दुम

दुम

‘मामा जी अब तो बचना मुश्किल है’–घबराहट भरी आवाज थी हेमंत की।

थाना पुलिस के मामले में मैं भला क्या बोल सकता था। 

‘इंस्पेक्टर साहब कह रहे हैं कल तक अंदर कर देंगे!’–उसकी आवाज भर्रा गई थी।

‘अच्छा!’–मेरी चुप्पी मुझे खुद खटकने लगी थी। 

‘मैंने पहले भी तो बताया था आपको, मर्डर केस में जबरदस्ती मेरा नाम जोड़ा गया है।’–मेरी चुप्पी से शायद संदेह हुआ था उसे, कि मैंने इस विषय में बात नहीं किया है एसपी से अब तक। 

‘हाँ, तुमने तो बताया था।’–अभी भी मेरे पास सांत्वना देने के लिए गोलमोल के सिवाय कोई शब्द नहीं था।

‘आपका तो एसपी साहब से बराबर का उठना बैठना होता है, अखबारों में कई बार आप दोनों के फोटो छपे हैं, साथ-साथ बैठे हुए।’–वह अकारण नहीं बोल रहा था।

‘आज देखता हूँ।’–आत्मविश्वास से मैं तन गया था! इसका आभास होते ही मेरी गर्दन पुनः सामान्य हो गई। 

‘मामा जी, यदि एक बार अंदर कर देंगे तो जल्दी बेल भी नहीं होने देंगे एमएलए साहब, उसका तो जिला जज के साथ अच्छा उठना-बैठना होता है।’–जेल जाने भर से नहीं, लंबे समय तक जेल में सड़ते रहने के सन्निकट खतरे से उसकी रूह काँप रही थी। शायद उसकी आवाज में तैर रही वायवीय पीड़ा ने मुझे विवश कर ही दिया एसपी साहब से मिलकर अनुरोध करने कि हेमंत के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए।

यूँ तो मुझे कभी भी इस बात का गुमान नहीं रहा है, कि जिले भर के आला अधिकारियों और प्रदेश के भी कुछेक अधिकारियों के साथ सम्मानजनक उठना-बैठना होता रहा है। मेरी अगुवाई में आदिवासी कल्याण संघ और नारी सशक्तिकरण मंच के बैनर तले इस जिले में, आसपास के चार-पाँच जिलों में भी कई उल्लेखनीय कार्य हुए हैं। पिछले दो दशक से हमारी संस्था ने आर्थिक-सामाजिक जीवन से जुड़े कई लाभकारी व कल्याणकारी स्कीमों को धरातल पर उतारा है। जिले के कलेक्टर-एसपी-कमिश्नर-डीआईजी, एमपी-एमएलए-मंत्री हमारे कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते रहे हैं। अपनी तारीफ खुद करना शोभा नहीं देता मुझे, पर यह सच है अधिकारियों के मन में मेरे लिए अगाध श्रद्धा व आदर का भाव रहा है। मंच साझा करने के दौरान मेरे निष्काम कर्मों के लिए उनकी आँखों में भरपूर सम्मान का भाव तैरते महसूस किया है मैंने। यह बात दिगर है कि जब आमजनों ने हमारे सार्थक कार्यों की स्वीकृति दे दी है तो फिर सरकारी महकमा के लिए हमारे संस्थाओं से दूरी बनाए रखना अव्यावहारिक ही होता। इस वर्ष प्रांतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद तो शहर के सम्मानित शख्सियतों की अग्रिम पंक्ति में लोग मुझे देखने लगे हैं।

आदिवासी उत्थान और नारी सशक्तिकरण के क्षेत्र में परिणामोन्मुखी कार्य करने से मुझे आत्मतुष्टि-सी मिलती रही है। वैसे हकीकत में मेरी जीवन दृष्टि मेरे द्वारा लिखी गई कहानियों और उपन्यासों में प्रकट होती रही है। शायद साहित्य में आनंदित रहने के कारण ही प्रशासनिक अधिकारियों के पास जाने में शुरू से ही संकोच रहा है मुझे। किसी की पैरवी या यूँ कहिए वाजिब काम के लिए भी जाने से हिचकता रहा हूँ। पर हेमंत का मामला ही कुछ ऐसा है कि मुझे आज एसपी साहब के पास आना पड़ा है। दरअसल पुलिसिया पेंच कभी मेरी समझ में आया नहीं। लेकिन ऐसे वक्त में एक निर्दोष के लिए कुछ नहीं करने पर मेरी आत्मा खुद मुझे धिक्कारेगी। यह बात भी अपनी जगह मायने रखती है, हेमंत नजदीक या दूर जो कह लें रिश्ते में मेरा भाँजा लगता है।

