निर्भया बच गई

निर्भया बच गई

आज वसंत पंचमी के दिन सहसा अरुन्धती की याद कौंध गई। यादों के मैकेनिज़्म के बारे में कुछ भी कहना बड़ा मुश्किल है–कब, किस प्रसंग के पुराने-नये तेवरों से जुड़े, वर्तमान के अंग बनकर उभरेंगे, पता नहीं! अब अरुन्धती की ही बात लीजिए। कोई साठ-पैंसठ वर्ष पूर्व हमारी सहपाठी थी वह, इंटरमीडिएट में। दो वर्ष साथ पढ़े–एक ही वर्ग में और हम दोनों की ट्यूटोरियल कक्षा भी एक ही थी–इसलिए कि हमारे विषय-कंबिनेशन एक थे। यकीन मानिए कि हमारे बीच कभी कोई बातचीत नहीं हुई, घनिष्ठता का तो सवाल ही नहीं उठता–कोई प्रेमप्रसंग तो था ही नहीं। हाँ, जब तब आँखें अवश्य मिल जाती थी, लेकिन वह तो बहुत सामान्य बात होती थी, मैंने उसे कभी गंभीरता से लिया भी नहीं। अब अरुन्धती कहाँ है, जीवित है भी या नहीं, पता नहीं। इंटर में मैं फेल कर गया था और पढ़ाई में वह मुझसे एक साल आगे बढ़ गई, बढ़ी तो बढ़ती ही गई। मैंने कोई खोज-खबर भी नहीं ली–कहते हैं कि जिस गाँव जाना नहीं, उसकी राह पूछकर क्या करना!

बहरहाल, यह सवाल तो रह ही गया कि इतने वर्षों बाद अरुन्धती मेरी स्मृति में कौंधी क्यों, वह भी वसंत पंचमी के दिन! यों तो वसंत प्रेमपर्व है ही, इस वर्ष पश्चिमी रंग में सराबोर, वेसन्टाइज भी साथ-साथ घटित हो रहा है, यानी 2016 में यह समानान्तरता कुछ अधिक है। किंतु अरुन्धती, मेरे लंबे जीवन में किसी प्रेमप्रसंग की मुकाम तो रही नहीं, तो फिर? सोचने लगा, स्मृतियाँ कुरेदी कि सहसा वह प्रसंग भी याद आ गया, जिसका ताल्लुक अरुन्धती से रहा, वह भी वसंत पंचमी के अवसर पर। मेरे जीवन में वसंत पंचमी के अनेक कटुमधु प्रसंग हैं, अरुन्धती भी एक से जुड़ी है। स्मरण आते ही गनगना उठा तन-मन, किसी रोमांचक या मधुर स्मृति से नहीं, बल्कि एक आगमिष्य त्रासद से टकराहट के सिहरन से। हाँ, एक आशंकित दुर्घटना से जिसके केंद्र में अरुन्धती रही, मैं टकराया था। क्यों टकराया था मैं अरुन्धती को लेकर, कहना मुश्किल है। वैसा कोई संबंध मेरा नहीं था अरुन्धती के साथ कि मैं उसके लिए कोई संकट मोल लेता, पर बाद में जो परिस्थितियाँ बनी उसमें मेरे प्राण संकट में पड़े, वर्षों तक। शायद इंटर में फेल हो जाने के कारण एक वर्ष ओझल रहने और बाद की मेरी खुद की दबंग हैसियत के कारण मैं बचा, हालाँकि जान लेने की धमकी मुझे दी जा चुकी थी।

