नाम बड़े और दर्शन छोटे
- 1 August, 2016
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- 1 August, 2016
नाम बड़े और दर्शन छोटे
सभापुर नगर भी आखिर बाजारवाद की लपेट में आ ही गया। बाजारवाद से जिसका जो नफा-नुकसान हुआ वह तो हुआ ही, सबसे अधिक क्षति हुई मुख्य पथ पर ‘होटल सर्वश्रेष्ठ’ और उसके ठीक बगल से लगे जय भवानी पान भंडार की। बहुत पहले जो समय था तब सभापुर ने समाजवाद नामक शब्द खूब सुना था। अब बाजारवाद जैसा भ्रम उपजाता शब्द चारों ओर दस्तक दे रहा है। एक वह समय था जब बाजारवाद ने दस्तक नहीं दी थी। सभापुर में दो-चार होटल थे उनमें ‘सर्वश्रेष्ठ’ को अच्छी ख्याति प्राप्त थी। इसकी बुकिंग सदा फुल रहती थी जिसका पूरा लाभ जय भवानी का मालिक सूबेदार लूटता था। ‘सर्वश्रेष्ठ’ में ठहरे लोगों के लिए भर-भर तश्तरी पान जाते थे। सूबेदार ऐसा जायकेदार बीड़ा बनाता था कि खाकर लोगों के चेहरे में सराहना साफ देखी जा सकती थी। सूबेदार महदेवा (गाँव) में रहता था। उसकी विधवा अम्मा अपने काम चलाऊ बरेज से पान की पत्तियाँ तोड़कर घर-घर, खासकर ब्राह्मण और ठाकुरों के यहाँ पहुँचाती थी। कुछ पैसा और इतना अन्न कबाड़ लेती थी, जिसमें उसकी और इकलौती संतान सूबेदार की गुजर हो जाए। शादी-ब्याह के मौसम में पान की माँग बढ़ जाती। अम्मा खुला पान (पान की पत्ती) पहुँचाती और सूबेदार अपने कुशल हाथों से बीड़ा बनाकर शादी वाले घर को अपनी सेवा देता। उसके बनाए बीड़े की खूब सराहना होती। बड़ा हुआ तो ग्यारह किलोमीटर साइकिल चलाकर सभापुर खुला पान बेचने आने लगा। वह जिस मार्ग से होकर बाजार पहुँचता उस मार्ग में ‘सर्वश्रेष्ठ’, एक विद्यालय और सर्किट हाउस पड़ता था। बाकी दूर-दूर तक सड़क और मैदान थे। बाजार में पान के खोखे देखकर सोचता–छोटी सी दुकान खोलकर पान बेचे तो अच्छी आय हो सकती है। प्रारब्ध में सभापुर का दाना-ठिकाना लिखा था। अपनी मौज में एक दिन ‘सर्वश्रेष्ठ’ में आया और मालिक को गज भर लंबा प्रणाम कर अपनी सूझ-बूझ बताई–
‘आप कहें तो होटल के बगल में पान की दुकान लगा लूँ। होटल वालेन को पान, तंबाकू, चूना की खातिर दूर न जाना पड़ेगा।’
यह जमीन होटल मालिक की नहीं थी। बोला–‘मुझसे क्यों पूछते हो? जहाँ तुम्हारी मर्जी हो गुमटी लगा लो।’
अपने धुर देहाती सीधेपन के कारण सूबेदार ने होटल मालिक की अनुमति को कृपा समझा ‘ठीक हय हजूर। आपको मिसे कउनो परेसानी न होगी। जब आर्डर करेंगे हम होटल में पान पहुँचा देंगे।’
‘ठीक है, ठीक है।’
मालिक उपकार नहीं कर रहा था लेकिन सूबेदार उपकृत हो गया।
उस इलाके में एकमात्र पान की गुमटी होने के कारण जय भवानी पान भंडार बहुत उपयोगी साबित हुआ। होटल, स्कूल, सर्किट हाउस आने-जाने वाले तो पान खाते ही उस राह से गुजरने वाले कई लोग स्थायी ग्राहक बन गए। आय के आँकड़े अच्छे हों तो भाग्य बन जाता है। रूखी-सूखी सूरत वाले सूबेदार का विवाह दस बरिस छोटी, खूबसूरत तिली से हो गया। गौने पर आई मध्यम कद, भराव लेती देह, अच्छे स्वास्थ्य की कांति वाले ताजे-साँवले चेहरे वाली तिली को देखते ही सूबेदार घायल हो गया। तिली के चेहरे में ताजा बयार-सी हँसी इतनी जँचती कि महदेवा के फौज भर लड़के उसके देवर बनने को आतुर रहते। जबकि तिली को सूबेदार फूटी आँख न सुहाया। वह उसे जब भी देखती धिक्कार से देखती। धिक्कार पर ध्यान न दे सूबेदार उसे लोलार (दुलार) से देखता। उसके लिए खुशबूदार बीड़ा बनाता–