एसपी कोठी तक आते-आते मुझे भी लगने लगा है, सच में यहाँ अंधा कानून है, पिछले महीने जब एक लड़के की हत्या गर्लफ्रेंड के चक्कर में हुई है और उसके भाई ने अपने मूल आवेदन में चार लोगों को नामदर्ज आरोपी बनाया है, तो पुलिस वालों ने पच्चीस लड़कों का नाम अलग से जबरदस्ती कैसे जोड़ दिया है, उस लड़के का जितने लड़कों के साथ मिलना-जुलना, उठना-बैठना था सभी-के-सभी उसके हत्यारे कैसे हो सकते हैं भला। पुलिस कप्तान के पास आने से पहले थोड़ा-बहुत होमवर्क कर लेना चाहिए। इस हत्याकांड और केस की पृष्ठभूमि पर मैंने जानकारों से जानकारी ली थी। दरअसल उस दिलकश लड़की से नजदीकी बढ़ाने में तीन-चार लड़कों में होड़-सी मची थी पिछले एक-डेढ़ साल से ही। प्रणय पैगाम में नाकाम तीनों ने विजयी बच्चों को दिनदहाड़े उड़ा दिया था कोसी नहर के कात में। मृतक के भाई ने वाजिब तौर पर उन तीन लड़कों को ही आरोपी बनाया था। पुलिस वालों का पुराना तिकड़म रहा है, परेशानहाल प्रथम सूचक को सही तफ्तीश का सब्जबाग दिखाकर या फिर दबाव बनाकर कई और लोगों का नाम संदिग्ध आरोपी में जुड़वा लेना। यदि प्रथम सूचक सूझबूझ वाला या ढंग का समझदार निकल आया तो! तो फिर विवेचना के दौरान गवाहों का फर्जी बयान केस डायरी में चढ़ा देना कि नामदर्ज आरोपी के अलावे अमुक-अमुक व्यक्ति पर भी अपराध करने या अपराध की साजिश रचने का पक्का शक है। और फिर शुरू होता है नाम जोड़ने-हटाने, दफा बढ़ाने-घटाने का खेल! खेल यानी रकम उगाही की लंबी खींचतान, जाँच अधिकारी से शुरू होकर थानाध्यक्ष डीएसपी से होते हुए एसपी तक, कभी-कभी तो उससे भी ऊपर तक, पुरजोर लंबी।

रकम उगाही के खुल्लम-खुल्ला खेल में हेमंत पर दोहरा चाबुक पड़ रहा था। एमएलए साहब ने इच्छा जाहिर की थी हेमंत को अंदर करने के लिए, सो नाम हटाने के लिए आम ‘रेट’ से सीधे दूनी रकम पर पुलिस वाले अड़ गए थे। हेमंत का कसूर सिर्फ इतना था कि पिछले चुनाव में नया-नया वोटर बन जाने के जोश में वह विरोधी उम्मीदवार के नॉमीनेशन जुलूस में शामिल हो गया था। लोगबाग बताते हैं, अपने जानी दुश्मन के चुनाव प्रचार का वीडियो मँगा कर लल्लन एमएलए अभी भी जब तब देखता रहता है, राजनीति का अश्वमेध यज्ञ पूरा करने की लालसा के वशीभूत।