मैं पूरी घटना आपको सिलसिलेवार बताता हूँ। उस वर्ष वसंत पंचमी के अवसर पर शायद पहली बार सरस्वती पूजन का आयोजन कॉलेज में हो रहा था। कॉलेज की ललितकला परिषद की ओर से एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन किया जा रहा था, जिसके लिए, महीने भर पहले से ही गायन-नृत्य-काव्यपाठ आदि की प्रतियोगिताएँ परिषद की ओर से चलाई जा रही थी। विजेताओं द्वारा सरस्वती पूजा के सांध्यकालीन सांस्कृतिक उत्सव पर कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते। भूगोल विभाग के अध्यक्ष प्रो. जगदानन्द मिश्र, परिषद के भी सभापति थे। वे स्वयं जाने-माने संगीतकार थे। उन्हीं की देखरेख में प्रतियोगिताएँ चलीं और पूजादिवस के कोई सप्ताहभर पहले विभिन्न प्रतियोगिताओं के परिणाम घोषित कर दिए गए। अरुन्धती नृत्य और गायन दोनों में टॉप पर थी।

हम छात्रों में वसंत पंचमी–सरस्वती पूजा के लिए अद्भुत उत्साह था। वसंत पंचमी के दो-तीन दिन पहले के कुछ क्षण, सहसा, मेरी बेचैनी और भावी परेशानी के शबब बन गए। क्लास खत्म होने पर मैं किसी काम के लिए कॉलेज ऑफिस की ओर जा रहा था कि क्लास रूम के बाहर दाहिने छोर की झाड़ियों के पास कुछ लड़के गुपचुप बातें करते नजर आए। वह दृश्य कोई अजूबा तो था नहीं, फिर भी जब हवा में तैरता अरुन्धती का नाम मेरे कानों से टकराया, तब मैं चौंका। लड़कों के ग्रुप में मेरा एक घनिष्ठ मित्र जगत भी था, सो मैं निकट चला आया। निकट आते-आते इतना और सुनाई पड़ा ‘सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान अँधेरा छाने पर…’ तब तक मैं जगत के निकट चला आया। मुझे देखते ही उनकी बातें बंद हो गई। उनमें अधिकांश मेरे अपरिचित थे, शायद फोर्थ इयर के छात्र थे या हो सकता है बाहरी भी हों।

दो शब्द जगत के बारे में भी, तब बात और साफ़ होगी। जगत था तो दुबला-पतला, थोड़ा नाटा भी, पर गज़ब का तेज़-तर्रार! एक्स्ट्रा करिकुलर में ही नहीं, छात्र राजनीति में भी वह हमारा नेता था। उसके पिता कोई बड़े अधिकारी थे, इसलिए जगत, व्यवहार कुशल भी था और दबंग भी, दिमाग़ तो शातिर था ही।

खैर, जमात बिखर जाने के बाद मैं और जगत ही रह गए वहाँ पर। मैंने पूछा–‘काहे जगत, ई अरुन्धती के पीछे तुम काहे पड़े हो।’

‘उसके पीछे हम काहे को पड़ेंगे! लेकिन संकरवा, गोपला, सधुआ सब उसके पीछे पड़ल हैं।’ जगत बोला।

‘कौन है ई सब?’

‘तुम नहीं जानते हो इनको?’

‘नहीं भाय, जानबे करते, तो पूछते काहे को?’

‘ई कॉलेज का नामी है, जान के रखो।’

‘छोड़ो भी यार…है तो रहने दो। लेकिन ई सबका अरुन्धती से क्या मतलब?’

‘सांस्कृतिक कार्यक्रम में रहबो नहीं करेंगे…तू भी मत अइयो।’

‘ऐसा क्या है हो?’ मेरे कान खड़े हो गए थे।

‘हमको कुछ समझ में नहीं आ रहा है अपने…क्या कर सकते हैं हमलोग!’

यह कहते हुए जगत झटके से लपकते निकल गया। मेरे मन पर बोझ था। आखिर वे गुंडे लड़के अरुन्धती के पीछे क्यों पड़े हैं? सांस्कृतिक कार्यक्रम में अँधेरा क्यों और कैसे होगा? उस अँधेरे से अरुन्धती का क्या लेना देना? ये सारे सवाल मेरे दिमाग में गूँज रहे थे, सारा कुछ गड्डमड्ड हो रहा था। मुझे लगा कि कृष्णदेव से सलाह करूँ–कृष्णदेव मेरा आत्मीय मित्र था। हमलोग स्कूल में भी साथ थे, स्कूल के दिनों में वहाँ तिकड़ी मशहूर थी–वीरेन्द्र, कृष्णदेव और मेरी तिकड़ी। वीरेन्द्र का तो देहान्त हो चुका था, हैजे की चपेट में आकर–वह कॉलेज में भी नामांकन नहीं करा पाया था, गरीबी के कारण। सो कॉलेज में कृष्णदेव और मैं साथ थे।

