कलम का पाप
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- 1 June, 2020
कलम का पाप
‘राम राम सीमांत बाबू! कहो कैसे हो? कैसा चल रहा है आपका ऑफिस?’ गोबरधन पांडेय ने एक सुर में पूछ डाला।
‘सब ठीक है पांडेय जी। ऑफिस भी ठीक चल रहा है।’
‘अरे तनिक ठहरिए बाबू! आपसे कुछ जरूरी बातें करनी है।’ लेकिन सीमांत बाबू आगे बढ़ गए। पीछे से उनको सुनाई पड़ा ‘जाओ तुम्हारा राम जी भला करे।’ गोबरधन पांडेय की इन बातों से सीमांत बाबू खार खाते थे। लेकिन उसके सामने विरोध करने में हिचकिचाते थे। अगले दिन, तीसरे दिन, हफ्तों महीनों ‘राम कृपा’ देने का यह सिलसिला चलता रहा और सीमांत बाबू मन-ही-मन कुढ़ते रहे। हमेशा की तरह उस दिन भी शाम को दफ्तर से घर लौटते समय फिर वही परिचित स्वर कानों में सुनाई पड़ा। सीमांत बाबू पीछे मुड़े और गोबरधन को नमस्कार किया।
‘प्रसन्न रहो! राम जी की कृपा तुम पर बनी रहे’ आज तुम का संबोधन सुनकर सीमांत बाबू के अफसरत्व को झटका लगा। तिलमिलाहट के बावजूद संयम से बोले, ‘महंत गोबरधन पांडेय जी, आपको छोटे-बड़े का लिहाज रखना चाहिए। मैं एक सम्मानित सरकारी अधिकारी हूँ। आपके द्वारा मुझे तुम का संबोधन शोभा नहीं देता। आशा करता हूँ कि आगे से इसका ध्यान रखेंगे’ ये कहकर गोबरधन पांडेय की प्रतिक्रिया जाने बगैर सीमांत बाबू अपने घर की ओर मुड़ गए।
दरअसल सीमांत बाबू को अभी सरकारी आवास नहीं मिला था। उनका नाम प्रतीक्षा सूची में लंबित था। तब तक वो एक उच्च मध्यवर्गीय कॉलोनी के एक किराये के मकान में रह रहे थे। उनकी पॉश कॉलोनी की आवासीय गली के मुहाने पर एक प्राचीन सिद्ध राम मंदिर था। उसी मंदिर में अधेड़ उम्र का पुजारी गोबरधन पांडेय था, जिससे न चाहते हुए भी आते-जाते युवा अफसर सीमांत की मुठभेड़ हो ही जाती। ‘तुम’ का भूत लिए घर पहुँचे। राह ताक रही पत्नी सीमांतनी, सूट-बूट खोलने में सीमांत का सहयोग करने लगी। टाई की नॉट खोलते समय सीमांतनी की गरम साँसों और नरम उँगलियों का स्पर्श आज सीमांत पर कोई जादू नहीं दिखा रहा था। पति के रूखेपन को भाँप सीमांतनी ने कहा–‘लगता है आज ऑफिस में कुछ कहा सुनी हुई है, इसलिए आज आपका मुड कुछ ठीक नहीं लग रहा।’
‘नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं सब ठीक है। चलो चाय पीते हैं। मैं लेकर आता हूँ।’ सीमांत किचन के अंदर चला गया। पीछे-पीछे सीमांतनी भी पहुँच गई ‘अरे ये क्या कर रहे हैं। छोड़िए ये मेरा काम है। कुछ अपने ओहदे का भी ख्याल रखिए साहब!’