‘तिली खाय लो। खाना खाने के बाद पान खाने से खून बढ़ता हय।’
‘हम पान नहीं खाते।’ कहकर तिली दरअसल पान को नहीं सूबेदार को निरस्त करती थी। लेकिन हमारे देश में दांपत्य की काफी अहमियत है। कुछ दगाबाजों को छोड़ दें तो निरस्त करते-करते दंपत्ति निबाह कर लेते हैं और बाल-बच्चेदार हो जाते हैं। निरस्त करते-करते तिली ने एक दिन खुशबूदार बीड़े को एप्रूव्ड कर दिया। एप्रूव्ड करने के पहले उसने खुद को खूब, बार-बार प्रबोधा–पति अब न बदलेगा पर समझदारी से काम ले तो जिंदगी बदल सकती है। महदेवा से निकल कर सभापुर की रंगीनियाँ देखनी हैं तो सूबेदार के खुशबूदार बीड़े को हजम करना पड़ेगा। तिली ने सूबेदार को उसी लोलर से देखा जिस तरह सूबेदार उसे देखता था–‘एतना अच्छा बीड़ा बनाते हो पै ओतनी बरक्कत नहीं हो रही है जेतनी मेहिनत करते हो।’… ‘कुछू परेशानी है?’
‘साइकिल से सभापुर आते-जाते दुबराय गए हो। महदेवा का काम अम्मा सँभाले हैं। हम सभापुर में रहेंगे। जिन्नी और जंजे (बेटी-बेटा) को अच्छी पाठशाला में पढ़ाना हय। यहाँ दिनभर धूप में बागते हँय।’
‘अम्मा अकेले कइसे रहेंगी?’
‘जब इच्छा होयगी सभापुर आ जाएँगी। हमहूँ महदेवा आते-जाते रहेंगे। ए हो, पान की दुकान में रौनक शाम को होती हय। तुम दुकान जल्दी बंद कर महदेवा के लिए चल देते हो के अंधियारे में गइल (राह) न दिखेगी। अउर हमको चिंता लगी रहती हय अँधियारे में तुमको भूत-बयार परेसान न करें।’
सूबेदार गदगद। जितनी सुंदर है, उतना सुंदर सोचती भी है।
‘ठीक बात। होटल मालिक कहते हैं जय भवानी जल्दी बंद कर देते हो। होटल आने वाले लोग पान की माँग करते हैं।’
तिली सभापुर क्या आई मानो बरक्कत लेकर आई। शाम को अच्छी संख्या में ग्राहक आते। दिन में विद्यालय के विद्यार्थी आते। सर्किट हाउस में जब कोई मंत्री आते उनसे मिलने आए लोग पान की तलब लिए जय भवानी चले आते। सूबेदार खुश था। सब कुछ सही वेव लेंथ पर जा रहा था। कोई खबर नहीं बाजारवाद जैसा एक ताकतवर शब्द है जो सभापुर को लपेटे में लेता जा रहा है। सूबेदार ने मानो अचानक देखा। बाजार का स्वरूप और संस्कार इतना बदल गया है कि सभापुर कुछ और ही हो गया है। चारों ओर निर्माण और रौनक। बाजार के रुख को पहचान कर उपभोक्ताओं को लुभाने के नानाविध तौर-तरीके। मानो रातों-रात आधुनिक सुविधाओं और पुख्ता प्रबंध वाले होटल खड़े कर दिये गए हैं। दूर की बात न करें विद्यालय के पास अच्छी रौनक वाली दो पान की दुकान सज गई हैं। वहाँ पान, गुटखा से लेकर बीड़ी, सिगरेट, कोल्ड ड्रिंक, बिस्कुट, चॉकलेट अघोषित रूप से ड्रग भी उपलब्ध है। आधुनिक होटलों ने ‘सर्वश्रेष्ठ’ की श्रेष्ठता गारद की, पान की दुकानों ने जय भवानी की बिक्री पर बट्टा लगाया। ग्राहक बँट गए। ‘सर्वश्रेष्ठ’ में ठहरने वालों की संख्या भी अल्प हो गई। भर तश्तरी पान की माँग खत्म हो गई। पराभव ने सूबेदार से अधिक तिली को चिंतित कर दिया। सूबेदार की सूखी सूरत के कारण रातों की चैन, दिन का करार वैसे भी चौपट हो गया था। अब वह बेहतरी भी न रहेगी जिसकी उम्मीद में सभापुर चली आई है। अपने छोटे टी.