गजेंद्र की आत्महत्या

गजेंद्र की आत्महत्या

किसानों की लगातार हो रही आत्महत्या ने देश के आमलोगों को झकझोर दिया है। कभी- कभार समाचार मिलता था कि दक्षिण भारत में अमुक किसान ने आत्महत्या की, परंतु अब तो उत्तर भारत भी आत्महत्या की चपेट में आ गया है। अभी गजेंद्र की आत्महत्या से तो कई सवाल खड़े हो गए हैं। देश का अन्नदाता इतना कमजोर हो गया है कि उसे फाँसी के सिवाय कुछ और मार्ग नजर नहीं आ रहा है। अगर अन्नदाता कमजोर हो गया तो देश मजबूत कैसे होगा? हमारा देश गाँवों का देश है और गाँवों में किसान रहते हैं, जो दिन-रात मेहनत कर खेतों में सोना उगाते हैं। वह सोना अब इतना फीका हो गया है कि किसान आत्महत्या के लिए विवश होने लगे हैं? बहुत सारे यक्ष प्रश्न मेरे सामने हैं, जिनके उत्तर ढूँढ़ने में लगा था। सोचता था काश मरने के पूर्व गजेंद्र से भेंट हो जाती तो आत्महत्या का कारण तो पूछ लेता! अभी विचार मंथन से मक्खन निकालने का प्रयास चल ही रहा था कि सुमन आ गया।

‘क्या हाल है, सुमन?’–मैंने पूछा।

‘अंकल! किसी डॉक्टर से आँख अच्छी होने का सर्टिफिकेट लेना है, उसे सर्विस के लिए जमा करना है। एविएसन में इसकी आवश्यकता पड़ती है।’–उसने कहा।

‘अच्छा! बैठो, मैं बात करता हूँ।’–मैंने कहा और सोचने लगा कौन ऐसा डॉक्टर है, जहाँ आसानी से इसकी आँखों का प्रमाण-पत्र मिल सके। अचानक ही मेरे दिमाग के पटल पर डॉ. पाल का नाम दस्तक देने लगा। उनसे मैंने मोबाइल से बात की और उन्होंने घंटा भर बाद मुझे आने को कह दिया।

मैं सुमन को लेकर पटना के पुनाईचक से राजेंद्रनगर के लिए चल दिया। दिन में गर्मी अपनी चरम सीमा पर थी। बाहर निकलना आग पर चलने जैसा ही था। पटना जैसे शहर में भी लू के थपेड़ों के डर से सड़कें सूनसान थीं। लगा पूरा शहर खाली हो गया है, जैसा कर्फ्यू लगने पर होता है। इक्का-दुक्का सवारी-गाड़ी चल रही थी। किसी तरह डॉ. पाल के क्लीनिक तक पहुँच गया, परंतु डॉक्टर अभी तक नहीं आ सके थे। तब तक प्यास भी लग चुकी थी। मैं सुमन के साथ बाहर निकल आया तभी चाय की एक दुकान पर नजर पड़ी। चाय के सामने की बेंच पर हम दोनों बैठ गए और मैंने दो चाय माँगी। चाय के पहले मैंने पानी पिया। पानी पीने से कुछ राहत मिली। फिर चाय आने तक आकाश कुछ धुँधला होने लगा था, लगा जैसे आँधी आएगी। धूप नजर नहीं आ रही थी। इससे अशांत मन को शांति मिलने लगी थी। हम दोनों ने चाय पी और तब तक धीरे-धीरे हवा भी चलने लगी थी। मैंने सुमन से कहा–‘क्लीनिक के पास ही बैठे रहना और जब डॉक्टर साहब आवें तो आ जाना।’

