फुलझड़िया

फुलझड़िया

लगभग सात वर्षों के बाद डॉ. प्रभाकर अपने गाँव लौटा है। वही गाँव जहाँ के मिडिल स्कूल में वह कभी बोरा बिछाकर पढ़ता था। उसकी माँ ने एक आसनी बना दी थी जिसे वह काँख में दबाकर ले जाता था। मिडिल पास करने के बाद बगल के गाँव अथरी में नामांकन हुआ। वहाँ से मैट्रिक पास करने के बाद सीतामढ़ी के गोयनका कॉलेज में इंटर विज्ञान की पढ़ाई पूरी की। प्रभाकर बचपन में ही डॉक्टरी का सपना देखता था। कभी प्याज के तना, कभी नरकट के तना का आला बनाकर खेलता था–कभी छोटे बहन को सिर-दर्द होता था तो कहना था–मैं सूई दे देता हूँ–ठीक हो जाएगा। फिर झूठ-मूठ की उँगली दबाकर सूई देता था–पूछता था कि अब ठीक हो गया न! बहन भी हँसते हुए झूठ बोल देती थी–अब ठीक हो रहा है। एक शीशी में नसादर और चूना मिलाकर रखता था–जब किसी को सर्दी-जुकाम हो, छींक आवे तो कहता था–इसे सूँघ लो–ठीक हो जाएगा। विज्ञान की प्रयोगशाला में देखता था कि अमोनियम क्लोराइड से अमोनिया गैस निकलता है जिसकी महक इतनी तीखी होती है कि सूँघते ही दिमाग झन्ना उठता है।

प्रभाकर के पिता किसान थे। डॉक्टरी पढ़ाने का औकात नहीं था। उन दिनों उच्च शिक्षा के लिए बैंकों से ऋण लेने का भी कोई प्रावधान नहीं था। मुजफ्फरपुर में श्रीकृष्ण सिंह मेडिकल कॉलेज खुला था। श्रीकृष्ण सिंह बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री थे। मुजफ्फरपुर के ही एक व्यवसायी श्री रघुनाथ पांडेय उन दिनों हुआ करते थे–वे बहुत शिक्षित नहीं थे परंतु बहुत बड़े शिक्षा प्रेमी थे। उसी ने श्रीबाबू के नाम पर एक मेडिकल कॉलेज खोला। प्रारंभ में कॉलेज का सरकारीकरण नहीं हुआ था–एक परीक्षा होती थी–उसमें सफल होने पर कुछ अनुदान देकर नामांकन होता था। प्रभाकर के पिता ने गाँव में तथा पड़ोस के ग्राम में भी कई लोगों से कर्ज माँगा, परंतु उतनी बड़ी रकम सूद पर देने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। जेवरात बंधक माँगता था–उनके पास जेवरात तो थे नहीं। मध्यमवर्गीय परिवार में भी वे निम्न मध्यमवर्गी परिवार के थे–मात्र सात-आठ बीघा जमीन थी। उसमें से आधी जमीन बेचकर प्रभाकर का नामांकन हुआ। जमीन भी तो उन दिनों सस्ती बिकती थी। जमीन बेचकर ही सही मुजफ्फरपुर मेडिकल कॉलेज में प्रभाकर का नामांकन हो गया।

