खोटा सिक्का

खोटा सिक्का

घर में मातम छाया हुआ था। बारिश की रात बीत चुकी थी। सुबह तक बादल छँट चुके थे पर गोपाल की इज्जत-आबरू, बदनामी और अपयश के कुहरे में हमेशा के लिए गुम हो गई थी। कौशल्या देवी ने रातभर के चिंतन-मनन के बाद सुबह-सबेरे ही अपना निर्णय सुना दिया था–‘गोपाल, बहुरिया को इसके गाँव छोड़ आ। अब ये हमारे घर रहने के काबिल नहीं।’

‘पर अम्मा! इसमें इसका क्या कसूर है?’ गोपाल ने चुप्पी तोड़ी थी।

‘इसके पहले कि बात फैले, लोग हम पर हँसें, इसे इसके गाँव छोड़ आ।’ कौशल्या देवी ने मानो गोपाल की बात सुनी ही नहीं।

‘पर अम्मा! इसमें इसका क्या कसूर है? ये उन दरिंदों को न्योता देने तो नहीं गई थी न?’ गोपाल ने सिमटी-सिकुड़ी सिसकी भरती रश्मि को व्यथित नजरों से देखा था। ‘पर अब ये तेरे लायक नहीं रही। ये क्यों नहीं सोचता? ये अब अपवित्र हो चुकी है।’ कौशल्या जी के शब्दों में घृणा स्पष्ट थी।

‘मैं इसका पति हूँ। मेरे ही सामने अपवित्र हुई है न? किसी दूसरी को लाओगी न, तो उसका भी यही हश्र होगा अम्मा। मैं घर में रहकर भी उसकी रक्षा नहीं कर पाऊँगा और बँधे हाथ-पाँव भी, रश्मि की ही तरह वो दूसरी अपवित्र हो चुकी तुम्हारी बहू ही खोलेगी तो क्या उसे भी निकालोगी? कितनी अपवित्र बहुएँ निकालोगी अम्मा?’ गोपाल कहते-कहते क्षोभ और लज्जा से रो पड़ा था।

कौशल्या जी को कोई जवाब नहीं सूझा था तो वो चुप रह गई थी। जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो वो क्या कर सकती है।


Image : The Mouth of Darkness
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Artist : Victor Hugo
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