टूटी कुर्सी
- 1 December, 2015
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- 1 December, 2015
टूटी कुर्सी
बात इतनी बड़ी न थी कि अलग होने की प्रक्रिया से पूर्व ढिलक-ढुलक होती रहती, पर इतनी छोटी भी न थी कि हर दिन ‘अलगाव’ शब्द मेरे जेहन से न गुजरता। बात…सचमुच। बात थी ही क्या? जरा-सी, पर टूटा जो था, वह किसी भी एरलडाईट से जुड़ ही न पा रहा था। कहा जा सकता है कि छोटी-छोटी अनेक बातों का कुल ‘घन’ इतना भारी हो उठा था कि उसके भार के नीचे दबती जा रही थी मैं। दीदी समझाती रहती, ‘छोड़ भी। ये भी कोई बड़ी बात है? एक बच्चा आने दे घर में…कुछ भी दीख न पड़ेगा। वैसे भी तीन साल हो गए हैं, अब बच्चा आ ही जाना चाहिए।’ दीदी इतना भर कह कर हॉफ जाती, हालाँकि दीदी मुझसे बहुत बड़ी न थी…यही पाँच–साढ़े साल बस। दीदी ने रुकी साँस को सँभाला, फिर बोली, ‘मुझे नहीं देखती। क्या कॉमन है मुझमें और तेरे जीजा जी के बीच? लगता है कुछ…नहीं न…फिर भी हम अच्छा खासा सुखी परिवार की तरह जी रहे हैं न! बच्चे बन जाते हैं वह अटूट धागा, जिससे टूटता रहता परिवार भी जुड़ा दिखता है।’
दीदी समझाती रहती हालाँकि कहते हुए उनकी अपनी पारिवारिक जिंदगी की सड़ाँध अधिक गहराने लगती। उनके चेहरे पर उसके चिह्न देखे जा सकते थे। वे कुछ कहे, चाहे न कहे, पर मैं जानती-समझती थी। देखती रही थी–चुपचाप–उनकी सुखी-सँवरी गृहस्थी के अलग-अलग तरीके से घिसे टेढ़े-मेढ़े पतियों के साथ चलती ढचर-ढचर आवाज करती हुई गाड़ी को। असलियत ये भी थी कि तीन साल तक सब कुछ सह सकने की ताकत भी दीदी की इस ढचर-ढचर करती गाड़ी से ही पाई थी। हमेशा सोचती रहती आखिर दीदी पंद्रह साल बिता सकती हैं तो मैं क्यों नहीं, फिर हमेशा यह भी सोचती, ‘कैसे सह पाती है दीदी उस बेरहम-असहनीय आवाज को, जो उनकी गृहस्थी की गाड़ी से निकलती मेरे मन को बोझिल करती हुई…पर…पता नहीं उनका सिर दर्द क्यों नहीं करता…मन में शिकायत क्यों नहीं जनमती।’ एक ओर ये मेरा मन…गुस्से से बिलबिलाता रहता और दिलों-दिमाग जल कर खाक बनने लगते। परिणाम! हर दिन सिवान से बात करने, कुछ फैसला करने और सुना देने के बारे में सोचती रहती। भीतर कुछ तड़फड़ाता, बेचैनी में इधर-उधर रहती।
इतनी बेचैन तो तब भी न हुई थी जब उम्र निकलती जा रही थी और अम्मा से हर दिन ब्याह की चर्चा होती जो कब तनातनी में बदल जाती, पता ही न चलता। अम्मा बड़बड़ाती रहती और मैं बिस्तर पर करवटें बदलती हुई सो जाती। पर…तब मन में एक निश्चिंतता थी। शीना की दोस्ती, स्वतंत्र लेखन, घूमने-फिरने की छूट, मस्ती का साम्राज्य, अनेक अभिव्यक्ति मंचों में शिरकत, कुल मिलाकर जिंदगी से कोई शिकायत थी ही कहाँ, फिर होती भी क्यों? हालाँकि यह भी एक सच था कि अम्मा को मेरी बढ़ती उम्र घुन की तरह खाए जाती थी।
समस्या बड़ा-सा अजगरी मुँह खोले तब आ कर खड़ी हुई जब मेरे स्कूल के समय से दोस्ती के दायरे में खड़ी शीना, जो दस साल डॉक्टरी की पढ़ाई कर अपनी प्रैक्टिस कर रही थी, उसी ने विवाह करने का फैसला अम्मा को सुनाया, तब तो अम्मा के खून का दौर इतना बढ़ा कि मुझ पर उल्काएँ गिराने लगा। आखिर उनके सहने की भी एक सीमा थी। अब तो मापदंड जवाब दे गए।
यह भी सच था कि अम्मा मेरे लेक्चरार होने के साथ मेरे लेखकीय व्यक्तित्व से खासा प्रभावित थी। जब-जब किताबों की चर्चा होती, सम्मान मिलता, वे सभी परिचित-मित्रों को फोन द्वारा खबर भी देती और अपनी खुशी भी उनके साथ बाँटती। पुस्तक-चर्चा तथा सम्मान-समारोह के पश्चात कुछ समय तक तो विवाह-प्रसंग मेरी पुस्तक के पन्नों में बंद हो जाता, पर…आखिर कब तक?