सुमन चला गया। मैं वहीं दुकान की बेंच पर बैठा रहा। धीरे-धीरे चल रही हवा से सुकून मिलने लगा था। सामने ताड़ के लंबे-लंबे पेड़ थे। उन पेड़ों के सिर पर टँगे पत्तों की खड़खड़ाहट हवा के तेज होने की आहट से अवगत करा रही थी। ताड़ के हिलते पत्तों को देखते-देखते मेरी आँखों की पलकें आपस में सटने लगीं और पता नहीं कब मैंने अपने आप को अपने से अलग कर लिया।

इसके पश्चात मैंने जो देखा, वह अजीब लगा। सफेद वस्त्र पहना हुआ एक आदमी ताड़ के शीर्ष से नीचे की ओर उतर रहा है। ताड़ पर ऐसे चल रहा है जैसे जमीन पर चल रहा हो। मुझे आश्चर्य हुआ कि कोई इस तरह कैसे उतर सकता है? पासी ताड़ पर ताड़ी उतारने जाते हैं, तो वे रस्सी के सहारे चढ़ते हैं और उतरते हैं। मगर वह आदमी तो चलकर उतर रहा है। वह सफेद वस्त्रधारी आदमी मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। सफेद धोती, सफेद कुर्ता, सफेद पगड़ी तथा सफेद दाढ़ी वाले ने कहा–‘पूछ लो, जो पूछना हो, मैं सामने खड़ा हूँ।’

‘मुझे क्या पूछना है? मैं ऐसे क्यों पूछने लगा?’–मैंने उससे कहा।

‘अरे! आज पूछेंगे क्यों नहीं? सुबह से तो मेरी ही चिंता में हैं आप।’

‘मैं भला आपकी चिंता क्यों करने लगा? मैं तो आपको पहचानता तक नहीं। मान-न-मान मैं तेरे मेहमान वाली बात हुई।’

‘ऐसी बात नहीं है। आप मुझे सुबह में ढूँढ़ रहे थे। मैं गजेंद्र हूँ। वही गजेंद्र किसान, जिसने कुछ दिनों पहले आत्महत्या की।’

‘ओऽऽऽऽ…आप गजेंद्र हैं…’–मुझे तो लगा अंधे को आँख मिल गई हो, प्यासे को पानी मिल गया हो और तप्त रेत में वृक्ष की शीतल छाँव मिल गई हो। अनहद आनंद से मैं आनंदित होने लगा। भला होता क्यों नहीं…गजेंद्र मेरे सामने थे…जेहन में ढेरों प्रश्न थे…और जवाब देने के लिए खुद गजेंद्र उपस्थित थे। मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा–‘हाँ…हाँ…गजेंद्र जी!…सही में मैं आपसे मिलने के लिए बेताब था। आपने सामने आकर मेरी सारी मुश्किलें हल कर दी।’

‘हाँ, तो जल्द पूछिये, क्या पूछना है?’–गजेंद्र ने कहा।

‘अभी तो आप आए ही हैं, ऐसी भी क्या जल्दी है?’–मैंने कहा।

‘नहीं भाई, मुझे जल्द जाना होगा, क्योंकि यमराज से आपके लिए छुट्टी लेकर आया हूँ।’

‘यमराज से क्यों?…’

‘अब तो मेरा मालिक यमराज ही हैं न। आपको नहीं मालूम कि मरने के बाद मैं यमराज के अधीन हूँ।’

‘हाँ, आपने सही कहा। लेकिन यह बताइये कि आप इतना साफ-सुथरा वस्त्र पहने हैं, नहीं लगता कि कोई कष्ट है, फिर भी आत्महत्या क्यों करनी पड़ी?’

‘आप भी क्या मजाक करने लगे भाई साहब, मरने के बाद तो हर मैला-कुचैला श्वेत ही हो जाता है।’

‘अरे, हाँ…ऐसा होता है। असल में मैं भूल जाता हूँ कि आप तो मर चुके हैं।’

‘लेकिन आप पूछना क्या चाहते हैं?’

‘मैं यह पूछना चाहता हूँ कि आपने आत्महत्या क्यों की?’