उस दिन कृष्णदेव कॉलेज आया नहीं था, सो मैं उसके निवास पर गया–गेवाल बिगहा में एक कमरा किराया पर लेकर अकेले रहता था। पूछने पर उसकी मकान मालकिन ने बताया कि वह गाँव गया है, दो दिन बाद आएगा। मैं निराश-हताश अपने आवास पर लौट आया। मैं चाचा के साथ रहकर पढ़ता था, गेवाल बिगहा से कोई तीन-चार किलोमीटर की दूरी रही होगी। पैदल ही चला आ रहा था, मेरे पास साइकिल नहीं थी, कॉलेज भी पैदल ही जाता-आता था। इस पैदल यात्रा के दौरान दिमाग सरपट दौड़ रहा था। सांस्कृतिक कार्यक्रम में और अरुन्धती का रिश्ता तो साफ था। उस अवसर पर उसे नृत्य भी करना था और गायन भी। लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रम में अँधेरा और फिर उस अँधेरे से अरुन्धती का रिश्ता साफ नहीं हो रहा था। और फिर उन गुंडे लड़कों का सांस्कृतिक कार्यक्रम, उस दौर में अँधेरा और अरुन्धती के संभावित या आशंकित रिश्ते का धुँध साफ नहीं हो पा रहा था।

चलते-सोचते, सोचते-चलते जब मैं रेलवे गुमटी पर पहुँचा तब वहाँ एक हंगामा दिखा। लोग, एक पैंट-शर्ट पहने युवा की धुनाई कर रहे थे और वह रिरियाते-घिघियाते-रोते पिट रहा था। मालूम हुआ कि कुछ देर पहले जब एक मालगाड़ी धीरे-धीरे यार्ड की ओर सरक रही थी, तब गुमटी पर भीड़ इकट्ठी हो गई। भीड़ का फायदा उठाते उस युवा ने एक लड़की से छेड़खानी कर दी। लड़की के शोर मचाने पर लोगों ने उस युवा को धर-दबोचा। सहसा मेरे दिमाग में कौंध उठी और मेरे दिमाग में छाया धुँध छटने लगा, संभावनाओं या आशंकाओं की तस्वीर उभरने लगी–सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान अँधेरा कराया जाएगा, वे गुंडे लड़के अँधेरे का फायदा उठाते अरुन्धती को कब्जे में लेंगे, वहीं कहीं कोना-साँघी में ले जाकर अरुन्धती के साथ बलात्कार करेंगे या फिर उसे किडनैप कर, कहीं और ले जाएँगे। और फिर…। बार-बार संभावनाओं। अशंकाओं की एकानेक तस्वीरें उभरती-डूबती…मुझे पसीना आ गया। काँप उठा मैं भीतर से…बेचारी अरुन्धती!!! धीरे-धीरे मेरे भीतर एक संकल्प भी उभर रहा था…नहीं, मैं वैसा नहीं होने दूँगा। अरुन्धती की रक्षा करना, सहपाठी होने के नाते, हमारी जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी। लेकिन कैसे?