एसपी साहब ने बिना ना-नुकुर के मिलने का समय दे दिया। आज शाम साढ़े पाँच बजे, यही एसपी कोठी में। मैं सचमुच सम्मानित महसूस कर रहा था, जिले के एसपी द्वारा अपने निवास पर समय देने के लिए। ऐसे बेशकीमती मौके पर कोई चूक न हो, सवा पाँच बजे ही पहुँच गया। कोठी के गेट पर एकाध मिनट रुकना पड़ा, शायद गार्ड द्वारा अंदर से ‘ओके’ संकेत लिया जा रहा हो। मेरी नजर गेट के दोनों ओर लगे पीतल में चमचमाते नेम प्लेट पर स्वतः चली गई। बायें स्तंभ पर आवास, पुलिस अधीक्षक और दायें स्तंभ पर निशांत कुमार आईपीएस। मेरा सिर तो नहीं झुका सलाम करने के लिए, मन से जरूर नतमस्तक हुआ मैं। आईपीएस कोई साधारण मुकाम नहीं होता, प्रखर मेधा और बुद्धिमत्तापूर्ण व्यक्तित्व के धनी ही यहाँ तक पहुँच पाते हैं। पुलिस की कार्य प्रकृति के विविध रूप-रंग मेरे मस्तिष्क में आने-जाने लगे। दिन-रात नई-नई चुनौतियों से मुठभेड़रत पुलिस-तंत्र, अपार सूझ-बूझ व साहसी निर्णय लेने की क्षमता रखने वाले आईपीएस अधिकारियों के कमान तले! आईपीएस से अभिभूत होते जाने के क्रम में ही इंसासधारी गार्ड ने मेरे लिए गेट खोल दिया।

गेट के अंदर की दृश्य-दुनिया देखकर मैं अभिभूत हो उठा। लॉन, क्यारियाँ, विविधवर्णी फूल, फूलों की सजावट-बुनावट अद्भुत। सचमुच अद्भुत! तीन शब्द वाले अखिल भारतीय सेवा के प्रति सम्मान एकाएक लहलहा उठा मेरे मन में। आगंतुक कक्ष की तरफ बढ़ते ही कॉरीडोर में बैठा एक कुत्ता अचानक क्रुद्ध हो उठा मुझ पर। उसकी दाँतों और आँखों की भाषा कह रही थी ‘गेट आउट’। उसकी देह की भाषा बता रही थी, मेरे प्रति उसका शत्रुता भाव बढ़ता जा रहा है। उसके लंबे दुम की अकड़न सबसे ज्यादा हिंसक प्रतीत हो रही थी। दुम पूर्णतः सीधी होकर इस कदर तन गई थी, लगता था जैसे उसके अंदर का सारा गुस्सा दुम में केंद्रित होता जा रहा है। ना जाने क्यों उसके नुकीले दाँतों और अंगारे भरी आँखों के बजाय उसकी दुम ज्यादा आशंकित करने लगी थी मुझे… 

‘मास्टोओओअ’–एल टाइप कॉरीडोर के अदृश्य भाग से खासा दोस्ताना आवाज आई। पहले आवाज मेरे कानों में पड़ी या पहले पेट की दुम (अब कुत्ता कहना अपमान होता) हिलना-डुलना शुरू हुआ, कह नहीं सकता। क्षण भर में ही एसपी साहब एल-टाइप कॉरीडोर के खड़ी भुजा से पड़ी भुजा में प्रकट हुए, चढ़ते चंद्रमा-सी मुस्कान ओढ़े हुए मेरे अंदर से आवाज आई, ‘अहा विनम्रता की मूर्ति!’

‘प्रणाम, सर! इसने कोई बदमाशी तो नहीं की।’–हाथ जोड़कर नजदीक आते हुए एसपी साहब मुस्कुराना जारी रखते हुए बोले, लगा मुझे देखकर गदगद हुए जा रहे हैं। 

‘प्रणाम, प्रणाम! नहीं, कोई शैतानी नहीं की है इसने, प्रकृति प्रदत्त अपनी हिंसक प्रवृत्ति का प्रदर्शन भर किया है अभी तक।’–उसकी ओर हाथ जोड़ते हुए मास्टों पर प्यार भरी आँखें फेरते हुए मैंने कहा।

‘अरे! इतना संत मत समझिए इसे। ग्रेट डेन नस्ल का है यह, हिटलर को अपनी सेवा दे चुके हैं इसके परदादे। दुश्मन की गर्दन पकड़ ले तो काल कवलित, आपको देखकर अपनी छठी इंद्रिय से जान गया होगा खास मेहमान हैं।’–एसपी साहब बड़े प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फिराने लगे। अब तो उसकी दुम इस कदर हिलने-डूलने लगी, जैसे बैटरी चालित दुम वाला खिलौना हो। मालिक के एक अँगुली के संकेत भर से ही वह कॉरीडोर के एक तरफ चला गया और हम दोनों आवासीय कार्यालय कक्ष की ओर।

