उपराम

उपराम

अस्सी को छुती आयु, तेज ताप से दहक रही देह, वजूद पर पड़ता जीवन भर का वजन…उन्हें अंतिम वक्त का आभास करा रहा है। अपने भीतर के उस कोने जिसे अपना कोना कहते हैं तक पहुँचने के लिये अंतिम वक्त शायद सही वक्त होता है। वे अपने कोने तक पहुँचने के उपक्रम में हैं। अचरज! उन्हें अपने ही बारे में कितना कुछ पता नहीं है। उन्हीं लोगों के साथ जिनके होने से उनका परिवार बना है। अफसोस, प्रत्येक जिंदगी अंतिम मौका होती है। खत्म हो रही आयु को वापस नहीं पाया जा सकता। बहुत से दृश्य जो ज्यों-के-त्यों थमे रह जाते हैं क्योंकि दृश्यों की आयु नहीं बढ़ती, को जरूर अपने भीतर उतर कर छुआ जा सकता है। उनकी स्मृति सलामत है इसलिये खास-खास लमहे उनके जेहन से गये नहीं हैं। वे उन लमहों को एक बार फिर इस तरह जीना चाहते हैं, जब की गई त्रुटियों में सुधार होता जान पड़े। लमहे लौटते नहीं। लौट भी आयें तो उनमें वह सहजता और स्वाभाविकता नहीं होगी जो सही वक्त पर घटित होते हुए होती। वे सत्तावन वर्षीय मधुर को वह ताप, निकटता, भरोसा देना चाहते हैं जो वह अपने पच्चीस वर्षीय पुत्र नक्षत्र को दे रहा है। यद्यपि जानते हैं ऐसा करना सहज और स्वाभाविक कतई न लगेगा। वे स्वभाव से बेहद कठोर और क्रोधी रहे हैं। उनसे निरापद दूरी रखते हुए उनके प्रति मधुर तटस्थ…बल्कि उदासीन होता गया है। दोनों के मध्य असहजता का स्तर यह है कि कई दिनों से आ रहे तेज ताप के बावजूद वे बूढ़ी (गृह ग्राम) में अकेले पड़े रहते, यदि गनपत (उनके खेत अधिया में लेने वाला) मधुर को फोन कर, उनके अस्वस्थ होने की सूचना न देता। चालक के साथ कार लेकर आये नक्षत्र को देखकर वे चौंक गये–

‘पूना से कब आये नक्षत्र?’

‘एक सप्ताह हो गया। बाबा, तुम कितने दुबले हो गये हो।’

‘मोटा कब था?’

‘मैं भी तुम्हारी तरह दुबला रहना चाहता हूँ। इन दिनों पापा का पेट बढ़ गया है। बाबा तुम अपने पेट को फूलने से कैसे बचा पाये?’

उनके भीतर पहले वाला क्रोध और कठोरता होती तो नक्षत्र को फटकार देते–‘मेरे त्याग-तपस्या को तुम्हारे बाप ने नहीं समझा तुम क्या समझोगे।’ पर वे नक्षत्र से पता नहीं कब संधि करते गये हैं। बल्कि अपनी अबोधता में नक्षत्र ने उन्हें संधि करने के लिए विवश कर दिया है।

नक्षत्र के प्रश्न पर वे हँस दिये ‘बचाना क्या? फूला ही नहीं।’

‘फूलता कैसे? तुमको इतना गुस्सा जो आता था। बाबा तुमने एंगर मैनेजमेंट के बारे में सुना है?’

‘यह क्या है?’

‘मेरे इंस्टीट्यूट में किरण बेदी जैसे बड़े-बड़े लोग लेक्चर देने आते हैं। एक लेक्चर में एंगर मैनेजमेंट के बारे में चर्चा हुई थी। शांत चित्त से अपने गुस्से के कारणों का पता लगाओ। खुद से सकारात्मक तरीके से सवाल-जवाब करो। निराशा भी कई बार गुस्से का कारण होती है। हम ऐसे इनसान पर अपना गुस्सा उतारते हैं जो हमारी निराशा के लिये जिम्मेदार नहीं होता। यह इनडायरेक्ट एंगर कहलाता है। समझे कुछ?’