अरुन्धती के बारे में भी थोड़ा जानें कि आखिर उसी पर ऐसा संकट क्यों आशंकित था! उस सत्र में कॉलेज पहली बार को-ऐडुकेशन लागू कर रहा था। सो इंटर के फस्र्ट इयर में कुल तीन लड़कियों का नामांकन हुआ था। उनमें से एक तारा सिन्हा तो कॉलेज के गणित विभाग के अध्यापक की पत्नी थी–स्मार्ट और खूबसूरत। दूसरी थी निशा सिंह–खूब हट्टी-कट्टी, लंबी तगड़ी। अरुन्धती सेनगुप्त–मँझोले कद की औसत स्वस्थ देह के साथ बेहद नाजुक खूबसूरत भी थी। तारा या निशा को निशाने पर लेना, उन गुंडे सीनियर छात्रों के लिए उतना आसान नहीं था। पर अरुन्धती सौफ्ट टारगेट थी। शायद इसी कारण उस पर संकट के बादल मँडराए थे।

अब मैं यह तो नहीं कहूँगा कि मैं अरुन्धती के प्रति आकर्षित नहीं था, वैसा कहना बेईमानी होगा, लेकिन यह अवश्य है कि उस आकर्षण को निश्चित रूप देने की मंशा नहीं थी मेरी। यों, उसके संरक्षक बनने के मेरे संकल्प के पीछे भी उक्त आकर्षण का हाथ कुछ-न-कुछ अवश्य रहा होगा, यह स्वीकारने से कोई परहेज नहीं मुझे। एक अन्य घटना यहाँ बता दूँ तो बात और साफ हो जाएगी। वसंत पंचमी वाले प्रसंग में तो हमलोग सेकेंड ईयर में थे, संकेतित घटना पिछली होली के आसपास की है। कॉलेज से, छुट्टी के बाद मैं पैदल ही चला आ रहा था कि पीछे से जोरदार आवाज गूँजी…‘होली है ऽऽऽ…और लगाओ रंग-अबीर’ मैंने पीछे मुड़कर देखा तो रिक्शे पर अरुन्धती बैठी नजर आई। सामने चार-पाँच लड़के, रिक्शा रोक उस पर अबीर फेंक रहे थे। चेहरे पर अबीर मलने की कोशिश में लड़कों को अरुन्धती रेसिस्ट कर रही थी। वह जोर से चिल्लाई भी–‘ओ माँ! इत्ता रंग? लौटाओ…लौटाओ।’ रिक्शेवाले ने रिक्शा मोड़ना चाहा तो लड़कों ने उसे रोका। तब तक मैं दौड़ता हुआ पहुँच गया। लड़कों को मैंने रोका, हाथापाई भी हुई, कुछ थप्पड़-घूसे भी चलें। आसपास के लोग भी आ गए थे, सो उन लड़कों की हल्की धुनाई भी हुई। रिक्शा पीछे मुड़ा कॉलेज की ओर, पीछे-पीछे लपकता मैं भी चला–कॉलेज-गेट से कोई तीन-चार सौ मीटर की दूरी पर वह सब कुछ हुआ था। सो, तुरंत अरुन्धती वाइस प्रिंसिपल के कमरे में चली गई, पीछे-पीछे मैं भी था। अरुन्धती ने वाइस प्रिंसिपल को, रोते-रोते सब बताया। मैंने भी गवाही दी। वाइस प्रिंसिपल, मेरे परिचित थे, रिश्ते में मेरे दूर के बड़े भाई होते–मेरे बड़े फुफेरे भाई के फुफेरे भाई।

फिर मामला शांत हुआ। वाइस प्रिंसिपल ने कॉलेज के दो तगड़े चपरासी को साथ कर दिया। मुझे भी आदेश हुआ कि अरुन्धती को घर तक पहुँचाऊँ। सो, मैं भी रिक्शे पर ही बैठ, अरुन्धती के साथ उसके घर तक आया। वहाँ हमें धन्यवाद-आभार के साथ ही, संदेश-समोसे और चाय से स्वागत मिला। लेकिन उक्त घटना-दुर्घटना से मैंने कोई पूँजी नहीं बनाई, अरुन्धती से निकटता बढ़ाने का कोई प्रयत्न हमने नहीं किया। दरअसल मैं उसके प्रेम के काबिल हो भी नहीं सकता था। अरुन्धती सुसंस्कृत उच्चमध्यवर्गी बंगाली परिवार की थी और मैं ठहरा खाँटी देहाती, किसान परिवार का जो जब कभी फटा पैजामा-कमीज पहनकर भी कॉलेज चला आता था, जबकि अरुन्धती हमेशा सौफिस्ट के ट्रेड सौम्य वेषभूषा में रहती थी। वैसी कोई आकांक्षा या कामना मेरी थी भी नहीं। हाँ, आयुजन्य एक सहज आकर्षण जरूर था।

