सैरंध्री अब नहीं हारेगी

सैरंध्री अब नहीं हारेगी

यह कहानी नहीं हो सकती है! क्यों, क्योंकि कुछ बुरी, अकल्पनीय घटनाएँ, लगभग हर परिवार में, घर में, रिश्तों की आड़ में, मजबूरी में, औरत के साथ घटती ही रहती है। कभी छिपा ली जाती है, तो यदा-कदा मौका पाकर मीडिया छद्म नाम से यह प्रकरण उछाल भी देता है, इसलिए यह कभी आत्महत्या का कारण बन जाता है। थोड़ी देर के लिए हमारे मन में अप्रिय घटना के प्रति क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। खल-पात्र को ‘अपशब्द’ कहकर दूसरे ही पल अपने कार्य-व्यापार में जुट जाते हैं, क्योंकि यह हमारे साथ नहीं घटा? खुदा ना खास्ता घटता भी तो क्या इस उत्पीड़न या जुल्म के खिलाफ लड़ पाते? क्या हमारे अंदर इतना बड़ा जिगरा है? क्या यह सब करना इतना आसान भी है? पुलिस थाने/वूमन सेल में जाकर यौनिक/दैहिक शोषण के खिलाफ रिपोर्ट लिखा भर देने से, जुल्म खत्म नहीं हो जाता! वह किसी और नई शक्ल में पुनः हमारे सामने खड़ा हो जाता है। हमें इस वजह से आंतरिक एवं बाह्य-संघर्ष की कई गुना कीमत चुकानी पड़ती है। पढ़-लिखकर एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें चुप नहीं बैठना चाहिए! इसके लिए पुरुषार्थ चाहिए। हिम्मत चाहिए!

बहरहाल, सैरंध्री की कहानी आपको पसंद आ भी सकती है या फिर, आप इसे झटक भी सकते हैं?

‘अखिलेश मैं, तुम्हारे पास किसलिए आती थी? क्यों आती थी? क्या तुमने कभी समझने, जानने की कोशिश की? मैं क्या से क्या बन गई हूँ। निरंतर, अपनी नजरों से गिरती जा रही हूँ! तुम्हें दोस्त तो क्या, अपना सब कुछ समझा था! अब एक गहरी अंतहीन खाईं में गिर चुकी हूँ चूँकि तुमने भावनात्मक सहारा देते-देते अवैध-संबंधों के दलदल में, जरूर ढकेल दिया है! अब जिंदगी दिनोंदिन उलझती जा रही है! तुम्हारे पास आकर हिस्ट्री की रिसर्च स्कॉलर बनने के बजाय एक बदनाम रखैल जरूर बन गई! छीः! देह की माँग पूरी करते करते गहरे अपराध बोध से घिर गई हूँ। थक गई हूँ! मुझे अब कुछ नहीं चाहिए? प्लीज, तरस खाओ। मुझे मुक्त कर दो। खुद से घिन्न आती है मुझे?’

‘नहीं?…जैसा चल रहा है, चलने दो। मुझे तो खूब मजा आ रहा है! अरे भूल गई! तुम्हारी पी-एच.डी. का पूरा खर्चा उठा रहा हूँ! कल तुम…?’ ‘शट अप…? नहीं चाहिए, ऐसी पी-एच.डी.! लात मारती हूँ ऐसी डिग्री पर!…अब कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगी और अपने बल पर स्वाभिमान से जिऊँगी!’