‘अरे ये क्या कह रही हो सीमांतनी! किस युग की बात कर रही हो! अब पति-पत्नी के काम में कोई फर्क नहीं है। दोनों को घर के काम मिलकर करना चाहिए। आज चाय मैं ही बनाऊँगा।’ सीमांत के निर्णय के आगे सीमांतनी झुक गई। चाय की चुस्कियों के साथ सीमांत गंभीरता का आवरण ओढ़ा रहा। सज-धज कर करीब बैठी सुंदर युवा पत्नी के उफनते प्रेम सागर की लहर तरंगों से बेखबर सरकारी अधिकारी सीमांत, गोबरधन पांडेय द्वारा कहे गए ‘तुम’ के दंश की गहराई में और धँसता चला गया था। आखिरकार सीमांतनी ने साथ रहने का धर्म निभाते हुए कहा, ‘क्या बात है सीमांत! आज आप बहुत गंभीर दिख रहे हो। कुछ बात जरूर है। क्या बात है मुझे बताओ।’
लेकिन सीमांत था कि ‘तुम’ के दंश को खोलना ही नहीं चाहता था। बहुत मनुहार के बाद बोला, ‘गली के मुहाने पर मंदिर का पुजारी मुझे तुम बोला। और यही नहीं ऑफिस आते-जाते समय अक्सर ‘राम जी की कृपा तुम पर बनी रहे’ का आशीर्वाद देकर मुझे चिढ़ाता है। अब तुमको तो पता ही है सीमांतनी कि मैं राम-श्याम, ईश्वर-फिश्वर, आध्यात्म-साध्यात्म में न विश्वास करता हूँ न मेरी कोई आस्था है। मैं कठिन परिश्रम में विश्वास करता हूँ जिसकी वजह से मैं आज जो कुछ हूँ उसमें किसी राम-श्याम की कृपा नहीं है। लेकिन वह साला पुजारी राम की कृपा बताकर, मेरी उपलब्धि को ईश्वरीय बताकर मुझे नीचा बनाना चाहता है।’ सीमांतनी संस्कृत में स्नातक थी। उसकी सारी शिक्षा गाँव और कस्बे में हुई थी। वह चेतनशील थी मगर कालिदास की मल्लिका की आकर्षक दैहिक मांसलता की कायल थी, तो रीतिबद्ध कवियों की कामुक वर्णनों की प्रशंसक भी थी। उसकी दृष्टि में औरत मर्द के लिए बनी है। मर्द का ख्याल रखना, खुश रखना यही औरत का कर्तव्य है। सीमांतनी यही सब बचपन से सीखती-सुनती बड़ी हुई और शहर आकर भी हर सोमवार, शुक्रवार को मंदिर जाकर गोबरधन पांडेय जैसे पुजारी से पति को खुश करने की अदाएँ सीखती। और वह भी अपने ज्ञान को और पुष्ट करने के लिए अश्लील पौराणिक कथाओं को पारिवारिक आदर्श का आधार बनाकर, सीमांतनी का दिल जीत लेता। और आज गोबरधन पुजारी की वही शिष्या सीमांत की परेशानियों को हरने वाली रमणीय काया के रूप में सामने खड़ी थी।
ढलती साँझ, डूबता सूरज, लौटते पंछियों का कलरव, अक्टूबर की गुलाबी ठंड का अहसास, ये सब मिलकर रूमानी अरमानों को जिस्मों के धधकते आग़ोश में समाने को मचल रहे थे। सीमांतनी अपने पूर्वजों से हासिल अपने अंग ज्ञान को उस दिन सीमांत पर आजमाने पर अमादा थी। वह उठी और सीमांत के सामने से झुककर आँचल गिराते हुए सीमांत के सिर पर हाथ फेरने लगी। धारा अपने वेग से उफनती हुई बह रही थी। परंतु सीमांत तो अपमान के जर्जर ब्रह्मपुत्र में डूबता जा रहा था। उसको अपना होना न होने जैसा लग रहा था। उसकी तंद्रा तब टूटी जब उसने सीमांतनी के ओठों की कसावट महसूस की। वह खड़ा हो गया। उखड़ते हुए बोला, ‘सीमांतनी हद है। मैं यहाँ अपमान की आग में जल रहा हूँ और तुम कामुकता की आग में भस्म हुई जा रही हो। क्या तुम्हारे पास परेशानी से निजात पाने का यही एक तरीका है।’
‘अरे ये मेरा फर्ज है। आपकी परेशानियों को हर लेना, अपने में समा लेना यही तो स्त्रीत्व है। घर में आपको बाहरी तनावों से मुक्त करना मेरा धर्म है।’ सीमांतनी अपने सनातनी ज्ञान को बखान रही थी। उधर सीमांत उसकी जाहिलता पर कुढ़ रहा था। ‘जो आज पुजारी ने ‘तुम’ बोला उसका क्या?’ बौखलाए सीमांत ने पूछा।
‘उसका क्या? पुजारी जी आपसे आयु में बड़े हैं। धर्म-कर्म की बातें करते हैं। बहुत बड़े ज्ञानी हैं। व्यक्ति का माथा देखकर उसका भविष्य बता देते हैं। अभी पिछले सोमवार मेरा माथा देखकर कह रहे थे सीमांतनी तू बहुत प्रतापी है। तेरे प्रताप से सीमांत बहुत जल्दी सचिव बनने वाला है। तेरे को दो पुत्र रत्नों का योग है। बस कुछ-एक ग्रह दोष है। वे कुछ अनुष्ठानों से सुधर जाएँगे। उनका निवारण भी मैंने शुरू कर दिया है। अब इतने ज्ञानी महापुरुष ने आपको अगर प्यार से तुम बोल दिया तो कौन सा गुनाह कर दिया।’
कुछ सोचते हुए सीमांत बोला, ‘अच्छा ये बात है। तुम्हारे दिव्य ज्ञान का ज्योत पुजारी के चरणों में समाया हुआ है। अच्छा एक बात बताओ सीमांतनी वो पुजारी गोबरधन पांडेय तो अछूतों से भेदभाव रखता है। कुछ वर्ष पहले एक सरकारी इंजीनियर साहब आए थे उस मंदिर में कुछ शासकीय निरीक्षण के लिए। जाती से वह एस.सी. थे। उनके जाने के बाद गोबरधन पांडेय ने मंदिर को धुलवाया था। ऐसा कई लोग बताते हैं। फिर तुम्हारे साथ उसको मंदिर में कोई दिक्कत नहीं आती?’