‘अब तो मैंने आत्महत्या कर ली…अब पूछकर क्या कर लेंगे? मुझे जीवित तो कर नहीं सकते?’

‘हाँ, मैं जीवित तो नहीं कर सकता…मगर आपकी बातों को लिखकर लोगों तक पहुँचा तो सकता हूँ।’…

‘इसलिए कि और लोग मेरी तरह आत्महत्या कर लें।’

‘नहीं…कभी नहीं…आपकी कहानी के माध्यम से मैं संदेश दूँगा कि जीवन का नाम ही संघर्ष है। संघर्ष है तभी जीवन है, फिर संघर्ष से घबराकर कायरों जैसी आत्महत्या क्यों? जीवन में सुख नहीं मिला तो संघर्ष से घबराकर गर्दन में रस्सी लगाकर लटक जाना बुद्धिमानी नहीं है।’ मेरी आवाज ऊँची होने लगी थी।

‘तो मैं क्या करता? भूख से मरते हुए बच्चों को, दवा के अभाव में रोग से त्रस्त पत्नी को, पैसे के अभाव में जवानी की दहलीज पार करती कुँआरी बेटी पर मँडराते गिद्ध-चीलों को देख-देखकर घूँट-घूँट कर…तील-तील मरते रहता? उससे तो अच्छा हुआ कि मैंने आत्महत्या कर सबसे छुटकारा पा ली।’ गजेंद्र की भी आवाज तेज होने लगी थी। ‘तो क्या आपने सोचा कभी…कि…आपके बाद आपके बेटों-बेटियों और पत्नी का क्या होगा? एक तो ऐसे ही दारुणा-दुःख की मार से त्रस्त थे, दूसरी आपकी मौत से तो और वे टूट गए होंगे।’

‘हाँ, आप ठीक कहते हैं। मरने के बाद मुझे लगा कि मैंने बहुत बड़ी गलती की। शायद मैं बुजदिल हो गया था…शायद क्या…सही में मैं कायर हो गया था। अब समझ में आया कि आत्महत्या करना सबसे बड़ी कायरता है। असल में एक समय आता है, जब हाथ-पाँव भाँजना काम नहीं आता…विवेक मर जाता है…आदमी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है…जीवन भार लगने लगता है। अब और दायित्व निर्वहन की शक्ति नहीं रह जाती है, तो उस समय इन समस्त चीजों से छुटकारा पाने का एक ही मार्ग मिलता है–स्वयं की इहलीला समाप्त करने का।’

‘तो क्या मरने के बाद भी आप चैन से हैं?’

‘नहीं…एकदम नहीं…मैं और बेचैन हो गया हूँ। देखते नहीं मैं कितना बेचैन हूँ जो आपके सामने खड़ा हूँ। मैं देखता हूँ परिवार को रोते हुए, लेकिन चुप नहीं करा सकता, क्योंकि मेरी आवाज वे नहीं सुन सकते। मैं देखता हूँ कुछ लोग उपहास के लिए आते हैं…मगर मैं उसे बोल नहीं सकता…, क्योंकि वे न तो मुझे देख सकते हैं और न सुन सकते हैं। जिंदा रहता तो कम-से-कम परिवार की सुरक्षा में खड़ा तो रहता…हाथ-पाँव मारकर उनके लिए कुछ उपाय तो करता…मगर अब लाचार हूँ…कुछ नहीं कर सकता।…देखिये, वे यमदूत खड़े हैं मुझे ले जाने के लिए…लेकिन मैं नहीं जा रहा…क्योंकि परिवार को असुरक्षित देखकर मुझे अपने आपसे घृणा हो रही है। अब सोच रहा हूँ…क्यों मैंने आत्महत्या जैसी घृणित राह चुनी?’ गजेंद्र कहते-कहते रोने लगा था और उसने पुनः कहा–‘भाई साहब! आप कुछ रास्ता निकालिए और मेरे परिवार को सुरक्षित कीजिए, जिससे मेरी आत्मा को सुकून मिल सके।’