‘अँग्रेजी के इतना कठिन शब्द बोलते हो। कुछ समझ में नहीं आया।’

‘तुम्हें लेने आया हूँ। तुम्हारा इलाज कराऊँगा और इत्मीनान से समझाऊँगा।’

उनकी स्थिति देख चिकित्सक ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कर लिया।

मितव्ययी वृत्ति के कारण वे उत्पात मचाने लगे–‘फालतू का खर्च। डीलक्स रूम में नहीं जनरल वार्ड में रहूँगा।’

उत्पात पर चिकित्सक मधुर की ओर देख कर हँसे ‘पुजारी जी आपके फादर कंजूस हैं…और बाबूजी आप चिंता क्यों करते हैं? आपका बेटा अच्छा कमा रहा है…।’

उन्होंने मधुर को निहारा–क्या यह चाहता है वे आलीशान तरीके से रहें? यह रहना अस्पताल में ही क्यों न हो। लेकिन मधुर नहीं नक्षत्र जोर देकर बोला ‘बाबा, तुम इसी रूम में रहोगे। डॉक्टर साहब क्या कहेंगे, इतने बड़े आदमी के दद्दा जनरल वार्ड में?’

मधुर ने नक्षत्र की पीठ थपथपा दी ‘नक्षत्र, बाबा का ध्यान रखो।’

उन्होंने सप्रयास मधुर को कभी स्पर्श नहीं किया, अब इच्छा होती है मधुर की पीठ थपक कर देखें उसका स्पर्श कैसा लगता है।

चिकित्सक ने उनका हौसला बढ़ाया ‘आप भाग्यशाली हैं। आपका बेटा और पोता आपको लेकर चिंतित हैं वरना आजकल के लड़के पिता को नहीं पहचानते।’

वे पूँछना चाहते हैं–क्या यह आपका अनुभव है? यदि है तो आपने दायित्व पूरी भावना से नहीं निभाये हैं। आपने अपने क्रोध और कठोरता से रिश्तों को कठिन बना दिया है। आपका बेटा आपको लेकर अड़चन महसूस करता होगा। हमलोग पता नहीं किस अहम् के कारण बेटों से घुल-मिल नहीं पाते हैं, जबकि वंश बढ़ाने से लेकर अगली पीढ़ी का भार ढोने, पिछली पीढ़ी का अग्नि संस्कार करने तक का काम ये करते हैं। कह न सके। चिकित्सक कहेंगे तेज ताप के कारण मरीज की हालत बिगड़ रही है।

वे आरामदायक बिस्तर पर आराम से आँखें मूँदें हुए लेटे हैं। बुढ़ापे और व्याधि ने उन्हें शिथिल-शांत बना दिया है लेकिन उन्हें लगता है कि वे चेहरे से अब भी क्रोधी लगते हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि की लोक मर्यादा को उन्होंने अपना विशिष्ट बोध बना लिया था। पूरे कुटुंब में एक वे ही सरकारी नौकरी में थे। वन विभाग का मामूली पद था पर उसके कारण कुटुंब में उनका एक स्थान बन गया था। उस स्थान पर खुद को महसूसते हुए वे अहंकारी बल्कि क्रोधी बल्कि विचित्र होते गये। अजीब बात यह रही उनकी विचित्रता को बूढ़ी में सराहना मिलती थी–आदमी हो तो ऐसा गरूर वाला। मेहेरिया-बच्चों को मुँह नहीं लगाता। (मेहेरिया-बच्चों में रुचि लेने वाले को मेहरा कहा जाता था।) उन्होंने आँखें खोलीं। चिकित्सक जा चुके हैं। लंबे सोफे पर मधुर और नक्षत्र अगल-बगल बैठे हैं। नक्षत्र को समीपता देते हुए मधुर कैसे महसूस करता होगा? आयु के अंतर के बावजूद नक्षत्र के साथ मित्रवत कैसे रह पाता है? माहौल से कट कर उन्होंने जीवन बिता दिया लेकिन अब एकाएक सोच रहे हैं–मधुर का पुष्ट हाथ, शिशु का कोमल हाथ बन जाये। वे नन्हें हाथ को मुट्ठी में भरकर उसकी मुलामियत और महक को महसूस करें, जबकि बूढ़ी के कच्चे घर के बड़े आँगन में खटोले में पड़े, रोते शिशु मधुर को देखकर, उसे थपक कर सहारे का बोध कराने जैसी भावना उन्हें नहीं आती थी। सोच रहे हैं–मधुर साल, डेढ़ साल का बालक बन उनकी पीठ पर लद जाये और वे उसी दुनिया की सैर कराने निकल पड़ें, जबकि वह उनका जूता चबा रहा था और लोक मर्यादा के धुनी उन्होंने उसके हाथ से जूता नहीं छीना कि वहीं आँगन में उनके पिता और कक्का बैठे थे। सोच रहे हैं–मधुर, छात्र बन जाये और वे उसकी पीठ सहलाते हुए कहें तुम्हें कुछ दे सकूँगा या नहीं वह भरोसा जरूर दूँगा कि तुम जब चाहो मुझे अपने आस-पास महसूस कर लो। जबकि उसके औसत अंक देख कर वे संटी उठा लेते थे और उसकी पीठ पर सटाक-सटाक…

