संस्कार
- 1 April, 2015
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- 1 April, 2015
संस्कार
रंजना ने बत्ती जलायी तो पति का पीछे से गंजा हो रहा सिर परावर्तित प्रकाश में पहले से कुछ ज्यादा ही गंजा नजर आया। ‘पहले से…’ उसके मुँह में आया चुहलभरा वाक्य अभिषेक के पीछे घूम गये चेहरे का भाव देखकर अधूरा ही रह गया।
‘अँधेरे में बैठकर क्या सोचे जा रह हैं?’ रंजना धीरे से बोली!
‘कुछ नहीं…’
‘आपका चेहरा मुझे ज्यादा ठीक से दिख रहा है कि आपको? आजकल रह-रह कर आप गुमसुम से बैठ जाते हैं। बात क्या हुई है?’
‘ये विद्यालय…’
‘फिर वही विद्यालय! आपने ठेका ले रखा है विद्यालय को सही ढंग से चलाने का? आप ही एक मास्टर बने हैं? बाकी मास्टर सबको देखिये क्या ठाठ से नौकरी भी करते हैं और खेती भी।’ रंजना कुछ तेज स्वर में बोल पड़ी।
अभिषेक अब कुछ न बोला। मन ही मन सोचने लगा कि ज्यादातर औरतें बस अपने ही स्वार्थ की निगाह से सारी चीजों को देखने की आदी होती हैं।
चौरी गाँव में स्थित इस प्राथमिक विद्यालय में हेडमास्टर के रूप में अपनी नियुक्ति के पहले ही दिन जैसे अभिषेक के क्षोभ की नींव पड़ गई थी। विद्यालय में पहले से ही नियुक्त अध्यापिका विनीता से उसने अपनी मेज के पीछे की दीवाल पर लिखी इबारत की ओर उँगली उठाते हुए पूछा–‘ये किसने लिखवाया?’
‘जिनका नाम लिखा है, उन्हीं ने।’ जवाब मिला।
‘प्रधान पति–संजय प्रताप सिंह’ पर दो मिनट अपनी नजरें गड़ाये रखने के बाद अभिषेक फिर विनीता से मुखातिब हुआ–‘प्रधान कौन है?’
‘इन्हीं की मेहरारू।’
रोकते-रोकते भी अभिषेक को हँसी आ ही गयी। हँसते हुए बोला, ‘वो तो ये इबारत जगजाहिर कर ही रही है। पर प्रधान का कोई नाम तो होगा।’
‘है कुछ लछमी-वछमी देवी। पर यहाँ न उसके नाम से किसी को मतलब है न काम से। सारी प्रधानी संजय प्रताप जी चलाते हैं। प्रधान को तो अपने घर से बाहर ही बहुत कम देखा गया है।’
नियुक्ति को दो-तीन हफ्ते हुए नहीं कि अभिषेक के सामने अध्यापिका की बातों के गूढ़ार्थ खुलने लगे। अभिषेक तथा विनीता ही स्थायी अध्यापक के रूप में नियुक्त थे। उनके अलावा विद्यालय में पढ़ाने के नाम पर दो ‘शिक्षा मित्र’ थे, ग्राम पंचायत के ही क्षेत्र के स्थानीय निवासी जो दस-दस महीने की अस्थायी नियुक्ति पर कई वर्षों से चले आ रहे थे। उनमें से एक तो अपने नाम ‘पवन’ का सही उच्चारण करता था पर दूसरा अपने नाम ‘सुभाष’ को ‘सबास’ जैसा बोलता था।
‘अरे भाई, ‘सुभाष’ कहा कीजिये। इतने महान नेता सुभाषचंद बोस हुए हैं, मालूम है न!’ बकलोल की तरह अभिषेक का मुँह दो क्षण निहारने के बाद उसने हाथ का रजिस्टर आगे बढ़ाया–‘आपका हस्ताछरवा होना है इसमें।’
उसके हाथ से रजिस्टर लेकर अभिषेक ने देखा कि विद्यालय की रंगाई-पुताई, टाट-पट्टी, डेस्क-बेंच इत्यादि से संबंधित खर्च के लिए बनी ‘ग्राम शिक्षा निधि’ के संयुक्त खाते वाली सारी प्रविष्टियाँ बाकायदा दर्ज हो चुकी हैं। इस खाते से हेडमास्टर तथा प्रधान, दोनों के हस्ताक्षर से ही धन निकाला जा सकता था पर तीन दिन पूर्व तक निकाले गये धन की प्रविष्टि बिना उसकी जानकारी के यहाँ बाकायदा दर्ज थी।
‘किसने दर्ज किया ये सब रजिस्टर में?’