‘देखिये, मुझसे जो बन पड़ेगा करूँगा। लेकिन यह तो बताइये कि आज जो आप पश्चाताप कर रहे हैं, उस समय क्या हो गया था कि आत्महत्या के लिए बाध्य होना पड़ा।’ गजेंद्र ने कहना प्रारंभ किया–‘मैं एक खाता-पिता परिवार का था। खेती करता था। गाय पालता था, जिससे दूध मिलता था और बैलों को पाल रखा था, जिनसे खेती होती थी। परिवार-पोषण से अधिक की उपज होती थी। खुशहाल था मैं और मेरा परिवार। लेकिन अचानक बाजार में डंकल का प्रवेश हुआ। सरकारी स्तर पर प्रचार किया गया कि डंकल के बीज से तीन गुना उपज होगी। लालच में पड़ गया। फसल तो देखने में बहुत अच्छी लगी, …मन खुश भी हुआ कि इस बार अच्छी आमदनी होगी।’ कहते-कहते वह चुप हो गया। मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा–‘तो फिर क्या हुआ?’

‘फसल में दाने नहीं थे। सब भूसा हो गया…भूसा। लगा पहाड़ टूटकर गिर गया। अच्छी उपज और आमदनी के लालच में सारा पैसा खेती में लगा दिया। लेकिन अचानक पैरों तले जमीन ही खिसक गई। मेरे सारे अरमान चकनाचूर हो गए। आँखों में सँजोये सपनों को आँखों के सामने ही एक-एक कर बिखरते देखने लगा।’ और वह फूट-फूट कर रोने लगा। मैंने कहा–‘हिम्मत रखिये गजेंद्र जी…आगे क्या हुआ?’

‘ठीक यही शब्द ‘हिम्मत’–जो अभी-अभी आपने कहा…प्रखंड के सरकारी पदाधिकारी आए और उन्होंने कहा कि हिम्मत रखिये…इस बार पिपरमिंट की खेती कीजिए…बहुत फायदा होगा…सारी कसर दूर हो जाएगी। मैंने उनकी बात मानकर बड़े पैमाने पर पिपरमिंट की खेती की। मगर…।’ और वह चुप हो गया और फिर उसने कहा–‘उस वर्ष इतनी बारिश हुई कि खेतों में पानी लग गया और पिपरमिंट की फसल गलकर समाप्त हो गई। अब तो कमर ही टूट गई। खाने के लाले पड़ गए। खेतों को बेचकर परिवार का भरण-पोषण करने लगा। अब तो खेती करने के पैसे भी नहीं थे। कर्ज के बोझ से दबा जा रहा था।’

‘लेकिन सरकार भी तो खेती के लिए कर्ज दे रही है।’ मैंने कहा।

‘हाँ मेरे भाई! फिर सरकार की घोषणा हुई कि ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ बनाओ और पाँच से पचास हजार तक ऋण लो। मैंने भी ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ बनवा लिया और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक जो मेरे गाँव में ही खुला है, उसमें हाजिरी लगाने लगा। कोई मेरी नहीं सुनता था। चपरासी, किरानी से मैनेजर तक मैंने गुहार लगाई कि ऋण दे दो, किसी ने नहीं सुनी। जब भी मैं बैंक में जाता, मुझे देखते ही वे भिन्ना उठते, जैसे ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ बनाकर मैंने कोई गुनाह कर ली है। दौड़ते-दौड़ते महीनों बीत गए। मैं हार-थककर बैठ गया। बैंक का चक्कर लगाना भी छोड़ दिया। फिर एक दिन चिखुरी से भेंट हुई। उसने कहा कि उसे किसान क्रेडिट कार्ड से रुपये मिले हैं।

‘कैसे मिले चिखुरी?… मैं तो बैंक में महीनों चक्कर लगा-लगा कर थक गया हूँ।’