‘तुम लायक ही नहीं…।’ घबरा कर उन्होंने पुनः आँखें मूँद लीं। मधुर और नक्षत्र का वार्तालाप उन तक पहुँच रहा है–

‘पापा, मेरे पेपर बहुत अच्छे नहीं हुए हैं। मार्क्स अच्छे न आये तो डाँटना मत।’

मधुर का चिर-परिचित शांत भाव ‘नहीं डाटूँगा।’

नक्षत्र ने नाज दिखाया ‘आपके कूल रियेक्शन से मुझे गिल्ट होने लगती है। पापा कभी तो डाँटो।’

‘मार्क्स कम मिले तो डाटूँगा।’

‘डाँटना आता है?’

‘एम.बी.ए. का तुम्हारा लास्ट सेमिस्टर है। आगे क्या करने का इरादा है?’

‘आपकी तरह बिल्डर बनने का नहीं है। पापा आप किस छोटे शहर में पड़े हो। पूना में सैटिल हो जाओ। मैं वहीं जॉब करूँगा। मुझे पूना अच्छा लगता है।’

‘यह बात है।’

उनकी सिकुड़ी छाती में बेचैनी है। ये विचित्रता और उग्रता के लिये जाने जाते हैं। मधुर हर स्थिति में सौम्य कैसे रह पाता है? कहता क्यों नहीं नक्षत्र तुम्हें बिल्डर बनना है। मैंने इतनी मेहनत से काम जमाया है…। उन्होंने तो अपने ख्वाबों ख्वाइशों को वन विभाग से जोड़ लिया था–

‘मधुर पढ़ाई में चित्त दो। वन विभाग की परीक्षा में बैठो। डिप्टी रेंजर, रेंजर, डी.एफ.ओ. का बड़ा रुतबा रहता है। शहद, चंदन, चिरौजी, आँवला…वनोपज इनके बँगलों में जाती है।…तुम वहीं द्वितीय श्रेणी…चपरासी न बन सकोगे…मैंने अपने दम पर नौकरी पाई है…।’

‘तब आठवीं पास को भी नौकरी मिल जाती थी, अब नहीं मिलती।’

ऐसा अशिष्ट जवाब सुन उन्हें हिंसा पर उतरना ही था। उनकी पत्नी ने मधुर को उनकी जद से अलग किया ‘लड़िका का प्राण हत लोगे? कबहूँ एक अच्छर पढ़ाये हो जो फस्ट आये?’

‘तुमलोग को बूढ़ी से शहर लाया कि यह कॉलेज में पढ़े, मनई बने।’

‘बनेगा जो बनेगा। न बनेगा तो खेती-कास्तकारी है, आपन पेट भर लेई।’

‘भलाई सिखाता हूँ तो इसे, इससे पहले तुम्हें इतना बुरा लगता है। जान लो यह पगलौठ कुछ नहीं कर सकता।’

और मधुर आज सफल बिल्डर है। वे नहीं जानते बिल्डर बनने का विचार इसे कैसे आया। इसने क्या प्रयास और परिश्रम किया। काम के तौर-तरीके कैसे सीखे। इस सफल, समृद्ध सलीकेदार बिल्डर को देख कर कोई अनुमान नहीं लगा सकता यह वही डरा सहमा बच्चा है जो उनसे पिट कर घर की पछीती में रो लेता था कि रोना जाहिर करेगा तो दद्दा फिर पीटेंगे।