वी. में विज्ञापन देख वह कितना ललकती है। विज्ञापन की वस्तुओं को समीप से देखने के लिए अक्सर दोपहर में बाजार जाती है कि धीरे-धीरे एक-एक कर सारी वस्तुएँ खरीद लेगी। दुकानों में तैनात लड़कियाँ (सेल्स गर्ल) मुस्कुरा कर स्वागत करतीं तब तो लगता इच्छित उत्पाद खरीद ही लें पर उचित पैसा न होता। तिली देखती बाजार में, दुकानों में कितनी भीड़ होती है। फिर जय भवानी पान भंडार में अकाल क्यों पड़ गया? सूबेदार सुंदर और जायकेदार बीड़ा नहीं बनाता कि बीड़ा बनाते-बनाते थकने लगा है? तिली ने लोलार से सूबेदार को देखा–‘ए हो, अहसे न चलेगा। कइसे मकान का किराया देंगे, कइसे जिन्नी और जंजे की फीस देंगे, कइसे बीमार रहने वाली अम्मा की दवाई-ओसहा (औषधि) होगी?’
‘का बतायों।’
‘जय भवानी तोंहसे नहीं चल रही है। कहो त हम चलाएँ।’
‘बेलकुल नहीं। पान-सिगरेट के दुकान मा चार गुंडा-बदमास आबत हैं।’
‘हम पंडिताइन-ठकुराइन नहीं हैं के लाज मूँदे घर माँ बइठे रहेंगे। सभापुर नया जमाना वाला होइ गा हय। दुकान में सुंदर-सुंदर बिटिया सामान बेच रही है। हम पान काहे नहीं बेच सकते? ए हो एक से दुह भले। तोहारे रहते कोहू के मजाल नहीं जो हमको आँख उठा के देखेगा। जो देखेगा हम उसकी अइसन-तइसन कर देंगे।’
सूबेदार सोच में डूब गया। तिली की सलाह उचित लग रही थी या तिली की मंशा को रद्द कर उसे खफा नहीं करना चाहता था? कर ले मंशा पूरी। उकता कर चार दिन में वापस घर में बैठ जाएगी।
जय भवानी एक तरह से तिली को हस्तगत हो गई। सूबेदार नायब के पद पर। प्रत्येक व्यक्ति का अभिरुचि, प्रबंधन, कला कौशल भिन्न होता है। तिली को वे कारक, प्रभाव, घटक नहीं मिले जो व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हैं लेकिन बाजार में टिके रहने की दक्षता उसमें थी। उसे बाजार के चमत्कार और तिलिस्म की समझ और संज्ञान नहीं था लेकिन अपनी खूबियों का एहसास था। जानती थी स्वस्थ चेहरे में ताजा बयार सी हँसी खूब खिलती है। उसने हँसी में खनक और मुद्राओं में चुहल भरी। ग्राहक को सबसे पहले ताजा बयार सी हँसी उपलब्ध कराती ‘का पेस करें साहेब? कउन पान पसंद करते हैं? मीठी पत्ती, बँगला, महदेवा कि बनारसी?’
ग्राहक चकित हो जाते। पान जैसी छोटी दुकान अक्सर पुरुष चलाते हैं। जय भवानी को बाजारवाद से मेल करने जैसी आनंदी, छवि वाली स्त्री चला रही है।
‘चमन बहार डालकर मीठी पत्ती बनाओ।’
उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के विद्यार्थियों की दीवानगी शीर्ष पर होती है। तिली की प्रफुल्ल छवि को देखकर जय भवानी आने लगे। तिली तत्पर हो जाती–‘का लोगे हीरो?’