‘अरे नहीं पुजारी जी कहते हैं औरत खासतौर से सुंदर जवान औरत चाहे नीची जात की ही क्यों न हो वह तपस्विनी होती है, क्योंकि वो अपने तप और प्रताप से पूरे घर को शुद्ध करती है। और जो शुद्ध करता है उसे पारस कहते हैं, पारस के नजदीक आने से धातु सोना बन जाती है। तो मैं तप कर निखरी हुई सोना हुई न। देखो! पुजारी जी के कितने सुंदर महान विचार हैं। और आप उन पर ख़ामख़ाह आरोप लगा रहे हो।’
खैर हुआ यूँ कि उस रात पति-पत्नी के एकांत पलों में गोबरधन पांडेय अप्रत्याशित रूप से शामिल हो गया था, जो दोनों के अवचेतन में वाद-विवाद का नया झंखाड़ उगा रहा था। वह रात अतृप्त इच्छाओं की दमन की रात थी। सीमांतनी की कंचन सुकोमल काया की तान, सीमांत के हठी धुन के आगे उठ नहीं पा रही थी। और यूँ ही दो देह साथ-साथ रहते हुए दो द्वीपों में बँट गए थे।
एक सप्ताह बाद ऑफिस जाते समय पुजारी फिर टकरा गया और चिर-परिचित अंदाज में बोला, ‘राम राम सीमांत बाबू! राम जी की कृपा तुम पर बनी रहे!’ ये शब्द सुनकर सीमांत के तन-बदन में आग लग गई। वह बिना मुँह लगे आगे बढ़ गया। दिनभर ऑफिस में गोबरधन और उसके राम के भूत से जूझता रहा। फाइलों का निपटान बिलंब होने लगा। अति विशिष्ट और रसूकदार महानुभाव फाइलों को पास कराने के लिए बिचौलियों की मदद लेने लगे। और वो बिचौलिये अंदर के ही सात्विक धार्मिक जन था जो मूल काम को छोड़ कर पान, बिड़ी, गुटका, खैनी, चाय के जायके के साथ रामायण, महाभारत, गीता बाँचता रहता। यही जन सीमांत की मनोदशा का फायदा उठाकर फाइलों पर हस्ताक्षर लेने में सफल हो जाता। साहब हस्ताक्षर करते और मलाई खाते जन। ये सिलसिला चलता रहा और सीमांत बाबू एक दिन रिश्वतखोरों के चलते बदनाम हो गए कि वे कमीशन लेते हैं। जाँच-पड़ताल में उच्च कुलीन अधिकारी ने पाया कि एस.सी. वर्ग से बना अधिकारी सीमांत न सिर्फ भ्रष्ट है बल्कि अन्य सहयोगियों के कार्यों में भी बाधा पहुँचाता है। जबकि मामला ये था कि शिक्षारूपी शेरनी का दूध पीकर दहाड़ने वाला सीमांत बहुत कर्मठ, ईमानदार और संजीदा था। मेहनत और ईमान उसके जुबान पर नहीं व्यवहार में था। खैर मामला न्यायालय पहुँचा। बहुत जद्दोजहद के बाद न्यायालय ने सीमांत पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त कर दिया। लेकिन झूठे आरोप लगाकर मानसिक तनाव बढ़ाने वाले श्रेष्ठ जनों को सिर्फ यह कहकर छोड़ दिया कि बिना ठोस प्रमाण के न्यायालय का वक्त खराब न किया करें।
इस घटना के बाद सीमांत का अपने सहयोगियों पर से विश्वास उठ गया था। वह टीका धारी चपरासी भी अपने साहब के टेबल पर फाइलें पटक कर जाता, लेकिन सीमांत भी अड़ियल था। वह इस घटना के बाद और भी जवाबदेह हो गया था, लेकिन भीतर-ही-भीतर अपने खिलाफ रचे हुए साजिश की जड़ों तक पहुँचने की बौखलाहट को भी सालता रहा। ऐसे में अक्सर झुँझला उठता।
एक दिन ऑफिस से लौटते समय पुजारी आदतन टकरा गया। सीमांत थका-हारा चेहरे पर शिकन लिए बोझिल क़दमों से चला जा रहा था। आदतन पुजारी ने पुकारा, ‘सीमांत बाबू! जरा ठहरो तो! कुछ बात करनी है!’ बेमन से सीमांत रुक गया और बेरुखी से बोला, ‘कहो पुजारी जी! क्या कहना है।’