शीना और मैं स्कूल में साथ-साथ थे, कॉलेज में आते-आते हमारी राहें जरूर अलग-अलग हो गई, पर दोस्ती का रास्ता एक ही रहा, जरा भी न मुड़ा, न बदला। शीना मेडिकल कॉलेज में और मैं साहित्य करने के लिए यूनिवर्सिटी में चली गई। दोस्ती…दोस्ती तो गोंद की तरह चिपकी रही, शायद साहित्य और विरमन दो विरोधी विषय एक-दूसरे को आकर्षण में बाँधे थे। यहाँ तक कि अम्मा के लिए भी हमारी दोस्ती गर्व का विषय थी। शीना के विवाह की तारीख निश्चित होते ही अम्मा के सब्र का प्याला इतना भरा कि गिर-गिर कर बहने लगा, ‘शीना! अब तो तेरा घर भी बस गया…पर…तेरी ये सहेली? क्या होगा इसका? इसका भी तो कुछ कर न…तू जाने है न ब्याह की भी एक उम्र होती है। इस साल तीसवें में लग जाएगी।’
अम्मा रसोई में पकौड़े बना रही थी। बाहर बारिश की झड़ी लगी थी, भीतर मोम का मन गर्मी का मौसम बना था। शीना और मैं बैठे मौसम बहार का मजा भी ले रहे थे और पकौड़े का इंतजार भी, साथ ही अम्मा के भीतर का तम हम तक पहुँचता, हमें भी ग्रसित कर रहा था। मैंने इशरा किया, शीना ही मुस्कराते हुए बोली–‘आंटी, आप ही तो कहती हैं–वक्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को नहीं मिलता।’
‘कहती तो तू ठीक है…मैं माँ हूँ न! उसके मन को कैसे मनाऊँ…चैन मिलता ही न है। तुम न जानो हो, सारी रात काँटों पर पड़ी करवटें बदलू हूँ…पर तुम कैसे समझोगी?’
‘नहीं…प्यारी अम्मा। मैं सब समझती हूँ। तुम्हारी बेचैनी और अपनी बढ़ती उम्र भी…पर करूँ क्या? मजबूर हूँ।’
‘पीच्छे हट। तेल गिर-गिरा जाएगा…फिर मुई तेरी क्या मजबूरी है…जरा मैं भी सुनं।’
‘अब माँ…आपने इतना पढ़ा लिखा दिया यूनिवर्सिटी में ‘जॉब’, लिखने का शौक…असल में मॉम…इस लिखने के शौक ने मार दिया, वरना मैं भी लड़की थी काम की।’ शीना ने ‘मुकरर्र…मुकरर्र, की हाँक लगाई। दोनों हँस पड़े। अम्मा भी मुस्करा दीं। ‘चल शीना। पकौड़े चाय का मजा ले। अगर बारिश बंद हो गई तो चल…तेरी शॉपिग करवा दूँ…क्या-क्या रह गया, जरा बता। ‘डिसाइड’ करें कि कौन से मार्किट जाना है।’
पकौड़ा मुँह में फूँक मार ठंडा करके डाला गया था, पर भीतर की गोभी गरम थी…हम दोनों…सी…सी करते कूदते रहे। मुँह की जलन खत्म करके बोले, ‘मम्मा! चिंता न करें। माँ बदौलत ने भगवान के दरबार में अर्जी तो कब की डाली है…शायद बहुत ‘रश’ है। अब नंबर आने ही वाला होगा। आखिर ऊपर वाले ने इस धरती पर कोई लड़का मेरे लिए भी तो अवतरित किया होगा। एक बार मिल जाए बस…सारी चिंता खत्म।’ शीना की ओर देखती-मुस्कराती हुई फिर बोली, ‘फिर मम्मा! अब तो शीना का घर तो बस गया। अब वो और उसके पति दोनों आपके साथ मिलकर मेरा भी उद्धार कर देंगे।’
पकौड़ों के स्वाद पर चर्चा…कब-कैसे प्रश्नों से जूझते, अम्मा के बेचैन मन को तसल्ली देते हुए उस दिन का गुजर जाना, अगर एक सुखद घटना थी तो शीना का ब्याह का सामान्य रूप से हो जाना मनभावन उत्सव था। शीना ‘चली गोरी पी को मिलन’ की तर्ज पर अपनी ससुराल चली गई। समय की गति कहाँ थमती है…यह तो वह नदी है जो न सूखती है, न रुकती है। वक्त का बीतना लाजिमी था। ब्याह के बाद शीना की अतिरिक्त व्यस्तता भी सामान्य थी। मैं अपनी यूनिवर्सिटी, अपने लेखन, अम्मा के चिंता भरे चेहरे को देखती वक्त बिता रही थी और अपनी नयी जिंदगी के नये-नये और अपरिचित फार्मूलों से ताल बिठाने में व्यस्त हो रही थी।
मेरे उपन्यास ‘सूखे रंग पत्ते’ पर अकादमी का सम्मान मिला था। उसी समारोह में गई थी। अम्मा, शीना अपने पति के साथ, और कुछ और संबंधी-मित्र, यूनिवर्सिटी के जानकार भी थे। सम्मान लेकर आई, लोगों से बातचीत हो ही रही थी कि वह सामने आ गया, ‘बधाई…बहुत-बहुत बधाई अनुष्का जी। आपका उपन्यास…अद्भुत…प्रशंसनीय…लिखने का ढंग…वाह इतना परिपक्व कि बस।’
तारीफ करने का ये अंदाज अब तक सामने न आया था। एक शब्द ही पूरी प्रोक्ति बना था…बाकी उसकी आँखों की चमक कह रही थी।
‘जी धन्यवाद! आपको अच्छा लगा…जानकर खुशी हुई। आखिर सम्मान तो लेखन का होता है, पाता चाहे लेखक हो और लेखक को सबसे अधिक प्रिय होता है कि उसके लेखन को प्रशंसा मिल रही है।’
‘जी…पर…ये आपकी अतिरिक्त विनम्रता है–मिस पर मैं आश्चर्यचकित हूँ…इतनी छोटी आयु और इतना परिपक्व लेखन। और क्या करती हैं आप?’