एक दिन बाद फिर कृष्णदेव के आवास पर गया, वह आ गया था, एक दिन पहले ही। मैंने उसे पूरी कैफियत, सविवरण बतलाई तो वह गंभीर हो उठा। कृष्णदेव संस्कारी युवक था, मुझसे साल-दो साल बड़ा। उसके मामा जी, कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर थे और गया में ही रहते थे। पर कृष्णदेव खुद्दार इतना था कि अपने मामा जी के साथ रहने की बजाय वह एक छोटी कोठरी में रहना पसंद करता था। खुद ही खाना बनाता, कोठरी को साफ-सुथरा, झाड़ू-बुहारु करता था। वह तो कपड़े भी धोबी से न धुलाकर स्वयं साफ करता और उन्हें इस्त्री भी करता। उसकी खुद्दारी और दृढ़चरित्र के हम तब भी कायल रहे।

मेरी बातें सुनकर वह बोला–‘यार! यह तो बहुत ही गंभीर मसला है। उन गुंडे लड़कों के घृणित षड्यंत्र को कैसे रोका जा सकता है, यह सोचना पड़ेगा।’

‘इसकी सूचना वाइसप्रिंसिपल को दें क्या हम?’ मैंने पूछा।

‘नहीं, उससे कोई लाभ होगा या नहीं, कहना मुश्किल है, सिर्फ तुम एक्सपोज हो जाओगे, जो तुम्हारे लिए खतरनाक हो सकता है।’ कृष्णदेव की आशंका सही थी। तो?

अब क्या और कैसे कुछ करना है, यह सोचना था और यह भी हमें एक्सपोज नहीं होना है। उन गुंडे लड़कों से सीधे हम भिड़ नहीं सकते थे।

समस्या गंभीर थी और समाधान टेढ़ा। चिंतित हम दोनों थे। उन गुंडों से हम टकरा नहीं सकते थे, रोक भी नहीं सकते। हम उधेड़-बुन में पड़े-पड़े विषण्ण से हो चले थे–अगले दिन ही सरस्वती पूजा थी। हमें जो भी करना था, तुरत-फुरत करना था।

कृष्णदेव ने स्टोव पर चाय बनाई। चुपचाप, भारी मन लिए भारी माहौल में चाय की चुस्कियाँ लेते रहे। कृष्णदेव ने पूछा–‘कहाँ रहती है वो।’

‘ठीक-ठीक तो नहीं, पर एक अनुमान जरूर है।’ मैंने कहा।

‘कहाँ?’

‘अब, महल्ला का नाम तो याद नहीं, शायद कोयरीबारी है।’

‘अच्छाऽऽ, लेकिन ऊ तो बड़ा महल्ला है, उसमें कहाँ?’

‘कोयरीबारी से आगे चाँदचौरा जाने के रास्ते में बायाँ पट्टी जो मोड़ है, ओकरे कोना पर के मकान में शायद!’

‘ई तुम कैसे जानते हो?’ कृष्णदेव ने तीखे स्वर में पूछा।

‘अरे भाई! उधरे मेरी बड़ी बहन रहती हैं। उसी के यहाँ हम एक दिन जा रहे थे, तब उसी मोड़ पर के एक मकान में, रिक्शा से उतरकर जाते हुए देखा था–बस। हमको लगता है कि वहीं रहती है।’

कृष्णदेव बोला–‘ठीक है…चलो, पता करते हैं।’

और कृष्णदेव की साइकिल के पीछे मैं बैठा। गेवाल बिगहा से नजदीक ही था। उस मोड़ के पास पहुँचकर, कृष्णदेव ने अगल-बगल किराये की कोठरी की तलाश शुरू की। पूछते-पूछते उस मकान पर भी गए। नीचे जो सज्जन रहते थे, उन्होंने बताया कि मालिक ऊपरी तल पर रहते हैं, उनसे पूछिए।