‘नासमझ ना बनो रानी! आजकल छोटी-मोटी नौकरी ऐसे ही नहीं मिलती! सभी जगह एक से एक बढ़कर घाघ, मगरमच्छ बैठे हैं! पूरा का पूरा अस्तित्व निगल जाते हैं? प्रेक्टीकली हर बात की कीमत चुकानी पड़ती है!’ सैरंध्री के मौन ने सब कुछ समझ लिया अर्थात अगली लड़ाई कीच से भरी कोई खंदक होगी? ऐसी कितनी खंदकें पार करनी पड़ेगी। पीछे मुड़कर भयावह अतीत की ओर देखती है। याद आया वह खौफनाक पल, जब एक बार अपने कमरे में आदमकद शीशे के समक्ष खड़े होकर भरपूर यौवन की मस्ती में कपड़े बदल रही थी कि अचानक पीछे से बड़े भैया ने आकर पकड़ लिया। अपने बलिष्ठ हाथों से सुंदर देह को, नहीं? पवित्र-रिश्ते को कुचल कर रख दिया। चाहकर भी कुछ नहीं कर पाई, पर कटे पंछी की तरह छटपटाती रही। अप्रत्याशित शारीरिक एवं मानसिक प्रत्याघात इतना प्रचंड एवं उग्र था कि हलक से कई दिनों तक कोई शब्द नहीं फूटा। जिह्वा जैसे जड़ हो गई थी। लग रहा था, जैसे सब कुछ खत्म हो गया हो। जिस आदमी को मैं हर साल राखी बाँधकर अपनी सुरक्षा का वचन लेती थी, वह ऐसा राक्षसी कृत्य कैसे कर गया? मैं अंदर ही अंदर टूटकर बिखर गई थी। अपने आपे में नहीं थी। सोचने की चेतना ही नष्ट हो गई। एक दिन हिम्मत करके, दबे स्वरों से माँ से दर्दनाक हिस्सा बयान किया। तब माँ ने खामोश रहने का फरमान सुनाते हुए घूँसे और लातों से इतनी जमकर पिटाई की, जैसे मैं सौतेली संतान होऊँ? उसका क्रूर और विचित्र व्यवहार समझ से परे था। वह एक औरत होकर दूसरी औरत को क्यों सूझ नहीं रही है? अपने आपको मिटा देने की इच्छा, बार-बार उद्वेलित करने लगी। फिर समझ में आ गया, कि समय मेरे साथ नहीं है। कॉलेज की पुस्तकों में जीवन का अर्थ ढूँढ़ने लगी। परंतु यहाँ तो पुस्तकें पढ़कर अंक प्राप्त करना, परीक्षा में सफल होना ही उद्देश्य होता है। इन्हीं दिनों की बात है। मुहल्ले के कृष्ण मंदिर में एक महात्मा जी का प्रवचन चल रहा था कि ज्ञान के रास्ते पर चलते हुए अपने स्व को प्राप्त करना होता है। इसके लिए साधक को अहर्निश साधना करनी पड़ती है। प्रवचन समाप्त होने के पश्चात सैरंध्री ने वयोवृद्ध महात्मा जी से खड़े होकर एक तीखा सवाल दाग दिया।

‘महात्मा जी, मैं उम्र में छोटी हूँ। आपका प्रवचन ध्यान से सुना। परंतु मन बेहद अशांत है। यह द्वंद्व भी मचता रहता है कि आखिर हम क्यों जीते हैं?’

आमतौर पर महात्मा जी से कभी कोई प्रश्न पूछने की हिम्मत नहीं करता था चूँकि प्रवचन के बाद आरती और प्रसाद वितरण होता था। परंतु सैरंध्री के इस तरह प्रश्न पूछने पर प्रवचन स्थल पर हड़कंप मच गया। भक्तों के चेहरे पर रोष व्याप्त हो गया। परंतु महात्मा जी ने अपने भक्तों को हाथ के इशारे से शांत किया और पूछा–‘कॉलेज में पढ़ रही हो बिटिया?’

‘श्री महात्मा जी…’

‘तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देना, मेरे लिए भी उतना सरल नहीं है बिटिया! जहाँ तक मुझे समझ में आता है, जीवन जीने का उद्देश्य, अपने कर्मों के फल को चखना होता है। देखना यह होता है कि किसके पास, फल का कौन सा हिस्सा आता है। मीठा या कड़वा? जीवन में कुछ भी पाने के लिए लड़ना भी पड़ता है स्वयं से और जमाने के साथ। द्वंद्व के इस रास्ते में, खुद से लड़ना ही दुष्कर होता है।’

प्रवचन सुनकर वह समझ गई कि जिंदा रहने या अस्तित्व बचाने के लिए खुद ही कुछ करना पड़ेगा? संसार से पलायन करके प्रवचन करना सरल है किंतु संकटों से जूझे समय आत्मबल ही काम में आता है।

