जन्म

जन्म

‘ऐ चोप्प! कोई रोएगा नहीं! जबान खैंच लूँगा! बहादुरों की मौत पर इस तरह रोए नहीं जाते!’ एक प्रचंड तेज आवाज झन्नाटे के साथ आँगन में गूँजी।

…अचानक शोकालाप करती हुईं औरतों की घिग्घी बँध गई। सिर में काला पटका बँधे बी.ए. में पढ़ रहा निरंजन चीख रहा था, ‘चलो हटो, बाहर से लोग आए हैं भाई साहब के शव-दर्शन के लिए, फूल-माला चढ़ाने दो, फिर बदला लिया जाएगा…।’

‘क्या बोला?’ माँ पागल की तरह उठी और बेटे के गिरेबान पकड़ कर बोली, ‘…तू बदला लेगा? किससे बदला लेगा? भरी जवानी में तुम्हारा बाप मारा गया…बहू की मेंहदी नहीं उतरी, भाई की लाश पड़ी है…अब स्कूल-कॉलेज छोड़कर तू भी वही करेगा?’ वह रोने लगी, ‘रोने दे हम लोगों को…मत रोक…ये खून-खराबा छोड़…हमारे दूध का वास्ता है, मत रोक किसी को बेटे!’

‘हटो!’ उसने जोर का धक्का दिया, ‘यह संघर्ष अब चलेगा। समझो किताब-कॉपी वाला निरंजन मर गया।’

‘ऐ अपनी भाभी के दुख देख! मुझे देख, हाँ, मैं अब और नहीं रोऊँगी। नहीं रोना चाहती…’ उसे औरतों ने सँभाल लिया।

शव-दर्शन में हजारों की भीड़ थी। कई लड़कों ने निरंजन की तरह सिर पर पट्टा बाँधर रक्खा था। आखिरकार आक्रोश और उन्माद के उस महौल में यूनियन लीडर शंकर का जुलूस अंत्येष्टि के लिए घर से निकाला। पछाड़ खाती हुईं औरतों और बच्चों के रोने की रुँधी हुई आवाजें पीछे छूटती रहीं…एक शब्द गूँज रहा था उस शोर में बदला!

चिता की दहकती हुई आग की हर लपट में वही शोर!

खून का बदला खून! कानून और न्याय की धज्जियाँ उड़ाती हुईं…मुँह चिढ़ाती हुईं ललकारें अपनी क्रोधाग्नि में एक पल में हजारों चिताओं को धुँधवा कर जला रही थीं…‘ऐ कोई रोएगा नहीं कमीनों और भड़ुओं की औलादों की तरह…!’

रात का सीना गोलियों से छलनी हो गया। सुबह के आसमान पर खून की लाली छिटक गई। जोरावर सिंह की हत्या। कोलियरी के किंग की हत्या…पुलिस की सायरन बजाती गाड़ियों का कफिला। सुराग सूँघती पुलिस…हजारों लोग…और खोजी पत्रकार…‘निरंजन कहाँ है…?’ पुलिस के एक ऑफिसर ने कड़क आवाज में पूछा।

‘नहीं मालूम।’ बुढ़िया की आवाज सख्त थी।

‘उसने और उसके साथियों ने जोरावर सिंह का खून कर दिया।’ ऑफिसर ने कहा, ‘आग लगा दी है उसने कोलियरी के पूरे इलाके में…हम तलाशी लेंगे।’

‘लीजिए!’ उसने कहा, ‘पर मेरे बेटे शंकर के हत्यारे को भी पकड़िए…।’

‘उसका चरित्र आपराधिक था।’

‘…और निरंजन का…?’