कौन हैं मालिक, पूछने पर उसने बताया कि डॉ. सेनगुप्ता हैं, डॉक्टर हैं कहीं अस्पताल में, परिवार यहीं रहता है।

बहरहाल, हमलोगों का काम हो चुका था–जब डॉ. सेनगुप्ता मकान-मालिक हैं तो अरुन्धती के पिता ही होंगे, यह हमारा अनुमान था। हम लौटे और लौटते समय साइकिल के पीछे बैठा मैं, उस मकान के पहले तल्ले की ओर ही देख रहा था कि अरुन्धती नजर आई। मैंने कृष्णदेव को चौंककर बताया।

कृष्णदेव के डेरे पर लौटे। उसने एक कार्यक्रम बनाया और बोला कि कल्ह आओ भोरे छह-साढ़े-छह तक हमलोग कुछ करेंगे। दिमाग पर बोझ लादे मैं घर लौट आया। रात भर ठीक से नींद भी नहीं आई, अधनींदी अवस्था में तरह-तरह के चित्र बनते-बिगड़ते रहे, जिनमें आशंकित बिंब ही अधिक थे। सुबह-सुबह, जैसे-तैसे तैयार होकर मैं घर से निकला, चाची को यह कहकर कि शाम को लौटने में देर होगी। साढ़े छह के करीब कृष्णदेव के पास पहुँचा। वह नाश्ता कर रहा था। फरही-फुटहा-भेलवा देख जी भी ललचाया, सो कुछ फाँक मैंने भी लगाए।

बहरहाल, सात बजे के करीब हमलोग निकले, कृष्णदेव साइकिल चला रहा था, मैं पीछे बैठा। पहले हमलोग अपना स्कूल पहुँचे। वहाँ अभी पूजा की तैयारी हो रही थी। मालूम हुआ कि ग्यारह बजे से प्रसाद वितरण होगा। अभी बहुत देर थी। अब? दरअसल हम अपनी समस्या का समाधान नहीं ढूँढ़ पा रहे थे–साइकिल पर की भटकन वस्तुतः हमारे मन की भटकन थी। खैर, स्कूल से हम चले और भटकन अनजाने में ही बहुत दूर ले आई, फलगू पुल पार करके हम दोनों मानपुर के एक बगीचे में चले आए थे। एक अमरूद के पेड़ के नीचे बैठे, कुछ गिरे अमरूद खाते रहे, तामरस भी खाया। पर, फिर वही भटकाव! सहसा कृष्णदेव ने कहा–‘यार! हमलोग क्या कर सकते हैं? प्रिंसिपल को सूचित करने में खतरा है। उन गुंडे-लड़कों से हम टकरा भी नहीं सकते। तो…क्या करें?’

मैंने बड़ी बेचारगी से कहा–‘तुम्हारी बात सही है। बेचारी अरुन्धती तो बेमौत मारी जाएगी! और अगर वैसा हुआ तो हमलोग जिंदगी भर ग्लानि से उबर नहीं पाएँगे–वह

तो बिल्कुल बेखबर है यार! निरीह अनजान!’

‘तो क्यों न हमलोग अरुन्धती को ही खबर कर दें?’

मैं अचकचाया–‘हाँ, यह भी ठीक है, पर कैसे?’

‘क्यों न उसको चिट्ठी लिख दें?’

‘हाँऽऽ और पोस्टमैन उसको आज ही चिट्ठी भी पहुँचा देगा! वाह!’

‘अरे नहीं भाई! उसके घर पर भिजवा दें चिट्ठी, किसी तरह तो कैसा रहे?’ कृष्णदेव ने अपना पक्ष रखा।

मैंने कुछ सोचते हुए कहा–‘अगर वैसा हो सके तो, अति उत्तम! पर कैसे भेजेंगे चिट्ठी?’

‘ऊ बाद में सोचेंगे। पहले चिट्ठी तो लिखो। उसका ड्राफ्ट कैसा होगा? लिखो तो पहले!’