शरीर और मन पर अंकित अनाम यातनाओं के घाव कहाँ सूख पा रहे थे? उस पर बस, समय की परत चढ़ गई थी। मैं नार्मल नहीं थी, लेकिन ऊपरी तौर पर दूसरों को जरूर लगती थी। बड़े भाई से ज्यादा अपराधिनी तो, जन्मदात्री माँ ही प्रतीत होती थी, जिसकी उपस्थिति में मेरा कौमार्य लूटा गया। इस अपराध के लिए मेरा पक्ष लेकर भाई का मुँह नोंच सकती थी! काश…मेरे अंदर सुलगते, कुलबुलाते, अनबुझे सवालों के बीच दुर्भाग्य ने एक और पटखनी दे दी। रिश्वतखोरी के मामले में पिता जी दफ्तर में रंगे हाथ पकड़े गए तथा तत्काल नौकरी से सस्पेंड कर दिए गए। अपने अपराध का प्रायश्चित करने के बजाय अक्सर शराब पीकर घर आते। नशे की उत्तेजना में माँ पर, वहशियों की तरह हाथ-पैर चलाते। आखिर पुरुष हैं ना! हर हालत में स्त्री को ही प्रताड़ित किया जाता है तथा अनाम यातनाओं के कुंड में, झोंक दिया जाता है। माँ को दिन-प्रतिदिन पिटती हुई देखकर, मेरे अंदर की नारी भी मरती रही। मैं जब कभी बाप की प्रतिहिंसा से माँ को बचाने जाती, जन्मदाता को जबरन रोकने का प्रयास करती, तब शराब के नशे में उन्मत्त पिता इस कदर, वासनाभरी नजरों से मेरे शरीर को घूरता तथा पास आने की चेष्टा भी करता, मैं अंदर तक काँप उठती थी कि अगले क्षणों में कौन सा घृणित खेल खेला जा सकता है।

अब मुझे यहाँ कौन बचाने आएगा? एक अज्ञात भय बदन में सरसराने लगता। एक दिन तो अपना शील बचाने की खातिर, गैस पर चढ़ाया हुआ खौलता पानी बाप पर उड़ेल दिया था। यकायक घबराकर, वह रुक गया था। फिर भी असुरक्षा का बादल, हमेशा मन को घेरे रहता। बाप पर की गई प्रतिहिंसा का रौद्र रूप, मुझे ही झेलना पड़ता था परंतु अगली बार से मेरी छाया के पास भी नहीं मँडराता था। अब वह दरवाजा बंद करके, माँ के साथ खुलकर पाशविक अत्याचार करने लगा।

अविवाहित बड़ा भाई अनिरुद्ध, शेयर का कारोबार करते हुए पूरा घर चलाता था। माँ को खर्चे-पानी के लिए कुछ रुपये रख देता था, जो आड़े वक्त में काम में आता था। चूँकि बाप की धेले भर की कमाई नहीं थी, बत्तीस साल की नौकरी में कुछ नहीं बचाया था। यह सवाल उससे कौन करता। वर्तमान को हम कैसे झेल रहे थे किसको बताते। जिंदगी अपनी रफ्तार से घिसटती जा रही थी। विद्यार्थी काल से हिस्ट्री विषय में रुचि थी। बी.ए. के पश्चात एम.ए., एम फिल तक की परीक्षाओं में सर्वोच्च अंक अपने कॉलेज में प्राप्त करती रही। पी-एच.डी. करके कॉलेज/विश्वविद्यालय में ‘लेक्चरर’ बनने का ख्वाब पाल रखा था। दिल्ली के एक विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के चक्कर लगा लगाकर थक गई। लगता है, मुझे देखते ही संबंधित प्राध्यापक इधर-उधर गायब हो जाते। स्टाफ रूम के सहकर्मी भी उसी मिट्टी के बने हुए थे। पूछने पर निर्विकार भाव से कहते हैं–‘सर लोग, हमें बताकर थोड़े ही जाते हैं?’ हिस्ट्री के शोध-निदेशक सैरंध्री को कनाट प्लेस में, मिलने के लिए, तो कभी श्रीराम सेंटर प्रेक्षागृह में, एक साथ बैठकर नाटक देखने के लिए बुलाते थे। मन मारकर एक दो बार गई भी थी परंतु उन्होंने रिसर्च टॉपिक पर कोई बात नहीं की, परंतु एकांत पाकर आलिंगन, चुंबन करने का प्रयास जरूर किया था। किसी तरह बच बचाकर घर आ गई थी। इतनी नर्वस थी कि रातभर ठीक से सो नहीं सकी। दूसरे दिन लंच से पहले क्लास खत्म करके, लाइब्रेरी जा रही थी। मोबाइल बज उठा। न चाहते हुए भी फोन उठा लिया।

‘हलो आलोक बोल रहा हूँ?’

‘जीऽऽऽ।’

‘कल मंडी हाउस के थिएटर से अचानक उठकर क्यों चली आई?’

