समय माँगने वाले

समय माँगने वाले

एक प्रकाशक महोदय का मुझे फोन आया कि वे मुझसे मिलना चाहते हैं। वे मेरे घर तीन बजे अपराह्न में आएँगे।

मैं चकित रह गया। यह व्यक्ति मुझसे मिलने के लिए समय माँग रहा था या मुझे समय दे रहा था। ‘तीन बजे दोपहर का समय मेरे लिए सुविधाजनक नहीं है।’ मैंने कहा, ‘दोपहर के भोजन के पश्चात मैं कुछ समय के लिए विश्राम करता हूँ।’

‘ठीक है।’ वे बोले, ‘आज मेरे लिए थोड़ी असुविधा झेल लीजिए। मैं शाहदरे से रोहिणी आऊँगा। ढाई बजे मेरा काम समाप्त हो जाएगा। एक बार रोहिणी से शाहदरे लौट आया तो फिर आपसे मिलने के लिए उतनी दूर जाना कठिन होगा।’ मैंने उनकी बात पर विचार किया और अंततः असुविधा झेलने का निर्णय किया।

अपनी प्रकृति के अनुसार मैं लगभग ढाई बजे से ही उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। यद्यपि मैं यह भी जानता था कि बहुत जल्दी भी करेंगे तो साढ़े तीन बजे से पहले क्या आएँगे। …मैं प्रतीक्षा करता रहा। पाँच बज गए तो मान लिया कि वे अब नहीं आएँगे। तब तक मैं ढाई घंटे तक अपना खून जला चुका था। अब और प्रतीक्षा का कोई अर्थ नहीं था। सोचा घंटा भर ऊपर मंदिर में लगा आता हूँ। शायद मन का उद्वेलन कुछ कम हो जाए।

मंदिर से मैं छह बजे नीचे उतरा। देखा, बैठक में कोई सज्जन बैठे थे। मैंने उनकी ओर देखा तो उन्होंने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और अपने प्रकाशन संस्थान का नाम बोल दिया।

‘आप कब आए?’ मैंने पूछा।

‘बस अभी-अभी आया हूँ।’ वे बड़ी प्रसन्नता से बोले।

‘आपको तो तीन बजे आना था।’ मैंने कहा, ‘और आप छह बजे आ रहे हैं।’

‘हाँ। कुछ विलंब हो गया।’ इस बार वे पूरी निर्लज्जता से बोले, ‘काम खत्म नहीं हुआ था।’

‘तो एक फोन कर देते कि आपको आने में देर होगी। मैं इस प्रकार आपकी प्रतीक्षा तो नहीं करता।’ मेरा आवेश कुछ-कुछ प्रकट होने लगा था, ‘हाथ में दो-दो फोन लिए बैठे हैं।’

‘फोन में बैटरी नहीं थी।’

चाहता था कि उन्हें बता दूँ कि वे झूठ बोल रहे हैं, किंतु मैंने अपनी इच्छा का दमन कर लिया। बोला, ‘तो जहाँ बैठे थे, वहाँ किसी का फोन माँग लेते। या एक फोन करने को कह देते।’

‘हाँ, कर तो सकता था, किंतु फोन माँगना मुझे अच्छा नहीं लगा।’

‘मेरा इस प्रकार प्रतीक्षा में खून जलाना आपको अच्छा लगा ?’ उस व्यक्ति को अपनी भूल का अहसास ही नहीं था।

‘तो मैं चला जाऊँ?’ उसने बड़े रौब से पूछा।

मैंने घड़ी देखी, ‘सवा छह बजे मेरे एक मित्र आने वाले हैं। तब तक आप चाय का एक प्याला पी लें और प्रस्थान करें।’

‘चाय रहने दीजिए।’ वे बोले, ‘मैं चलता हूँ। मेरे साथ ऐसा व्यवहार आज तक किसी ने नहीं किया। मैं तो आपसे आपकी नई पुस्तक की पांडुलिपि माँगने आया था।’

मुझे हँसी आ गई, ‘जानता हूँ किसी भी प्रकाशक को मुझसे एक ही काम होता है, किंतु तीन बजे का समय ले कर छह बजे मेरे घर कोई नहीं आता।’ ‘पांडुलिपि?’ ‘इस समय तो मेरे पास कोई पांडुलिपि नहीं है।’ मैंने कहा।

‘कब होगी?’

