खुशियों की सौदागिरी
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- 1 August, 2016
खुशियों की सौदागिरी
एक वर्ष भी नहीं बीता होगा मेधा को अमेरिका आए, लेकिन उसमें आया बदलाव मुझे साफ-साफ नजर आने लगा है।
चंद्रा लोगों के यहाँ से तो नहीं लेकिन शायद निलय बख्शी के घर से लौटते-मेधा बेसब्र हो गई। इतनी कि लौटकर अपने अपार्टमेंट की चाबी घुमा कर अंदर दाखिल होने तक उसकी बेसब्री बाहर आ गई।
क्लॉजेट के हैंगर में जैकेट टाँग कर, पैरों में स्लीपर डालते-डालते बोली–‘सुनो वेणु! तुम्हारे दोस्तों की कोई लॉटरी खुली है क्या?’
मैं अटपटाया। उसका लहजा में सहज विनोदी तो हर्गिज नहीं था, उल्टे थोड़ी तुर्श का आभास। जवाब सूझना आसान नहीं था। किंचित आशंकित, मैंने जवाब में सवाल कर दिया–‘मतलब?’
‘मतलब यही कि ये लोग भी तो इंडिया से आए हैं। तुम्हारी ही जैसी डिग्रियाँ और जॉब वाले। फिर हमसे बड़ा अपार्टमेंट, अच्छी कारपेट, कैटलरी, क्रॉकरी तक इतने अच्छे!’
मैंने टरकाया, ‘तुम्हें अच्छे लगे–पता नहीं, मुझे तो ज्यादा ही भड़कीले…’
‘मेरा मतलब ‘कीमती’ से था, सारी चीजें बेटर क्वालिटी की…’
‘होंगी…मुझसे तीन-चार साल सीनियर भी तो हैं…’ कपड़े बदलते हुए मैंने दुबारा बात टरकानी चाही।–लेकिन मेधा जैसे सही जवाब पर तुली हुई थी–‘तो क्या तीन-चार साल में हमारे पास भी उन लोगों जैसा हो जाएगा?’
‘हमारा घर उन लोगों के घर जैसा क्यों होगा मेधा–हमारा घर हमारे घर जैसा होगा न! क्या तुम्हें अपना घर अच्छा नहीं लगता?’
‘अच्छे-खराब की बात नहीं…मैं अपने घर भी उनके जैसी चीजें लानी चाहती हूँ…’
थैंक गॉड, मुझे चिढ़ने का एक पुख्ता कारण मिल गया–‘ठीक है, तुम उन दोनों के घरों की चीजों की लिस्ट बनानी शुरू कर दो।’
मेधा ने मेरे जवाब में घुले कटाक्ष को महसूस किया। वह जवाबी वार में पीछे कैसे रहती–
‘फिर तो सौरभ शुक्ला और तापस बैनर्जी के घर की चीजों की भी लिस्ट बनानी होगी–क्योंकि एक तुमसे सिर्फ तीन साल सीनियर हैं, दूसरा लगभग साथ का।’
मेरे जवाब में एक तिलमिलाहट भरी, लाचार नाखुशी थी–‘घर तुम्हारा, तुम्हारी मर्जी…तुम अपना घर कैसे रखना चाहती हो–यह तुम्हें तय करना है।’ मेधा ने एकबारगी अपनी आँखें मुझ पर गड़ाते हुए–एक शब्द पर जोर देते हुए कहा–‘यह क्या सिर्फ मर्जियों का ही सवाल है वेणु! और क्या ‘मेरी मर्जी’ जैसी चीज सचमुच तुम्हारी नजरों में कोई अहमियत रखती है?’…
अब मैं बात समाप्त करने के लिए बेसब्र था, सतर्क भी–लाओ स्टॉम्प पेपर पर लिख दूँ…और यह लो घर की चाबी, अभी से तुम्हारे सुपुर्द करता हूँ–कहते हुए मैंने अतिरिक्त प्यार जताते हुए बाँहें फैला दीं–जिन्हें उतने ही करीने से एक तरफ करती हुई मेधा के स्वर में अब साफ-साफ व्यंग्य झलक आया था–
‘मैं तो यह जानती हूँ कि आज तक जब भी मेरा मन किसी चीज पर आया है, अपने लिए, या घर के लिए, तो तुम फौरन उसकी बेजरूरती साबित करने पर तुल गए हो। अभी पिछले हफ्ते ही तो ‘कोल्स’ में जैकेट देखी थी, ‘मार्शल्स’ से एक क्रिस्टल-वाज लेना चाहा था। दोनों चीजें तुमने उठाईं, घुमाकर ‘प्राइज टैग’ देखा और वापस रख, मुझे आगे बढ़ा दिया। ये तो सिर्फ अभी-पिछले हफ्ते वाले उदाहरण हैं, ऐसे-ऐसे न जाने कितनी बार…’
‘तो तुम चाहती हो, फायदे, नुकसान की कोई बात मैं तुम्हें न समझाया करूँ…तुम जिस चीज पर हाथ रख दो, वह उसी क्षण तुम्हारी हो जानी चाहिए…वही चीज एक स्टोर में पैंतीस डॉलर की मिलेगी, दूसरे में पच्चीस की और कुछ दिनों बाद सेल में पंद्रह की भी मिल सकती है। तुम तो खुद डॉलर को रुपयों में तब्दीलियाँ करने में सिद्धहस्त हो, यह जरूर समझती होगी कि पाँच-दस डॉलरों की भी अपनी कीमत होती है। मुझे सोच समझ कर खर्च करने की तरकीबें समझाती हो…जो जैकेट तुमने पसंद किया था, वह सीजन खत्म होने तक तिहाई कीमत का हो जाएगा–’