मन और शरीर के अंदर जैसे कोई ज्वाला प्रज्वलित हो उठी थी। कहने को बहुत कुछ था परंतु कह न सकी।

‘एनीथिंग रांग…’

‘सॉरी सर, तबीयत ठीक नहीं लग रही थी?’

वह झूठ बोल गई थी।

‘तब बताना चाहिए था न यार! डॉक्टर के पास ले चलता?’

पूरा तन-बदन गुस्से से तप गया था।

‘कैसी बात कर रहे हैं? यार का संबोधन, अपनी आधी से कम उम्र वाली शिष्या को देना, आपको शोभा देता है? आप मेरे पूज्य हैं, गुरु हैं?’

उधर से फोन कट चुका था। लाइब्रेरी के पास ही परिचित रिसर्च स्कॉलर शिल्पा ने छेंक लिया। उसके गाल बेफिक्री से छूते हुए बोली ‘ओ ऽहो मुँह क्यों सूजा हुआ है। डॉन्ट बी सीरियस मुझे आलोक जी वाली बात पता चल गई। महारानी जी, इतना तो सब चलता है।’ आधुनिक पोशाक से सजी सँवरी शिल्पा के उन्नत वक्ष उसके पारदर्शी टॉप के अंदर से टेनिस के बॉल की तरह उछलते रहते। रिसर्च प्रोजेक्ट में उसका काम सबसे आगे रहता। सभी प्रोफेसरों एवं सहपाठियों को बेहद प्रिय थी। किसी का जरा सा कोई शरीर भी छू जाए तो भी बुरा नहीं मानती थी? मुस्कुराकर ‘इट इज ऑल राइट’ कहकर आगे निकल जाती।

आखिरकार, सैरंध्री की एकलव्यी साधना रंग लाई। मेरठ विश्वविद्यालय के अंतर्गत शोध निर्देशक डॉ. रीता भार्गव के अधीन रजिस्ट्रेशन हो गया। जिंदगी के आगत-अनागत, झंझावातों को झेलते-झेलते शोध-कार्य शुरू तो हो गया, परंतु संदर्भित पुस्तकें खरीदने, समय-समय पर विश्वविद्यालयीन सेमिनारों में प्रस्तुत प्रोजेक्ट की सामग्री, टंकण, जेरोक्स इत्यादि के खर्चे, अपेक्षा से ज्यादा थे। इसी दरमियान विश्वविद्यालय के एक राष्ट्रीय सेमिनार में अखिलेश से भेंट हुई। वह भी ‘राजनीति विज्ञान’ में पी-एच.डी. कर चुका था। वर्तमान युवा पीढ़ी की तरह, तेज तर्रार, गतिशील एवं स्मार्ट प्रतीत हुआ। इतना ही नहीं, किसी तरह जुगाड़ लगाकर डी.यू. के एक कॉलेज में ‘कॉन्ट्रेक्ट बेसिस’ पर लेक्चरर लग गया था। अपने जॉब में जमने के लिए टीचर्स यूनियन की राजनीति में तथा निरंतर ऊपर चढ़ता गया तथा नैतिकता की दृष्टि से गिरता भी चला गया। फिर टीचर्स यूनियन फंड की हेराफेरी, क्वेश्चन पेपर्स लीक करने के प्रकरणों में उसका नाम उछला। इस तरह विश्वविद्यालय की छात्र यूनियन में उसकी धाक जमती चली गई। यूथ फेस्टिवल तथा विभिन्न सेमिनारों के आयोजनों में उसकी प्रमुख भूमिका रहती थी। अब तो उसने नैतिकता की तमाम हदें पार कर दी थी। अपना जॉब पक्का करवाने के लिए वी.सी. के पास एक रात गुजारने की मंशा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जाहिर कर चुका है। सैरंध्री अब यह सब नहीं कर सकती है। पिछले कई दिनों से इस पंक से निकलने के लिए पूरी ताकत से जुटी हुई है। घनघोर तमस से घिरी हुई वह कोई उपयुक्त दिशा ढूँढ़ रही है। आड़े वक्त में अपनी जरूरतें पूरी करने लिए भैया के सामने हाथ फैलाने पड़ रहे हैं, परंतु भाई भी मजबूर रिश्ते की पूरी कीमत लगातार वसूल कर रहा है। घर पर दो अनब्याही बहनें और बैठी हैं। पता नहीं, बाप ने उन्हें क्यों पैदा किया? माँ भी तो, यह सब मना कर सकती थी? अखिलेश से दूरियाँ बढ़ने पर, उसका असली चरित्र भी सामने आ गया था। इसीलिए अब उसके लिए पैसे ठुकराने लगी थी और पहले की तरह मिलना-जुलना भी बंद कर दिया था। बने बनाए रिश्तों में ऐसा परिवर्तन देखकर, वह अपनी खोल से बाहर निकलकर आ गया और फोन पर, घर से जबरन उठवा लेने और गैंग रेप की धमकी भी मिलने लगी।

