साँप

साँप

पेट की भूख। लत्ता-कपड़ा की भूख। छत-छाया की भूख। इनके बाद बड़ाई की भूख हुआ करती है।

लखीनाथ सपेरा ने हाथ से पीतल का कड़ा निकाला। कानों में पहने कुंडल निकाले। बूड़ा रेत और घास की जड़ से रगड़-रगड़, मल-मल खूब धोए। चमक सोना को मात देने लगी। उसने कड़ा हाथ में पहना, कुंडल कानों में। चौखाना की नई लूँगी बाँधी। गेरुवा कुरता पहना। अँगोछा कंधे पर लिया। काँच (आईना) देखते सिर के बीचों-बीच माँग निकाली। दो भाग बँटे बाल आधे दायें कधे पर, आधे बायें पर। बालों की छितर कर्ण-कुंडलों की आभा भाषित थी।

उसने काँच नीचे रखा। सरसों के तेल से हाथ सान कर मूँछों की नो ऐसे सूतीं, ऐसे बलीं, ऐसे मुरेड़ी कुन्ही (मुर्रा) भैंस के घुंडी खाए सींग। खुंटियायी दाढ़ी अंकुआए खेत-सी मोहक थी। माथे पर भभूत का तिलक लगाया। कानों की लवें भभूत टीप की। काँच लिया। चेहरा निहारा। बिंब देख मुग्ध हुआ, कितना सुंदर सजीला है, सपेरा। एक बार तो उसका मन हुआ था, बीन ले और लहरा उठाता डेरों की ओर चल, सोच-विचार रह गया। कुरम की जूतियाँ पहनीं। वह ठसक भरे कदमों डेरे से बाहर निकल आया था।

बीरबानी की नाईं बन-ठन, सज-सँवर डेरों की ओर निकल रहे पति लखीनाथ को रमतीबाई लखती रही। ओठों पर अँगुली रख कर फुसफुसाई–‘लागै, गुलाबी के डेरे जावागो सीधो।’

वह ओले-ओले (चुपके-चुपके) हँसा और आगे बढ़ गया था।

पूरा चक प्लॉट-प्लॉट घुमंतुओं की खतौनी हो गया था। एक कोने में चार-पाँच प्लॉटों की जगह शेष रही। वहाँ बच्चे, रेत-रेत खेलते, रेतम-रेत हुए रहते, गुल्लक घरगुल्ले बना कर आसमान सर पर उठाए रहते, एक दूसरे से लड़-भिड़ चुटका-बुटका हो जाया करते, नए-नए कपड़े पहने ऐसे प्रतीत होते थे, बारात आए हों, मेले जा रहे हों। फूलों की टोकरी-सी एक बाल टोली सड़क पर उतरी थी। तीन बच्चे लूगड़ी बिछाए बात कर रहे थे। गेंदा, गुलाब, कमल के फूल सरीके बच्चे मन-मन मगन हुए जाते थे। लखीनाथ बच्चों के पीछे जा खड़ा हुआ था, क्या बतियाते हैं। बालकों की नज़रें एक-दूसरे के कपड़ों पर टिकी थीं और बातों में लीन थे।

आठेक साल का एक लड़का स्लेटी रंग की नेकर और नीले रंग की अधबाँह कमीज पहने बैठा था। उसने अपनी कमीज का छोर पकड़ कर कहा–‘इब नया लत्ता आ गया। ना रेत में बैठूँ, ना रेत में खेलूँ।’ फ्रॉक और चड्डी पहने बैठी सातेक साल की लड़की बोली–‘इब तो मकान बण रियो, छात पे बैठूँगी।’

तीसरा लड़का भूरे रंग की नेकर और सफेद कमीज पहने बैठा था। उसने चिहुँककर कहा–‘लखी काका ने डेरा हटवा दिया। पक्का मकान बनेगा। उका टाबर के लार पढ़ण जावाँगा हम भी।’ बाल सुलभ बातें सुनकर लखीनाथ फूलकर कुप्पा हुआ। बड़े-बूढ़े छोड़ बच्चों के मुँह तक उसकी बढ़ाई है।