‘अरे-अरे ऐसी कोई विशेष बात नहीं। बस मैं देख रहा हूँ कि तुम कुछ उधेड़बुन में लगे हो इन दिनों। सब ठीक तो है। मैंने सुना है कि आपके साथ ऑफिस में कुछ ऊँच-नीच हुआ है। अब देखो साहब आप तो पढ़े-लिखे हो, आला दर्जे के अधिकारी हो, भला मेरा कहना क्यों मानोगे। अब देखो भाई हम तो ठहरे राम जी के भक्त और राम जी का आदेश है कि हर प्राणी का भला हो। वह हर तरह के दुखों से मुक्त हो यानी कि राम जी सब का भला चाहते हैं। और उन सब में तुम भी हो। राम के आगे सब छोटे हैं। न कोई अफसर, न कोई संत्री, न कोई मंत्री। राम के दरबार में सब याचक हैं। अब यदि आप चाहो तो मैं राम जी के दरबार में तुम्हारी अर्जी लगा देता हूँ। राम जी तुम्हारे सब कष्ट दूर कर देंगे। बस थोड़ा सा अनुष्ठान करना होगा। लेकिन भाई तुम यह सब क्यों करोगे।’ पुजारी की इन बातों से सीमांत को पता चल गया कि ऑफिस वाली बात उसको पता है। और भला उसे पता क्यों न चलता क्योंकि सीमांत के कई सहकर्मियों का वह आध्यात्मिक गुरु जो था। वे चेले अपने गुरु के पास सीमांत के चरित्र की जमकर धज्जियाँ उड़ाते। ऐसा करते हुए उनको मानो ऐसा प्रतीत होता जैसे उन्होंने सुर-असुर संग्राम में अमृत जीत कर असुरों के छक्के छुड़ा दिए हों। अब यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं है कि सुरों ने छल कपट से असुरों को हराया था। लेकिन ये आधुनिक असुर छल कपट से हारकर भी जीत गया था। ये उसकी भौतिक विजय थी।
‘पुजारी जी कृपया आप अपनी हद में रहिए। पता है न प्रशासन के हाथ कितने लंबे होते हैं।’ सीमांत क्रोध में तमतमा गया था। तभी अचानक दस-बारह की संख्या में मोटरसाइकिल सवार युवक, सिर पर भगवा चुन्नी बाँधे, ‘जय श्रीराम! जय श्रीराम! जय श्रीराम!’ का नारा लगाते हुए पुजारी के पास आकर रुक गए। पुजारी का चरण स्पर्श कर, हालचाल पूछ फिर वापस ‘जय श्रीराम!’ का उद्घोष करते हुए आगे बढ़ गए। उनके जाने के बाद पुजारी मुस्कुराते हुए बोला, ‘हाँ, तो तुम क्या बोल रहे थे अफसर बाबू! प्रशासन के हाथ लंबे हैं। होता होगा। लेकिन मेरे धर्म के आगे ठिगना है। समझे! और हाँ मुझे तुमसे हमदर्दी है। तुम्हारे ग्रहों की दशा खराब चल रही है। इसलिए तुम पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।’
‘मेरा इन पाखंडों में कोई विश्वास नहीं। और न ही कोई धर्म देश-शासन से ऊपर है। समझे! या और समझाऊँ पंडित जी।’ सीमांत का यह तेवर ही उस दिन विवाद का कारण बन गया। पुजारी के पास सांस्कृतिक गौरव का आत्मविश्वास था तो सीमांत के सामने हीनता बोध का अतीत और अंतहीन संघर्षों का पैमाना था। दोनों अपने धूरी पर अडिग थे। घर में सीमांतनी का पुजारी के प्रति वही श्रद्धा देखकर सीमांत जितना गुस्सा हुआ उससे ज्यादा कहीं टूटा। उसका टूटन एक थोपे हुए असत्य और आडंबर की जीत का धूमिल संकेत था।
सीमांतनी अभी भी दैहिक मिलन को ही दांपत्य जीवन का सार मानने का भूल किए जा रही थी। मानसिक ऐक्य उसकी नजर में गौण था। इधर सीमांत था कि मन की यात्रा से देह में उतरना चाहता था और सीमांतनी थी कि देह की यात्रा से सांसारिक कष्टों को कम करना चाहती थी। उस तरफ पुजारी था जो दोनों के विलगाव में अपने अस्तित्व को तलाश रहा था।
एक रात सोते वक्त सीमांत ने सीमांतनी से कहा, ‘तुम्हें पुजारी से दूर रहना चाहिए। वह पाखंडी और फरेबी है।’ इतना कहना था कि सीमांतनी बिफर गई, ‘कैसी बात कर रहे हो? क्या हो गया है तुम्हें। क्यों पुजारी जी पर संदेह कर रहे हो? वो बहुत अच्छा इनसान हैं।’
‘अच्छा नहीं बुरा इनसान है। तुम जैसी औरतों को अपने जाल में फँसाकर शोषण करना उसकी आदत है।’ सीमांत ने कहा।