वह बातों का सिरा पकड़ कर लंबा खींचता जा रहा था।
‘विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हूँ।’
कुछ और कहूँ, इससे पहले ही वह बोल उठा, ‘वाह…वाह। तभी मजे में हैं। ये यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले युवा विद्यार्थियों के साथ रहते रहते खुद तो ‘यंग’ रहते हैं किंतु मानसिक रूप से परिपक्व हो जाते हैं।’
अब मैं मुस्कराती रही। बोलती भी क्या? अतिरिक्त प्रशंसा के भार के दब से बोल उठी, ‘आप क्या लिखते हैं?’
‘अरे नहीं। आप क्या समझी? मैंने आपका उपन्यास खुद नहीं पढ़ा। इधर-उधर कुछ समीक्षाएँ पढ़ लीं…कुछ दोस्तों ने बता दिया…तिस पर सम्मान का मिलना उपन्यास के वैशिष्ट्य की व्याख्या स्वयं ही कर देता है…अरे नहीं…नहीं। आप मुस्कुराइए भी नहीं और हैरान भी न हों।’ मेरे होंठों की कोन पर झलकी मुस्कान देखकर ही उसने अंतिम पंक्तियाँ कही होगी।
‘किंतु आप…जिस अधिकार भाव से बात कर रहे थे, उससे तो नहीं लगता कि आप स्वयं लेखन से जुड़े नहीं हैं।’
‘जी नहीं। मैं तो एक बिजनेसमैन हूँ…ठोस व्यापारी…धन कमाने…और अधिकाधिक कमाने के कर्म से जुड़ा…पता नहीं क्यों और कैसे…थोड़ी बहुत साहित्य में भी रुचि है, इसलिए यहाँ हूँ।’
मेरे चेहरे पर आए भाव इस कदर अजीब होंगे कि वह बोल उठे, ‘ना…ना। ऐसे न देखें। मैं कोई अजायबघर का जानवर नहीं हूँ…एक साधारण इनसान हूँ। जैसा आनंद आपको स्वरचित किताब छपी देखकर मिलता है, वैसा ही मुझे अपनी पासबुक में ढेर-सा धन देख कर होता है। आप धन कमाने के लिए नौकरी करती हैं, ऐसे ही मैं साहित्यिक कार्यक्रमों में शिरकत कर कुछ और जोड़ने-पाने की कोशिश करता हूँ…हम सब वही तो करते हैं अनुष्का जी, जो करने को विवश किए जाते हैं…कोई और विवश नहीं करता…शायद नियति, नियति ही हमारी प्रकृति निश्चित करती है और हम उसी के हाथ की डोर से बँधे वही करते रहते हैं, जो वह चाहती है। नहीं क्या?’
मैं स्तब्ध थी। कुछ बोलूँ, पर आवाज निकली ही न थी। लग तो यही रहा था कि कोई लेखकीय प्रतिभा संपन्न व्यक्ति है, जिसके भीतर इनसान को जानने पहचानने की खूबी है, कि वह लिफाफा देख कर ही मजमून पहचान सकता है।
जाने कब, क्या, कैसे, किस तरह होता है, क्या क्लिक करता है, किसका-किससे, किस कारण मेल हो जाता है जो विवाह की रस्मों में बदल जाता है, कौन बताये? सीवान से पहली भेंट ऐसी ही साबित हुई थी। फिर तो मुलाकातों का सिलसिला चल निकला। पहली के बाद दूसरी…तीसरी…पाँचवी…छठी और बस। मिलने-मिलाने का सिलसिला एकाएक घर के ड्राइंग रूम से होता हुआ किचन तक पहुँच गया…फिर क्या था? अम्मा नये-नये पकवान के साथ ही ढेर-से सपने भी पकाती। अब ऐसा भी नहीं था…कुछ सपने तो मेरे भीतर भी पनपने-पकने लगे थे…अनजाने-अचानक मुझे बताये बिना।
अजीब था वह अनुभव। ऐसा अहसास जो मेरी कहानियों-उपन्यासों के पात्रों को तो होता रहा था, पर उन्हें लिखने वाली मैं…मुझे कभी ऐसा अनुभव न था…जो उन दिनों होने लगा था। एक नयी अनुभूति हो रही थी…किस्सों-कहानियों की चिर-परिचित परंतु मेरे नितांत अपरिचित।
सीवान कब मेरे घर से मेरे हृदय में उतरा, कब मेरे संपूर्ण जीवन का साथी बने…कह पाना कठिन है। अब मैं ही नहीं, अम्मा की प्रसन्नता भी खिलखिला उठी। जीवन बयार बन गया, कलियाँ चटकने, फूल बनने लगी…चारों तरफ गंध और पराग बिखरने लगा था। मौसमें-बहार आ गया था। अब मैं अम्मा की ब्याह के लिए की जाने वाली जिद्द के कारण समझने लगी थी।…तो नियति ने फैसला सुना दिया था। मेरी मानसिकता बदल गई थी…जादू की छड़ी फिरी थी।
मैं सोचती-मुस्कराती तैयारी करती रहती, धीरे-धीरे उस पल तक पहुँच गई, जो कुछ दिन पहले तक बहुत दूर-सुदूर क्षितिज के पीछे छिपा दीखता था।