गुलाबी का प्लॉट सामने ही था। वह नए कपड़े पहने, अपने प्लॉट की नींव पर खड़ी खेलते बच्चों को देखे जाती थी। तेईस की उमर। कोख दीगर।

लखीनाथ के कदम सायास उसके प्लॉट की ओर बढ़ गए थे।

गुलाबी! गुलाबी रंग के सूट-सलवार पहने सितारों जड़ी चुन्नी सिर पर ओढ़े थी। लिबास उसके गेहुँवा रंग पर सोने पे सुहागा था। वह नाक में वैसा ही नगदार काँटा पहने थी, जैसा रमती पहने थी। कानों में बालियाँ थीं, जैसी रमती के कानों में थी। उसका एक कान दुपट्टे से ढँका था। दूसरे कान की चाँदी की झूलती बाली पर चढ़ते सूरज की धूप छिटक उसके रक्ताभ चेहरे पर गिर रही थी। नयनों अंजी स्याही की अलग ही धार थी।

लखीनाथ ने उसकी ओर देखा कि देखता ही रह गया, अपलक। आँखें फैलीं, कौंधीं, चुंधियाईं। आश्चर्य से माथे पर सलें उभर आईं। गुलाबी! भाभी गुलाबी! गुलाब का फूल। वह उसके निकट जा खड़ा हुआ और नेत्रों की टिमटिमाहट रोक कर हँसता-सा बोला–‘वाह! भाभी वाह! बिजली गिरैगी।’

‘हुँ। बीजली-वीजली कुछ ना गिरै।’

‘मेरी तो आँख धोखो खा गई, भाभी। सिरकारी महकमा की मेम आई।’

‘हुँ।’ लखीनाथ के मुँह अपनी प्रशंसा सुनकर गुलाबी का चेहरा मटका और हँसी मुखर हुई।

‘कहूँ, भाभी आज तो घणी सुथरी लाग्यी नया कपड़ा में। मेम-सी।’ उसने चुहल की। गुलाबी के लोचन क्षितिज हुए। ठोड़ी पर हथेली रगड़ कर अधरों की पुलकन थामती बोली–‘क्यूँ, मन आ गयो देवर?’

तेईस की भरी जवानी। लकवा मारा पति। कोख-गोद सूनीं। भाभी की बात का हमउम्र लखीनाथ क्या जवाब दे। नारी मन झेंप गया। नाड़ नीची करके बोला–‘ना भाभी, ना। मैं तो रूप ने रूप कहूँ, बस।’

उसने अपने होंठ दबा कर चुटकी ली–‘ओ सहरवाली से भी घणो?’

डाह-ताना। हास-रास। भाभी की हँसी। वह शर्मसार हुआ और मन चोट लगी। आँखें झुक गईं। पैर जड़ हो गए। शब्द ओठ घुट कर रह गए। सिटपिटा कर इधर-उधर देखकर बोला–‘भाभी पाणी प्या।’

गुलाबी शहर से जरी का बटुवा खरीद कर लाई थी। बीच चौकोर काँच जुड़ा था। नाड़े बँधे लटकते बटुवे को उसने हाथ में लिया। अपना रूप निहारती पेहंडी की ओर बढ़ गई थी।

लखीनाथ गुलाबी के हाथ से गिलास पकड़े कि गुलाबी ने जानबूझ कर हाथ नीचे कर दिया। उसकी चूड़ियाँ खनकीं। पलकें फड़कीं। पानी छलक गया। लखीनाथ पानी पीता रहा। गुलाबी आँखें मीह-मीह कर हँसती रही।

लखीनाथ ने पानी पिया और गिलास उसे पकड़ा दिया था। गुलाबी का पति खगराराम डेरे के दूसरी खाट पर बैठा था। कुशलक्षेम पूछने वह उसकी ओर बढ़ गया था। वह खाट पर बैठा और थोड़ी देर में उठ खड़ा हुआ था।