‘अरे वो रामदास का लड़का जयराम है न, उसी ने बैंक से मुझे पैसे दिलाये। उसके बैंक के मैनेजर से जान-पहचान है। हाँ, थोड़ा घूस-ऊस के लिए पैसे देने पड़े।’

‘घूस के लिए पैसे क्यों? यह तो सरकार के पैसे हैं। सरकार किसानों के लिए दे रही है।’

‘हाँ भाई गजेंद्र! बात पक्की है, परंतु बिना बिचैलिया के पैसे नहीं मिलेंगे। यह गाँठ बाँध लो। मैंने भी महीनों चक्कर लगाया, तब हार-थक कर जयराम के पास जाना पड़ा।’ चिखुरी की बात मानकर मैं जयराम के पास गया। उसने पचास हजार में से दस हजार अपने लिए और दस हजार बैंक मैनेजर के लिए माँग की।

‘मगर जयराम…सरकार तो मुझे पचास हजार ऋण देगी, तो मुझे पचास हजार सूद सहित लौटाने पड़ेंगे।’

‘नहीं काका…पैसे कौन लौटाया है?…इलेक्शन आ रहा है…सब पैसे माफ हो जाएँगे…फिर तो मजा ही मजा है। सोच लीजिए काका।’

उसके समझाने पर मैं पचास हजार के बदले तीस हजार लेने के लिए तैयार हो गया और आश्चर्य तो यह हुआ कि एक दिन में ही पैसे मिल गए।

‘अच्छा! इन पैसों का आपने क्या किया?’–मैंने पूछा।

‘करता क्या? कर्ज तो लोगों के थे ही, फिर भी मैंने सोचा बेटी सयानी होने लगी है, इसके हाथ पीले कर दूँ। मगर ऐसा नहीं हो सका। जहाँ गया दहेज का दानव ने पीछा नहीं छोड़ा और कम दहेज में शादी के लिए ढूँढ़ते-ढूँढ़ते ये पैसे भी दवा-दारू और खाने-पीने में खर्च हो गए। इधर पैसे के अभाव में बेटी जवानी की दहलीज भी पार करने लगी थी। आसपास के आवारा लड़कों की गंदी निगाहें बेटी को लहूलुहान करने लगी थी। इज्जत बचाना मुश्किल हो गया था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। एक दिन तो थानेदार से भी कह आया, तो वह उलटे मुझ पर ही दोषारोपण करने लगा कि ‘अपनी बेटी को सँभाल कर रखो…आते-जाते लौंडों पर नजर फेंकती है, तो क्या लौंडे हिजड़े हैं कि नहीं देखेंगे…जाओ-जाओ जब वे बलात्कार कर लेंगे तब आना।’ मैं चुपचाप आ गया। थानेदार की बातों से मैं काफी परेशान रहने लगा। बार-बार मेरे कानों में उसकी आवाज टकराने लगी…‘जाओ-जाओ जब वे बलात्कार कर लेंगे, तब आना…’ और मैं अंदर तक टूटने लगा था। उस समय मेरी घरवाली ने मुझे ढाँढस बँधाया और बोली–देखती हूँ कौन मुँहझऊँसा मेरी बेटी की ओर देखता है, उसकी हड्डी-पसली एक कर रख दूँगी। लेकिन उस ढाँढस में कोई दम थोड़े था। मेरी कहाँ औकात थी कि किसी के ऊपर रोब झाड़ सकता। उस दिन थानेदार ने मेरी बेटी को लेकर जो कहा था, खून तो खौल ही गया था…मन तो किया कि पटक कर स्साले थानेदार को वहीं अच्छी मार मारूँ…मगर कहाँ कुछ कर पाया। खून का घूँट पीकर रह गया।