‘हीरो तो एक ही है। हमारा सलमान खान।’
‘हमारे लिए आप सब हीरो हो। का पसंद करते हो? कउन गुटखा, कउन कोल्ड ड्रिंक, कउन चॉकलेट? हम सब रखते हैं। सेवा का मउका दो।’
‘सेवा का मौका तुम हमको दो।’
‘अउर भी जो पसंद करो, हम मँगा लेंगे।’
‘ड्रग रखो। वो दोनों पान वाले ड्रग रखते हैं। समझती हो न। नशा करने वाली गोलियाँ।’ विद्यार्थी हँसते, शोर करते, आपस में अँग्रेजी में बोलते। अँग्रेजी न सूबेदार समझता न तिली, पर तिली शीश झमकारते हँसते हुए ऐसी मुद्रा बनाए रखती जैसे समझ रही है। सूखा मुँह बनाए सूबेदार तिली को देखता। इस तरह हँसते हुए किसी के साथ दूर उड़ गई तो दांपत्य न बचेगा। विद्यार्थियों के जाते ही वह स्वामित्व पर उतर आता–‘ऐतना बेभाव न हँसा कर तिली।’
तिली, सूबेदार को लोलार से देखती ‘ऐ हो, बेभाव नहीं जय भवानी का भाव बनाने के लिए हँसते हँय। मस्त लड़िका हँय। अच्छी बिक्री भई।’
लोगों को तिली की हँसी लुभाती और भ्रमित करती। ऐसा हँसती है जैसे हर किसी को दिल देने के लिए तैयार बैठी है। किस्से-कहानी बनने लगे। किस्से-कहानियों से बेखबर तिली ग्राहक देखते ही स्फूर्त हो जाती–‘हुकुम करो साहेब।’
‘तुम तो कुछ भी खिला दो। और हाँ दस पान बाँध दो। मंत्री जी से मिलने के लिए हमारे साथ कई लोग सर्किट हाउस में जमा हैं।’ तिली, सूबेदार को आदेश देती ‘ए हो, हरबी-हरबी (जल्दी) हाथ चलाओ। फस्स किलास बीड़ा बनाओ।’
सूबेदार सुडौल बीड़ा बनाने में दत्त होगा इधर तिली कतरी सुपाड़ी या चूना हथेली पर रखकर ग्राहक के सम्मुख फैला देती। शरीफ लोग शराफत से सुपारी, चूना लेते, मुक्त तबीयत वाले हथेली पर उँगलियों का भरपूर दबाव डालते हुए लेते। तिली बुरा नहीं मानती। समझ गई है बाजार के लायक बने रहना है तो थोड़ी-बहुत माया दिखानी होगी। थोड़ी-बहुत मनमानी सहनी होगी। उत्पाद का प्रस्तुतीकरण गुणवत्ता से अधिक जरूरी होता है। वस्तु छोटी हो या बड़ी, मामूली या मूल्यवान, आजकल इतनी लुभावनी पैकिंग होती है कि खोलकर उत्पाद बाहर निकालने की इच्छा नहीं होती। सूबेदार, तिली के व्यवहार में पैंतरेबाजी देखता। बीड़ी के धुएँ के साथ क्रोध बाहर छोड़ता–‘तिली, चार ठो गुंडा-बदमास आते हँय। इतना नक्सा न देखाया कर।’
‘नक्सा नहीं देखाते हैं। अपना बिजनिस चमका रहे हैं।’ कहकर वह सूबेदार को लाजवाब कर देती। सूबेदार वैसे भी उसके सम्मुख लाजवाब लगता था। तिली की सफाई सुन उसे तिली खरी मेहेरिया और वह खुद दिमाग वाला लगने लगता। तिली ठीक कहती है। नक्शा दिखाती है कि नहीं दिखाती है पर जय भवानी को बरक्कत दे रही है। बरक्कत हो रही है तो थोड़ी-बहुत अप्रिय वारदात यदि होती है तो सहना पड़ेगा। तिली ठीक मौके पर जय भवानी न सँभालती तो वही दशा होती जो ‘सर्वश्रेष्ठ’ की हो रही है। जब कभी एक-दो लोग ठहरते हैं बाकी सन्नाटा पड़ा रहता है। तिली के प्रताप से ग्राहकों की संख्या बढ़ी है बल्कि सर्किट हाउस वाले चौराहे पर ड्यूटी देने वाले यातायात पुलिस के जो सिपाही पान खाकर जेब से पैसा निकालना गुनाह समझते थे वे अब तिली को ईमानदारी से दाम देते हैं। यातायात नियंत्रण करते हुए बोसीदा हुए सिपाही जय भवानी में इस तरह प्रसन्न होकर आते हैं जैसे सुस्ताने की मोहलत मिल गई है।
‘सीटी फुरफराते सुबह से खड़े हैं। अब जाकर मंत्री जी की सवारी निकली। मूतने तक नहीं जा सके। उधर मूतने जाएँ और इधर कुछ गड़बड़ी हो जाए तो मंत्री जी हमारी नौकरी ले लें।’
तिली ने छोटे फ्रीज से शीतल पेय का कैन निकालते हुए कहा ‘हुजूर, एक घड़ी सुस्ता लो। ठंडा पियो।’
सिपाही ने तिली को भरपूर देखा, कोन थामते हुए उसके हाथ को भरपूर छुआ–‘इस नौकरी में सुस्ताना गुनाह है।’
‘हजूर आप लोगन की डियूटी बहुतय कड़ी हय। एतनौ पर जनता आप लोगन को गाली देती हय।’
दिनभर का दाह कम करने के लिए सिपाही ने शीतल पेय कंठ में उतारा–लोगों को लगता है चालान काटकर हम सरकारी खजाना नहीं अपनी जेब भर रहे हैं।’ तिली चालान का अर्थ न समझी लेकिन मस्त होकर हँसी ‘ठीक कहते हैं हुजूर।’
जय भवानी का कारोबार शाम को बढ़ जाता। उस पथ से आने-जाने वाले कई लोग नियमित ग्राहक बन गए हैं। ये नियमित ग्राहक दो-चार दिन न आएँ तो तिली जिज्ञासा व्यक्त करती–‘बड़े दिनों के बाद जय भवानी की सुध किए साहेब। कहौं बाहर गए रहे?’
‘दफ्तर के काम से जाना पड़ा। बाबा जर्दा डालकर पान बनाओ।’
‘हाँ, हमें मालूम है आप बाबा जर्दा पसंद करते हैं। वह्य बना रहे हैं। फुल मीठा पान मैडम की खातिर ले जाओ। खुश हो जाएँगी।’
तिली जानती है साहब पत्नी को प्रसन्न करने हेतु पान न ले जाएँ तो उसकी उजली हँसी का मूल्य चुकाने के लिए ले ही जाएँगे।
‘मैडम, कभी खुश नहीं होती पर कह रही हो तो ले जाता हूँ।’
बल्ब के लाल मद्धिम प्रकाश में आसीन तिली, आनंद लोक की रचना करती जान पड़ती ‘आप जइसे उदार दिल लोग है। तबहिन हम गरीबन को दाल-रोटी मिल रही है…।’
किसी के साथ छोटे बच्चे को देख तिली छोटा सा पान बनाकर (बिल्कुल मुफ्त) अपने हाथ से बच्चे के मुँह में डाल देती–‘अउर का लोगे? कउन चॉकलेट? कउन बिस्कुट? पापा जी का मुँह का देखते हो? चॉकलेट पकड़ो। लो लल्ला।’
लल्ला चॉकलेट झपट लेता। लल्ला का पिता समझ लेता तिली ठग रही है पर ठगाई वाजिब सी लगती। चॉकलेट और बिस्कुट का मूल्य चुकाते हुए वह तनिक अन्यमनस्क न होता। जय भवानी बंद कर तिली को साइकिल पर बैठाये घर जाते हुए सूबेदार जरूर अन्यमनस्क हो जाता–‘तिली, कोउ अपनी कंपनी (सूबेदार पत्नी को कंपनी कहता था) को खुश रखे, न रखे, तोंहसे मतलब?’