लखीनाथ जब अगले डेरों की ओर बढ़ने लगा, गुलाबी ने आँखें फिराईं और होंठ चढ़ा कर कहा–‘टहलतो-टहलतो रोशनी का डेरा भी हो तो आइयो।’

उसके कदम मीघा-घीघा के डेरों की ओर बढ़ गए थे।

मीघा-घीघा दोनों भाइयों के प्लॉट की एक नींव थी। दोनों नए उटंग कुरता-पाजामा पहने थे। कंधों पर तौलिये पड़े थे। पैरों में हाल खरीदी चप्पलें थीं। मीघा के हाथ में पीपल का पौधा था। घीघा नीम लिए था। दोनों के प्लॉटों के कोनों गड्ढ़े खुदे थे। पौधे लगाते दोनों भाई ऐसे लग रहे थे, मानो वन महोत्सव के अवसर पर शफ्फाफ वस्त्र पहने नेता वृक्षारोपण कर रहे हों।

लखीनाथ को आया देख दोनों ने जल्दी-जल्दी पौधे रोपे। मिट्टी भरी। पानी डाला और हाथ झड़काते हुए उठ खड़े हुए थे।

मीघा-घीघा के माँ-बाप तो समय से पहले ही गुजर चुके थे। दादा मौजूद था। बूढ़ा फूस। उमर पचहत्तर। नाम धरमदास। वह जाँघों चड्डी लुँगी और फटी-सी बनियान पहने झोली-सी खाट में गाँठ हुआ बैठा था। सरकंडा-सा शरीर। तुलियाँ-से हाथ। सींक-सी अँगुलियाँ। सीना, खपच्चियों का ताना जैसा। ना बदन पर रति मासा माँस रहा। ना मुँह में दाढ़ दाँत रहे। उसकी बड़ी-बड़ी धोली मूँछें बूढ़े बैल के लटके सींगों-सी झूली थीं। बढ़ती दाढ़ी उसके हडैल चेहरे पर खरपतवार-सी फैली थी। सफेदी जैसी सफेद उसकी छाती के बाल हवा की सर फरफराते।

उसकी खाट के पाये के पास ठेकरा (टूटे मटके का बड़ा-सा टुकड़ा) रखा था। वह खाँस-खाँस उसमें खखार पटकता। साँस टूट-टूट जुड़ती। पल-पल पुराने दिन याद करता। अपने समय वह नामी गिरामी मदारी रहा। रीछ और भालू रखता। एक हाथ से भालू की रास पकड़े रहता, दूसरे हाथ से रीछ की। डुगडुगी का डोर गूँथा दाँतों से जकड़े रहता।

रीछ-भालू की लड़ाई का तमाशा दिखाता। मुँह से डुगडुगी बजाए जाता। आज हड्डियों की बँधी गठरी-सा इकट्ठा हुआ बैठा था।

बूढ़े की दीनता देख, लखीनाथ ने मीघा से पूछा–‘दादा का भी नया कपड़ा-लत्ता ले आवता? बूढ़ों हुयो के मन ना रह्यो?’ मीघा ने उसे बताया–‘दादा ने नाड़ हिला दी और बोला, मरता ने घी ना प्याणो चावै।’

यानी जिसके पैर कब्र में लटके हो, शेष एक ही इच्छा रह जाती है।

लखीनाथ खाट पर बैठा कि बुढ़ऊ ने उठी खाँसी रोकने की चेष्टा की। फूलती खाँस गुब्बारे-सी फटी। थक ठेकरे में थूका। बोलता नहीं बोल पाया। धूजता हाथ लखीनाथ के सिर पर फेरा और कमर तक ला कर थपकें दीं। साँस बटोरी। हिम्मत करता हाथ प्लॉट की नींव की ओर घुमाकर कहा–‘यो-यो का चोखौ कर्यो बेटा।’ उसकी चढ़ी साँस धीरे-धीरे उतरी और सामान्य हुआ। कारजा पकड़े रहा। निकल बाहर आता हो। अटका गिरता हो।

