राह से मंजिल
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- 1 February, 2016
राह से मंजिल
एकबारगी उसके काम को मैंने महत्ता दी थी और उस वक्त मैंने चूँ भी नहीं किया। मगर कुछ हफ़्तों बाद ही वह एक दिन मेरे पास आया तो मैं स्वयं को कदापि चुप नहीं कर पाया था, ‘…मैं ही आपको फालतू मिला क्या!’
‘नहीं-नहीं…!’ लहजा उसका धीमा था, ‘आप घर जा रहे है, सोचा, पड़ोसी के नाते आपको…’
‘आपको-आपको क्या होता है!’ क्रोध में एकदम फटाखों की मानिंद मैं फटा, ‘आपने आइने में कभी अपनी शक्ल-सूरत-औकात देखी है…! और अगर ना देखी है तो जाकर देख लो…’
‘मैं समझा नहीं…आपके कहने का भाव!’ वह हड़बड़ाया-सा था।
‘आप मेरे मुकाबले कहीं भी नहीं ठहरते है यहाँ!’ खुद के दर्प में डूबे-डूबे मैं चहका था।
‘तो आप यानी कि बड़े आदमी है…’ तेजी से उसका चेहरा लाल हो उठा।
‘हाँ, मैं तो हूँ ही…। मेरे पद-नौकरी-स्टेटस के सामने आप कहाँ स्टैंड करते है?’ मैंने तुरंत उगला।
‘यदि आप अपने बारे में तनिक जानना चाहें तो मैं भी कुछ बोलूँ…’ उसने सहमति चाही।
‘बोलने की अपने देश में सबको आजादी है…हाँ-हाँ, शीघ्र बोलिए…’ मैंने उसे हरी झंडी दे दी।
‘आप मेरी नज़र में आदमी नहीं बल्कि एक घटिया किस्म के आदमी है…’ खुद के विचारों में उसने दृढ़ता दर्शाई और वह पलट गया।
‘कैसे…! कैसे…!!’ एक कड़वाहट से मेरा मुँह भरकर रह गया।
‘…क्या, असल में, मैं वैसा हूँ!’ एक सवाल अकेले में अंदर ही अंदर मथे जा रहा था और फिर अल्पकाल में भीतर ही भीतर कहीं से एक आवाज जेहन में टकराई, ‘वस्तुतः तुम्हारी मत ही मारी गई है… क्या गरूर करना नौकरी-पद-स्टेट्स का…आखिर, इस नश्वर-नाशवान काया का गुमान काहे का…’
और देखते-देखते मेरी आँखें खुल चुकी थी।
Image :Two Men by the Sea
Image Source : WikiArt
Artist : Caspar David Friedrich
Image in Public Domain