विवाह होना यों तो सभी की जिंदगी का सच है, अतः सामान्य घटना है, पर जब माता-पिता के सिर पर वही विवाह एक भार की गठरी की तरह दीखता हो, तब उसका हो जाना एक असाधारण अनुभव हो जाता है। उधर विवाहित लड़की-लड़के को लगता है, बाजी जीत ली, तो माता-पिता के लिए गंगा स्नान जैसा पुण्य कमाना हो जाता है।
अस्तु! विवाह के पश्चात एक महीना खासा गहमा-गहमी का रहा। सभी सगे-संबंधियों के लंबे खान-पान-व्यवहार तथा भागते-दौड़ते चार दिन के लिए डल्हौजी में ‘हनीमून’ की रस्म अदायगी के पश्चात सब पुराने ढर्रे पर लौट आया यानी मेरा कॉलेज और घर तथा सीवान की धन कमाने की व्यस्तता भरी यात्रा। अब ये सामान्य ढर्रा ही सबसे कठिन भी होता है और सरल भी। मुझे ही समझ न आ पा रहा था कि कॉलेज की पुरानी दिनचर्या के पश्चात इस नयी बनती जीवनचर्या को कैसे अपना लूँ कि वह मेरी बन जाए। कॉलेज से सीधा घर आकर सीवान की प्रतीक्षा के अतिरिक्त कोई खास काम न था और यही प्रतीक्षा करना…कठिन था। पहले विवाह की दस वर्ष प्रतीक्षा (अम्मा ने पापा के असमय निधन के पश्चात से मेरे लिए विवाह के प्रयत्न शुरू कर दिये थे, तब मैं बीस वर्ष की थी) इतनी जानलेवा न बनी थी।
सीवान की व्यस्तता और मेरा इतना अधिक खालीपन विवाहित जिंदगी की असलियत सम्मुख थी। धीरे-धीरे मैंने अकेले, अपने मित्रों के साथ बाहर निकलने के छुटपुट कार्यक्रम बनाने शुरू किए। अव्वल तो मैं सीवान के आने से पहले घर आ जाती, जरा सी देरी उसे पसंद न आती। इन सब की तो मैं आदी हो जाती, पर यहाँ तो और अनेक बातें जन्म लेने लगी थी जो दम तोड़ रही थीं।
विर्जीनिया वुल्फ ने लिखा था, ‘महिला की पूरी जिंदगी पर एक तलवार लटकी रहती है, जिसके एक ओर होते हैं…रीति रिवाज, मान्यताएँ, परंपराएँ और नियम। जब तक वह उनके बीच जीती रहती है, वहाँ तक सब ठीक होता है, पर तलवार के दूसरी ओर होती है, वह जिंदगी, जिसमें वह सब कुछ मानने से इनकार करती है, किसी नियम को नहीं मानना चाहती, वहीं सब ‘कन्फ्यूजन’ है। उसकी जिंदगी में कोई भी पक्ष सामान्य नहीं होता। इस तलवार की धार पर चल कर पार कर लेना स्त्री के अस्तित्व के लिए जहाँ अच्छा होता है, वहीं कठिन भी होता है।’ पहले विवाह का न होना, फिर हो जाना अगर तलवार की एक धार थी तो इस दूधारी तलवार के दूसरी ओर थी–विवाहित जिंदगी को जीते रहना, हर हालात का सामना करते हुए। वही तो कठिनाई होती है।
विवाह के पश्चात का एक महीना अत्यंत व्यस्तता व भागदौड़ में बीत जाने के पश्चात का अति सामान्य ढर्रा ही जानलेवा साबित हो उठा था। उसी सामान्य ढर्रे के समय असलियत से रूबरू हुई थी, बूँद-बूँद टपकता वक्त मेरे सिर के बीचों-बीच जख्म बनाने लगा था, मैं घायल तड़पती रहती। देह की मौत तो सबको दीख पड़ती है, पर संवेदना के स्तर पर जो मुझे मार रहा था, उसे किसे बताती और कैसे, तिस पर कोई समझता भी कैसे?
कैसे समझाती अम्मा को, शीना को, दीदी को…मैं कहाँ-कहाँ से किस तरह किरच-किरच टूट रही हूँ और क्यों? मेरे लेखकीय व्यक्ति पर फिदा सीवान कब मेरी रचित पुस्तकीय ‘रॉयल्टी’ का हिसाब-किताब रखने लगे, कब मेरे प्राध्यापकीय पेशे से जुड़े धन को अपनी पासबुक में समाविष्ट करने लगे…नामालूम तरीके से…पता ही न चला। कैसे तो मैं जाल में फँसती चली गई? तीन वर्ष बीतते न बीतते…जब मुझे समझ आने लगा, तब तक तमाम रास मेरे हाथ से निकल चुकी थी। मेरी प्रत्येक वस्तु सीवान के अधिकार में जा चुकी थी। जेवर उसके लॉकर में, सारा धन उसकी पासबुक में, जिसमें मेरा नाम कहीं न था। मेरे हाथों को काटने का काम हो चुका था, मुझे बिना बताये। तर्क मात्र इतना रहता कि आखिर अब है ही किसका? जैसे मेरे से जुड़ा सब पर उनका अधिकार था, ऐसे ही उनका सब कुछ मेरा है…पर तर्क भी तो चीनी का मुरम्मा चढ़ी कड़वी गोलियों जैसे ही होते हैं, जिन शब्दों के अर्थ को आप अपनी इच्छानुसार मोड़ सकते है।