बुड़भस दो-तीन बार फिर खाँसा। ठेकरा में थूक कर, मूँछों भरे होंठों पर हाथ फेर कर कहने लगा–‘बेटा लखी, साँस को नाम सरीर हुवै। निकली। माटी।’

लखीनाथ ने खुले कंठ ‘हूँ’ कही। खाट के पास खड़े मीघा-घीघा ने भी देखा-देखी ‘हूँ’ कही। सूखे रूख के तने में बने दो कोटरों से धँसे-धँसे बूढ़े नेत्र नम हो आए थे। बूढ़ा धीरे-से बोला–‘बेटा, माँ से असली और मौत से साची कोई चीज ना होवै या सिनसार में।’

‘सच दादा।’ लखीनाथ ने साँस खींचकर हामी भरी। मीघा-घीघा देखते रहे।

बूढ़े को अपने मृत बेटा-बहू याद आए। नेत्र डबडबाए। गीला अँगुली से सूत कर साँस मारी–‘बेटा हम अपना मुरदा डेरा के साथ ठोता फिराँ। रात-बिरात डेरा के नीड़े दबा देवाँ। पक्को ढीयो अर पक्को घर बण जावैगो। हम नट, मदारी, पेरना, कुचबंदा, नाँदी की खातर सिमसान, मुसलमाना की खातर कबर अर सपेरा-कालबेलिया की खातर मुरदा दबाण की जगहाँ चाक ले।’

बूढ़ा बाघ अपने दिन निकट देख पंजे सीधे करने लगता है। बार-बार धरती देखता है। बुढ़ऊ मानो काल-कवलित होती अपनी काया के लिए दो गज जमीन की अंतिम इच्छा जता रहा हो।

लखीनाथ ने उसे बताया–‘दादा, दो पिलाटाँ की जगहाँ इसी मारे छुड़ाई है।’

बूढ़े ने ठंडी आह ली और छोटी-सी हुँकारी भरी। उसने लखीनाथ के सिर पर फिर हाथ रखा–‘वो सहरवाली बहन जी से कह के थोड़ी जगहाँ में मंदर-देवरा बणवा ले। धरम फले।’ लखीनाथ ने गर्दन और हाथ एक साथ हिलाये। क्षुब्ध कंठ कहा–‘ना, दादा ना। गलत बात। एकदम गलत। फेर तो मसजत भी बणवानी पड़ेगी। पत्थर खड्या होवैगा। दिलाँ में बैर बढ़ैगो।’

बूढ़े को खाँसी छूट गई थी। वह लखीनाथ की ओर तेवर चढ़ीं आँखों देखता रहा। मीघा-घीघा के मन ऊहापोह रही।

लखीनाथ ने साँस सँवर कर कहा–‘सकूल बणवावांगा-दादा पूरी बसती का टाबर एक साथ पढ़ैगा। सरवस पावैगा। जिकी सिकछा, विसी सरवस।’

बूढ़े को उठ रही खाँसी धीरे-धीरे थमी। थावस आया। बूढ़ी आँखों में एकाएक चमक उतर आई थी। बूढ़ा का हाथ उसका सिर पुचकारने लगा। ओठ बुदबुदाए–‘यो विचार तो तेरो और भी चोखो लाग्यो बेटा। मकाना के लार-लार यो काम निबटा।’ वह जैसे वैतरणी के किनारे खड़ा उस ओर कोई सपना देख रहा हो। मीघा ने कहा–‘यो तो बड़ा काम की कही लखी।’