‘शिक्षामित्र’ सुभाष ने अभिषेक की ओर जैसे तरस से देखा और फिर दाहिने अँगूठे से पिछाड़ी खुजलाते हुए बोला–‘करवा लिये हैं न ठाकुर साहब।’ और उसने ग्राम प्रधान के हस्ताक्षर वाले कॉलम पर तर्जनी रखकर एक अर्द्धगोलाकार आकृति दिखा दी जिसे अक्षर-ज्ञान करने चले बच्चे की कलाकारी तो माना जा सकता था पर हस्ताक्षर नहीं। ‘ये ऽऽ हस्ताक्षर है?’
‘पुरनका पन्नवा पर भी उहे हस्ताछर है।’ और उसने पीछे के पन्ने पलट कर अभिषेक को दिखा दिये। अध्यापिका विनीता हमेशा समय से विद्यालय पहुँच जाती थी पर शिक्षामित्र कभी समय से नहीं आते थे। एक दिन अभिषेक ने विनीता से पूछ लिया–‘आप भी कहीं पास के गाँव से आती हैं क्या?’
‘नहीं, शहर से आती हूँ। रजहीं गाँव तक ही टेम्पो आता है। वहाँ से तीन किलोमीटर पैदल चल कर यहाँ पहुँचती हूँ।’
अभिषेक को सुखद आश्चर्य हुआ। देखने से वह उम्र में उससे तीन-चार साल बड़ी ही लगती थी। किंचित कष्टसाध्य तरीके से भी समय से विद्यालय पहुँच जाना, धुर पिछड़े तबके के बच्चों से भरे इस विद्यालय के पढ़ाई से प्रत्यक्षतः विमुख ‘विद्यार्थियों’ की पढ़ाई में रुचि जगाने की भरसक ईमानदार कोशिश करना…। विनीता के आचरण को दिन प्रतिदिन देखते हुए अभिषेक के मन में उसके प्रति आदर उपजा। यहाँ पढ़ाना कितना दुष्कर कार्य है, यह अहसास अपने अध्यापन के चौथे दिन ही अभिषेक को भरपूर हो चुका था। हुआ यह कि पूरी तन्यमता से वह बच्चों को कुछ शब्दों के सही उच्चारण बारंबार दुहरवा कर सिखाने की कोशिश कर रहा था, तभी… ‘दैया रे, दैया रे, चुम्मा माँगे सैंया रे…’ पास के ही किसी घर से पूरी कर्कशता के साथ गाया जाने लगा, पुरुष स्वर में। बच्चों के सिर तत्काल उसी दिशा में घूम गये, कुछ ‘रिवह्-रिवह्’ कर हँसते हुए एक-दूसरे को आँख भी मारने लगे।
‘सीधे बैठो…सीधे बैठो’ कहकर उन्हें डाँटते हुए अभिषेक कुछ हद तक उन्हें वापस पढ़ाई की ओर खींचने में सफल तो हो गया था पर मूड उसका सिरे से उखड़ ही गया। उसी दिन घटना का घर पर बखान करने पर उसे पत्नी से सुनने को मिला था–‘अरे, ऐसे विद्यालय में किसी ढंग के घर का बच्चा थोड़े ही पढ़ने जाता है।’ और अपने बच्चों को ‘ढंग के’ यानी अँग्रेजी माध्यम वाले विद्यालय में पढ़ाने का अपराधबोध नये सिरे से अभिषेक को कोंच गया था।