‘देखो सीमांत हमारी शादी के चार वर्ष हो गए, लेकिन अभी तक मेरी गोद सुनी है। अब पुजारी जी बच्चा होने का अनुष्ठान कर रहे हैं। सब ठीक रहा तो जल्दी ही हमारा घर किलकारियों से गूँज उठेगा। पुजारी जी दरियादिल हैं।’ सीमांतनी बोलती गई।
‘अच्छा तो बात यहाँ तक पहुँच गई है। अरे मूर्खा उसके लिए डॉक्टर हैं, अस्पताल हैं। इलाज है। धैर्य रखो। लेकिन इस पाखंडी के चंगुल से बाहर निकलो।’ सीमांत गुस्से में बोला। उस रात से लेकर पूरे तीन दिन सीमांतनी मुँह फुलाये रही। वह पुजारी के मोह से बाहर आने को बिलकुल तैयार नहीं थी। जीवन के दिन यूँ ही गुजरते जा रहे थे। सीमांत का परिवार गाँव में रहता था। पिछले एक साल में उसके गाँव से दुखद खबरें आने का सिलसिला जारी था। एक लंबी बीमारी से उसके पिता की मृत्यु हो गई। उसके भाई की एक दुर्घटना में जान चली गई। ऐसे ही अन्य नजदीकी संबंधियों की दुखद खबरें मिलती रहीं। इधर ऑफिस में सहकर्मियों का षड्यंत्र। इन सब स्थितियों से सीमांत परेशान रहने लगा। सीमांतनी पुजारी भक्तिन का रवैया अलग।
नवंबर महीने की ठंडी शाम थी। अँधेरा जल्दी होने लगा था। हर किसी को घर जल्दी पहुँचने की हड़बड़ी थी। सीमांत भी घर जाने की जल्दी में था। गली के गेट पर गाड़ी पार्क करके बड़े-बड़े कदमों से घर की ओर चल पड़ा। पार्किंग स्थल के सामने के मंदिर का पुजारी गोबरधन पांडेय आज सुबह से खाली बैठा था। न कोई उससे पंचांग पूछने आया, न कोई हाथ पढ़वाने आई। न कोई मंदिर के गर्भगृह के एकांत कोने में बच्चा प्राप्त करने का अनुष्ठान करवाने आई। न जाने आज भक्त और भक्तिनों को क्या हो गया था। गाड़ी से निकलते हुए सीमांत को पुजारी ने देख लिया था। मंदिर के अहाते से बाहर आकर जोर से पुकारा ‘अरे सीमांत बाबू! इतनी हड़बड़ी में क्यों भागे जा रहे हो। आओ जरा तुमसे जरूरी बातें करनी है।’ लेकिन सीमांत उसको अनसुना करके आगे बढ़ता रहा। उसने फिर चिल्ला कर कहा, ‘कल दोपहर में सीमांतनी मंदिर आई थी बच्चा प्राप्ति का अनुष्ठान करवाने।’
सीमांत के बढ़ते कदम वहीं ठिठक गए। वापस आकर बोला, ‘पुजारी तुम मेरी पत्नी को बेवकूफ बनाना छोड़ दो। ये मेरी चेतावनी है।’ परंतु पुजारी मुस्कुराते हुए बोला, ‘अरे सीमांत बाबू! सबसे पहले अपनी जुबान पर काबू रखो। लगता है तुम हिंदुस्तानी संस्कृति भूल गए हो। छोटे-बड़े का भेद भी भूल गए हो। आज तुमने मुझे तुम कहा। तुम्हें पता है न कि ब्राह्मण पूजनीय होते हैं।’
सीमांत बोला, ‘सब ढकोसलों के बारे में पता है। और शायद आप वास्तविक दुनिया में नहीं जी रहे हो। अब सब बराबर हैं। कोई ब्राह्मण-श्राह्मण नहीं। धरती पर आओ गोबरधन पांडेय जी।’
‘परंपरा और संस्कृति महान होते हैं। जो परंपरा के रक्षक हैं वो मनुष्य श्रेष्ठ कहलाते हैं और मैं उन्हीं श्रेष्ठ जनों का वंशज हूँ। और परंपरा, संस्कृति से ऊपर नहीं हो ऑफिसर। तुमसे समझदार तो सीमांतनी है जो परंपरा और मर्यादा का सम्मान करती है।’ गोबरधन पांडेय बहस करता गया और फिर मजाकिया अंदाज में बोला, ‘सीमांतनी का कल खूब बढ़िया से समस्त शास्त्रीय विधि से अनुष्ठान कर दिया है। रामजी की कृपा रही तो आपके घर में जल्दी ही किलकारियाँ गूँज उठेंगी।’