लखीनाथ उठा। बूढ़ा हाथ उसके सिर से हटा।

सरकीबाई मदारिन का डेरा घीघा के प्लॉट के बिल्कुल सामने ही था। नींव चारों दिशा भरी जा चुकी थी। सरकी नए कपड़े पहने, सिंगरी सँवरी डेरे के दूसरी ओर भालू को पीठ दिए बैठी थी। कुत्ता नींव की सीरक (ठंडक) में एक ओर लेटा था। मानो इससे शीतल और आरामदायक जगह दूसरी नहीं हो। आहट सुनकर उसने गर्दन उठाई, पहचाना। पैरा पर मुँह रखकर बैठ गया। चीपू नाम का यह वही श्वान था, जिसने धारसिंह थानेदार को पूरी रात चाँद के नीचे अर्द्धनग्न खड़ा रखा था और जब वह थानेदार की अपनी हेकड़ी पर उतर आया, दाँत काट कर ही उसे छोड़ा था। सरकीबाई ने लखीनाथ को राम-राम की। लखीनाथ ने उसे राम-राम की। सरकीबाई उठी नहीं, भालू देख ले।

भलीराम मदारी उन्हीं पुराने-धुराने, फटे-उधड़े लुँगी, कुरता में भालू को रोटी के टुकड़े खिलाकर भात घोल पिला रहा था। लखीनाथ आया दिखा कि उसने कुंडी भालू के मुँह के सामने सरका दी और लखीनाथ के पास आ खड़ा हुआ था। भलीराम को उन्हीं पुराने कपड़ों में देखकर लखीनाथ ने जिज्ञासावश उससे पूछा–‘भई भली बसती में बसंत सो उतर रह्यो। तूने वो ही फटा-पुराना लुँगी, कुरता पहर राख्या। सिर पे लीर लटकतों फेंटों बाँध राख्यो। रबड़ का वो ही फटा जूता पहर रह्यो। मरद बीर दोनवाँ ने खरी मजूरी करी। खुद का कपड़ा ना खरीद के ल्यायो।’ भलीराम ने कुरता की जेब से बीड़ी माचिस निकाले। बीड़ी चासी। लखीनाथ की ओर बढ़ाकर कहा–‘ले पी।’

लखीनाथ ने हाथ हिलाते उसे हड़क दी–‘ना-ना मैं देख्यो बीड़ी पीतो?’

वह बीड़ी पीता डेरे में गया, लौटा। नए कपड़ों का थैला हाथ में था। खाट पर फैला कर कहा–‘यो देख ल्यायो हूँ ना। कुरता, लुँगी, फेंटा, जूता।’

‘पहर इनने।’

‘सबने पहर राख्या। चाव-चाव फूल्या हाण्डे। छाती गज-गज बढ़ी जावै।’ भलीराम ने बीड़ी का लंबा-सा सुट्ट खींचा और उसे फेंक कर लखीनाथ से कहा–‘अरे भई पहर्या था। भालू के सामे भात-रोटी रखण गयो। परायो मिनाव लाग्यो मैं। चिमक गयो। रस्सी तुड़ावन लाग्यो। पंजा उठा के हु-हु-हु करे। उछल-उछल झपटे। मैं डर्यो। फेर समझो।’

कुंडी में चबर-चबर रोटी-भात खा रहे भालू की ओर देखकर लखीनाथ भालू की सूझ, बूझ गया था। वह खाट पर बैठा।

रोशनीबाई का प्लॉट भलीराम के प्लॉट की बगल में था। अपने प्लॉट में सिंगरी खड़ी वह लखीनाथ की निगाह कनखियों से देखे जाती थी। ना भलीराम की नजर। ना सरकीबाई को खबर। रोशनी ने चूड़ियों भरा अपना हाथ लखीनाथ की ओर झाल दिया और डेरे की ओर देखने लगी थी।

वह उत्सुकता, आशंका और मन में भय-सा लिए उसके डेरे पहुँचा। रोशनी डेरे में गई और नई मूढ़ी उठा लाई थी। लखीनाथ धोती संगवा कर मुढ्ढी पर बैठ गया। वह सिर पर पल्लू लिए खड़ी रही। लखीनाथ ने उसकी ओर लखा कि लखता ही रह गया–हतवाक, हतप्रभ, अपलक, आह! वाह!