‘जय भवानी से मतलब रखते हैं। तुम्हीं बुरा लगता है तो अब किसी से नहीं कहेंगे कंपनी के लिए फुल मीठा पान ले जाओ।’
ये नियमित से संवाद है। तिली जानती है सूबेदार कल फिर आपत्ति करेगा लेकिन वह ग्राहकों को लुभाने का जतन नहीं छोड़ेगी। सूबेदार जानता है तिली हँसना नहीं छोड़ेगी लेकिन कहता है। कहता है लेकिन कठोर होकर नहीं, कहने भर को कहता है। बाकी बाजार की नियमावली को समझता है। जिनके पास पैसा है वे अपनी दुकान को नया आकार-प्रकार देकर उपभोक्ताओं को लुभा रहे हैं। जय भवानी में तिली की हँसी के अलावा कुछ नहीं है। हँसी का इस्तेमाल कर कितनी होशियारी से बिक्री कर रही है। थोड़ी-बहुत अप्रिय वारदात सहनी पड़ेगी।
तिली ने आसंदी पूरी तरह सँभाल ली।
सूबेदार माल लाने का काम करता है या सिर पर मुरेठा बाँधे एक ओर इस तरह बैठा रहता है मानो तिली की निगरानी कर रहा है। एक साथ कई ग्राहक आ जाएँ तब बीड़ा बनाने लगता है लेकिन बीड़े को प्रस्तुत तिली ही करती है। कोई मन चला कह देता–‘सूबेदार महाराज रिटायरों की तरह एक तरफ सुस्त क्यों बैठे रहते हो?’
‘हमारा जमाना गया। तिली का जमाना चल रहा है।’
तिली ही हँसी जोर पकड़ लेती ‘अरे रे रे, जमाना तो तोंहारा हय। हमारा रहते तोंहारा ही रहेगा।’
तिली की हँसी के कई-कई अर्थ। लोग कयास लगाते–पान वाली का दिल हर किसी पर आ जाता है। यही कयास था ‘सर्वश्रेष्ठ’ के मालिक के इकलौते पूत कोविद का। पाँच बहनों के बाद बड़े अरमान से जन्म लेकर अब वह जवान हो चला था। वह ‘सर्वश्रेष्ठ’ में रुचि नहीं लेता था क्योंकि उसे डूबता हुआ ऐसा जहाज मानता था जिसका डूबना तय है। वह ‘सर्वश्रेष्ठ’ नहीं आता था। राह भटक कर कभी आ जाता था। जय भवानी की उसने अब तक नोटिस न ली थी। वह तो चार मित्रों के साथ जय भवानी पान खाने पहुँचा और तिली नजरों में चढ़ गई। सचमुच ऐसा हँसती है मानो दिल देने को तैयार बैठी है। कोविद पहुँच बनाने की चेष्टा करने लगा। तिली ने फटकार दिया। कोविद ने कई बार कोशिश की। कामयाबी नहीं मिली। वह परिताप बल्कि प्रतिशोध से भर गया। रणनीति बनायी और कई तरह से व्याख्या कर पिता को यह समझाया–‘पापा, मैं अपनी गलती मानता हूँ। आवारागर्दी में समय खराब करता रहा। गलती आपकी भी रही। मेरे साथ जरा भी स्ट्रिक्ट नहीं हुए और मैंने पढ़ाई में ध्यान नहीं दिया। मेरे पास बड़ी डिग्री नहीं है जो अच्छा जॉब मिलेगा। ‘सर्वश्रेष्ठ’ को सँभालना चाहता हूँ। यह मुझे डूबते जहाज की तरह लगता था। अब लगता है बहुत बड़ा एसेट है।’
पिता ने मुदित होकर कोविद को देखा। सन्मति आ रही है।
‘ठीक कहते हो।’
‘यहाँ कभी कोई आकर ठहर जाता है लेकिन शिकायत करता है रेस्टोरेंट न होने से खाने-पीने में दिक्कत होती है। मैं रेस्टारेंट खोलने की योजना बनाना चाहता हूँ। रेस्टोरेंट ऐसा धंधा है जो प्रॉफिट ही देता है। फन एंड फूड लोगों को लुभाता है। मैं अभी छोटे लेवल पर शुरुआत करूँगा। जिस हिसाब से पैसा आता जाएगा हम उस तरह आगे प्लान करेंगे।’
‘अचानक इतने समझदार कैसे हो गए?’