एक दिन तो हद हो गई, मोबाइल फोन में अखिलेश के साथ बिताए गए जाने-अनजाने शारीरिक-संबंधों की क्लीपिंग अचानक आ गई। उसमें कई आपत्तिजनक चित्र थे। जिन्हें नेट पर डालने की चेतावनी पाकर, अंदर से हिल गई थी अर्थात इसके रहते परिवार की बची-खुची इज्जत भी मिट्टी में मिल जाएगी। क्या वह अखिलेश की शर्तों के मुताबिक वी.सी. के पास रात बिताने चली जाएँ? इसका मतलब इस लड़ाई का यही अंतिम सोल्यूशन है? तो क्या पुलिस स्टेशन जाकर कंप्लेंट दर्ज करा दें? उससे क्या होगा? अपने इसी केस के सिलसिले में महिला आयोग की अध्यक्ष के पास गई थी, (जो पूर्व में सत्तारूढ़ पार्टी की नेता भी रह चुकी हैं) मजबूरी में फँसी लड़कियों से जबरन देह व्यापार कराने वाली दल्ली की तरह आपादमस्तक नजर गड़ाकर देखने के बाद, किसी काम के बहाने, एक राज्यमंत्री के पास भेज दिया। तब वह अकेले कमरे में, रंगीन मिजाज मंत्री की नियत भाँपकर किसी तरह बचकर निकल आई। अखिलेश ठीक ही कहता है कि ‘सभी जगह मगरमच्छ निगलने के लिए तैयार बैठे हैं। इस व्यवस्था में कुछ नहीं बदला है। बदले हैं, तो सिर्फ चेहरे। हर आदमी की मनोवृत्ति वही है, ओछी और घटिया।’ कॉलोनी के एक रिटायर्ड प्रोफेसर, पिछले कई वर्षों से गली, मुहल्ले में मजनूँ की तरह उसका पीछा करते रहते हैं। ऐसी नजरों से घूरते हैं कि जैसे कच्चा चबा जाएँगे? वह पहचान गई थी कि यह आदमी नीयत से बुरा नहीं लगता है परंतु यहाँ तो हर आदमी को औरत चाहिए। बेटी-बेटी कहकर, हफ्ता दस दिन, जरूर लगा देंगे लेकिन रगड़ने का मौका नहीं छोड़ेंगे? एक दिन ट्रांसपोर्ट यूनियन की हड़ताल में, जब वह घंटों बस स्टॉप पर खड़ी थी तब इसी प्रोफेसर ने विश्वविद्यालय परिसर में ड्रॉप किया था। डाइवोर्सी था। अकेले ही फ्लैट में रहता था। ज्ञान-विज्ञान की किताबें पढ़ने, भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों के सेमिनारों में शोधपरक लेक्चर देने का शौक था। उसके करीब जाने पर एक आत्मीयता की भीनी-भीनी गंध तैर गई थी। सैरंध्री ने जब दोस्ती के लिए अपना हाथ बढ़ाया, तब स्पर्श-विज्ञान से यह पता चला कि पॉजीटिव किरणें उसके जिस्म में प्रवेश कर रही हैं। उसने परिचय-सूत्र आगे बढ़ाने के लिए विजिटिंग कार्ड दिया था। लग रहा था, यही नैया पार लगाएगा। सोचना गलत भी हो सकता है परंतु कोई विकल्प बचा ही कहाँ था। वैसे भी सीता को, हर युग में अग्नि परीक्षा ही देनी पड़ती है। वह प्रोफेसर फिल्म का नायक अक्षय कुमार तो नहीं हो सकता है, जो देखते ही देखते दस गुंडों से अकेला ही भिड़ जाए? अब तक ऐसा मर्द का बच्चा, नजर नहीं आया। हाँ, प्रोफेसर को बलि का बकरा जरूर बनाया जा सकता है। ज्यादा किताबें चाटने वाले किसी काम के नहीं होते? अगले ही दिन वह प्रोफेसर के घर जा पहुँची। जोकर टाइप का पाजामा, रंगीन टी शर्ट पहने कंप्यूटर पर कुछ जरूरी मैटर टाइप करने में जुटे थे। बेल बजते ही भड़ाक से द्वार खोल दिया था। सैरंध्री को अचानक सामने पाकर खुशी से उछल पड़े।