विद्यालय की पढ़ाई के स्तर को अभिषेक द्वारा गंभीरता से लिया जाता देखकर विनीता ने पहले की अपेक्षा अधिक उत्साह से पढ़ाना तो आरंभ कर ही दिया था, बच्चों में विषय के प्रति रुझान पैदा करने के अभिषेक द्वारा सुझाये गये नवोन्मेषी तरीकों को भी अमल में लाने की कोशिश की। शिक्षामित्रों में से पवन ने भी शुरुआती उदासीनता के बाद अपने सामर्थ्य के अनुसार सहयोग किया। पर सुभाष वैसा ही लद्धड़ बना रहा।
कुछ महीनों के बाद अभिषेक के पास जब एक-दो बच्चे अपनी जिज्ञासाएँ लेकर आने लगे तो उसे लगा कि उसकी पहल ने कुछ प्रभाव तो दिखाया ही।
लेकिन आधा सत्र बीतते-बीतते उसके सामने एक विचलित कर देने वाला दृश्य आ खड़ा हुआ। लगभग एक-तिहाई बच्चे विद्यालय आना ही छोड़ दिये। विनीता ने तब खुलासा किया–‘ये बच्चे विद्यालय सिर्फ पिछड़े वर्ग के बच्चों को मिलने वाले वजीफे के लालच में आ रहे थे। जहाँ उसका भुगतान हुआ, ये विद्यालय की ओर देखते भी नहीं।’
‘पर उनके माँ-बाप कैसे…’
‘उनके माँ-बाप ही तो भेजना बंद कर देते हैं।’
विनीता की बात पर अभिषेक एक फीकी-सी हँसी हँस दिया और बुदबुदाया–‘जो भी थोड़ी बहुत अध्यापकी मैंने की है उसमें ऐसा विद्यालय और ऐसे अभिभावक पहली बार देखने को मिले।’ विनीता ने उसे थोड़ा गौर से देखा और फिर कहा–‘आप तो तब भी गाँव की पृष्ठभूमि के हैं पर मेरे बारे में सोचिये। सारी पढ़ाई शहर में करने के बाद नौकरी गाँव में लगी और वह भी ऐसे विद्यालय में। रोज जब घर से विद्यालय के लिए निकलती हूँ तो जैसे सिर पर…’
सुभाष को इधर आते हुए देखकर उसने वाक्य को अधूरा ही छोड़ दिया।
छब्बीस जनवरी निकट थी और विद्यालय में इस उपलक्ष्य में हर वर्ष एक छोटा-सा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता था। अभिषेक ने सोचा कि, थोड़ा अलग हट कर, अपेक्षाकृत वंचित पृष्ठभूमि से आकर भी अपनी लगन तथा प्रतिभा की बदौलत देश का नाम रोशन करने वाले कुछ भारतीयों पर केंद्रित प्रेरणाप्रद कार्यक्रम आयोजित किया जाये। जो बालक-बालिकाएँ कार्यक्रम के लिए चुने गये उनमें से विशेषकर कुछ बालिकाओं की स्कूल-ड्रेस बदरंग दिखी तो अभिषेक ने विनीता से कहा–‘जहाँ तक मुझे मालूम है ‘ग्राम शिक्षा निधि’ से बालिकाओं को हर साल सलवार-कुर्ते की ड्रेस दिलवाने का प्रावधान है।’
‘वो तो है ही।’
‘तब इनकी ड्रेस का ये हाल क्यों है?’