‘सुनो तो पापा। जय भवानी को हटाकर उस जगह मैं पिज्जा हट खोलना चाहता हूँ। सभापुर के लोग चाइनीज, आलू टिक्की, पेटीज से ऊब गए हैं। उन्हें नया चाहिए। पिज्जा डिमांड में है।’
‘जहाँ जय भवानी है वह हमारी जमीन नहीं है।’
‘जानता हूँ लेकिन सूबेदार नहीं जानता। सोचता है हम उसे आसरा दे रहे हैं।’
‘आसरा बना रहने दो।’
‘डैड लोग परिवर्तन चाहते हैं। भोजन में जबर्दस्त बदलाव आ रहा है। गोल गप्पे में वोदका भरी जा रही है। मसालेदार केकड़े को शक्तिवर्धक शीतल पेय में डुबोया जा रहा है। आइसक्रीम के साथ हरी मिर्च पेश की जा रही है। चॉकलेट को सेक्स अपील दी जा रही है। पापा, तुम इंटरनेट की बिल्कुल जानकारी नहीं रखते। देखो दुनिया कहाँ जा रही है। मैं इंटरनेट पर सर्च कर रहा हूँ। फन एंड फूड का ऐसा इंतजाम करूँगा कि लोगों की लाइन लगेगी।’
‘इतना बड़ा होटल है। जो करना है यहाँ करो। वह जमीन हमारी नहीं है।’
‘हम नहीं तो किसी दिन कोई और उस जमीन पर कब्जा कर लेगा। ठीक बगल में कोई काम्पीटिटर खड़ा हो जाएगा।’
‘लेकिन बेटा हम मंदी की मार झेल रहे हैं, सूबेदार तो छोटी हैसियत वाला है। मेरी इज्जत करता है। तुम्हें बड़प्पन…’
‘पापा, आपको खबर नहीं लेकिन जमाना कितना बदल गया है। प्राचीन युग की नगरवधू संस्कृति पार्टी गर्ल तक पहुँच गई है…लड़के जिगोलो बन रहे हैं। पार्टियों में नाच-गाकर और भी बहुत कुछ कर लड़कियों-महिलाओं को इंटरटेन करते हैं। यंगस्टर्स को ग्लैमर चाहिए। थ्रिल, इन्नोवेशन, वेरियेशन चाहिए। लिकर, डांस, पार्टी, फन। लोगों के पास बहुत पैसा है। खींचना आना चाहिए। मैं जय भवानी को हटाकर पिज्जा हट डालने का प्लान कर रहा हूँ। आप मेरा काम देखकर शाबासी दोगे जिसे इतना लापरवाह समझते हो उस कोविद ने ‘सर्वश्रेष्ठ’ को फिर से चमका दिया है।’
‘सर्वश्रेष्ठ की तरक्की होनी चाहिए पर बेटा सूबेदार कहाँ जाएगा? गरीब की आह नहीं लेनी चाहिए।’
‘कम ऑन पापा। अब शुभ-लाभ का दौर नहीं है। लाभ-शुभ का है। अपना लाभ देखो, शुभ अपने-आप होगा।’
…उधर दिनभर के प्रज्वलन के बाद रवि रश्मियाँ मद्धिम हो रही थीं, इधर जय भवानी का अवसान हो रहा था। उधर देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आक्रमण तेज हो रहा था, इधर पेट के प्रबंध के लिए चलाई जा रही नामालूम-सी दुकान औचित्य खो रही थी। लोगों ने सूबेदार की शिथिलता देखी, तिली का क्रंदन देखा। सदाबहार जगह को अस्तित्वविहीन होते देखा। देखा, चौंके लेकिन प्रश्न या आपत्ति किए बिना अपनी राह बढ़ गए। अब किसी के मामले में कोई नहीं बोलता। लोगों ने कुछ दिन जगह के खालीपन को महसूस किया। तिली की हँसी को याद किया। जल्दी ही ताम-झाम के साथ वहाँ पिज्जा हट निर्मित हो गया। पिज्जा के विविध रूप, विविध स्वाद। पिज्जा की वेराइटी की सूची में सबसे ऊपर लिखा था–दो पर एक फ्री। दो पर एक फ्री वाली स्क्रीम की ओर लोगों का ध्यान जाना स्वाभाविक था।
Image: Painting of men in traditional Indian attire including turbans and dhotis
Image Source: Wikimedia Commons
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