‘मैं तो नहीं लिखूँगा। वे मेरे साथ ट्यूटोरियल में भी है। कहीं मेरी हैंडराइटिंग पहचान गई तो बस! लेने के देने पड़ जाएँगे।’

‘तो उसमें क्या है हम लिखेंगे।’ कृष्णदेव बोला, ‘हिंदी नहीं अँग्रेजी में लिखेंगे और हैंडराइटिंग की पहचान से बचने के लिए ऑल कैपिटल अक्षरों में लिखेंगे।’

‘अरे वाह! गुड आइडिया।’

‘ठीक! अब सोचो कि क्या लिखना है’

फिर कोई आधे घंटे सोच-विचार के बाद ड्राफ्ट तैयार हुआ। कृष्णदेव ने अपनी जेब से कागज निकाला और लिखा–

‘ARUNDHATI! DO NOT ATTEND THE FUNCTION TODAY. YOU ARE IN DANGER MAY BE KIDNAPPED.’ – WELWISHERS

मानपुर से हमलोग बाय में लौटे, कोई सात-आठ किलोमीटर की दूरी लगभग दस-पंद्रह मिनट में पूरी की–कृष्ण्देव पसीने-पसीने था–अरुन्धती के घर वाली सड़क के मोड़ पर हम खड़े थे, साइकिल किनारे लगाकर, एक खंडहर की छोटी दीवाल की ओट में। सामने, मोड़ से दो मकान आगे अरुन्धती का मकान था, उसके ऊपरी तल्ले की खिड़की खुली थी–दोनों पल्ले…।

अब सवाल यही था कि वह पत्र अरुन्धती तक पहुँचाया कैसे जाए? हम तो जा नहीं सकते थे, एक्सपोजर के डर से, पर उसकी जिंदगी, मान सम्मान भी तो दाँव पर था। तो? इसी उधेड़बुन में कोई पंद्रह-बीस मिनट गुजर गए। तभी खुली खिड़की पर एक आकार उभरा–लंबे बालों को झटके देकर सुखाते। आकार-प्रकार से तो अरुन्धती ही लगती थी। हो सकता है कि वह कॉलेज जाने की तैयारी में हो–हमें पसीना आ गया। तभी उसके मकान के निचले तल्ले की सीढ़ी पर एक पाँच-छह साल का बच्चा नजर आया। उछलता-मचलता वह सीढ़ी से उतरा और सड़क की मोड़ की ओर दौड़ता आने लगा–जहाँ हम खड़े थे। एक-दो मिनट में वह हमारे निकट था। कृष्णदेव ने उसे कंधे से पकड़ा और बोला–‘अरे बल्लू! कहाँ जा रहा है दौड़ता?’

वह बच्चा नरभसाया, शायद उसका नाम बल्लू ही था। बोला–‘कहीं नञ्।’

‘फिर भी!… कुछ लेना है क्या?’ कृष्णदेव ने कुरेदा, बच्चा बोला–‘कुछ नञ्! दीदी लगी पान लावे।’

यह एक सूत्र था, सो कृष्णदेव ने उसे एक लेमचूस देते हुए पूछा–‘कौन दीदी रे?’

बच्चे ने अँगुली से इशारा करते कहा–‘ऊ दीदी।’

उसका इशारा खिड़की की ओर था। कृष्णदेव ने उसे एक लेमचूस और दिया और बोला–‘हम्मर भी एक काम कर भाई?’

बच्चा अब लेमचूस के लालच में पड़ गया था, सो बोला–‘की, कौन काम?’