‘उस पर शक है…।’

बहस तेज होने लगी, तो पुलिस ऑफिसर ने लौटना मुनासिब समझा। वैसे भी शंकर की हत्या का रंजो-गम आम लोगों में ज्यादा था, लोगों में कसमसाहट थी। बुढ़िया ने कहा, ‘एस.पी. साहब मेरे पति का हत्यारा भी पकड़ा नहीं गया, बरी हो गया। निरंजन को आप छोड़ दीजिए…वैसे भी वह बरी हो जाएगा।’

वह बावली सी बड़बड़ा रही थी, ‘वह कलक्टर बनेगा…उसे पढ़ने का वास्ता दिया था मैंने…।’ लंबे समय के बाद सचमुच निरंजन बरी हो गया। 

जैसा कि कहा जाता है कि जोरावर सिंह की मृत्यु से प्रसन्न कुछ जातिवादी राजनेताओं ने परोक्ष रूप से उसकी मदद की। न्यायालय में कोई ऐसी गवाही नहीं हुई निरंजन के खिलाफ। जोरावर सिंह की पत्नी बच्चों को लेकर कलकत्ता सिफ्ट हो गई। लड़ना उस औरत के वश में नहीं था। जोरावर सिंह का इतिहास सिमट चुका था। कोल्ड-फील्ड की यही कहानी आग-सी लहक कर आग में समाती रही है। एक कहानी के बाद दूसरी कहानी…

धीरे-धीरे निरंजन का सिक्का जमता चला गया। पहले बेल हुआ और फिर न्यायालय से बरी। और फिर…पैसे और पावर ने उसे फिल्मी स्टाइल में आसमान पर पहुँचाया। उसकी मसरूफ़ियत उसी दुनिया बढ़ती चली गई।

सभी खुश थे। गाड़ी-घोड़ा, नौकर-चाकर। बंगला-टेलीफोन।

पलट कर देखने का अवसर नहीं। इलाके के नेता और आला ऑफिसर तक निरंजन की कोर्निश कर रहे थे।

लेकिन उस ऐश्वर्य-लोक में दो गूँगी-बहरी औरतें थीं, जो खुद से भी अबोली रह रही थीं। कभी-कभी जब रात को अपने ऑफिस में दो-चार हमराज होते, तो बातें चल पड़तीं और शराब का पैग लेकर निरंजन कहता, ‘विजय मैं जानता हूँ मेरी माँ खुश नहीं है, वह मुझे कलक्टर बनाना चाहती थी, पर उससे पूछो कि इस कोयलांचल की खूनी राजनीति का हिस्सा मैं कैसे बना। जिसके पिता की हत्या हुई हो, जिसके भाई को विवाह के एक महीने के भीतर छलनी कर दिया गया हो, वह कलक्टर कैसे बन सकता है? मैं भाभी के उजड़े वैधव्य को नहीं देख सकता, इसलिए नहीं टोकता, मैं भाई कहाँ से ला सकता हूँ…पिता को कैसे जीवित कर सकता हूँ…हाँ, मैं बदला ले सकता था, सो लिया।’

‘आपने अपना कर्तव्य किया…।’

‘वही तो, चूड़ियाँ और सिंदूर कहाँ से लाऊँ? किस बाजार से उनके दुखों के एवज में खुशियाँ खरीदूँ?’

सभी चुप लगा जाते।

एक दिन ऐसे ही रागात्मक क्षणों में उसके विश्वसनीय सहभागी रामभरोस ने कहा, ‘भैय्या जी आपको बात करनी चाहिए?’

‘माँ और भाभी से…’

निरंजन कुछ पल खामोश हो गया फिर बोला, ‘रामभरोस हम गरीब लोगों की यही ट्रैजडी है। हम पहले अपनी महत्वाकांक्षाओं और फिर अपने ही मूल्यों के हाथों मारे जाते हैं। माँ को छोड़ो, भाभी एक दिन फोन पर रो रही थी। मैंने सुना…’

‘क्या?’

‘वह अपने भाई से कह रही थीं। अब हालचाल क्यों पूछते हैं…जानते हुए एक अपराधी के घर ब्याह दिया, तो क्या मैं फूलों की सेज पर रहती। बोलो शंकर दा अपराधी थे? मजदूरों के हक के लिए लड़ने वाले और अवैध खनन का विरोध करने वाले शंकर दा…अपराधी!’