‘क्योंकि दो साल से कागज में ही ड्रेस दी गई है।’ विनीता के चेहरे पर चिढ़ कौंध गई। ‘हूँ ऽ ऽ।’ अभिषेक इन सब बातों पर बड़ी दुविधा में पड़ जाता था। पढ़ाई-लिखाई सुधारने पर ध्यान दे कि इस फर्जीवाड़े की पोल खोलने पर भिड़े! वैसे भी पत्नी का निषेधात्मक ब्रह्मवाक्य ‘आपने ठेका ले रखा है विद्यालय को सही ढंग से चलाने का?’ अवचेतन में रह-रह कर हथौड़ा मार देता था।
पर कुछ देर तक सोच में डूबे रहने के बाद वह बोल ही पड़ा–जब से विद्यालय में आया हूँ, कभी प्रधान से मिलने की कोशिश नहीं की। इसी मुद्दे पर मिल कर देखता हूँ कि उनकी कहाँ तक सहमति है इस…’
‘नहीं, नहीं। आपका जाकर उनसे मिलना उचित नहीं होगा।’ विनीता ने उसकी बात काटी… ‘क्यों?’
‘अपनी कक्षा लेने के बाद बताती हूँ आपको।’
‘हाँ, हाँ। कक्षा में जायें पहले।’
आधे घंटे तक विनीता का पढ़ाना गुंजायमान होता रहा। इस बीच हाजिरी-रजिस्टर खोल कर बैठा हुआ अभिषेक वजीफा पाने के बाद से विद्यालय न आ रहे बच्चों का प्रतिशत निकालने बैठ गया। सत्ताईस में से बाईस बच्चे यानी इक्यासी प्रतिशत!
इतनी ज्यादा अनुपस्थिति पर उदास होते-होते एक–दूसरा तथ्य उसकी आँखों के सामने कौंध गया। पाँच बच्चे तो डटे हुए हैं पढ़ने!
तभी कक्षा से लौट कर विनीता बोली–‘आप तो गाँवों का वातावरण मुझसे बेहतर समझते हैं। मैं महिला हूँ, मुझे ही उस महिला से बात करने दें।’
‘पर उसके पति महोदय वहाँ मिल गये तो आप उनसे क्या बात कर पायेंगी?’
‘कोशिश करने में कोई हर्ज नहीं है। दो साल से यहाँ पढ़ा रही हूँ। आपसे पहले वाले हेडमास्टर तो प्रधान-पति के साझीदार बने हुए थे। अब आपका हौसला देखकर मुझे भी थोड़ा हौसला हुआ है।’
अभिषेक के माथे पर पहले चिंता की कुछ रेखाएँ उभरीं। फिर उसने सामने से आ रहे पवन को आवाज देकर बुलाया तथा कहा–‘कल इनके साथ जरा ठाकुर साहब के घर दोपहर में हो आना। कार्यक्रम के बारे में बात करनी है। समझ गये?’