‘जब भी हो, वह आपको नहीं दूँगा।’ वे फिर कभी मेरे घर नहीं आए, किंतु मैं जानता था कि कहीं भी किसी के भी सामने जब कभी मेरी चर्चा आएगी, वे उसे बताएँगे कि मैं अत्यंत अकड़ू और अशिष्टी व्यक्ति हूँ। अपनी करतूत के विषय में किसी को कुछ नहीं बताएँगे। दिल्ली उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने वाले एक वकील का फोन आया था। वे हरियाणा में रहते थे, शायद शामली में। उनकी पत्नी मेरे उपन्यासों पर रोहतक के विश्वविद्यालय से शोध कर रही थी। उसे शोधग्रंथ में सम्मिलित करने के लिए मेरा साक्षात्कार करना था। तो वकील साहब को मिलने के लिए समय चाहिए था। वे उसे एप्वाईंटमेंट कह रहे थे। उन्होंने बता दिया था कि वे पाँच बजे तक न्यायालय में होते थे। छुट्टी वाले दिन वे दिल्ली आते ही नहीं थे, तो उन्हें किसी कार्य-दिवस में सायं छह बजे का समय चाहिए था। उनकी पत्नी दिन में उनके पास आ जाएँगी और संध्या समय वे उन्हें ले कर मेरे पास आएँगे।  मैंने उन्हें अगले दिन छह बजे आने के लिए कह दिया। पर अगले दिन न वे आए और न ही उनका फोन आया। मैंने छह बजे से आठ बजे तक, दो घंटे प्रतीक्षा कर, उन्हें अपने मन से बाहर धकेल दिया।

हफ्ते-दस दिन के बाद फिर से उनका फोन आया, ‘आपको स्मरण होगा मैंने आपसे समय लिया था।’

‘हाँ, लिया तो था। अब लौटाना चाहते हैं?’

वे मेरा परिहास समझ कर हँसे, ‘नहीं। तब हम आ नहीं पाए। इस सप्ताह के किसी दिन का समय दे दीजिए। मेरी पत्नी को विलंब हो रहा है। वे शीघ्र आपका साक्षात्कार लेना चाहती हैं।’ मैं अपने आपे में आ गया, ‘आपको समय दिया था। न आप आए, न आपने न आने की सूचना दी। अब आप क्यों माँग रहे हैं समय। बार-बार समय नहीं दिया जाता। मैं वकील नहीं हूँ किंतु मेरे पास भी समय नहीं है। और भी काम हैं। खाली नहीं हूँ मैं।’

‘ठीक है। हमसे भूल हो गई। क्षमा कर दें। एक बार फिर से समय दे दें।’

‘मेरी बात समझ रहे हैं न आप। आप नहीं आए किंतु मैं दो घंटे आपकी प्रतीक्षा कर अपना खून जलाता रहा और आपने एक फोन तक नहीं किया।’

‘हो गई भूल। क्षमा कर दीजिए। अब बताइए, किस दिन आएँ।’

‘देखिए आजमाए हुए को आजमाना जहालत है। अब आप मुझे क्षमा करें।’

‘अरे सर, आपके इंटरव्यू के बिना मेरी पत्नी का थीसिस पूरा नहीं होगा। उसके गाइड उस पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे। अनिवार्य न होता तो मैं आपको परेशान नहीं करता। हम पर कृपा करें। दोष तो मेरा है, मेरी पत्नी को दंडित न करें।’ मैं समझ गया कि वकील साहब पीछा नहीं छोड़ेंगे। बोला, ‘अच्छा’ कल छह बजे आ जाइए। समझ लीजिए कि छह से सात बजे तक का समय आपका है। आ जाएँ तो सात बजे उठ कर चले जाइएगा। और यदि कल भी न आ पाए तो फिर मुझे फोन मत कीजिएगा। फोन पर भी बात नहीं करूँगा। फोन काट दूँगा।’

‘बड़ी कृपा है।’ वे बोले, ‘हम ठीक छह बजे आ जाएँगे। सात बजे उठ भी जाएँगे। वैसे आपको बता दूँ कि इतना परिश्रम तो हमें कोर्ट में अगली तारीख लेने के लिए भी नहीं करना पड़ता।’

‘यह कोर्ट नहीं है।’ मैं बोला, ‘यह व्यक्ति के वचन की बात है। प्राण जाहु, पर वचन न जाई। मामला चरित्र का है। अपने संस्कारों का है।’ मैंने फोन रख दिया।