‘भैय्या जी!’ रामभरोस ने टूटकर कहा, ‘यह एक स्त्री का दुख है, इसे हमें उसके दिल से ही समझना होगा। माता जी भी जवानी में विधवा हुईं…यह धुआँ तो उठेगा उन उकठी हुई लकड़ियों से…विधवा औरतों का दुख पत्थर से भी बज्जड़ होता है…!’

‘तो इसमें मेरा कुसूर क्या है?’ वह मायूस होकर बोला, ‘अगर कायर और बुजदिल की तरह मैं भाग जाता, तो अच्छा होता?’

‘नहीं।!’

‘तो समझाओ।’ वह दुखी होकर बोला, ‘कभी-कभी परिस्थिति ही आदमी की नियति गढ़ती है।’

‘समय सब समझा देगा।’ उसने हौसला देते हुए कहा।

‘समय कितना समझाएगा?’

‘तो फिर आप समझाइए।’

‘मतलब?’ वह चौंका।

‘माहौल बदलना चाहिए।’

‘क्या…कैसे?’

‘आपको शादी कर लेनी चाहिए।’

अचानक तनाव के बाद खामोशी घिर आई। एक पल को निरंजन को लगा जैसे माँ और भाभी के साथ मिलकर कोई तीसरी औरत रो रही हो रात के सन्नाटे को चीरती हुई।

उसे लगा जीवन में कुछ बहसों का कोई अंत नहीं होता है और कुछ मुकाम ऐसे होते हैं, जिनका कोई मतलब नहीं होता। उसने उबासी लेकर कहा, ‘अब सोया जाए रामभरोस!’

‘हाँ।’ वह भी उठने को हुआ।

‘विजय को मालूम है कल मंत्री जी आएँगे?’

‘हाँ!’

‘चीफ इंजीनियर और वह जो ठेकेदार है क्या तो नाम है सुबीन सिंह उनसे चंदा आया?’ निरंजन ने कुछ सोच कर कहा, ‘नए वाले एस.डी.एम. का भी ट्रांसफर करवाना है…।’

‘सब हो जाएगा।’ रामभरोस ने कहा, ‘कौन सरवा आपकी बातों को टालेगा।’

‘राजू जब तक हम हैं, तभी तक यह दुनिया है। हमारा कोई इतिहास नहीं होगा।’ निरंजन ने एक दिन हँस कर कहा, ‘हम सिस्टम के लिए खाद-पानी हैं बस!’

‘नहीं नेता जी इस बार आप एम.एल.ए. होंगे।’

‘हों न हों, पर कुछ होना चाहिए।’ निरंजन ने कुछ सोच कर कहा।

‘मनोहर बड़ा जहीन है, वही जो कंप्यूटर पर आया है काम करने…कह रहा था पिता और भाई की पुण्य-तिथि पर एक समारोह हो कोलियरी में…।’

‘अच्छा आइडिया है।’

‘एक बात पर गौर किया है तुम लोगों ने?’

‘क्या?’ राजू ने जिज्ञासा से कहा।

‘पिता और भाई की हत्या सेम डे और सेम तारीख को की थी कोल माफियाओं ने?’ वह भावुक हुआ।

‘यह संयोग तो…’

‘कह सकते हो!’ निरंजन ने अपनी साँसों को टटोलते हुए कहा, ‘महीना आ गया है, लग जाओ। कोशिश करो माँ और भाभी को मंच पर किसी तरह लाया जाए। सहानुभूति बटोरो लोगों की।’

तैयारियाँ तो निरंजन और उसके साथियों के लिए बायें हाथ का खेल था, पर घर में समझ पैदा करने की भी जरूरत थी। यह जिम्मेवारी रामभरोस पर डाली गई। ऐसे घर का केयर टेकर भी था वह। हाड़ी-बिमारी से लेकर दस जरूरतों का खयाल रखना भी उसी का काम था, सो उसने मौका ताड़ कर माता जी से कहा, ‘भैय्या जी भी कम दुखी नहीं रहते। अब उनका विवाह होना चाहिए।’

‘तो कराओ।’

‘आप न कराइएगा।’

‘मेरे कहने से करेगा?’

‘हाँ।’

‘कौन काम कर रहा मेरे कहने से?’