पवन ने बिना कुछ समझे ही सहमति में मुंडी हिला दी।
दूसरे दिन अप्रत्याशित रूप से अपने मिशन में सफल होकर विनीता ने स्वयं प्रधान के दस्तखत करवा लिये तथा आनन-फानन में ड्रेस के कपड़े की खरीद संपन्न कर लड़कियों में वितरित करने का काम भी करने लगी। दो दिन बाद कार्यक्रम की रिहर्सल के दौरान लड़कियों का नई ड्रेस में आना भी तय हो गया।
कार्यक्रम की नवोन्मेषी परिकल्पना ने कई बच्चों में उत्साह का संचार कर दिया था तथा आवश्यक वस्तुओं में कुछ तो वे बाल सुलभ जुगाड़ से बटोर भी लाये। अभिषेक के लिए सुखद आश्चर्य के रूप में एक-दो अभिभावक भी ठेठ गँवई अंदाज में ‘गनतंतर’ मनाने में अपने सहयोग का वादा करने चले आये।
‘ये सब आपकी पहल का नतीजा है, विशेषकर आवश्यक राशि का प्रबंध।’ अभिषेक ने विनीता से कहा, तो उसने कहा ‘नहीं, उस दिन प्रधान जी के पति के दूर रिश्तेदारी में गये रहने के संयोग का नतीजा है।’
विनीता के जवाब पर अभिषेक के मन में आशंका की एक लहर उठी–‘कहीं प्रधान का पति वापस पहुँच कर खिसियाहट में कोई बवाल न कर बैठे…।’ अभी तक वह उस व्यक्ति से सावधानीपूर्वक न सिर्फ एक दूरी बनाये रखने में कामयाब रहा था बल्कि विद्यालय के किसी भी मसले पर उसकी दखलंदाजी की आमने-सामने वाली स्थिति भी न बनने दी थी। पर यह पहला ही अवसर था जब उसके कार्यक्रम में ‘ग्राम शिक्षा नीति’ से कोई धनराशि बिना ‘प्रधान-पति’ की जानकारी के खर्च हुई थी।
सोचते-सोचते अभिषेक विनीता से बोल पड़ा–‘खैर! जो होगा, देखेंगे। अभी तो आप बच्चों के रिहर्सल पर ध्यान दें।’
‘हाँ, वो तो कर ही रही हूँ।’ विनीता बोली। फिर जैसे कुछ अचानक याद आ जाने से उसने आगे जोड़ा–‘मैं तो प्रधान जी से छब्बीस जनवरी को मुख्य अतिथि बनने के लिए आग्रह भी कर आयी हूँ।’
‘अच्छा! मान गयीं आने को?’
‘क्या बतायें…आप तो जानते ही हैं, ‘हम घर ही में ठीक हैं।’ बारंबार यही सुनने को मिला। पर आग्रह तो मैं कर ही आयी हूँ।’
‘ठी ऽ ऽक है।’ अभिषेक जैसे एक मानसिक थकान से उबरने की कोशिश करता हुआ बोला।
रात में कुछ समय निकाल कर अभिषेक अपने बच्चों की पढ़ाई पर भी ध्यान देता था। लड़के को पढ़ाते-पढ़ाते उसके मुँह से निकला–‘मेरे पाँच बार सिखाने के बावजूद तुमने वही गलती कर डाली! तुमसे अच्छे तो मेरे विद्यालय के प्राथमिक स्तर…’
‘बस! बस! विद्यालय की बात विद्यालय में ही छोड़ आया कीजिये।’ पत्नी ने फिर अभिषेक की बात काट दी। वापस बच्चे की पढ़ाई पर लौटते हुए वह बड़बड़ाया–‘सारी दिक्कत यह मान लेने में है कि जो जैसा है वैसा ही हमेशा रहेगा।’
शायद बच्चों को भी विश्वास नहीं हो पा रहा था कि ये वही विद्यालय है, वे वही विद्यार्थी हैं। चारों ओर रंग-बिरंगी झंडियाँ लगी हुई थीं तथा रिहर्सल के लिए सजे-धजे बच्चे एक-दूसरे के कपड़े छू-छू कर जैसे तसल्ली करने में लगे थे कि हकीकत में ही उन्होंने ढंग के कपड़े पहन रखे हैं। कार्यक्रम के शुरू में होने वाले गायन की प्रैक्टिस, सपाट गायकी के बजाय, उचित-उचित स्थल पर आरोह-अवरोह के साथ विनीता करवा रही थी जिसकी ध्वनि कानों तक पहुँचते ही आते-जाते लोग भी मुस्कुरा कर इधर देखने लगते थे।