‘और सुनाइए साहब, आपके आदिवासी संघ और नारी मंच की क्या स्थिति है।’–उच्च आसन सरीखे कुर्सी में धँसते हुए एसपी साहब मुझसे मुखातिब हुए। 

‘दोनों अपने-अपने फील्ड में कामयाबी के शिखर पर कायम है।’–हमारे दोनों संगठनों के जोरदार परिणाम के बल पर मेरा आत्मविश्वास मुखर हो उठा। 

‘देखिए साहब, सार्वजनिक जीवन में निस्वार्थ सेवा ही तो जिंदगी का असली मकसद है।’–वह दार्शनिक हो उठा। 

‘बस समझिए उसी लीक पर चल रहा हूँ।’–पिछले दो दशकों से मेरे अंदर जीवित सेवा-भाव में तैरने लगा मैं। 

‘कर्तव्यनिष्ठा में जो आनंद अनुभव कर रहा हूँ बयाँ नहीं कर सकता मैं।’–बोलते-बोलते वह ब्रह्म में लीन होता हुआ दिखने लगा। 

‘यह शाश्वत सत्य है।’–उसकी दार्शनिक मुद्रा मुझे भी दर्शन में डुबोने लगी थी।

‘सुना है साहित्य में भी आपकी अच्छी दखल है।’–आसन से ऊपर आती हुई, उसकी ग्रीवा से आवाज आई।

‘हाँ, मेरी कहानियाँ पत्रिकाओं में आती रहती हैं, दो उपन्यास भी प्रकाशित हैं। पिछले वर्ष प्रांतीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हुआ हूँ।’–अपने बारे में बोलते हुए मुझे झेंप महसूस होने लगी थी।

‘अरे हाँ! आपको तो बधाई देना भूल ही गया था मैं, अखबारों में खबरें भी तो देखी थी। चलिए अच्छा है आगे चलकर ज्ञानपीठ अवार्ड लीजिए।’–अब जाकर वह मुझ पर ध्यान केंद्रित कर पाया था।

‘जी-जी, आपकी शुभकामना के लिए धन्यवाद!’–मुझे तसल्ली हुई, चलो विषय-वस्तु की तरफ बढ़ने का माहौल तो बना। 

‘और बताइए जनाब कैसे आना हुआ।’–उसके बोलने का अंदाज एकाएक बदल गया, लगा एसपी लगने या होने वाला कोई बटन उसने मन के रिमोट से ऑन कर दिया हो।

‘सर, सदर थाना एफआईआर नंबर थ्री-नाइन-थ्री ऑफ उन्नीस के बारे में मुझे आपसे बात करनी है।’–मैं सीधे मुख्य विषय पर आ गया। एसपी लोगों का क्या ठिकाना कब कहाँ निकल ले। 

‘सदर थाना कांड संख्या तीन-तिरानबे ऑफ उन्नीस पर आप बात करेंगे! मतलब?’–उसकी नजरें मेरी ओर शंकालु किस्म की हो गई।

‘दरअसल इस मर्डर केस में तीन नामदर्ज आरोपी के अलावा अन्य पच्चीस लोगों का भी नाम जोड़ दिया गया है।’–बोलते-बोलते मुझे रुकना पड़ा। वह हथेली उठाकर सब कुछ समझ लेने का संकेत करने लगा था। 

‘तो आप चाहते हैं कि इस मर्डर-मिस्ट्री की तह में हम न जाएँ!’–उसकी आँखें रहस्यमयी ढंग से तिरछी होकर मुझ पर टिक गई।

‘नहीं-नहीं सर, मैं ऐसा कुछ नहीं कह रहा हूँ।’–मुझे लगने लगा इसने तो फर्स्ट राउंड में ही मुझे चित्त कर दिया है।

‘फिर इन पच्चीस लोगों के लिए आप इतना परेशान क्यों हैं। बी वेरी फ्रेंकली, इन लोगों ने क्या आपको पैरवी के लिए अधिकृत किया है।’–उसकी मुद्रा अचानक दोस्ताना-सी दिखने लगी।

