कुंडली

कुंडली

‘आज फैसले का दिन है। लेकिन समझ नहीं आता, कैसे क्या किया जाए।’ करमचंद सोचता जा रहा है। दरअसल उसकी बेटी के लिए एक रिश्ता आया है। सब चीजें ठीक लग रही हैं। उम्र, कद-काठी, देखने में भी अच्छा है। पढ़ाई और सैलरी के बारे में उनके पड़ोसी चावला जी से भी सारी रिपोर्ट ठीक-ठाक मिली है।

चाय पीते हुए दोनों सोच रहे हैं–कैसे क्या करें? पहला रिश्ता है, वो भी बेटी का। रीना ने कहा–‘शुकर हाउ, ओ.के. हो गया है। मेरा विचार है कि अब देर न करें। बस एक बार आप पंडित रामप्रसाद से मिल आओ। गुण तो मिला लिए थे, अब बारीकी से जाँच लें। तभी अगला कदम उठायें।’

करमचंद ने कहा–‘लड़के वालों ने कुंडली मिलाकर ओ.के. कर दिया–बहुत है। तुम जानती हो, अपना इन चीजों में विश्वास नहीं है।’

‘देखो, पहला रिश्ता हैं उम्रभर का साथ होता है। मन में कोई वहम नहीं रहना चाहिए।’ रीना ने बिस्कुट की प्लेट आगे बढ़ाते हुए कहा था। यही बात बेटी भी दोनों से कह चुकी थी। करमचंद सोच में पड़ गया था। सरदार कौन-सी कुंडली मिलाते हैं? वो क्या तरक्की नहीं कर रहे? सब गुण और कुंडलियाँ धरी रह जाती हैं। वह रीना से बोला–‘तुम्हें मालूम है न! हमारे पिचाली वाले सब गुण वगैरह मिलाकर ही बहू लाये थे। फिर भी तलाक हो गया। बताओ, क्या मतलब है कुंडली मिलाने का?’

रीना ने भी फौरन कहा था–‘उन्होंने ऐरे-गैरे को कुंडली दिखाई होगी। रामप्रसाद तो जाना-माना ज्योतिषी है।’ वह चाय का आखिरी घूँट पीकर बोली थी–‘बस आप अभी चले जाओ। आधे घंटे का ही रास्ता है…।’

आज फैसले का दिन है। करमचंद सोचता जा रहा है…उसके लिए यह सबसे मुश्किल काम है। आज तक वह समाज में इसे पाखंड कहकर इसकी खिलाफत करता रहा है…कोई जान-पहचान का मिल गया तो क्या कहेगा?…क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं!…रिश्ता तो अच्छा है, लेकिन वह कुंडली…!

वह ज्योतिषी के यहाँ पहुँचा तो भीड़ न पाकर हैरान भी हुआ और खुश भी। नमस्ते करके उसने अनमने भाव से दोनों बच्चों की कुंडली के कागज उनके सामने रख दिए और हाथ बाँधकर बैठ गया। पंडित रामप्रसाद ने कागज उलटे-पलटे, फिर उँगलियों पर गिनती करने लगे। तभी भीतर से उनकी बेटी पानी लेकर आई। उसे सफेद कपड़ों में देख करमचंद को ताज्जुब हुआ।

‘पंडित जी यह क्या? बिटिया की तो पिछले साल ही शादी हुई थी!’

रामप्रसाद पीड़ा से दहल गए–‘आप देख ही रहे हैं। विधि का विधान कौन टाल सकता है?’ करमचंद सोच में पड़ गया। क्या कहे, क्या करे? सहसा वह उठकर बोला–‘पंडित जी, बच्चों की कुंडली लौटा दीजिए।’

कागज लेकर वह तीर की तरह उनके घर से बाहर निकल आया।


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अशोक भाटिया द्वारा भी