एक बुजुर्ग रुक कर देर से बच्चों को रिहर्सल करते देख रहे थे तथा बीच-बीच में मुस्कुरा भी रहे थे। अचानक ही विनीता की दृष्टि उनकी ओर पड़ गयी तो वह लपक कर गयी तथा अभिषेक से मिलवाते हुए बोली–‘श्री रामजन्म मिश्र, रिटायर्ड इंसपेक्टर। आप रिटायर होने के बाद अपने गाँव में ही रह रहे हैं।’
हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन करते हुए अभिषेक ने अपना परिचय दिया और कहा–‘आप जैसे लोगों के ही मार्गदर्शन की जरूरत है हमें।’
बुजुर्ग बोले–‘आपने तो इन बच्चों का कायापलट कर दिया है। सालों बाद इस गाँव में कुछ ऐसा दिखा जिससे आंतरिक खुशी हुई।’
कुछ देर बाद मिश्र जी चले गये तो विनीता ने अभिषेक को बताया–‘अलग तरह के आदमी हैं मिश्र जी। उनका इतना कहना हमारे लिए बेहद उत्साहवर्धक है।’
‘पहले मुलाकात हुई होती तो…’ अभिषेक की बात काट कर विनीता ने कहा–‘वे किसी के यहाँ नहीं जाते। घर पर चुपचाप किताबें पढ़ने में लगे रहते हैं। ज्यादातर गाँव वाले उन्हें एक अजूबा ही समझते हैं।’
‘शायद आज के युग में जो भी ढंग का काम करे उसे अजूबा समझा जाता है।’ कहकर अभिषेक एक फीकी सी हँसी हँस दिया।
रिहर्सल कर रहे बच्चों को एक छोटी-सी अवधि के लिए आराम दे दिया गया था तथा इस दौरान वे अभिषेक द्वारा अपनी जेब से खरीदे गये अल्पाहार को एक नियामत की तरह महसूस करते हुए खाये जा रहे थे। दो-तीन बच्चे रिहर्सल की भंगिमाओं को मगन भाव से एक-दूसरे को ही दिखाते हुए इधर-उधर विचर रहे थे। ‘साली, कुतिया! तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरी पत्नी से रजिस्टर पर हस्ताक्षर करवाने की?’ बेहद कर्कश स्वर में कहा गया यह वाक्य अचानक ही उच्चरित हुआ तो बच्चों ने हकबका कर उस दिशा में नजरें घुमाईं।
संजय प्रताप रौद्र रूप में लगभग वीभत्स हो चुकी मुखमुद्रा में विनीता के सामने आकर खड़ा हो गया था।
कुछ बच्चे खाने की सामग्री वहीं छोड़ कर भाग चले तो कुछ ज्यादा ही छोटे बच्चे रोना भी चालू कर दिये। अभिषेक कुछ दूरी पर खड़ा हुआ पवन को कार्यक्रम के बारे में कुछ समझाये जा रहा था। जब तक वह पलट कर विनीता के पास पहुँचा, विनीता रुंधे गले से संजय प्रताप से कह चुकी थी–‘लड़कियों के लिए ड्रेस खरीदने का पैसा निधि से ही तो निकलेगा। प्रधान जी का हस्ताक्षर तो चाहिये ही।’
‘चो ऽ ऽ प्प्! कुतिया पहली बार निधि से पैसा निकालने जा रही थी क्या…’
वहाँ पहुँच चुके अभिषेक ने दृढ़ पर नम्र स्वर में कहा–‘देखिये, महाशय! यह विद्यालय तथा प्रधान जी के अधिकार क्षेत्र में आने वाला मामला है। आप इसमें क्यों बेवजह बवाल…’
‘मैं प्रधान पति हूँ।’ उसकी बात काट कर संजय प्रताप गुर्राया।
‘ऐसा कोई पद मेरी जानकारी में नहीं है।’
‘ओ ऽ ऽ! ओ ऽ ऽ! कल के लौंडे मुझे कानून पढ़ाने चले हैं!’