एक दिन गाँव का प्रधान आया और सहानुभूति दिखाते हुए बोला–‘गजेंद्र जी! आपकी माली हालत ठीक नहीं है, क्यों नहीं मनरेगा में काम करते हैं…इसमें एक वर्ष में सौ दिनों के काम की गारंटी है।’ और मेरे हामी भरने के तीन दिनों बाद ही लाल कार्ड आ गया। दस दिन तक मैंने कार्य किया और उसके बदले पैसे भी मिले। अच्छा लगा। मगर मेरा लाल कार्ड प्रधान ने ले लिया और कहा कि जितने भी मनरेगा में काम करने वाले लोग हैं, उनके कार्ड एक जगह रखा जाता है। फिर कभी काम नहीं मिला। मुझे जानकारी मिली कि गाँव का प्रधान, ग्राम सेवक, पंचायत तकनीकी सहायक तथा पोस्ट ऑफिस का पोस्ट मास्टर मिलकर मजदूरी के फर्जी हस्ताक्षर बनाकर पैसे निकाल लेते हैं और आपस में बाँट लेते हैं। हम टकटकी लगाए रहते हैं और मनरेगा के अंतर्गत काम बंद हो गया है, का बहाना बनाकर हमें टरका दिया जाता है। हम क्या कर सकते थे। बी.डी.ओ. तक हाथ-पाँव भाँजे, लेकिन कुछ नहीं हुआ, क्योंकि मनरेगा का पैसा तो ऊपर तक जाता है।

‘सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान चला रखी है और खुलेआम भ्रष्टाचार,…हर कदम पर भ्रष्टाचार यह तो असहनीय है।’–मैंने कहा।

‘काहे का अभियान…कैसा अभियान…कागजी घोड़ा…आँखों के सामने भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है और सरकार को दिखाई नहीं पड़ रहा है। सब जनता से धोखा है भाई साहब।’–उसने कहा।

‘लेकिन आत्महत्या तक की नौबत कैसे आ गई?’–मैंने पूछा।

‘मैं बता रहा हूँ। उसी पर आ रहा हूँ। हुआ यह कि साहूकारों से लिए कर्ज दूज के चाँद की तरह बढ़ते गए। उनका दबाव बढ़ने लगा। पैसे तो थे नहीं मेरे पास…उन्हें देता क्या?…आजकल…आजकल कहकर दिन टालता गया और मूल से कई गुना सूद हो गया। धूरे-धूर खेत बिक गया…लेकिन साहूकार का कर्ज कपार पर सवार ही रहा। इधर किसान क्रेडिट कार्ड पर लिए गए ऋण की वापसी के लिए नोटिस आ गई। जयराम ने कहा था कि सरकार माफ कर देती है, इसीलिए इस ऋण को मैंने लिया भी था और वो भी पचास हजार के बदले तीस हजार। अब लौटाने के समय पचास हजार के पचास हजार तो थे ही, साथ में सूद भी। सूद जोड़कर पचासी हजार। मेरे रोम-रोम पर…मेरे ही क्यों…मेरे परिवार के रोम-रोम पर कर्ज का भार दबाव दे रहा था। मैं ऋण से कभी उऋण भी हो पाऊँगा, इस जीवन में सोच भी नहीं सकता था। एक दिन तो अजीब घटना घटी। साहूकार का जवान लड़का आया और मुझसे कहने लगा–‘अंकल! मैं जानता हूँ आप कर्ज से परेशान हैं, लेकिन घबड़ाइये मत, रधिया को मेरे साथ रहने दीजिए…सारा कर्ज माफ हो जाएगा।’ रधिया मेरी बेटी का नाम है। उस छोकड़े की बात सुनकर मेरी आँखों में खून उतर आया। आव देखा न ताव डंडा उठाकर उसे खदेड़ दिया। वह भाग गया, वरना स्साले को वहीं ढेर कर देता। बताइए मुझसे ही मेरी बेटी का सौदा करने आया था।