ये सुनते ही सीमांत का खून खौल उठा। उसका मन कर रहा था कि पुजारी का गला दबा दे, लेकिन एक सम्मानित अधिकारी ऐसा कैसे कर सकता था। और दूसरा पुजारी ने ऐसा क्या बोल दिया था जिसके कारण उसे मृत्युदंड दे दिया जाता। लेकिन सीमांत को जिस बात का डर था सच्चाई वही थी। सीमांतनी पूरी तरह पुजारी के वश में थी। वो पति धर्म निभाते हुए परंपरा के सफेद हाथियों को भी पानी पिला रही थी। फिर पानी पिलाना तो पुण्य का काम माना जाता है। खैर चकराते सिर के साथ सीमांत घर पहुँचा। वो समझ नहीं पा रहा था कि सीमांतनी से कैसे बात करे। डाँटे, मारे तो समाज में बेइज्ज़ती और यदि समझाए तो शक्की समझे जाने का डर। इसी द्वंद्व में अगले दिन पुजारी के पास आकर कड़ाई से वह बोला, ‘गोबरधन मेरी पत्नी को छोड़ दो। नहीं तो अंजाम बुरा होगा। तुमको दुराचार के मामले में जेल भेजवा दूँगा।’
‘हाँ…हाँ, भिजवा दो जेल मुझे कि तुम्हारी पत्नी राम भक्त है और मैं उसका गुरु हूँ। देखें कौन सी अदालत और कानून भक्ति और पूजा के मौलिक अधिकारों से वंचित करते हैं।’ कुल मिलाकर एक बहुत बड़ा रहस्यमयी लोचा था, जिसको महसूस तो कर सकते हैं, लेकिन मन से बाहर निकलते ही दो अर्थी हो जाते। इसी द्वंद्व में फँसे सीमांत की विकट स्थिति बन गई थी। नज़ाकत का फायदा उठाते हुए गोबरधन पांडेय बोला, ‘देखो सीमांत बाबू! तुम्हारे परिवार और तुम्हारे साथ पिछले साल जितने भी हादसे हुए हैं, पता हैं क्यों हुए हैं?…क्यों हुए हैं…इसलिए कि ये सब तुम्हारे कलम का पाप है।’
पाप शब्द सुनते ही सीमांत आगबबूला हो उठा। बोला, ‘पुजारी तुम जामे से बाहर निकल रहे हो। वैसे भी पाप-शाप को नहीं मानता। सब चुतियापा है। मैं अपनी कलम से न्याय करता हूँ। देश सेवा करता हूँ। जो भी मेरी कलम की निष्ठा पर शक करेगा, असली पापी वो होगा।’
‘वाह वाह आ गए न पाप पर। यानी मानते हो कि पाप होता है।’ हँसते हुए पुजारी बोला। सीमांत उस वक्त बौखला कर रह गया था। न चाहते हुए भी वह पाप-पुण्य के फेर में पड़ता जा रहा था। अब घर से बाहर आते-जाते वक्त पुजारी उसे ‘कलम का पाप’ याद दिलाता रहता। घर में सीमांतनी भी ‘कलम का पाप’ कहकर सीमांत को शुद्ध करती रहती। यहाँ तक कि ऑफिस में भी ‘कलम का पाप’ रूढ़ हो चला था। हद तो तब हो गई जब उसके पी.ए. ने सहयोग करना बंद कर दिया। मोहन श्रीवास्तव उस दिन भी टेबल पर बैठा हुआ टेलीफोन पर दोस्तों से शेयर बाजार की उठा-पटक पर चर्चा करने में मस्त था। सीमांत उस पर बिफर पड़ा। ‘मिस्टर मोहन श्रीवास्तव आप मेरे पी.ए. हो, लेकिन देख रहा हूँ इधर कई दिनों से फाइल मेरे पास नहीं भेजते। क्यों न आप पर आनुशासनहीनता की कार्रवाई की जाए?’
मोहन श्रीवास्तव पहले से ही तैयार बैठा था, ‘सीमांत सर! मेरे लिए कुर्सी का महत्त्व है, व्यक्ति का नहीं। वैसे भी जो व्यक्ति इस वक्त मेरे सामने खड़ा है वह कलम का पापी है, और जो कलम का पापी है वह सांस्कृतिक पापी है। और संस्कृति के आगे आप बौने हो।’
‘क्या…बकवास है ये सब।’ कहते हुए सीमांत ने उसका प्रतिवाद किया था। ऑफिस में बने असहयोगी वातावरण से परेशान होकर सीमांत खुद में घुटता रहता। घुटन का यह मवाद बढ़ते-बढ़ते एक दिन सैलाब बन गया। सहकर्मी कलम का पाप कहते हुए सीमांत को तिरछी नज़र से देखते जैसे मानो वह सही में अपराधी है। अब सीमांत का ध्यान सीमांतनी से हटकर ‘पाप’ के भूत में समा गया था। पाप गाथा के इसी क्रम में दिसंबर की ठिठुरन भरी एक शाम त्रस्त होकर सीमांत गोबरधन पुजारी से बोला, ‘देखो पुजारी! मैं पापी नहीं हूँ। न मैं पाप को मानता हूँ।’
पुजारी बोला, ‘जब पाप को मानते ही नहीं हो तो परेशान क्यों हो रहे हो बाबू साहब!’