उनकी सिकुड़ी छाती में बेचैनी बढ़ गई है। जी चाहता है पूँछे–मधुर तुम्हारा काम संतोषप्रद है न? कोई परेशानी तो नहीं है? यह कुछ नहीं बतायेगा। इसने कभी कुछ कहा ही कहाँ? कभी कहना चाहा तो वे डपट कर चुप करा देते थे। वह चुप रहने लगा कि वे किस बात को किस अर्थ में लेकर उपद्रव करने लगेंगे। सचमुच इसके साथ सख्ती हुई है। इसके प्रति वे बहुत कठोर रहे हैं। इसके बाद की तीन बेटियों के प्रति इतने कठोर नहीं रहे क्योंकि उन्हें वन विभाग से जोड़ कर नहीं देखते थे। लड़कियों के संदर्भ में इतना ही रहा कि बूढ़ी की पाठशाला में थोड़ा-बहुत पढ़ लें और बर-बियाह कर ठिकाने लग जायें। विवाह के बाद एक तरह से बेटियों ने इन्हें बख्श दिया, इन्होंने बेटियों को। मधुर को लेकर न जाने कौन-सी उम्मीद, कौन-सा अहम् रहा कि रिश्तों का क्रम जम नहीं पाया। संबंध अमूर्त होते चले गये।

दरवाजा खुलने की ध्वनि हुई।

जरूरी सामान लिये आई समता ने हड़बड़ाहट में मधुर से कहा–‘कहती हूँ मोबाइल घर में न छोड़ आया करो…साथ रखो।’

मधुर ने समता के हाथ से सेल फोन ले लिया ‘इतने अनएन्सर्ड कॉल! समता तुमने कॉल रिसीव क्यों नहीं की?’

‘दिनभर खाली जो रहती हूँ।’

पति-पत्नी की मान-मनुहार ने उनकी बेचैनी बढ़ा दी। उन्होंने पत्नी को शायद भर नजर निहारा ही नहीं। इस तरह मान-मनुहार हुई ही नहीं। पत्नी मरी वे एक कोने में देर तक सुस्त बैठे रहे। पता नहीं किसने कहा था–‘पति तो होता ही आवारा है। मधुर अम्मा का दाह-संस्कार तुम्हें करना है।’

कहने वाले का तात्पर्य उन्हें निर्मोही अथवा लोक मर्यादा का पालन करने वाला घोषित करना रहा होगा। वे ऐसे क्रोधी रहे हैं कि आवारा जैसे इल्जाम उन पर सूट नहीं करता। अम्मा को मुखाग्नि देते हुए मधुर ने बूढ़ी से अपने संबंध समेट लिये थे।

ताप नियंत्रित होते ही उन्होंने अस्पताल में न रहने की जिद पकड़ ली। चिकित्सक ने समझाया ‘दो-चार दिन रुकें। यहाँ नियमित जाँच होती है।’

‘जरूरत होगी तो आ जाऊँगा। दवाइयाँ खाता रहूँगा।’

‘पुजारी जी अपने पिता जी को समझाइये।’

वे अनायास चाह रहे हैं मधुर उन्हें रुकने के लिये समझाये। कहेगा तो कुछ दिन रुक जायेंगे। पर वह उनके निर्णय के विलोम कब गया? चिकित्सक से बोला–

‘दद्दा जाना चाहते हैं…जरूरत पड़ी तो चेकअप के लिये ले आऊँगा।’

वे मधुर के घर आ गये।

आलीशान घर।

इतना आलीशान तो डी.एफ.ओ. का बँगला न था। ऐसे आलीशान घर में रहना किस्मत की बात है। जैसे कोई साध पूरी हो रही है, जबकि इस घर में रहना उन्हें सुविधाजनक कभी नहीं लगा। घर के लोगों की जीवन शैली मर्यादाविहीन लगी। वे यहाँ आना पसंद नहीं करते थे पर हारी-बीमारी में आना पड़ता था। आते और कोप और कठोरता का प्रदर्शन कर झोला-झंडी समेट बूढ़ी चले जाते। लोगों को अफवाह सी सुनाते–