‘देखिए सर, मैं इन पच्चीस के बारे में कुछ नहीं बोलना चाहता। मुझे तो मतलब है सिर्फ हेमंत से, उसका भी नाम जोड़ा गया है इस केस में!’–मेरी आवाज में नाराजगी की पतली परत चढ़ी जान पड़ रही थी। उगाही के खेल में बेकसूर लोगों के नाम जोड़े जाने से मैं अंदर से सचमुच खिन्न, यूँ कह लें क्रोधित-सा होने लगा था। 

‘तो’–उसकी भृकुटी तन-सी गई। 

‘प्लीज हेमंत का नाम हटवा दीजिए, इतना गुजारिश भर करने आया हूँ।’–मैं ढीला पड़ने लगा।

‘आपके बोलने का अंदाज तो ऐसा है जैसे यहाँ आकर मुझ पर कोई मेहरबानी कर रहे हैं।’–उसकी मुद्रा अचानक उपहासात्मक होने लगी। 

‘ऐसी बात नहीं है सर, बिल्कुल नहीं।’–मुझे लगा, मैं दूसरे राउंड में भी चित्त हो गया हूँ।

‘अच्छा छोड़िए हेमंत की ही बात करते हैं, करना क्या है।’–अपनी बाईं केहुनी टेबल में टिकाए और हथेली से ठुड्डी को थामे उसकी आँखें मेरी ओर गोल-गोल हो गई। 

‘वह लड़का इस केस में दूर-दूर तक शामिल नहीं है, नाम हटवा देते तो बड़ी कृपा होती।’–मैंने हाथ जोड़ लिए।

‘देखिए, हाथ जोड़ने से धारा बदल नहीं जाएगी। आप जनकल्याण करने का दावा करते रहिए, साहित्य में जो मर्जी लिखिए, पर आप दफा थ्री नॉट टु आईपीसी के पंडित नहीं हो सकते न, उससे जुड़ी हुई सीआरपीसी के क्लाउज को जाने बगैर आप किसी का नाम हटाने की बात कैसे कर सकते हैं?’–उस वक्त थे तो वे सिविल ड्रेस में, पर भाव-भंगिमा कंधे में सजे अशोक लाटधारी जैसी होने लगी। 

‘सर, वह लड़का रिश्ते में मेरा भाँजा लगता है, इसलिए विनती करने आया हूँ, अदरवाइज मेरे जैसा आदमी भला पुलिस केस में क्यों बीच में आएगा।’–अंततः मुझे आमजन जैसा याचक हो जाना पड़ा।

‘देखिए मिस्टर! हम आईपीएस लोगों को कोई पढ़ा नहीं सकता। रिश्ते में मुजरिम चाहे कोई लगे न लगे, पैसा खाकर लोग पहुँच जाते हैं पैरवी करने, भतीजा-भाँजा बताकर।’–बोलते-बोलते उसकी नजरें घृणापूर्ण होने लगी। 

‘सर, मैं आपसे कोई झूठ नहीं बोल रहा हूँ।’–मेरी आवाज दया की भीख माँगने जैसी होने लगी।

‘आप झूठ बोल रहे हैं या सच यह जानने में मेरी कोई रुचि नहीं है, बल्कि मुझे तो अब शक होने लगा है, एनजीओ की आड़ और साहित्य की झाड़ में कहीं आप दलाली का काम तो नहीं करते हैं…!’–मेरे अस्तित्व को मिट्टी में गाड़कर पैर से मिट्टी को रौंदते हुए गर्दन तान कर वह रौं में बोले जा रहा था, तभी साइलेंट मोड में रखें अपने मोबाइल स्क्रीन पर इनकमिंग कॉल देखकर वह आसन से लगभग उछल पड़ा, मुझे लगा कुर्सी के अंदर शायद कोई ऑटोमेटिक स्प्रिंग लगी हो।

‘सर सर सर सर सर…’–शरीर को तीस डिग्री और सिर को पैंतालीस डिग्री के कोण से झुकाते हुए वह सर सर की रट लगाने लगा। मोबाइल को कान से चिपकाए हुए, इस कदर जैसे यदि उसके कान दुगुने साइज के होते तो शायद मोबाइल को अंदर ही घुसेड़ डालता। 