फिर एक दिन वह भी आ गया जब बचपन में डॉक्टर बनने की नाट्य-लीला करने वाला प्रभाकर असली डॉक्टर बन गया। मुजफ्फरपुर कॉलेज का उस समय सरकारीकरण नहीं हुआ था, फिर प्राइवेट कॉलेज से उत्तीर्ण डॉक्टरों के लिए नौकरी भी एक समस्या बन गई थी, लगभग साल भर तक प्रभाकर जगह-जगह आवेदन देता रहा, निराश होता रहा। परंतु प्रभाकर में बचपन से ही डॉक्टरी पढ़ने की लगन थी, निष्ठा थी–मन लगाकर पढ़ता था–कुछ आगे की भी सोचता था–कोर्स से इंटर मेडिकल पत्रिका वगैरह भी देखता था–डॉक्टरी की अंतिम परीक्षा में सर्वोत्तम अंक लाया। नौकरी के लिए भले ही साल भर दौड़ना पड़ा परंतु उसे विश्वास था अपनी योग्यता पर–अपनी मेघा पर। इसी बीच गोरखपुर में एक प्राइवेट हॉस्पीटल खुला–प्रभाकर ने आवेदन दिया। इंटरव्यू हुआ–किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज लखनऊ के दो बड़े-बड़े डॉक्टर इंटरव्यू में आए थे। प्रभाकर के उत्तर और अंक-पत्र देखकर वे लोग खुश हुए–संतुष्ट भी। प्रभाकर को नौकरी मिल गई। डॉक्टरी की नौकरी में अवकाश कहाँ? प्रभाकर में बचपन से ही चिकित्सा-सेवा का जुनून था–हॉस्पीटल में कार्यकाल के बाद भी मरीज आता था तो विभागीय-कर्मचारी पंजीकरण नहीं करता था परंतु डॉ. प्रभाकर अपने कर्मचारियों को भी मानवीय सेवा का पाठ पढ़ाकर पंजीकरण करवाते थे और चिकित्सा भी करते थे। इसके इस व्यवहार से उसके अधीनस्थ कर्मचारी तो असंतुष्ट रहते थे, परंतु हॉस्पीटल के डायरेक्टर तथा मरीज लोग बहुत खुश तथा संतुष्ट रहते थे।

जाड़े के दिनों में मरीज की भीड़ कुछ कम रहती है। वैसे भी जाड़े के दिनों को डॉक्टर लोग ‘हेल्दी सीजन’ कहते हैं। फिर भी बड़ी मुश्किल से डॉ. प्रभाकर बीस-बाईस दिनों की छुट्टी लेकर गाँव आया है। दीवाली और छठ की पूजा भी इसी बीच थी। दरवाजे पर केला के थंब (पौधा)–उसके बीच लगी हुई फट्टी–उसके छोटे-छोटे बल्बों की लड़ी। शाम में तरह-तरह के पटाखे। डॉ. प्रभाकर पुरानी स्मृतियों को साकार करने लगा।

दीवाली के छह दिन बाद लक्ष्मण नदी के किनारे पूरे ग्राम के लोगों की छठ की पूजा। घाट पर कार, जीप, बोलेरो, मोटरसाइकिल का अंबार। सारे लोगों से मुलाकात–किसी को चरण-स्पर्श, किसी से हाथ मिलाना, किसी को आशीष देना। सात वर्ष का अंतराल कम तो नहीं होता है। सारी की सारी बातें–हरी हो गईं। प्रातःकालीन छठ-पूजा के बाद ठकुआ और केला के प्रसाद से जब हाथ भर गया तो पॉकेट में रखने लगा। छठ पूजा के दो दिन बाद ही माँ ने जलपान करने के लिए बुलाया। डॉ. प्रभाकर जलपान करने के लिए बैठा ही था–एक बूढ़ी औरत पहुँची। कहने लगी–‘मालकिन! डॉक्टर बउआ कहाँ हथिन–फुलझड़िया बीमार हअ–बहुत बोखार हह–बोखारे से अड़-बड़ बोलइत हह।’

प्रभाकर की माँ ने कहा कि जलपान कर रहा है–जलपान करके जाएगा।

डॉ. प्रभाकर सुन रहा था। वह जलपान छोड़कर उठा–हाथ में मेडिकल बैग लेकर चल दिया। माँ कहती रही–परोसा हुआ थाल छोड़कर नहीं जाना चाहिए–खा लो तब जाना। दस-पंद्रह मिनट में क्या हो जाएगा।

परंतु प्रभाकर के सामने अतीत के चलचित्र बनकर आ गए। प्रभाकर जब सीतामढ़ी कॉलेज में पढ़ता था तो फुलझड़िया अपनी माँ के साथ आती थी। कभी-कभी प्रभाकर के डॉक्टरी खेल में शामिल भी हो जाती थी–कभी झूठ-मूठ की मरीज बन जाती थी–प्रभाकर द्वारा चीनी का पुड़िया-दवा समझकर खोलती थी–पानी पी लेती थी। फिर छुट्टियों में जब प्रभाकर आता था तो बरसात में पीले-पीले मेढ़क पकड़ कर लाती थी। प्रभाकर उसे ‘वैक्स-बोर्ड’ पर रखकर चीरता था–आसपास के लोगों को पाचन-प्रणाली, दिल-संरचना के संबंध में बतलाता था। फुलझड़िया जाल पर हाथ रखकर बैठी रहती थी–उसे आश्चर्य भी होता था–खुशी भी होती थी–साथ ही मनोरंजन भी। प्रभाकर कहता था–‘फुलझड़िया! जैसे इस मेढ़क को देखती हो, उसी प्रकार तुम्हारे भीतर भी दिल है, स्टोमक है, बड़ी आँत छोटी आँत है, गोल ब्लाडर, लीवर है।’