तीन वर्ष…यूँ चाहे लंबे न थे…पर भुलावे में जीते रहने के लिए काफी लंबे थे। तभी मुझे समझ आने लगी थी–सीवान को मुझसे विवाह करने की योजना। वो अब सोची-समझी योजना ही थी सब, जिसके मकड़जाल में मैं ही नहीं, अम्मा भी फँसती चली गई थीं। यूँ…मुझे अपना पैसा कभी इतना अपना न लगता कि सीवान को उसमें शामिल करना कठिन जान पड़ा हो। कोई एतराज न था, फिर होता भी क्यों? बचपन से मेरे कंप्यूटर में जो फीड किया गया था, उसके अनुसार पत्नी का सब कुछ पति की मिल्कियत होता है। कॉलेज से बैंक का पे ऑर्डर मिलता, सीवान के अकांउट की नजर हो जाता…समस्या कुछ थी ही नहीं।
विश्वद्यिलाय के परिवर्तित नियमों के अनुसार अब कॉलेज में बने बैंक की शाखा में अकांउट खोला जाना आवश्यक बन गया था, परिणाम मेरी तन्ख्वाह उस अकाउंट में जमा होने लगी, जिसे सीवान अपनी ढेरों जरूरतों का हवाला देते हुए बतौर चेक से लेते रहे थे। कभी-कभार मुझे कैश निकलवा कर लाने की हिदायत भी देते। यही कुछ आसानी व बिन प्रश्नों के चलते रहता–एक सामान्य घटना की तरह। बात का सिरा तब ‘यू-टर्न’ बना कर मुड़ बैठा, जब दार्जिलिंग में होने वाली एक ‘लेखकीय कार्यशाला’ का आमंत्रण मिला। यूँ कोई खास बात न थी। प्रायः मैं इस तरह की ‘ऑथर्समीट’ में जाती रही थी। हुआ यूँ कि दार्जिलिंग के नाम पर कुछ अन्य कॉलेज के साथियों ने भी जाने व घूमने का कार्यक्रम बना लिया। स्टाफरूम में ही प्रोग्राम बना, साथ ही सभी ने एकमत हो निश्चय किया कि अबकी बार यात्रा भी और भम्रण भी जरा शाही ठाठ-बाट से किया जाए। परिणामतः ‘हवाई टिकट लिये जाए तथा फाइव स्टार होटल में ठहरा जाए…टैक्सी बुक की जाए और ‘लेखक मिलन’ भी कर लिया जाए।’
कार्यक्रम नियंता थी–मिस भावना। भावना अत्यंत भावनामयी, कोमलांगी, तन्वंगी, सुंदरी थी, किंतु भाग्य का क्या करें? अब विवाह जैसे फैसले तो नियति के हाथों ही होते हैं न। मेरे भाग्य में तो विवाह रेखा बनी थी, अतः विवाह हो गया किंतु भावना? अभी तक प्रश्न के बीच फँसी–खड़ी थी। विवाह से पूर्व से लेकर शीना के पश्चात कॉलेज की सखी-सहेली-साथी भावना ही थी। अब कार्यक्रम भावना बनाएँ, तो मना कौन करे? मानने के अतिरिक्त चारा भी क्या?
अस्तु! कार्यक्रम बन गया। जैसे अम्मा को बताया जाता, उसी तर्ज पर सीवान को भी सूचित किया गया, ‘सीवान अगले महीने की बीस से छब्बीस तारीख तक दार्जिलिंग में एक ऑथर्स वर्कशॉप है…कॉलेज के कुछ कलीग्ज भी साथ जा रहे हैं…पर, वे तो घूमने भर। मुझे तो ‘लेखक’ होने के नाते विशेष निमंत्रण है…कुछ लेक्चरज वगैरह होंगे।’
सीवान हूँ…उं…ऊं…करते रहे और खाना परोसने में जुटे रहे। बात जारी रखते हुए मैंने ही कहा, ‘उन्नीस को जाएँगे और अठाईस तक वापिस। कॉलेज से ‘ड्यूटी लीव’ मिल जाएगी…वो भी मुझे…बाकी तो अपनी ‘अर्म्ड लीव’ लेकर जाएँगे।’
‘अच्छा है कि और ‘क्लीग्ज’ भी जा रहे हैं। वे भी कहानीकार हैं क्या? वैसे एक बात है, तुम कहानीकार लोग कहानी अच्छी गढ़ लेती हो…अपने जो ‘कैरेक्टर’ चुनते हैं, उनके साथ अच्छी मस्ती रहती होगी, जिधर चाहो मोड़-तोड़ लिया…है न।’
‘नहीं! और कोई भी कहानीकार, लेखक नहीं है।…वे तो बस…जरा रूटीन से हटकर कुछ करने की इच्छा से चल रहे हैं।’
‘तुम…इस नये-नये बने रूटीन से बचकर तो नहीं जा रही हो?’
मैंने आँखें उठाकर सीवान की ओर देखा। उसमें का भाव मेरा चीन्हा न था। अजब सा…मजाकिया, तेज जान क्या? सीवान के चरित्र के नये-नये आयाम, नया रूप नजर आने लगा था। मुझे शायद भौचक देख कर ही सीवान ने पूछा होगा…‘ठहरने का इंतजाम तो ‘ऑथर्समीट’ के आयोजकों ने ही किया होगा…कहाँ किया है?’