‘अरे आप? कहीं सपना तो नहीं देख रहा हूँ? अब तक तो सैकड़ों विजिटिंग कार्ड पता नहीं किस किस को दिए होंगे?’ पहली बार कोई जाल में फँसा है या फँसी है। थोड़े ही कह सकते थे? प्रो. को यूँ किंकर्तव्यविमूढ़ दशा में देखकर, वह स्वयं अंदर आ गई। बाहर इधर-उधर देखकर दरवाजा ठीक से भेड़ दिया। प्रो. दरवाजा बंद करते देख, जरा सकपका गए।

‘नहीं सर, मैं वैसी लड़की नहीं हूँ जैसे कि आप सोच रहे हैं?’

‘तुम तो अप्सरा हो।’

मैं जानती हूँ सर? आप मुझे किसी फिल्मी एक्ट्रेस से भी खूबसूरत बता देंगे?’

‘वंडरफुल…’

प्रोफेसर जानते थे कि यह खूबसूरत बला, कोई न कोई मुसीबत, पीछे लेकर जरूर आई होगी? नो प्रोब्लम? दुनिया में कोई चीज इतनी आसानी से थोड़े ही मिलती है? काश, यह सचमुच मिल जाए तो, अपनी पूरी प्रॉपर्टी बेच दूँगा। सारी जिंदगी यूँ ही किताबों में सर घुसेड़ता रहा।

एक अवार्ड तक नसीब नहीं हुआ? मुझसे भी ज्यादा कमीने, दारूबाज, रंडीबाज हथिया ले गए। मेरी थीसिस भी चुराकर छपवा ली। ‘सर आप कहाँ हैं?’ मोहिनी मुस्कान बिखेरकर बोली ‘आई नीड सम हेल्प’

सैरंध्री, प्रोफेसर का सूखा हुआ मुँह और उत्तेजना भरा भाव देखकर टेबल पर रखा जग, स्वयं ले आई और उन्हें पानी पिलाया। दो घूँट हलक में उतारकर अपनी कहानी कहने लगी। प्रोफेसर उसके सुंदर मुखमंडल के उतरते-गिरते भावों के साथ, उसकी दारुण कथा को ध्यान से सुन रहे थे। चलो, जिंदगी में हीरो बनने का एक मौका हाथ लगा है। पत्नी तो उन्हें नकारा समझकर एक युवा रिसर्च स्कॉलर के साथ लंदन चली गई। यह अच्छा ही हुआ। जिंदगी में ऐसा सुनहरा पल, जो आने वाला था। पूरी कहानी समझ में आ गई थी? स्टूडेंट यूनियन का गुंडा टाइप का लीडर जो विश्वविद्यालय की कितनी ही लड़कियों को, अपनी हवस का शिकार बना चुका है और अब यह मोहतरमा शतरंज का मोहरा बनकर सामने आ गई? क्या गुल खिला सकती है। पता नहीं?

‘क्या नाम है तुम्हारा? सैरंध्री…? इफ यू डोन्ट माइंड, क्या मैं एक पैग ले सकता हूँ?’

‘श्योर…लेकिन, अकेले ही लेनी पड़ेगी?’

‘मुझे सोचने दो। आर विल फाइंड आउट सम सोल्यूशन।’

‘यू नो, ड्रिंक करते ही मेरी चेतना दौड़ने लगती है?’ हलक में एक दो घूँट जाते ही वह बोल पड़े–‘उसे इस जगह का पता तो नहीं है?’

‘डर लग रहा है आपको?’

‘अपनी सुरक्षा के लिए लाइसेंसी रिवाल्वर भी रखता हूँ अप्सरा।’

‘नहीं सैरंध्री…?’

‘यह नाम जरा ऐतिहासिक है, मुझे इनसाइक्लोपीडिया में इसका अर्थ देखना पड़ेगा?’

‘इतना समय नहीं है सर? हमें इस मोबाइल की क्लीपिंग लेकर, तत्काल पुलिस स्टेशन पहुँचना है और अखिलेश जैसे क्रीमिनल के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करानी है?’