फिर भरसक विनम्रता से ही अभिषेक ने कहा–‘माफ कीजियेगा, विद्यालय की निधि के मामले में प्रधान जी ही सक्षम हैं। सारा काम नियम-कानून से हुआ है। बच्चों के सामने बेवजह आप एक महिला से अभद्र भाषा में बात न करें।’
‘महिला ऽ ऽ! महिला ऽ ऽ!’ मखौल से दुहराता हुआ संजय प्रताप अचानक ही जूता निकाल कर विनीता पर झपटा–‘तू ही सारी खुराफात की जड़ है।’
तत्काल उसके सामने आ गये अभिषेक ने अपनी मजबूत हथेली में उसकी कलाई थामते हुए कहा–‘बस! बहुत तमाशा कर लिया आपने।’
‘अच्छा! मेरे ही गाँव में तू मुझसे लगने चला है। तुम दोनों के लपट-सपट से गाँव में गंदगी…’
‘खबरदार! चरित्रहनन का प्रयास न करें।’ अभिषेक लगभग गरज पड़ा।
‘लग गयी बात? लपट-सपट करते समय नहीं…’
‘खबरदार!’
‘क्या कर लेगा तू? इसी गाँव में खोद कर तुझे और तेरी…’
अब जैसे अभिषेक का सारा खून उसके माथे में चढ़ गया। गुस्से से काँपता हुआ बोला–‘धुरहु-कतवारू समझ रखा है मुझे? सिर्फ तैंतीस किलोमीटर दूर है मेरा गाँव भी। मेरे चाचा चतुरानन सिंह मल्ल का नाम सुना है? औकात है तुम्हारी मुझे खोद के गाड़ने की?’ चतुरानन सिंह मल्ल का नाम सुनते ही संजय प्रताप को जैसे साँप सूँघ गया। चोर निगाहों से दायें-बायें देखते हुए वह बुदबुदाया–‘पहले पता होता तो…’
विनीता ने कातर निगाहों से बच्चों से लगभग खाली हो गये विद्यालय के परिसर को देखा। इस बीच क्रोध के अपने उफान पर जैसे एक तरह की असहजता से जूझ रहा अभिषेक बच्चों का छूट गया सामान बटोर-बटोर कर एक जगह रखने लगा। चुपके से खिसक गये संजय प्रताप पर उसका ध्यान तक नहीं गया।
अपने बच्चों को सूजी का हलवा खिला देने के बाद तश्तरी में हलवा लेकर रंजना जब अभिषेक के पास पहुँची तभी पति का बेहद उदास हो रहा चेहरा उसकी दृष्टि के दायरे में दर्ज हुआ।
‘फिर वही विद्यालय होगा तुम्हारे…’
पत्नी का वाक्य पूरा होने से पहले ही अभिषेक फूट पड़ा।
सारा वाक्या सुनते-सुनते रंजना का चेहरा लाल होता जा रहा था। चाहे जो हो जाये, पति का अपमान वह बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। अचानक वह चिल्ला ही पड़ी–‘दही जमा हुआ था आपके हाथ में? धुन कर क्यों नहीं रख दिये उसे वहीं पर?’
अभिषेक के चेहरे पर उदासी और ज्यादा गहरा गयी। आहिस्ते से बोला–‘मैं तो उससे उतना ही कह कर पछता रहा हूँ। मुझे अपने ऊपर संयम रखने की जरूरत थी। एक अध्यापक की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है विद्यार्थियों को उचित संस्कार देने की। इतने महीनों में बच्चों पर की गई मेरी सारी मेहनत धमकी का जवाब धमकी से देने में बर्बाद हो गयी।’
कुछ क्षणों तक उसे किंचित अविश्वास से देखने के बाद रंजना बोली–‘संस्कार का ठेका ऊपरवाले ने आपको ही तो दिया। तबादला पर तबादला पाँच साल की छोटी सी नौकरी में झेलने के बाद भी वही राग। घूमते रहिये इस रद्दी विद्यालय से उस रद्दी विद्यालय के बीच चकरघिन्नी की तरह।’
Image: Raja Pandu and Matakunti LACMA
mage Source: Wikimedia Commons
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