‘वहाँ है तो ‘श्यामल हिल्स भवन’ जिसमें अधिकतर लेखक ठहरेंगे। किंतु मैं अपने साथियों के साथ रहूँगी…वहाँ का जाना-माना ‘दार्जिलिंग होटल है न…पाँच सितारा…वही जो राजमहल था पहले…क्या शाही अंदाज है उसका…अंदाज-ए-बयाँ ही शाही है…उसी में।’ सीवान नीची निगाह किए खाना देखने में व्यस्त थे, यूँ चाहे दिखावा खाने का ही कर रह थे किंतु चम्मच सब्जी की कटोरी में देर से घूमते रहते, फिर जरा-सी सब्जी लेते, देखते फिर कटोरी में पलट देते…इस प्रकार उनके भीतर का द्वंद्व व्यक्त हो रहा था, जिसे मैंने कनखियों से देख लिया था, फिर भी मैं कहती रही, ‘अबकी हम सबने निर्णय लिया कि एक बार तो शाही अंदाज से आठ दिन बिताने का लुत्फ तो हम भी उठा लें।’
‘तो क्या तुम्हारा सब खर्च ‘वर्कशाप’ के आयोजक उठायेंगे?’
‘अजी कहाँ? बेचारा गरीब लेखक-वर्ग? इतना पैसा होता ही कहाँ उनके पास? तिस पर इन्हें तो कोई स्पान्सर भी नहीं मिलते। खर्चा तो हम सब करेंगे अपना-अपना…सबका ख्याल था कि इतने वर्षों से कमाते हैं, कुछ अपने शौक पर भी खर्च करने का हक तो रखते हैं, तिस पर किसी कहानी में पाँच सितारा होटल का जिक्र आया तो कम-से-कम असली तो होगी…बनावटी नहीं।’
मेरी बात खत्म हुई तो सीवान की तरफ देखा। वे नीचे सिर झुकाये खाना खाते रहे…या कि निगलते थे या फिर सोचते रहे या कुछ कहने की भूमिका बनाते रहे। अचानक बोल…अजनबी अजीब-सी आवाज थी वह…किसी भुतहे बंगले के बड़े से हॉल में गूँजती-सी ‘क्या जरूरत है इतना सब खर्च करने की? तुम आमंत्रित हो…वे जहाँ ठहरायें, जिस तरह ठहरायें, वैसे रहो…लेखक की शान इसी में होती है…बाकी सब जो करें, उनकी मर्जी।’
‘किंतु सीवान! वे सब मेरे साथ जा रहे हैं मेरे कारण…तिस पर मैं उनके साथ रहकर ज्यादा ‘एन्जाय’ करूँगी।’
‘कौन-सा है, कैसा है, किस तरह का है, यह मायने थोड़े ही रखता है। बचकाना है सब। अब तुम बच्ची नहीं रही। शादी-शुदा, घर-गृहस्थी वाली है, जिम्मेवारियाँ हैं अनेक, पैसा बचा कर रखना चाहे, फ्यूचर के लिये…ये सब फालतूपने की बाते हैं।’
अंत तक आते-आते सीवान की आवाज तल्ख हो उठी थी।
मैं भौचक हो उठी। तो क्या…अब मेरे कमाये धन पर ही नहीं, अपने खुद के लिए छोटे-मोटे फैसले लेने पर अधिकार नहीं बचा रहा। क्या विवाह इसीलिए होता है कि पत्नी बनी स्त्री की समस्त आजादी छीन ली जाए…उनके प्रश्नों से जूझती मैं सीवान के चेहरे की रेखाओं की गहराई मापती रही।
कहते हैं प्यार अंधी कर दे, ऐसी आँधी होती है…पर मैंने तो प्यार किया ही नहीं…मर मिटने वाला प्यार। वह तो जो हुआ वह परिस्थितियों की देनभर था। माँ कि चिंता की लंबी खिंचती डोर, उम्र का हाथ से निकलता सिरा, शीना का विवाह, जाने कितने मुद्दे थे, जो विवाह करने के फैसले को प्यार का नाम देने को मजबूर किए थे, वरना प्यार की न गजल बनी थी, न गीत की तर्ज, बस फैसला होना था, अतः हो गया था।
सीवान की ओर देख कर भी न देखती हुई मैंने सीवान की मानसिकता के अनेक पन्ने पलट लिये थे। वे सभी पीले पड़े पन्ने दीमक लगे थे, घुन खाए, जिसके कटेफटे टुकड़ों के बीच से जो झाँक रहा था, वही सीवान का सच था।
‘शेयर मार्किट’ और ‘सट्टा बाजार’ की आदी सीवान सिर्फ धन…अधिक धन…इसी के लिए जीता व साँस लेता था।
खाने की टेबुल से उठते हुए सीवान की आवाज आई, कुएँ में गिरे पत्थर-सी आवाज, ‘जाने से पहले अगले महीने की तन्ख्वाह और जो बचे हुए पैसे हों बैंक में, सारा पैसा निकाल कर दे देना। ‘शेयर मार्किट का पैसा देना है।’