‘प्लीज, जल्दबाजी मत करो। देश की घूसखोर और करप्ट पुलिस को अलग तरीके से हैंडल करना पड़ता है। ऊपर से डंडा भी?’

प्रोफेसर ने पहली बार मेरी आँखों में आँखें डाली, जहाँ एक अज्ञात डर समाया हुआ था। जिस पर पड़ती है, वही जानता है। उनके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले–‘अप्सरा अब यह लड़ाई केवल तुम्हारी नहीं, मेरी भी बन चुकी है। मैं पावरफुल सोर्स ढूँढ़ रहा हूँ। थोड़ी देर शांति से बैठो?’

कितनी ही देर तक वे मोबाइल को, कान से चिपकाए हुए कई लोगों से कॉन्टैक्ट किया तथा अपने किसी परिचित से दो हथियार बंद, कमांडो की व्यवस्था करने में लगे रहे। इसके साथ वह खिड़की से नीचे के रास्ते की ओर नजर गड़ाए हुए थे। अस्त-व्यस्त किताबों से घिरे कमरे में चक्कर लगाते हुए, लैपटॉप खोलकर नेट चलाया। एरिया के पुलिस स्टेशन की लोकेशन, चौकी इंचार्ज का मोबाइल नंबर तलाशते रहे। आखिरकार, उन्हें वसंत विहार, पुलिस स्टेशन में एक परिचित का रिफरेंस मिल गया। नंबर मिलाते ही वह गुस्से से लाल हो गए। दूसरी तरफ से आवाज आई–

‘यार, माल अच्छा हो तो, हमें दिलवा दो अकेले ही हजम मत करना?’

फोन तत्काल काट दिया गया था।

ऊपरवाले ने औरत भी क्या चीज बनायी है, जिसको हथियाने के लिए हर आदमी के पास छुपा एवं खुला आकर्षण होता है। इसी औरत के चक्कर में विकट महाभारत भी लड़ा गया है और रावण ने अपनी जान गँवाई। अब तक वे अपनी हलक के नीचे कई पैग उतार चुके थे। समस्या को कोई तोड़ नहीं मिल पा रहा था?

अखिलेश जैसे यूनिवर्सिटी के छँटे हुए, टीचर यूनियन के लीडर से डायरेक्ट पंगा लेना कोई आसान बात नहीं थी? डूबती हुई आँखों से सैरंध्री जैसी नवयौवना को पुनः देखा। कसा हुआ बदन, नशीली आँखें, पुष्ट कूल्हे, गुलाबी रंगत लिए हुए होंठ। स्लीवलेस टॉप में बाँहों की चिंतनी फिसलती हुई मछलियाँ। गोरे मुख पर आवारा किस्म के लहराते बाल, जैसे खूबसूरत की नई इबारत रच रहे थे। इसे देखकर ब्रह्माजी की नीयत भी डोल जाए। इसमें आखिर क्या है जो महँगी शराब का नशा भी काफूर हो गया? अखिलेश ने इसकी मांसल देह को न जाने कितनी बार मसला होगा? मौज के समंदर में गोते लगाए होंगे! कमीना इनसान, इसे संपूर्ण रूप से भोगकर, यूज एंड थ्रो के गंदे खेल में शामिल हो गया है। हरामजादा! शादी ही कर लेता? यह लड़की, आज या कल में कमाने भी लग जाती! बास्टर्ड…!

प्रोफेसर की तनी हुई भाव मुद्रा देखकर वह भी अंदर तक काँप उठी।

‘सर…आप?’

प्रोफेसर उसके लबालब, मांसलता से परिपूर्ण देह के भीतर तक घुस गए थे। वह जानते थे अगर यह आसानी से दे भी देगी, तो कोई वियाग्रा की गोली भी घर में नहीं पड़ी है। यदि काम न बनता देखकर, खिसक गई तो? प्रोफेसर की लंबी चुप्पी देखकर वह असहज हो गई थी।

‘लगता है मैंने आपको संकट में डाल दिया है…?’

