी गाड़ी में बैठ तो कब फुर्र हो गए पता ही न चला था। मन-ही-मन कह रहे थे, ‘हरामजादी, चमरिया अगर जीत गया तो तेरी हड्डियाँ भी न मिलने दूँगा, देखना कितने चढ़वाता हूँ तुझ पर।’

निरंतर चुनाव अभियान चलता रहा था। निश्चित समय पर वोट खुले थे। 

तीस साल से एकछत्र राज कर रहे देवकीनंदन त्रिपाठी की जमानत जब्त हो गई थी। पूरे प्रदेश में सुजाता से ज्यादा किसी को वोट न मिले थे। देवकीनंदन त्रिपाठी के सीने पर साँप लोट गया था। और जब गंगादीन ने सुना तो जाने कब होंठ चबा लिए थे…पुजारी। बहिन जी ने लाखों-करोड़ों लोगों के सामने सुजाता को अपने गले लगा लिया था और सभी के सामने सुजाता दीदी जिंदाबाद-जिंदाबाद का नारा भी लगाया था। बदले में सुजाता ने उनके पैर छू लिए थे।

बहिन जी की पार्टी ने दो तिहाई बहुमत से सरकार बना ली थी, जिसमें सुजाता भी मंत्री थी। सुजाता, बहिन जी का सीधा हाथ थी। सुजाता, सबसे कम उम्र की मंत्री थी। सुजाता, सबकी प्रिय थी। 

सुजाता, सभी का सम्मान करती थी। समय भागने लगा था। सुजाता आज भी अपने उसी एक कमरे के घर में रहती थी; हाँ, अब गंगादीन मजूरी पर नहीं जाते थे। 

तभी एक दिन…

उसके घर पर कुछ लोग आए थे। लंबे-लंबे जनेऊ लटकाए। गले में रूद्राक्ष की मालाएँ। हाथों में कलावा और न जाने कितने हरे, पीले, धागे बाँधे, ललाट पर नाक को छूता त्रिपुण्ड धारण किए, शरीर पर केवल पीली धोती…आधे नंगे थे वे सब। ‘सुजाता दीदी से मिलना है।’ वैसे तो सभी पीली धोती पहने थे, लेकिन उनमें से एक, जो उन सबका सरगना दिख रहा था, उसने सफेद धोती पहनी थी। 

‘जी, बेटी अंदर है। अभी बुलाते हैं।’ गंगादीन ने कहा था। उन्हें लगा था कि कोई चंदा लेने वाले होंगे। 

‘जी कहें।’ सुजाता आ गई थी।

‘आपसे एक विनती है।’ वही सफेद धोतीवाला बोला था। 

सुजाता ने सिर्फ सिर हिलाया था।

‘दरअसल, हमारे इसी गाँव में एक मंदिर है। वह मंदिर पुराना पड़ गया था। हमने पैसा इकट्ठा करके उसे बड़ा और भव्य बनवाया है। आपके आगे हाथ जोड़ते हैं। कल आप सुबह मंदिर आएँ। उसका उद्घाटन कराना है आपसे। स्वयं मैं आपके हाथों से पूजा-पाठ करवाऊँगा। सबसे पहले आपके हाथों से ही भगवान के शिवलिंग पर जलाभिषेक करवाया जाएगा। आपके आने से मंदिर की पवित्रता और बढ़ जाएगी। दीदी, मेरी विनती व्यर्थ न जाए। हम हाथ जोड़ते हैं आपके आगे।’ सफेद धोती वाले के हाथ जोड़ते ही शेष ने भी हाथ बाँध लिए थे।

गंगादीन को मंदिर का नाम सुनते ही चक्कर आने लगे थे। वे खड़े न रह सके थे, बैठ गए थे धम्म से। अभी बेटी का ध्यान उनकी तरफ न था।

‘आप चलें। मैं प्रयास करूँगी।’ सुजाता के इतना कहने पर वे सभी आश्वस्त होकर चले गए थे। सुजाता ने पलटकर देखा। पिता लगभग मूर्छित पड़े थे। पापा-पापा, बुलाए जा रही थी सुजाता, गंगादीन को। काँच के मग में पानी रखा था। कुछ न समझ सकी तो उसी पानी को मारा था गंगादीन के चेहरे पर, तो मूर्छा टूटी थी।

‘बेटी…बेटी…बेटी सुजाता…ये…ये वही मंदिर है…वही…जहाँ तुम्हारी माँ…मेरी सरावती…।’ फिर सामान्य हुए थे, ‘देखो समय की बात…एक दिन इसी मंदिर के पुजारी ने तुम्हारी माँ को मंदिर की सीढ़ियों से…और आज उसी मंदिर के पुजारी का बेटा उसी मंदिर में तुम्हें बुलाने के लिए आया है और तुम्हारे आगे हाथ जोड़े…।’ फिर आगे बोले थे, ‘आज निर्णय तेरे हाथ में है बेटी।’

सुजाता, पिता के सीने में सुलगती आग की ताप को महसूस कर रही थी। जिस अपमान की सेज पर पिता तड़पते रहे थे, आज निर्णय चाहते थे। थोड़ी देर रुकी थी वह फिर मोबाइल पर कुछ नंबर मिला दिए थे। ‘प्रदीप’, सुजाता ने अपने कार्यालय में अपने पी.पी.एस. को फोन मिला दिया था।

‘जी, दीदी’, प्रदीप की आवाज में हड़बड़ी थी।

‘मेरा कल सुबह का कार्यक्रम निश्चित कर लो। मैं कल सुबह डॉ. अंबेडकर इंटर कॉलेज का शिलान्यास करने के लिए सलेमपुर जा रही हूँ। अरे वही, जहाँ के प्रिंसिपल साहब पिछले महीने रिकुएस्ट लेकर आए थे…वहाँ के प्रधानाचार्य को खबर कर दो। मेरे पहुँचने का इंतजार करें।’ इतना कहकर अपने पिता की ओर देखने लगी थी वह। पिता ने बेटी को अपने गले से लगा लिया था। दोनों की आँखें नम थीं।

अगले दिन सुबह सुजाता अपने पी.पी.एस. के साथ डॉ. अंबेडकर इंटर कॉलेज का शिलान्यास कर रही थी कि…कि…कि एक गोली उसकी पीठ को चीरती हुई सीने से पार हो गई थी। फिर तो लगातार न जाने कितनी गोलियाँ लगी होंगी, कुछ पता नहीं। हाँ, उसका शरीर छलनी था। चारों ओर हाहाकर मच गया था। मीडिया पर खबरें छाई हुई थीं। देवकीनंदन त्रिपाठी ने सुना तो सन्न रह गया था, ‘कौन मरवा दिया सुजतवा को।’ 

उधर बहिन जी…बहिन जी मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं। डॉ. अंबेडकर इंटर कॉलेज का प्रिंसिपल उनके चरणों में सिर रखे था। खाली रिवाल्वर उसकी कमर में झूल रहा था।


Image: Dr.Babasaheb Ambedkar as Professor of Economics in 1918
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