‘आप बात करिए!’ रामभरोस ने निशाने पर तीर फेंका, ‘दस दिन बाद बाबू जी और भाई जी की पुण्य-तिथि पर समारोह भी है…।’

‘क्यों?’ माँ चौंकी।

‘पुराने साथी लोगों का दबाव है।’ उसने सँभाला, ‘फिर चुनाव के बाद विवाह…।’

‘कहो, वह गोली-बंदूक से विवाह करे।’

‘माँ जी, ऐसा नहीं कहिए।’ रामभरोस ने दूसरा वार किया, ‘उनका दिल फूल जैसा है, वह रोज रात को ऑफिस में रोते हैं।’

‘रामभरोस मेरे पिता गाँव में मास्टर थे। मैं मिड्ल पास हूँ। फिर मेरा कोल फील्ड में विवाह हुआ रत्नशंकर बाबू से, मैं अपने बेटों को पढ़ाकर कुछ बनाना चाहती थी…!’

‘माँ जी यही बात तो भैय्या जी भी कहते हैं…।’

‘जिस दिन भाई की लाश थी आँगन में…उसने धक्का दिया मुझे। मैं डर गई हूँ, वह सच कहने पर गोली मार दे तब?’ माँ ने कठोर स्वर में कहा, ‘घुन-सुन है मेरे कानों में भी, पर मैं या उसकी भाभी नहीं जाएँगी सभा में। उससे साफ-साफ कह दो।’

‘भैय्या जी खुद मिलने आएँगे आज।’

‘आने दो।’ माँ ने तल्ख होकर कहा, ‘घर को भी ऑफिस बना रखा है, बूढ़ा तो हो गया अपने जुनून में…।’

रात के दस बजे का समय। निरंजन माँ के कमरे में था। कुछ पल के अबोले के बाद उसने कहा, ‘तीस तारीख को सभा है…।’

‘हमलोग नहीं जाएँगे।’ माँ ने सीधा जवाब दिया।

‘क्यों?’ वह बिदका।

‘तुम गलत रास्ते पर हो।’

‘कैसे?’

‘यह तुम जानो।’

‘नहीं, यह तुम बताओ?’

‘तुम कहो।’

लंबी साँस लेकर निरंजन कहा, ‘मैं बेकसूर हूँ, अगर शंकर दा की हत्या नहीं होती, तो मैं ऐसा नहीं होता।’

‘…तो तुम भी हत्यारा हो जाओगे?’

‘तो क्या दूसरे लोग दूसरे के पिता और भाई को मारते रहेंगे?’ निरंजन ने ऊँचे स्वर में कहा, ‘तुम ध्यान से देखो माँ, मुझमें पिता ने जन्म लिया है, भाई ने जन्म लिया है, गौर से देखो, ममत्व से देखो…’ जैसे लावा फटा हो।

माँ पहले लड़खड़ायी फिर हिम्मत बटोकर बोली, ‘मैं देख रही हूँ, तुममें जुर्म ने जन्म लिया है…एक अंतहीन जुर्म ने…’

वह उठा और झटके से कमरे से बाहर निकल गया।

ऑफिस में सन्नाटा खिंचा हुआ था। सभी साथी निराश थे। पुण्यतिथि के आयोजन की उफनती रक्त की नदी की लहरें शांत हो रही थीं। तभी कंप्यूटर पर बैठे लड़के ने कहा, ‘सर! हम माँ और भाभी की होर्डिंग्स और वॉल पर तस्वीरें लगाएँगे…और विधवाओं पर मतलब कि माँ और भाभी पर तथ्य-परक फिल्म बनाएँगे पूरे इफैक्ट्स के साथ…आपलोग कहें तो प्रोग्राम को डिजाइन करूँ…।’

सबकी आँखें चमक आईं! निरंजन के मन में पहले असहमति ने जन्म लिया फिर उसने उस भाव को झटका और अंततः स्वीकृति में सिर हिला दिया।


Image : Mourning
Image Source : WikiArt
Artist : Umberto Boccioni
Image in Public Domain