प्रोफेसर की नजरें पुनः देह के भूगोल के इर्द-गिर्द ही घूम रही थी।

‘नहीं? सैरंध्री तुमने यहाँ आकर इस उजाड़ से जीवन में खुशी की लहर फैला दी है। मैं तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकता हूँ। सेकेंड थिंग, आई हैव नो मनी प्रॉब्लम! आई विल गो टू एनी एक्सेटेंड। यही समझ लो, कि मैं बेहद अकेला हूँ। जिंदगी के रिश्ते कहीं और छिटक गए हैं? शादी का मतलब, कोई सुख थोड़े ही होता है? आदमी  एक अदृश्य बंधन में छटपटाता रहता है। कोई भी पत्नी सब कुछ नहीं दे सकती! कुछ न कुछ अधूरापन रह ही जाता है! चाहत की कोई सीमा नहीं होती है। बुद्धिजीवियों की दुनिया अजीब ही होती है। सॉरी…। मैं यह सब तुमसे क्यों कह रहा हूँ।’ अपूर्व सौंदर्य की स्वामिनी, इतने पास खिसक आई थी कि देह की गंध ने प्रोफेसर के रोम रोम में तरंग भर दी थी। वह उसे बाँहों के घेरे में ले चुके थे। दोनों की उष्ण साँसें, एकाकार हो गई थी। उसके मादक स्पर्श से, प्रोफेसर के मुरझाए शरीर में उत्तेजना भर दी। इसी क्रम में प्रोफेसर का चेहरा अपने उन्नत उभारों में समेट लिया और बालों पर हाथ फेरने लगी।

‘सर, अपना पूरा फ्रस्टेशन मुझ पर उतार लीजिए। मालूम है, आपके पास आकर मुझे भी एक दिली सुकून मिल रहा है। आप मुझे नहीं छलेंगे। यह मेरा अंतर्मन कह रहा है। प्यास सिर्फ देह की नहीं होती है। आपकी आँखों ने मेरे नारीत्व को छुआ है। इस कुचली हुई देह में आपको कुछ नहीं मिलेगा सर?’

प्रोफेसर कुछ नहीं बोले, उसे बाँहों में थामे हुए सोफे पर बैठ गए। उनके लिए यह अछूता स्पर्श था। सैरंध्री उनकी आँखों में उतरकर ऐसी समा गई थी, जैसे किसी शक्ति पुंज से दीप्त हो गई हो। प्रोफेसर जो बोलना चाह रहे थे, वह समझ गई थी। जीवन के तीस वसंत झेलते-झेलते अब वह निढाल हो गई थी। प्रोफेसर के हाथ उसके भरे पूरे बदन पर नहीं फिर रहे थे, बल्कि एक सबल पुरुषत्व की लकीर अंदर ही अंदर तैर रही थी। यह भी जान चुकी थी कि अखिलेश जैसे शातिर व्यक्ति अब उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा। इसी बीच हथियारबंद सुरक्षाकर्मियों ने दरवाजे पर दस्तक देकर प्रोफेसर को हर तरह के खतरे से आश्वस्त कर दिया। कठोर चेहरे वाले हृष्ट-पुष्ट सुरक्षाकर्मी ने प्रोफेसर को यह भी याद दिला दिया–‘सर, आपने मेरे बेरोजगार लड़के को यूनिवर्सिटी में ‘लैब असिस्टेंट’ बनाकर मुझे अपना गुलाम बना दिया है। गुजारे के लिए अपनी फीस, जरूर ले लूँगा। अपने यूनिट के दो मार्शल आर्ट एक्सपर्ट आपके टारगेट अखिलेश को उसके घर से उठवाकर रिंग रोड में फिंकवा देंगे। उसकी लाश को पहचानने वाला कोई बंदा नहीं मिलेगा, क्योंकि राजधानी की व्यस्त सड़कों पर सैकड़ों लोग दुर्घटना में यूँ ही मारे जाते हैं। उनकी फाइल खुल ही नहीं पाती है। रिकार्ड में नए आँकड़े लोड करते सरकारी ड्यूटी पूरी हो जाती है। आम आदमी की इस सिस्टम में कोई औकात नहीं है। काम होने के बाद बस्स एक पेटी तैयार रखना। ओ.के. गुड लक! लाइफ एंज्वाय कीजिए?’ वह मोटर बाइक से उड़ता हुआ चला गया।

प्रोफेसर ने बल्ले-बल्ले वाली मुस्कान से सैरंध्री को अंदर तक नहला दिया था। अस्त-व्यस्त कीचेन में जीवन के स्पंदन को महसूसती हुई वह आमलेट बनाने में जुट गई थी और प्रोफेसर साहब ने अलमारी से व्हिस्की की नई बोतल निकाली थी।


Image : Woman Reading (half length) by Guercino
Image Source : WikiArt
Artist : Giovanni Battista Piranesi
Image in Public Domain