रोशनी हो रही थी, रोशनबाई।

रोशनी! बाईस की उमर। छरहरी देह। रंग भले साँवला, यमुना के बहते पानी-सी आब। काया-कशिश, आँखें खिंचतीं। वह क्रीम कलर का घेरदार नया लहंगा, लाल कुरती, किनारे कढ़ी, सितारों जड़ी लूगड़ी सिर पर ओढ़े थी। पैरों में ऊँची एड़ी की लाल रंग की चप्पले थीं। कानों में झूलती चाँदी की बालियाँ चौदस के चाँद-सी लटकी थीं। नाक में पहना लाल नग का चाँदी का काँटा ऐसा प्रतीत होता था, डंठल से निकलता टेसू का फूल। नयनों में बारीक सुरमा अंजा था। माथे पर छोटी-सी टिक्की लगाए थी। सरसता यौवन, अधरों पर भानूदय-सी लाली उतरी थी। रूप-लावण्य की धनी रोशनी बला की खूबसूरत लग रही थी। सुंदरियों में खड़ी करो, अलग नजर आए। लखीनाथ के नेत्रों में आश्चर्य दिपदिपाया और मुँह से अनायास ही फिर ‘वाह’ निकली।

रोशनी ने आँखें मीह-मीह कर थोड़ी घुमाईं। फिर कनखाई। ओठ पर ओठ मसला और कोकिला कंठ बोली–‘नाथ जी आप उमर में मेरा से नेक बड़ा हो। वो बड़ो है ना, देवर कहूँ।’

‘हुँ।’

बात कहते रोशनी के मन कष्ट भी था, उछाह भी था। मरज की दवा का कड़ुवा घूँट पीते बोली–‘वो सहरवाली मेम ने यो काम तो मेरा मन को कर्यो, पिलाट को पट्टो मेरे नाम मँडवा दियो।’

‘हुँ।’ लखीनाथ ने आँखें उठाई। चार आँखें रू-ब-रू हुईं।

‘वो दारुड़ा के नाम होतो। दुःखी रहती। हरामी घणो।’

‘बरोबर।’ लखीनाथ ने हामी भरी।

वह मन मारती बोली–‘हाँ देवर। पीट-कूट भले जावै। पीसा खोस झपट ले जावै। दारीका ने देही ना भिड़न दी। ठाई बरस बीता। जब मेरा आदमी हो के पराई से है। अपणो ना रह्यो।’ उसने थुथकारी दी–‘गंदो कहीं का?’

उसकी आँखें लाल हुई, मानो अंतस जल रहा हो।

‘हुँ।’ लखीनाथ उसकी ओर देखता रहा। सोच-विचार में डूबा रहा। कहा–‘बात सही है, रोशनी भाभी।’

‘वो बीरबानी से उको एक टाबर भी है। वो दूसरी के साथ रहवै। देवर अपणी भी काया है। कोख है उमें’ लखीनाथ कुछ-कुछ सूझा। उसके फिरते चितवन और तिरिया तेवर बूझा।

‘हुँ’ कह चुप रहा।

वह अविकल मन बोली–‘मेरो देवर है। उसे दो बरस छोटो। एक बाप, दूसरी माँ को। जोड़ जुगाड़ ना बैठ्यो। दो ठोर ठाली। मेरे रह लवेगौ। बसती माता कहवैगी हथेली पे हथेली धर ल्यांगा। कमावांगा, खावांगा, गुजारों करांगा। घर बण ही रह्यो पक्को।’ वह होंठ मरोड़ने लगी थी। लखीनाथ उसकी उतरती-चढ़ती भाव-भंगिमा निहारता रहा। नयनों की दिशा देखता रहा। होंठों की थिरकन बाँचता रहा। भोली भली दिखने वाली रोशनी का मुखड़ा रक्ताभ होकर खिला। कपोलों डिंपलें पड़ीं। उसने एक गाल में अँगुली गड़ाई और लखीनाथ की ओर आँख की कोर करके बोली–‘बात नाथ जी धरै घालैगा।’