कृष्णदेव ने एक लेमचूस और देते हुए चिट्ठी उसको थमा दिया और बोला कि–‘देख, ई जरूरी चिट्ठी हई, आपन दीदी को दे दिहो।’

लड़का पहले तो हिचकिचाया, पर कृष्णदेव के हाथ में लेमचूस देखकर ललच गया और बोला–‘ठीक, देबो।’

हमने उसे पान खरीदकर दिया, वह पैसा देने लगा तो कृष्ण ने उसे मना किया–‘ना…ना…ई पैसा तू ही रख। और देख चिट्ठी दीदी को ही देना, और चिट्ठी देके आऊ तो और लेमचूस और पैसा देंगे। जो दौड़ के…जल्दी से।’

वह लड़का दौड़ता पल भर में सीढ़ियाँ चढ़ गया और कुछ ही क्षण में खिड़की के पास उस बाल झटकती लड़की के सामने नजर आया। बच्चे की चिट्ठी उस लड़की ने देखने की कोशिश की–वह अरुन्धती ही थी। हम आश्वस्त हो गए–चिट्ठी बार-बार पढ़ते जरूर नजर आई, जिससे उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान तो हो ही गया, सो हमलोग सरपट भागे। इस बार साइकिल मैं चला रहा था, कृष्णदेव रोड पर बैठा था–मौन…निःशब्द। कृष्णदेव के डेरे पर पहुँचे। करीब साढ़े ग्यारह बज चुका था। सुबह जाते समय ही कृष्णदेव ने अपने कुकर में अतिरिक्त चावल-दाल चढ़ा दिया था और आलू भी। हम दोनों ने जल्दी-जल्दी आलू के भुर्ते के साथ खिचड़ी खाई और करीब दो बजे कॉलेज पहुँचे और सन्न रह गए–एकदम सन्नाटा था। कहाँ तो हमलोग ने पूजा और शाम के सांस्कृतिक कार्यक्रम की गहमा-गहमी की उम्मीद की और कहाँ यह सन्नाटा!

कुछेक लड़के ही थे। तभी शामियाने के खंभे पर चिपकी नोटिस पर नजर पड़ी–‘अपरिहार्य कारणों से आज के सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम स्थगित किए जाते है।’

प्राचार्य!

वजह? कुछ समझ में नहीं आया। तभी बिसुनी सिंह, पर नजर पड़ी–बिसुनी कॉलेज का चपरासी था। हम उसके पास आए और पूछा–‘काहे हो बिसुनी! ई नोटिस?’

बिसुनी ने हमें ऊपर-नीचे नापा। फिर बोला–‘आपलोग नहीं जानते हैं?’

‘नहीं, कुछ बताओ तो सही! हमलोग तो अभी घरे से आ रहे हैं।’

‘सेई से! तो जानिए कि मेन होस्टल पर पुलिस के छापेमारी होल हे।’

‘काहे ले?’ कृष्णदेव ने पूछा।

‘अरे का कहें बाबू। आप ही लोगन के साथ न शमीम भी रहे? ऊ होस्टल में रहत रहे, से काल्हे रात में तीन चार ठो गुंडा लरिकन सब उसको दबोच लिया–ऊ तो शमीम के जान बच गिलई, नञ् तो जे दसा ऊ चारों मिलके उसका किया, सो भगवान बचावे–बेचारा शमीम तो अस्पाताल में पड़ा है, खून चढ़ रहा है अभी, पूरा होस भी नहीं आई।’

‘अरे! छूरा मारा है कि गोली?’

‘अरे नञ् बाबू!’

‘तो?’

सहसा शमीम का चेहरा उभर आया, हमलोगों के साथ ही था–गोरा-चिट्ठा, नाटा लड़कियों-सा उभर आया वह, हमलोग उसे नाज़नीन भी कहते थे, कभी-कभी।  

‘ओह! समझ गए…बेचारा…कौन सब धराया है?’

‘अरे, उहे सब धिरेन्द्रा, किशुनी सिंह, रमेसर सिंह और जब्बार। सभ्भे के थाना पर खूब कुटाई होलई, तो कबूल कर लिया। तोहनी सब भी अब घर जा, अब कौनो प्रोगिराम ना हो तो।’

और वह खिसक गया। मैं और कृष्णदेव हक्के-बक्के थे, पर कहीं गहरे संतोष में भी थे। ‘अरुन्धती, आज के शब्दों में ‘निर्भया’ होने से बच गई!’


Image : Study
Image Source : WikiArt
Artist : Ilya Mashkov
Image in Public Domain