‘वो इसलिए कि मेरी बदनामी हो रही है। लोग तो पाप को मानते हैं न।’ सीमांत के इन शब्दों के सामने आते ही तुरंत गोबरधन बोला, ‘अरे सीमांत बाबू! बहुत भोले हो। बहुत जल्दी झूठ को सच मान लेते हो। मुझे पता है ‘आप’ एक सुशिक्षित, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार अधिकारी हो। और आप जैसे उच्च अधिकारी के सामने मेरे जैसे पुजारी की क्या औकात। मुझे यह भी पता है कि आप आधुनिक सोच के समतावादी हो। मेरा यह कहना है कि आप देश के सेवक हो न कि नेताओं-सेताओं के। आपकी कलम से नेताओं को फायदा पहुँचाया जाता है। ये बात मानो चाहे न मानो, लेकिन आप उनकी कठपुतली हो। वो जब चाहें आपको नचा देते हैं। ऐसे कई सच्चे किस्से मशहूर हैं कि फलाना उसूलधारी अफसर अपनी जमीर की आवाज पर इस कठपुतली के पेशे से त्यागपत्र देकर समाज सेवा का काम करने लग गया। फिर आपके समाज को तो जरूरत है आप जैसे ईमानदार, कर्मठ, समर्पित समाज सेवक की। अब देखो न अगर बाबा साहब डॉ. भीम राव अम्बेडकर पद प्रतिष्ठा के लोभ में पड़े होते तो आपका समाज आज भी नरक में पड़ा होता। लेकिन सच्चाई यह है कि आपके बहुसंख्यक लोग आज भी नरकीय जिंदगी जीने को मजबूर हैं। यही कुछ भाव मैं आपसे साझा करना चाहता था। लेकिन आप सुनते ही नहीं।’ यह सब बोलकर पुजारी खामोशी से आसमान की तरफ देखते हुए बोला, ‘अच्छा सीमांत बाबू अब घर जाइए। पत्नी का ध्यान रखिए, वो बहुत प्यारी है। कुछ बुरा लगा हो माफ कर देना।’
सीमांत को पुजारी का अचानक परिवर्तित व्यवहार संदिग्ध लग रहा था, लेकिन जिस आत्मीयता से उसने बाबा साहब का स्कैच खीचा था वो सच तो था ही। सीमांतनी भी बहुत प्यारी है। सच और झूठ के इसी द्वंद्व में घर जाकर सीमांत ने सीमांतनी को पुजारी से हुई सारी बातें बता दी। इतराते हुए वह कहने लगी, ‘देखा पुजारी जी कितने अच्छे इनसान हैं। सबका भला चाहते हैं और एक आप हैं कि बेमतलब उन पर संदेह कर रहे थे।’
कई दिनों से अलग-थलग द्वीपों में कैद दो देह जब मिले तो एक-दूसरे में समाते ही चले गए। समागम के सुनहरे पलों के बावजूद सीमांत अभी सच झूठ के द्वंद्व में उलझा हुआ था और सीमांतनी सोच रही थी कि परसो सोमवार को पुजारी जी से बच्चा प्राप्ति का अनुष्ठान करवाने जाना है। कल ब्यूटी पार्लर में जाकर जरूरी काम करवा लेगी, क्योंकि पुजारी जी को स्वच्छता पसंद है यानी स्वच्छ भक्त।
सीमांत बाबू अब दिन रात कलम के पाप से जूझने लगे। रही सही कसर पुजारी यह जुमला सुनाकर, सीमांत की कर्तव्यपरायणता को जिंदा बनाए रखता। देश सेवा का खुमार इत्र की तरह हवा में बिखरने लगा था और धीरे-धीरे समाज सेवा का भाव उत्पन्न होने लगा था। हालाँकि सीमांत बहुत दरिद्रता से जूझ कर अधिकारी बना था। उसको इसका भलीभाँति इल्म था, लेकिन वह बिकने के लिए तैयार नहीं था। आखिर ईमान भी कोई चीज होती है न। इसी सदाचार के आदर्श में पले-बढ़े सीमांत बाबू ने आखिरकार एक जनवरी को भारतीय प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र दे दिया और कलम के पाप से मुक्त होकर दूर देहात में गरीब, दलित, वंचित वर्ग के छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं का मामूली शुल्क पर प्रशिक्षण देने लगे। अब सीमांत का ये सपना बन गया कि ‘ईमानदार अफसरों की फ़ौज बनानी है जो कलम के पाप से बच सकें और भ्रष्टाचारियों का सफाया करके एक खुशहाल समाज बना सकें’। सीमांत बाबू का त्यागपत्र की खबर आग की तरह फैल गई। रोचक बात तो यह थी कि वंचित विद्यालय के आसपास के कुछ द्विज बाबा लोग वहाँ गरीब दलित छात्रों में यह प्रचार करने लगे कि ‘ये सीमांत बाबू दिल्ली में बहुत बड़े अफसर थे। इन्होंने अपने समाज की खातिर पद त्याग कर यहाँ शिक्षित करने आएँ हैं।’