गहरा सन्नाटा…वहाँ ‘झन्न’ से गिरते सिक्के…उनकी आवाजें मेरे कानों में गूँजने लगी। कौन हूँ मैं?…टकसाल। क्या इसीलिए स्त्री को लक्ष्मी कहा जाता है। अब मेरे सामने सीवान नहीं थे। उनका चेहरा किसी उल्का में बदला, मेरे दिमाग पर गिरा…टुकड़े-टुकड़े करता। मैं सारी की सारी तहस-नहस, टुकड़े-टुकड़े उजाड़-सी खड़ी थी। समझ आने लगे कुछ वाक्यों के अर्थ। सचमुच संदर्भ बदल जाने पर वाक्य के अर्थ भी बदल जाते हैं। ‘तुम्हें जो आनंद पुस्तक पर सम्मान पाकर मिलता है, वही मुझे अपनी पासबुक में जमा राशि की संख्या बढ़ते हुए देखकर मिलता है।’…आज इसका अर्थ प्रसंग सहित व्याख्या पा गया था।
अपनी समस्त सहनशक्ति जुटाते हुए, अपनी आवाज को सहज बनाते हुए मैंने कहा, ‘सीवान! बैंक में पैसा आप छोड़ते ही कहाँ हैं? और अगले महीने की सारी तन्ख्वाह मुझे अपने ट्रिप के लिये चाहिए। बल्कि कुछ और भी चाहिए होंगे। मैंने सोचा था, आप से ले लूँगी। आखिर पत्नी हूँ आपकी। कुछ हक तो मेरा भी आपके पैसे पर होगा ही।’
सीवान दरवाजे को भड़ाक करते हुए निकल गए। पता नहीं अंतिम बात उन्होंने सुनी भी होगी या नहीं।
उसके बाद पूरा महीना घर में ‘साँय-साँय’ बसी रही…आँधियाँ चलने से डरती रहीं…कुछ तूफानी नदियाँ बही तो, पर ऊपर से शांत दीखती…सतह पर कोई लहर न उठी…सीवान की आँखें जरूर आग बरसाती रही, जिनकी लपटों में झूलसती मैं समस्त स्थिति की उपेक्षा करती रही। नकार की मार को सहना था तो अत्यंत कठिन, पर…होता रहा, जाने अनजाने में…अप्रयत्नज।
उन्नीस तारीख को जाना था। सामान लगा लिया था। इतने दिनों में घर का ढर्रा ढचर-ढचर सामान्य चलने लगा था, जिसके कारण मैंने सोच लिया था कि छोड़ देने के बारे में सीवान से बात कर लूँगी, पर सीवान का उत्तर मिला, ‘टैक्सी करो और चली जाओ।’ पाँच शब्द या पाँच ज्वालामुखी पहाड़ों का वाक्य…लावा बहा पाँच दिशाओं से, मुझ पर बरसता-गुजरता रहा। इतनी जलन…इतने फफोले–इतने जख्म…लाश बनी हुई मैं साँस लेती रही।
उस दिन वही लाश दार्जिलिंग चली गई। वर्कशॉप में गड्गड् गुड़िया-सी हिलती-डुलती बोलती ही न रही, अपितु अपनी मित्रों के बीच हँसती-खिलखिलाती घूमती रही। ज्वालामुखी फटते रहे, आग धूँ-धूँ जलती रही। बिस्तर पर लेटती मन की चक्की चलती रहती…भवक्-भवक् करती भाप निकालती, बाहर का कुछ न सुन पड़ता।
‘बाहर से कौन जान पाता है, मन में बनते फफोलों का इतिहास।’
तीन दिन इसी तरह बीत गए। उसके बाद सोच की राहें मुड़ने लगी…उलट गई दिशाएँ–‘अगर जिंदा ही रहना है तो लाश बन कर क्यों?’ का प्रश्न अपनी त्रिभंगी मुद्रा में सामने आ खड़ा हुआ। तिरछी-मुड़ती, खड़ी, गिरती बिखरती रही मैं…प्रश्न चिह्न के नीचे लगे बिंदु के फैल जाने जैसी, जिस पर पानी पड़ गया हो। सोच विचार का चक्रव्यूह, निकलने की कोई राह न छोड़ते हुए मेरी चारों ओर कसता जाता रहा, मेरे गले का फंदा बनता हुआ।
लौटने का दिन आ गया। हवाई जहाज में बैठते ही पेड़ से टूटे गिरे पत्ते-सी महसूसने लगी। टूट गए पत्ते की नियति क्या? हल्के-से झोंके से इधर-उधर भटकते रहना भर…अर्थात बँधी-बँधाई लीक से हटने पर मिलता लंबा-चौड़ा रेगिस्तान…यही मुश्किल तो होगा ही…‘अलग हो जाऊँ का सोच एक अलग किस्म का सकून दे रहा था, तो अपनी चारों ओर लगाई गई लक्ष्मण रेखा को लाँघना रावण के चंगुल में फँसने जैसा महसूस होने लगा था।
किंतु हर पल, हर दम खुद को कुचला जाते देखना-महसूसना, संवेदना के स्तर पर मिलती जिंदा मौत–उसे सहना तो आग में निरंतर जलते-भुनते रहने से कम भी तो था। ‘आज क्या-क्या किया? कहाँ-कहाँ आवरागर्दी की?’
‘तुम्हारा वह लेखक मित्र, जो उस दिन मिला था, लगता है, फिदा है तुम पर, वही आया था क्या?’
‘चाय के दो प्याले क्यों रखे हैं? कौन आया था?’
‘इतना खर्च? क्या सारा मार्किट खरीद लाई?’
‘अरे! लेखिका हो तो क्या, सारी रात लिखेगी। लाईट जल रही है तो मुझे नींद कैसे आएगी? सारा दिन गधे-सा लदते रहो, रात में ये मेम साहब…चैन एक भी पल नहीं’
‘इस बार चेक कम पैसों का क्यों है?’