सोचिए कि मैं किस तरह जी रहा था। घर में अन्न का दाना नहीं…सर पर कर्ज का असह्य भार…सयानी बेटी के जिस्म को अपनी चाहत की तलवार से कतरा-कतरा काटते लफंगे…इज्जत बचाना मुहाल…रात-रात भर नींद नहीं आती थी। क्या करूँ…क्या न करूँ…पागल की हालत हो गई थी।

फिर भी इज्जत कहाँ बच पाई? एक रात तो साहूकार का बेटा चार पहलवानों के साथ मेरे घर में घुस गया। अभी कुछ सोच-समझ भी नहीं पाया था कि दो पहलवान मुझे और दो पत्नी को पकड़ कर बाँध दिए। उन्होंने बेटा को एक दूसरे कमरे में बंद कर दिया। फिर साहूकार का बेटा मेरे सामने ही रधिया की इज्जत को तार-तार करने लगा। उस समय मैं न जी रहा था और न मर रहा था। वे चले गए और हमारा सब कुछ लूट गया था। इज्जत की चादर आकाश में नहीं उड़ने के चलते इस घटना को किसी और से साझा नहीं कर पाया और न ही उस थानेदार के पास जा सका, जिसने कहा था–जब बलात्कार हो जाय, तब आना…। कई दिनों तक अँधेरे में मुँह छुपाये रोती रही मेरी रधिया। न मेरी हिम्मत हुई उसे देखने की और न उसने मुझे देखा। दिन का उजाला काटने लगा था। छोटी-सी आहट पर भी कान खड़े हो जाते…जाने अब क्या होगा?

एक रात रधिया चुपके से घर से निकल गई, तो फिर लौट कर घर नहीं आई। बहुत ढूँढ़ा, पर नहीं मिल सकी। कहीं मर-खप गई होगी। लोगों ने कहा–सयानी हो गई थी…किसी से मुँह काला कराने भाग गई रंडी।…नहीं…नहीं हरीश बाबू! मेरी बेटी रंडी नहीं थी…वह…वह तो गंगा से भी पवित्र थी।

रधिया के गुम हो जाने के बाद तो मेरे पास जीने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। अब जीवन से छुटकारा पाने के लिए छटपटाने लगा। एक पल भी जीना मुश्किल हो गया था। अब मेरी आँखों के सामने मेरी पत्नी और बेटे की तस्वीर नजर नहीं आती थी…आती थी तो फाँसी का फंदा, जिसे गले लगाकर निश्चिंत हो जाना चाहता था। और हाँ, मैंने आत्महत्या कर ली। क्योंकि आत्मग्लानि से उत्पन्न अवसाद से मुक्ति का मार्ग आत्महत्या के अलावा दूसरा नजर नहीं आया। मेरे मरने के बाद रधिया से भेंट हुई है। वह अब निश्चिंत है। उसे रेप का डर नहीं सता रहा है। उसने बताया कि वह नदी में डूब गई थी। उसकी लाश गाँव से बहुत दूर किनारे लगी, जहाँ कुत्ते, सियार, गिदड़ और गिद्ध-चील नोच-नोच कर खा गए।

उसी समय सुमन की आवाज सुनाई पड़ी–हरीश अंकल! डॉक्टर साहब आ गए हैं। मेरी तंद्र भंग हुई। मेरी आँखों के सामने गजेंद्र नहीं, सुमन था। जब मैंने गजेंद्र की आत्महत्या की कहानी सुमन से सुनाई, तो उसकी भी आँखों से आँसू टपक पड़े। मेरी आँखों के सामने उसके हाथ में रखे अखबार पर छपी इबारत के मोटे-मोटे अक्षर मुझ पर तंज कसने लगे, जिसमें लिखा था कि सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्ते, सुख-सुविधा दोगुनी हो गई है, लेकिन कहीं भी नहीं लिखा था कि किसानों को आत्महत्या से रोकने के लिए सरकार क्या करने जा रही है?


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Artist : Jean Francois Millet
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हृषीकेश पाठक द्वारा भी