चलते-फिरते दिन

चलते-फिरते दिन

कल महीने का आखिरी दिन था, इसलिए, वह बाबूजी को लेकर कुछ लवलीन-सा था कि यकायक शाम को दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई। पल में छुटियल को सामने देखकर वह चौंका अवश्य था।

‘…नहीं-नहीं!’ छुटियल की बात पर उसने एतराज जतलाया, ‘बाबूजी को एक-दो रोज मैं अपने घर और क्यूँ रखूँ!…काम यहाँ किसके नहीं होते हैं, अब तुम जानो और बाबूजी!..एक महीने रखने की मेरी बारी खत्म होने को है…अगर मेरी मानो तो तुम बाबूजी को खाट सहित इसी समय ले जाओ तो ज्यादा अच्छा है।’

‘भाई साब, आप भी कमाल के है’। छुटियल की उम्मीदें बुझ चली थी, तभी अचानक जाने क्या सोच वह बाबूजी की चारपाई को घसीटते-घसीटते घर की दीवार में बने आपातकालीन रास्ते के दरवाजे को खोलकर आगे की ओर बढ़ने लगा।

मगर क्षणों में ही बाबूजी की खाट पर ही आँखें नम हो आईं, ‘…क्या बदहाल बनी है उनकी जिंदगी!’ वह बुदबुदाए और अंदर से छटपटाते-कराहते से कहीं गुम हो गए।


Image :Portrait of an Old Man
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Artist : Eduard von Gebhardt
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सत्य शुचि द्वारा भी