रोशनी के चेहरे पर मोरनी-सी मुग्धता थी। मानो मन आई बैठी थी, वह। लखीनाथ की पलकें शर्म से झुकी। रोशनी का पल्लू सिर से सरका या उसने खुद सरकाया, कंधे पर गिर पड़ा था। सिंदूरी माँग उज्ज्वल थी। वह कढ़ी माँग इस छोर से उस छोर अनामिका फेरती गई, मानो भरी माँग का ताल्लुक उसकी कोख से हो। लखीनाथ की दृष्टि उधर गई। सोचा, बिन रुजगार गरीबी तारी थी। पेट की पीड़ा थी, पैसा आया, काया जागी।

लखीनाथ ने उसका तौर देखकर चिंता जताई–‘भाभी बोलाराम भाई आवैगो। बखेड़ो खड्यो हो जावैगो। दुनिया दाँत काढ़ेगी।’

‘मेरो पिलाट, आपकी दया। भड़वो के माँगे? उका दो बाँस है डेरा में। निकाल बाहर पटक दूँगी। उठा ले जावैगो अपना।’ रोशनी में बाघिन-सी बेचैनी थी।

लखीनाथ ने रोशनी के चेहरे का ताव देखा। उसके फैसले की तुरपाई नापी। डेरे की उड़ी बिखरी पन्नी, बाहर निकल आए दो बाँस, टूटी खपच्चियाँ देखीं। प्लॉट की भर गई नींव निरखी।

‘चौक चुकारो भाभी?’ उसने रोशनी की ओर निगाह की।

वह दंभभरे कंठ बोली–‘देवर, ना चुकारो देवां। ना चुकारो लेवां। हम अर वो बरोबर। बेपरीत से टूट भली।’ उसके दिल में आग सुलग रही थी, हवा का झोंका पाकर वह बल (धधक) उठी थी। वह डेरे के गेट को पीठ देकर खड़ी थी। अंदर से जवान मरद साँस की धँस आईं।

गृहस्थी लखीनाथ इतना भोला बावला नहीं था, गबरू धँस के दंद (दांव) को नहीं समझता। उसे भाभी गुलाबी की बात की घात की थाह लगी। उसने मन ही मन रोशनी की हिम्मत को दाद दी और उठ खड़ा हुआ था। रोशनी ने उसकी ओर इस निगाह निहारा कहती हो, ‘बात मोड़ मत देना देवर।’

लखीनाथ सपेरों के डेरों की ओर बढ़ा कि सपरानाथ के डेरे की ओर देखकर धक् रह गया। साँसें खड़ी रहीं। ना ऊपर। ना नीचे। उसकी पत्नी रमतीबाई सपरा के डेरे के सामने खड़ी उसकी बहन जिनाबाई से बतिया रही थी। दोनों की दोनों नए कपड़े पहने सजी सिंगरी खड़ी थी। सपरा चमचमाते लुँगी, कुरता पहने उभाने पर पत्थरों पर बैठा था। वह रमती की ओर टिटहरा-सा देखे जाता था। ठेल-ठिठौली। रमती के दूध से धवल दाँत निकले पड़ते थे।

लखीनाथ के बदन में आग की डीगें (लपटें) सी उठीं। मुड़ा, उसके कदम अपने डेरे की ओर बढ़ गए थे। लावा में भी इतनी खदक नहीं होगी, उसका अंतस धधक रहा था।

लखीनाथ नजर पड़ा कि रमतीबाई उठते पैरों अपने डेरे की ओर बढ़ी आई।


Image: Snake Charmer, India, Patna School, 19th century, Honolulu Museum of Art
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