‘…वह घर शरीफों के रहने लायक नहीं है…वे लोग अँग्रेज बन गये हैं। हाथी जैसे दो कुत्ते (सेंट बर्नाड) रात को इतना भोंकते हैं कि भले मनई को नींद नहीं आ सकती। कोई नशा करके सोये तो अलग बात है…मेरे लिये वहाँ किसी के पास समय नहीं है…बहू पता नहीं कौन-सी डॉक्टरी है, नक्षत्र टेप रिकार्डर (म्यूजिक सिस्टम) में इतना गाना सुनता है जैसे गवइया बनेगा…।’ अब लग रहा है अपने अहम्-अकड़ के कारण उन्होंने इस घर में रहने के मौके गँवा दिये। बूढ़ी में अकेले रहने का नाटक रचते रहे। जबकि न मधुर क्रूर है, न समता संस्कारहीन, न नक्षत्र लापरवाह। उनके गिरते स्वास्थ्य को लेकर तीनों चिंतित हैं। उन्होंने समता को मधुर से कहते सुना–

‘तुमने दद्दा को कहा नहीं अस्पताल में कुछ दिन और रहें। वे अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं।’

‘समता, दद्दा वही करते हैं जो सोच लेते हैं।’

‘शुरू से ऐसे हैं?’

‘हाँ’

‘तुम बात क्यों नहीं करते?’

‘मैं उनसे बात करने की हिम्मत नहीं कर पाता। वे बूढ़े हैं, बीमार हैं, कमजोर हो गये हैं पर मैं उनके खौफ से निकल नहीं पाया हूँ।’

‘खौफ?’

‘फियर फैक्टर। जो डर बचपन में बैठ जाये उससे निकलना बहुत कठित होता है। तुम नहीं समझोगी। जो इस स्थिति से गुजरा हो, वही इस डर को समझ सकता है।’

‘दद्दा को काउंसलिंग की जरूरत है।’

‘करो। मानव मनोविज्ञान को समझती हो। लोगों का इलाज करती हो।’

वे स्तब्ध हैं।

‘सचमुच मधुर के साथ सख्ती हुई है। बहुत से दृश्य उनके भीतर ज्यों-के-त्यों मौजूद हैं। वे दोपहर में सो रहे थे। उनसे कोई मिलने आया। मधुर ने उन्हें जगा दिया। बिना कारण पूछे उन्होंने मधुर को दो तमाचे मार दिये कि क्यों जगाया? फनफनाते हुए बाहर गये। डेप्यूटी रेंजर को देख दंग रह गये, उनके घर अचानक कैसे? …और जब वे खाना खा रहे थे, तीसरी सबसे छोटी बेटी मोलिया रो रही थी। अचानक थाली एक ओर खिसकाई और मोलिया को उठा कर पटक दिया। फ्रैक्चर के देसी गलत उपचार से तिरछे हो गये उसके बायें हाथ के कारण उसका विवाह दो बच्चों के विधुर पिता से करना पड़ा। …उन्हें सचमुच काउंसलिंग की जरूरत है। इच्छा हुई समता से पूँछे–बता सकती हो मैं ऐसा क्यों हूँ? इतनी जिद क्यों होती थी? इतना गुस्सा क्यों आता था? समता कहेगी–दद्दा आप और आपकी पीढ़ी के लोग डरे हुए थे। अपना वर्चस्व, सत्ता बनाये रखने, अगली पीढ़ी को मुट्ठी में किये रहने के लिए मर्यादा के नाम पर आपलोग ढोंग करते रहे हैं। इस ढोंग में न अपनी अगली पीढ़ी से आप ठीक से जुड़े पाये, न ही अपना जीवन ठीक से जी पाये। सकारात्मक तरीका नहीं अपना पायें। खुद को खुलकर व्यक्त नहीं कर पाये। दृश्य पर आपकी सौ प्रतिशत उपस्थिति कभी दर्ज नहीं हुई। हम आज के लोग, आपसे अधिक सहज हैं। शासक बनने में नहीं, समान बने रहने में विश्वास करते हैं, जबकि देखो न दद्दा हमारी पीढ़ी, आपकी पीढ़ी से अधिक बदलाव देख रही है। आप अपने बड़ों के पैर छूते थे तो हम भी अपने बड़ों के पैर छूते हैं। पर हमारी संतान हमारे चरण नहीं छूती। अब हाय और बाय चलता है। हम आपसे खुल कर अपनी जरूरत न बता पाये। हमारी संतान अधिकार और समानता की माँग करती है। हम समझौता कर रहे हैं…खुद को बदल रहे हैं क्योंकि समय के साथ इनसान को बदलना पड़ता है…बदल जाना चाहिये…।’ और वे मानो अस्फुट सा कुछ बुदबुदा रहे हैं–‘हाँ, मैं अपने गुनाह स्वीकार करता हूँ। मैंने रिश्तों का क्रम…सिलसिला नहीं बनने दिया…संबंधों को लेकर सजगता, सतर्कता, सावधानी नहीं बरती…अमूर्त हुए संबंधों में संबंधहीनता आ गई और मैं माहौल से कटता चला गया…पर अब खुद को बदलना चाहता हूँ, चीजों को सकारात्मक भाव में लेना चाहता हूँ, छोटे-छोटे सुखों, छोटे-छोटे लमहों को जानना और जीना चाहता हूँ…प्रत्येक बदलाव विकास…हाँ, जलवे को देखना चाहता हूँ…लगता है नक्षत्र के साथ निकल पड़ूँ और मूवी, शॉपिंग मॉल, रेस्टोरेंट का आनंद लूँ…इंटरनेट के करिश्मे को समझूँ…। करिश्मे को समझने के लिये वे लाठी टेकते हुए नक्षत्र के कमरे के द्वार तक जा पहुँचे हैं। कंप्यूटर में व्यस्त नक्षत्र और मधुर की पीठ को स्पष्ट देख पा रहे हैं। दोनों की आवाज उन तक पहुँच रही है। मधुर चैट कर रहे नक्षत्र से कह रहा है।’