‘तो अपनी पसंद की चीज मुझे तब मिलेगी जब वह पुरानी पड़ पूरे बाजार द्वारा खारिज की जाकर सेल में मिलेगी। तब तुम उसे प्रेजेंट करोगे अपनी महबूबा को–’
‘महबूबा’ पर मुझे हँसी आ गई। ‘यार तुम्हारे इस गुस्से पर मुझे महबूबा-महबूबा गाने का मन कर रहा है…क्या है इसके बाद?–गुलशन में गुल खिलते हैं, जब सहरा में मिलते हैं–पासा उल्टा पड़ गया। मेरी बात उसे खुश करने के बदले तिलमिला गई। वह मजाक के मूड में बिल्कुल नहीं थी। सीधे प्वाइंट पर आना चाहती थी। लेकिन मेरे लिए भी बचाव के रास्ते ढूँढ़ने जरूरी थे। इतना नादान मैं भी नहीं था कि मेधा का आशय न समझ सकूँ लेकिन ‘प्रच्छन्नता’ की आड़ अगर मेधा के लिए एटीकेट का तकाजा थी तो मेरे लिए बचाव का एकमात्र सुरक्षा कचव।
मेधा चाहती तो एक झटके में मुझे उखाड़ सकती थी लेकिन शिकार को घेर कर वार करने का मजा ही कुछ और है। शायद वह मेरे ही मोहरों से मुझे परास्त करने की ताक में थी।
लेकिन अचानक की मेरी मसखरी मुझे भारी पड़ी। मेधा ज्यादा गुस्से या ज्यादा तिलमिलाहट से हुमस कर रो पड़ी। मैं अकबकाया सा उसे मनाने बढ़ा तो उसने झटक दिया। मैंने दुबारा सॉरी कहा और कबर्ड से अपना वॉलेट निकाल उसकी तरफ डालते हुए कहा–आज से इसे तुम्हीं रखो–तुम इसकी मालकिन–खुश? ‘वह रोते-रोते वॉलेट फेंक कर चीखी–‘मुझे खाली वॉलेट्स रखने का शौक नहीं’–
–‘अब तुम्हारे लिए चोरी के नोटों से भरा बटुआ तो मैं लाने से रहा’–
‘तुम्हारा मतलब, निलय बख्शी और विशाल घाटे चोर हैं…एक तुम्हीं जमाने में।’
–‘मैं अपनी जानता हूँ, मेधा।…और मेरी कोई दूसरी महबूबा, सॉरी ‘मेधा’ भी नहीं है…आज से यह वॉलेट और सेविंग्स अकाउंट भी तुम्हारे हवाले करता हूँ। तुम निलय बख्शी से लेकर चंद्रा अंकल तक, हर किसी के घर की साज सज्जा से तुलना कर’–
–मेधा वापस बिफरी–‘मैंने चंद्रा लोगों का नाम भूल से भी नहीं लिया। मैं हमेशा फैक्ट्स की बात करती हूँ, जमीनी और व्यावहारिक…’
–अचानक मैंने अपने क्षोभ को थमते हुए पाया–‘एक बात बताओ मेधा! ‘घर’, क्या निलय बख्शी के सोफे, विशाल घाटे के पर्दों और चंद्रा अंकल के एन्टीक्स के बिना नहीं बनाया जा सकता? तो ठीक है–हर का अपना एटीच्यूड है। मैंने सोचा था, हम दोनों की मर्जी से घर चलेगा–मुझे सादा, शालीन सा घर अच्छा लगता है–ज्यादा तड़क-भड़क पसंद नहीं–’
मेधा फिर भड़की। ‘शालीन का मतलब घिसी हुई कारपेट और बिना टेबुल क्लॉथ का टेबुल नहीं हुआ करता–सादगी और शालीनता का मतलब मैं भी जानती हूँ।
मन में तो आया, कहूँ–‘तुम्हारी बैठक में भड़कीले मखमली सोफों से तो नहीं लगता…न नक्काशीदार शीशों से…? लेकिन प्रगट में सिर्फ इतना कहा–‘वही समझ लो…सच कहूँ तो उतने शौक भी मैं नहीं पालता…कुछ ज्यादा खास इच्छाएँ भी नहीं…हाँ, खुशियाँ बराबर मुझे बिना माँगे मिलती रही हैं और जीवन खुशहाल ही रहा है। पर अब, मेरी खुशी तुम्हारे साथ जुड़ी है। और अगर तुम खुश नहीं हो तो मेरे सारे…’
मेधा के आँसुओं ने रुख बदला–‘यानी मैंने तुम्हारी खुशी छीन ली?’
‘यह मैंने कहाँ कहा–और अगर थोड़ी बहुत भूले भटक छीनी भी है तो बहुत सारी खुशियाँ देने वाली भी तो तुम्ही हो।…तुमसे अलग मेरा कुछ नहीं है मेधा, मैंने गलत समझा, इसलिए अब के मैं सॉरी बोलूँगी’…
‘जानता था…जानता हूँ, तुम बहुत समझदार हो’…मैंने उसे समेटते हुए बेड स्विच ऑफ कर दी।
Image : The Breakfast Table
Image Source : WikiArt
Artist : John Singer Sargent
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