मुँह से तो उसने कुछ नहीं कहा, उसकी क्रोधपूर्ण आँखें मुझ पर बम जैसी पड़ी। इससे पहले कि चेहरे पर चढ़ी त्योरियों और आँखों की भाषा को मैं समझ पाता, उसने तर्जनी से ‘गेट आउट’ का संकेत किया।

‘सर सर सर सर’ चेंबर से दरवाजे की ओर बढ़ते हुए मेरे कानों में उसके मुँह से निकल रहे मक्खन पनीर जैसी आवाज गर्म तेल जैसी पड़ रही है। 

‘…जी सर–जी सर–कागज सामने हैं सर…बताया जाए–बताया जाए…जी-जी…सदर थाना कांड संख्या थ्री नाइन थ्री ऑफ नाइनटीन…जी सर–जी सर–नोट कर लिया।’ उसकी मक्खन पनीर जैसी आवाज गरम लोहे जैसी मुझ पर पड़ने लगी। दरवाजे से बाहर आते हुए अंदर की ओर झाँका, वह नोट पैड पर बाबा के भक्त जैसा झुका हुआ है… ‘नाम बताया जाए सर…अच्छा-अच्छा…कुँवर श्याम रंजन…जी जी…’ 

मैं कॉरीडोर पर आ गया। मोस्टो मुझ पर फिर से दाँतों और आँखों से दूरस्थ हमले की तैयारी करने लगा। शरीर बिल्कुल सीधा और दुम तनी हुई।

‘सर-सर-सर…’ मैं कॉरीडोर की सीढ़ी से नीचे उतरा कि ‘सर’ का पुतला बाहर कॉरीडोर पर आ गया। कान के पास दोनों हाथ नमस्कार अवस्था में लाते हुए, मोबाइल सहित उसने बनावटी मुस्कान के साथ मुझे विदाई संकेत किया। मालिक को कॉरीडोर में पाते ही मास्टो उसके पीछे अपना पूरा बॉडी लचकाने लगा, दुम को अजीब ढंग से लहराते हुए, विज्ञान या मानविकी के किसी भी सिद्धांत-समीकरण से परे। 

गेट से बाहर आने से पहले मैंने क्षण भर के लिए तिरछी नजर से पीछे देखा, ‘…सर सर सर…’ अब लॉन में एसपी साहब के मुँह से मक्खन-मलाई-पनीर निःसृत होना जारी है। मास्टो भी अपने बॉडी की लचक और दुम की लहर से एसपी साहब के सर सर सर की सुर से ताल मिला रहा है ‘…सर सर…बस समझिए इस कांड से कुँवर श्याम रंजन का नाम हट गया सर…यह आपने कौन सी बात कह दी सर…आप ही की दया से तो यहाँ पर बैठा हूँ सर…हा हा हा हा…’ अरे, मैं यह क्या देख रहा हूँ! मास्टो के शरीर से दुम कहाँ गायब हो गई? कहीं मेरी आँखों को दृष्टि-भ्रम तो नहीं हो रहा है! सड़क किनारे स्कूटी स्टार्ट करते-करते मेरी नजर नेम प्लेट की तरफ चली गई, नेम प्लेट के दोनों ओर नीचे से दुम लहराती दिख रही है। लंबी-लंबी दुम, शताब्दी भर लंबे। स्कूटी स्टार्ट करते हुए सोच रहा हूँ, ‘कोर्स के लिए राजनीतिक विज्ञान की किताब लिखने वाले विद्वान मंडली से अनुरोध करूँ, कार्यपालिका वाले अध्याय के उपसंहार में एक-दो लाइनें बढ़ा देने के लिए कि…वस्तुतः ब्यूरोक्रेसी को इस सदी में कार्यपालिका की दुम कहना उचित होगा।’

जाते-जाते मेरी नजर एक बार अंदर की तरफ चली ही गई ‘…सर-सर-सर…’ मास्टो और एसपी, दोनों के शरीर में अब तो लचक लाने की होड़-सी मच गई है, खुले लॉन में। अपनी अवस्था वाली आँखों से इतनी दूर से यह नहीं देख पा रहा हूँ, दोनों में से किसकी देह में पोषक तत्व का ज्यादा असर है?


Image : Tři muži v polích
Image Source : WikiArt
Artist : Josef Capek
Image in Public Domain