‘लगे रहो श्रीमान। अब तो डेटिंग ग्लोबल हो गई है।’

‘पापा, ये चैटिंग है।’

‘चैटिंग एक तरह की डेटिंग ही है।’

‘पापा, यू आर ग्रेट। मैं आपसे हर तरह की बातें कर लेता हूँ जबकि मेरे फ्रेंड्स अपने पैरेंट्स से बहुत बातें छिपाते हैं।’

‘क्यों छिपाते हैं? पैरेंट्स को मालूम होना चाहिये, बच्चे क्या कर रहे हैं।’

‘पापा, मेरे और आपके जैसे स्वीट रिलेशन सबके नहीं होते। लड़के अपने फादर से डरते हैं।’

‘क्यों डरते हैं? एक-दूसरे पर भरोसा होना चाहिये।’

द्वार पर ठिठके खड़े थे वे। मधुर तुमने यह व्याख्या कहाँ सीखी? तुम्हारे विकास क्रम के दिनों में कोई ऐसा पिता या परिवार था जिसने तुम्हें प्रभावित किया? इसलिये तुम नक्षत्र को इस तरह समीपता, सुरक्षा स्नेह, सुविधा देना चाहते हो? दे रहे हो। क्या तुम यही भाव मुझसे पाना चाहते थे? न पा सके। और अब नक्षत्र को देख उस अभाव की पूर्ति कर रहे हो? अपने बचपन को याद करते हो मधुर? मेरे गुस्से, मेरी अकड़ को किस तरह देखते हो?…

नक्षत्र की आवाज ‘सबके फादर आपकी तरह स्वीट नहीं होते न। पापा, मेरे फ्रेंड्स कहते हैं मैं आपकी तरह दिखता हूँ। मेरी आवाज भी आपकी आवाज से बहुत मिलती है।’

ठिठके खड़े वे। क्या मधुर मेरी तरह दिखता है? उसकी आवाज, मेरी आवाज से मिलती है? कैसी लगती होगी मधुर की समीपता? उसका स्पर्श कैसा है?… उसके मजबूत हाथ को अपने हाथ में ले सकूँ तो आज इतनी मजबूती जरूर पा लूँगा जब ग्लानि और कसक से मुक्त होकर अपने जीवन की किताब के अंतिम पन्ने के अंतिम पैराग्राफ की अंतिम पंक्ति के अंतिम अक्षर को पढ़ते हुये चराचर को विदा कहूँ…। उन्हें खाँसी आने लगी। आहट पर मधुर ने पलट कर देखा–नक्षत्र बाबा…

नक्षत्र कंप्यूटर पर व्यस्त ‘आओ, बाबा तुम्हें चैटिंग सिखाऊँ।’