‘एक दाल-सब्जी बना लिया करो बस! सेहत के लिए अच्छा है।’
‘इतना ज्यादा क्यों जाती हो मम्मी के घर? अब बेटा होता तो करता…बेटियों की जिम्मेवारी तो नहीं होती न!’ अंतिम बात तो मेरे सीने को इस कदर काट देती है कि खून भी वहीं जम जाता…बहना तक भूल जाता।
पिछली बार की दीवाली…मम्मा को ‘अस्थमा’ का दौरा पड़ा था। धुआँ और धुंध…उनकी साँस उखड़ी-उखड़ी थी। मुझे वहीं रुक जाना पड़ा। सीवान को वहीं आने के लिए फोन किया तो, ‘तुम ही रुको उस घर में…अपना घर-बार छोड़ कर…मैं तो अपने घर में ही दीवाली के दिन…।’ और फोन काट दिया था उसने।
मैं अम्मा को दवा देकर भागी-भागी आई, सीवान के साथ पूजा की भी, (मन में अम्मा का वही दम तोड़ता चेहरा आता रहा था) पर बेहद भारी मन से। पूजा खत्म हुई तो मुझसे रहा न गया। सीवान से बात करूँ, ऐसी न हिम्मत थी, न मौका! चुपचाप रात को ग्यारह बजे टैक्सी वाले (जो मुझे लेकर आया था…नीचे ही रुका था) के साथ अम्मा के पास वापिस आ गई थी। जानती हूँ तब से अब तक सीवान और मेरे बीच पल-पल दूरी और शिकायतें बढ़ती ही जा रही है, फिर भी आज सोचने को विवश तो थी ही कि बँधी-बँधाई लीक पर चलती ये जिंदगी, जिसमें अम्मा के लिए सकून है, बाहर वालों के लिए अपनी गृहस्थी में रंगी एक सुखद पत्नी की भूमिका अदा करती होने का अहसास है, इससे निकलना कितना सहज, कितना आसान हो पाएगा?
याद आती है कॉलिज के स्टाफरूम में होने वाली अनेक बहसें, तर्क-वितर्क, सलाह-मश्विरा, और शिकायतें जो मुझमें प्रायः उन महिलाओं के लिये जनमती रहती जो वैवाहिक जीवन की टूटी आराम कुर्सी से बंधी बोरिंग ढर्रे पर चलती, तमाम जिंदगी बिता देती पर आज मुझे ही लगा था कि टूटी कुर्सी भी कुछ सहारा तो देती ही है, गिरने के पूर्व उसे थाम लेना सुरक्षा-कवच तो बनता ही है।
उड़ान के समय आँख मूँदे बैठी थी। सोच-विचार के तंतुओं में उलझती, सुलझाने के सिरे खोजती हाथ-पाँव मारती किसी किनारे की खोज में थी कि भावना ने झकझोरा…‘उठ जा। कितनी पक्की नींद सोती है। न खाना लिया, न चाय ली…एक नॉवेल लिख लिया क्या, कथाकारा ने?’
न सोई, न जागी, डगडग करती गुड़िया-सी मैं हैरान चारों ओर देख रही थी जिंदा कैसे हो गई?
क्या टूटी कुर्सी ने ही थाम लिया। तो क्या टूटे-फूटे संबंध भी जिंदा रख लेते हैं। क्या बनावटी-दिखावटी जिंदगी जीता इनसान नदी की तरह बहता-चलता सफर पूरा कर लेता है…फिर मैं क्या करूँ? का प्रश्न अधर में लटका रहा, जिसे वहीं टँगा छोड़ कर हम सब एयरपोर्ट पर उतर गए।
सीवान के आने की कोई उम्मीद तो न थी, फिर भी मेरी आँखें इधर-उधर भटक रही थीं। भावना के सुझावानुसार टैक्सी की गई और निश्चय हुआ ‘मुझे’ मेरे घर छोड़ते हुए सब अपने-अपने घर चले जाएँगे। टैक्सी का किराया आपस में बाँट लिया जाएगा।
सीवान घर पर न थे। मुझे पता तो था, पर उम्मीद अपना दामन थमा ही देती हैं। मैंने सामान ऐसे ही छोड़ दिया। टूटी-सी बिस्तर पर लेट गई। शून्य…शून्य था मेरी चारों ओर। उसी शून्य में से देबू झाँक गया। देबू…कौन है, मेरा क्या लगता है, कोई संबंध नहीं, संबंध का कोई नाम नहीं, न दोस्त न सगा-साक्षी-संबंधी। देबू ने बताया था, समझाया भी था कि टूटी कुर्सी से अलगाव दुखद नहीं होना चाहिए। जिंदगी की कुर्सी जिस पर बैठी हो, जिसे दिमक खा रही हो, उसके साथ संबंध टूट जाने का डर क्या?
‘तो क्या? मेरी वैवाहिक जिंदगी की कुर्सी को दीमक लग गई है…पर इतना वक्त हुआ तो नहीं। तीन वर्ष–कोई इतना समय होता है? नहीं ना…क्या पता?
बाबा बताते थे, ‘किसी दूसरे द्वारा दी गई नकली तथा योजनाबद्ध जिंदगी जीने से बेहतर होता है अपनी मर्जी से बेतरतीब पर असल जीवन जीना।’
तो–मैं क्या चाहती हूँ? नहीं…नहीं चाहती एक सामान्य पर नकली जीवन जीना। क्यों ऐसा होता है किसी भी लड़की का संपूर्ण जीवन जीने का अर्थ ही है–उसका युवती, विवाहिता, माँ, सास, दादी, नानी बन कर अंत में भरी पूरी गृहस्थी छोड़ कर महाप्रयाग करना, जाना। क्या यही है स्त्री के जीवन की संपूर्ण कथा?
‘तो क्या मैं योजनाबद्ध नकली जिंदगी जीऊँ या अपनी मर्जी से बेतरतीब जिंदगी अपनाऊँ?…प्रश्न बड़ा-सा मुँह बाए खड़ा था। फैसला मुझे ही तो करना होगा। जीवन की राहें खुद खोजने की चाह इतनी कठिन होती है क्या? प्रश्नों के भीतर ही उत्तर छिपे होते होंगे…यही सोचते-सोचते नींद के आगोश में चली गई थी।’
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