फुलझड़िया कुछ नहीं समझती फिर भी हँसती रहती थी। फुलझड़िया कुछ न समझते हुए भी भगवान से मनाती थी कि प्रभाकर बड़का डॉक्टर बन जाए, फिर गाँव के बच्चा झा, झूलन सिंह, गुलटेन साह आदि झोला छाप डॉक्टरों की डकैती खत्म हो जाए। गाँव को ये लोग बहुत लूटते हैं। दो-तीन कै-दस्त हो जाए तब भी पाँच-पाँच बोतल पानी चढ़ा देते हैं–हजारों रुपये वसूलते हैं। लोग किशोरी बाबू के यहाँ जेवर बंधक रखकर रुपये लाते हैं और इन डकैतों को भेंट चढ़ाते हैं। तेज बुखार के कारण फुलझड़िया अर्ध बेहोश थी–डॉ. प्रभाकर के पहुँचने के बाद उसकी आँख कुछ खुली। डॉ. प्रभाकर ने नब्ज देखा। थर्मामीटर लगाया–104 बुखार था। अर्ध बेहोशी में फुलझड़िया को अपने आप पर, अपनी आँख पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह क्या देख रही है? यह हकीकत है या सपना है? वह कभी सपने में भी नहीं सोची थी कि प्रभाकर एक दिन डॉक्टर बनकर उसके घर में आएँगे। अचानक उसके हाथ ऊपर उठ गए–दिमाग काम नहीं कर रहा था–हाथ अपने सिर पर रखे या हाथ मिलाए या दोनों हाथ जोड़ ले या प्रभाकर के चरण-स्पर्श करे। उठे हुए हाथ किंकर्तव्यविमूढ़ता में स्वतः बिछावन पर गिर गए। डॉ. प्रभाकर ने एक सूई लगाई और फुलझड़िया की माँ को अपने साथ चलने के लिए कहा।

घर आने पर डॉ. प्रभाकर ने दवा दी–खाने की विधि समझायी। उसका नाश्ता तो ठंढ़ा हो गया था। माँ ने फिर बनाकर दिया–प्रभाकर खाने लगा। इसी बीच प्रभाकर की माँ ने कहा कि बहुत कम उम्र में ही फुलझड़िया का विवाह हो गया–पति अधेड़ था–रोगग्रस्त था। अधिक दिन तक जीवित भी नहीं रह सका। भरी जवानी में फुलझड़िया विधवा बन गई–बाल-विधवा। पति के मरने पर वहाँ उसे तकलीफ होने लगी। माँ ने उसे अपने घर बुला लिया–सालभर से फुलझड़िया अपनी माँ के साथ रहती है।

डॉ. प्रभाकर ने फुलझड़ी को तीन दिन की दवा दी थी–अब सूई की जरूरत नहीं है–बुखार उतर जाने पर दस दिन ताकत की दवा देनी होगी व तीन दिनों के बाद फुलझड़िया की माँ आई। बोली–‘अब बुखार उतर गया है।’

डॉ. प्रभाकर ने दस दिनों के लिए ताकत की दवा दी। इसी क्रम में पूछा–‘फुलझड़िया पर तो बज्र का पहाड़ टूट कर गिर गया। सरकार की तरफ से क्या सब सहायता मिलती है। अखबार में तो निकलता है कि संपूर्ण सीतामढ़ी जिला ‘खुले में शौच मुक्त’ हो गया। तीन चौथाई इंदिरा आवास, घर-घर में शौचालय, बिजली, गैस चूल्हा–सब हो गए। इसे क्या सब सुविधा मिलती है?’