वंचित विद्यालय में सीमांत के साथ-साथ कुछ और भी साथी शिक्षण का कार्य कर रहे थे। उन्हीं में से एक थे क्रांतिकारी सुरेन्द्र पाठक। वह एक दिन कक्षा में छात्रों को दिव्य ज्ञान दे रहे थे, ‘तुम सब अपने सीमांत बाबू से प्रेरणा लो मूर्खो! सोचो इतने बड़े पद को लात मार ये तुम लोगों को यहाँ शिक्षित कर रहे हैं। आखिर तुम सब भी अफसर बनकर कलम से पाप ही तो करोगे। सोचो तुम्हारे माँ-बाप कितनी मेहनत से तुम सबको पढ़ा रहे हैं, क्या इसीलिए कि तुम बड़े पदों पर जाकर शोषकों का भला करो। अरे तुम सबको तो जाकर अपने माँ-बाप की मदद करनी चाहिए। माँ-बाप की सेवा का स्थान सबसे ऊँचा है।’ पाठक जी जब यह दिव्य ज्ञान पूरे जोश में बाँच रहे थे उसी वक्त अपनी कक्षा में जाने के लिए सीमांत उधर से गुजर रहा था। उनके मुख से अपना नाम सुनकर सीमांत के कान खड़े हो गए। पाठक ने जो कहा सीमांत का होश उड़ाने के लिए काफी था, बल्कि लगा उसका सब कुछ लूट लिया गया है। बचपन की भयावह गरीबी से लेकर युवावस्था तक कि कठिन संघर्षों से हासिल इस मुकाम का पूरा स्कैच उसकी आँखों के आगे कौंध गया। अब पछताने के सिवा कर भी क्या सकता था। चिड़िया कब का खेत चुग चुकी थी। सीमांत अपने भोलेपन की मूर्खता पर दुःखी हो रहा था। सीमांतनी को लेकर वह वापस शहर पहुँचा और नौकरी वापसी के लिए अर्जी दी। उसे बताया गया कि स्वेच्छा से दिए गए त्यागपत्र के बाद पुनर्नियुक्ति का कोई प्रावधान नहीं है। एक पद रिक्त होने और विज्ञापित होने के बाद उसके लिए सीमांत ने आवेदन किया था। विभाग अधिकारी के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने के बावजूद उसे बमुश्किल चपरासी का पद ऑफर किया गया। इतने बड़े पूर्व अधिकारी को चपरासी का पद मिलना अशोभनीय था। सीमांत के लिए यह स्वीकारना अत्यंत कठिन था। जीविका के लिए संघर्ष का यह अब एक नया दौर था। वह कॉलोनी के पुराने घर में वापस आ गया था। उसके लाख मना करने के बाद भी सीमांतनी पुजारी गोबरधन की भक्ति में डूबी रही।
एक दिन मंदिर में शाम की आरती के समय आए कुछ भक्तगण गोबरधन की तरफ देखकर मुस्कराते हुए, सीमांतनी को भाभी जी! भाभी जी! कहकर बुला रहे थे। और वहाँ शर्म से उसके गाल लाल हो गए थे। खैर अब सीमांत को फिर से एक नया पद ऑफर किया गया और वह था ‘क्लर्क’ का। खोकर कुछ पाने के संघर्ष में इसको स्वीकारने के अलावा सीमांत के पास अब कोई चारा भी न था। जिस दिन सीमांत इस नए पद का नियुक्ति पत्र लेने आया था, वहाँ गोबरधन पांडेय भी मौजूद था। वह वहाँ वसंत पंचमी पर यज्ञ करवाने आया था। दफ्तर के लोग उसके दायें-बायें घूम रहे थे। ऑफिस के अंदर हवन का अनुष्ठान चल रहा था। गायत्री मंत्र और स्वाहा! स्वाहा! गूँज रहा था और दूर कहीं बाहर से लाउडस्पीकर की आवाज ऑफिस के दरवाज़ों, खिड़कियों को भेदकर अंदर आ रही थी ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सनमति दे भगवान।’ दरअसल उसी समय नव गाँधीवादियों का जुलूस उधर से गुजर रहा था।
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Artist : Amedeo Modigliani
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