पहले वाले वे होते तो तमक जाते–तुम्हारे बाप ने मेरे सामने ट्रांजिस्टर सुनने का साहस न किया, लेकिन तुम मुझे चैटिंग सिखाओगे? किससे क्या बोलना है, कैसा व्यवहार करना है तुम आजकल के लड़के न बोलने के पहले सोचते हो, न बाद में। बोल दिया बाकी ये बुढ़ऊ टेंशन लेता रहे…। लेकिन वे अपने गुनाह स्वीकार करना चाहते हैं। परंपराओं का सिमट कर लगभग खत्म हो जाना उन्हें अच्छा लग रहा है। नक्षत्र की आधुनिक जीवन शैली बुरी नहीं लग रही है। समीप चले आये–‘देखूँ, यह चैटिंग क्या मसला है।’

कुर्सी खिसका कर उन्हें अपने समीप बैठाने में नक्षत्र को कुछ वक्त लगा। चैट कर रही लड़की ने रोमन लिपि में हिंदी लिखी ‘मर गये क्या? जवाब नहीं दे रहे?’

वे आशय न समझ सके जबकि मधुर हँसने लगा। वे उसे हँसते हुए देखते रह गये–वे मधुर के साथ इस तरह कभी नहीं हँसे, जिस तरह यह नक्षत्र के साथ हँस रहा है। उन्होंने उसे भरोसा, उत्साह, शिक्षा के लिये समुचित धन…यहाँ तक कि सलाह भी नहीं दी। न ही मधुर ने माँगा। अब…कुछ देना चाहते हैं। बूढ़ी की खेतिहर जमीन। इस तरह अचानक बोलने लगे मानो फिर मौका मिले, न मिले–‘मधुर, अब मैं कुछ दिन का मेहमान हूँ। जमीन-जायदाद तुम्हारे नाम करना चाहता हूँ। जो भी कानूनी कार्यवाही हो करा लो।’

‘नक्षत्र के नाम करो, दद्दा अब मेरी भी उम्र हो रही है।’

धमनियों में पुराना क्रोध सुरसुराने लगा–इसे तुम्हारा प्रतिकार समझूँ या प्रतिशोध? चुनौती या चेतावनी? मेरा दिया तुम कुछ भी नहीं लेना चाहते? लेकिन मैंने तुम्हें जो जनम दिया…और जो पुजारी खानदान का रक्त तुम्हारी नसों में बह रहा है…और जो मैंने तुम्हें पाला-पढ़ाया…वह सब लौटा पाओगे?… नहीं। अपने प्रयासों को एहसान की तरह बताते हुए अंतिम वक्त पर पहुँच गये हैं। अपने कर्त्तव्य को अब एहसान की शक्ल नहीं देंगे। लगा पैरों की गति शेष हुई। धमनियों का लहू ठंडा पड़ रहा है। बोले–

नक्षत्र, तुम्हारी चैटिंग देखकर आँखों में जोर पड़ रहा है। अपने कमरे में जाऊँगा।’

उठने को हुये। लड़खड़ाये। मधुर ने उन्हें थामना चाहा…पर उन्हें छूने की उसे आदत नहीं। अभ्यास नहीं। उन्होंने इतने समीप आने का जब उन्हें छुआ जा सके, मौका ही नहीं दिया। उस दिन से दिखते, सिकुड़े हुए आदमी से मधुर आज भी डरता है। उन्हें स्पर्श करने का साहस उसमें आज भी नहीं है।

‘नक्षत्र, बाबा…’

नक्षत्र ने तेजी से उन्हें थामा और खिलौने की तरह उठा लिया। उनके कमरे में ले जाकर बिछावन पर लिटा दिया।

‘बाबा, मैंने कहा था दो-चार दिन अस्पताल में अभी रहो। नहीं माने। लो थकान हो गई…लगता है बुखार भी पलट आया है। शरीर गरम लग रहा है।’

वे चुप हैं और चाह रहे हैं मधुर उन्हें इस तरह उठाकर लाता। पर इसे समीप आने का मौका कब दिया? उनके शिथिल मुख में सहानुभूति है और शांति है। यह अपने हिस्से की लड़ाई कभी नहीं लड़ पाया। उनसे शीत युद्ध करता रहा, नक्षत्र से संधि। उनके साथ समझौता किया, नक्षत्र के साथ कर रहा है। ईश्वर इसका सदा मंगल हो। जिस जबान में कभी क्रोध और श्राप होता था, आज उसमें प्रार्थना के स्वर हैं।

इसे शायद उपराम हो जाने की स्थिति कहते हैं!


Image:An Aged Pilgrim, c.-1618-20
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Artist: Abu l-Hasan Aga Khan Museum
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