फुलझड़िया की माँ ने दुःखी स्वर में कहा–‘प्रभाकर बउआ! कुछो ने, कुछो न, एकरा कुछ न मिललै हई। न इनिरार आवास न बिजली, न चूल्हा, न लाल कारड, न विधवा पेनसल–कुछो न। नेता सब के कथनी आ करनी में बड़ा फरक होइ छह। हाथी के दाँत देखाने का दोसर आ खाय ला दोइ छइ।’

डॉ. प्रभाकर बहुत मर्माहत हो गया। स्नान-भोजन के बाद मोटरसाइकिल निकाला–गाँव की मुखिया से मिला–फिर प्रखंड गया–बीडीओ से मिला। सभी जगह फुलझड़िया का नाम लिखवाया। फुलझड़िया जब कुछ स्वस्थ हो गई तो उसे वसुधा-केंद्र ले जाकर आधार-कार्ड बनवाया। इंदिरा आवास के लिए उसके घर का प्लाट नंबर प्रखंड-पंचायत पदाधिकारी को लिखवाया।

अब तो तीन-चार दिन ही अवकाश का बचा। गोरखपुर से बराबर डायरेक्टर का फोन आता था। शहर के परिचित मरीजों तथा उसके परिजनों का भी फोन आने लगा।

फिर वह दिन भी आ गया, जब डॉ. प्रभाकर जाने के लिए तैयार हो गया। जाने के दिन सारा ग्राम आकर, डॉ. प्रभाकर को विदाई देने आए। सात वर्षों पर जो आया था। पता नहीं अब फिर आने को कब समय मिले? विदा के समय माता-पिता भी बहुत दुःखी थे। पिता तो मुजफ्फरपुर तक साथ गए, बोले–‘ट्रेन पर बैठाकर चला आऊँगा।’ जाने के समय फुलझड़िया भी आई थी। सात वर्ष पहले तो फ्राक-सलवार में रहती थी–आज साड़ी पहनकर आई है। वह एकटक देखती थी–साड़ी की एक खूँट उसने दाँतों तले दबा रखी थी। आज वह न बीमार है, न बेहोश है। फिर भी पता नहीं क्यों न मुँह से एक भी शब्द निकल रहा है–न धन्यवाद के, न स्नेह के, न शिकवा-शिकायत के। आज उसके हाथ फिर नहीं उठ रहे हैं। मन उदास है–आँखें गड़ी हैं–पता न कब पलक से आँसू टपक जाए। आँखों में ज़बान नहीं–ज़बान दाँतों में कैद–बोले तो क्या बोले? कैसे बोले।

वह समझ नहीं पा रही कि डॉ. प्रभाकर के साथ उसका कौन-सा मानवीय संबंध है? एक नौकरानी का, नहीं-नहीं नौकरानी तो उसकी माँ थी। वह तो कौतूहल वश माँ के साथ आ जाती थी और प्रभाकर के क्रिया-कलाप देखा करती थी। इसमें उसे आनंद की अनुभूति होती थी। एक बहन-भाई का। नहीं-नहीं, फुलझड़िया ने तो कभी भी प्रभाकर को राखी नहीं बाँधी थी।

एक प्रेमी-प्रेमिका का। नहीं, नहीं, प्रभाकर–इतना पढ़ा लिखा डॉक्टर और काले अक्षर भी नहीं पहचानने वाली फुलझड़िया। एक दोस्त का। नहीं, नहीं, राजा और रंक में दोस्ती किस बात की?

फिर भी एक कशिश है डॉ. प्रभाकर और फुलझड़िया के बीच मानवीय संवेदनाओं की–आदमियत की, जो लौकिक नहीं हो सकती–इस संबंध तथा रिश्ते का कोई नामकरण नहीं हो सकता–कोई संबोधन नहीं हो सकता। फिर भी दिल से दिल के तार जुड़े हैं।

डॉ. प्रभाकर गोरखपुर चला गया। अपनी चिकित्सा-सेवा में तल्लीन हो गया। भूलने लगा अपने जिला को, अपने ग्राम को। परंतु फिर भी दिल में एक टीस हो जाती थी फुलझड़िया के प्रति जिसे व्यक्त करने की उसमें भी शक्ति थी न अकथ व्यथा, केवल मानवीय प्रेम की एक आस्था थी।


Image : Family Doctor
Image Source : WikiArt
Artist : Grant Wood
Image in Public Domain