समझौता

समझौता

नगर सेवा की सरकारी बस में सवार होते ही आगे की सीट पर बैठी मुहल्ले की एक परिचित शिक्षिका पर नजर पड़ी तो मैं उसी के पास खाली पड़ी सीट पर बैठ गया।
‘आप कहाँ तक जाएँगी?’ मैंने पूछा।

‘दानापुर तक…इन दिनों मैं दानापुर के ही एक विद्यालय में पदस्थापित हूँ।’

‘अच्छा तो आप इन दिनों दानापुर में ही पढ़ाती हैं?’

‘हाँ, दानापुर बाजार में ही मेरा विद्यालय है…यह बस मुझे मेरे स्कूल के गेट तक छोड़ देती है।’

‘तब तो आप डेली इसी बस से जाती होंगी?’

‘हाँ, लौटती भी हूँ इसी बस से।’

बातचीत का क्रम अभी जारी ही था कि बस हिलती-डुलती हुई, सवारियों को चढ़ाती हुई तेजी से गंतव्य की तरफ बढ़ने लगी। तभी उस बस का कंडक्टर करीब आकर खड़ा हो गया। मैंने दस का नोट उसकी तरफ बढ़ाया और टिकट लेकर जेब में रख लिया।

शिक्षिका ने भी कुछ सिक्के कंडक्टर की हथेली पर रख दिये जिसे गिने वगैर ही पॉकेट में डालकर वह आगे बढ़ गया। कंडक्टर को बेफिक्र आगे बढ़ते देख मैंने शिक्षिका को टोका–‘बहन जी, आपने टिकट क्यों नहीं माँगा?’

वह मुस्कुराई। बोली–‘टिकट माँगूँगी तो दस रुपये देने होंगे…वैसे पाँच रुपये में काम चल जाता है।’

‘मतलब कि…’

‘मतलब हमलोग के बीच एक समझौता है।’ शिक्षिका ने बात स्पष्ट की।

‘मगर इस तरह के समझौतों से तो सरकार को भारी घाटा होगा…।’

‘सरकार को घाटा होगा तो होने दीजिए…इससे मुझे क्या लेना-देना…।’ शिक्षिका ने बेलौस अंदाज में जवाब देकर अपना मुँह बस की खिड़की की तरफ फेर लिया ।


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रामयतन यादव द्वारा भी