अगले दिन इधर घड़ी ने छह बजाए, उधर द्वार की घंटी बजी। संभवतः वकील साहब छह से भी पहले ही आ कर द्वार पर खड़े थे। उन्होंने अपना एक मिनट भी कम नहीं होने दिया था। वे आकर कमरे में बैठे तो अपनी पत्नी से बोले, ‘अब तुम जल्दी-जल्दी अपने प्रश्न पूछ लो। हमें सात बजे उठ जाना है।’

मैंने उनकी पत्नी, उस शोध छात्रा को देखा : वह घबराहट के मारे पसीना-पसीना हो रही थी। जाने उसे वकील साहब ने मेरे विषय में क्या कह दिया था।

उसने अपनी डायरी निकाली। पहला प्रश्न पूछा। उसका स्वर लड़खड़ा रहा था। हकलाते हुए उसने मेरी ओर देखा।

‘आप पूरे विश्वास के साथ अपने प्रश्न पूछें।’ मैंने कहा, ‘घबराएँ नहीं। मैंने सात बजे तक का समय दिया है, किंतु यदि आपके सारे प्रश्न तब तक उत्तरित न हुए, तो मैं न आपको उठने को कहूँगा, न स्वयं उठूँगा।’ मैं रुका, ‘लगता है, वकील साहब ने आपको बहुत डरा दिया है।’

उसने अपने पति की ओर देखा।

‘पूछो।’ वकील साहब ने कहा।

‘आप पूछिए।’ मैंने उसे आश्वस्त करने का प्रयत्न किया, ‘यहाँ इस कोर्ट का जज मैं हूँ।’ उसने पानी का एक गिलास पिया और धीरे-धीरे प्रश्न पूछने लगी। मैंने प्रयत्न किया कि उत्तर देते हुए, मेरे बोलने की गति मंथर ही रहे, ताकि उसे लिखने में असुविधा न हो। पर शायद वह मेरा एक-एक शब्द लिखने का प्रयत्न कर रही थी, जो संभव नहीं था। ‘यदि आप अपने साथ एक टेप रिकार्डर ले आतीं तो आपको कोई असुविधा नहीं होती।’ मैंने कहा, ‘अब आप मुख्य बातें लिख लें। घर जा कर उसे विस्तार दे लीजिएगा।’

उसने प्रश्न किए और वकील साहब ने अपनी घड़ी देखी, ‘सात बजने में पाँच ही मिनट शेष हैं।’ शोध छात्रा ने मेरी ओर देखा।

मैंने सहज भाव से कहा, ‘जब तक आपके सारे प्रश्न हो नहीं जाते, आप अपने पति की ओर न देखें।’ मैंने नौकर को बुलाकर, वकील साहब के लिए एक प्याला चाय और लाने के लिए कहा। फिर शोध छात्रा से भी पूछा। उसने अस्वीकार में सिर हिला दिया। मैं भी यही चाहता था कि वकील साहब चाय पिएँ और चुप रहें। छात्रा चाय के कारण अपने काम की गति धीमी न करे।

साढ़े सात बजे तक उसका काम चला और तब उसका चेहरा पहली बार निश्चिंत लगा।

‘सर, बहुत-बहुत धन्यवाद।’ वह बोली, ‘इन्होंने तो मुझे डरा ही दिया था।’

‘ये स्वयं डर गए थे न।’

‘मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा था।’ वकील साहब बोले। ‘नहीं। गलत तो नहीं कहा था। जो गलत किया था, उसके कारण आप डर गए थे।’ उनके चेहरे पर अब भी ग्लानि का भाव नहीं था। वे उस सारे कांड के लिए मुझे ही दोषी मान रहे थे।

एक महिला का फोन था। वे मुंबई से आई थीं और मुझसे मिलना चाहती थीं। ‘कब आना चाहती हैं ?’ मैंने पूछा।

‘आज।’

‘आज।’ मैं चकित रह गया, ‘आज तो कठिन है। आप कल आ जाइए।’

‘कल प्रातः तो मेरी फ्लाइट है। आज ही मिलना होगा। आवश्यक काम है।’

‘ऐसी बात है तो आपको मुझे मुंबई से ही फोन कर समय निश्चित कर लेना चाहिए था।’

‘वह ठीक है। अगली बार से वैसा ही करूँगी। आज कितने बजे आऊँ?’ मैं अभी सोच ही रहा था कि वे फिर बोलीं–‘सात बजे आ जाऊँ?’

‘आ जाइए। आपके लिए एक घंटे का समय काफी होगा?’

‘काफी है।’

‘तो ठीक सात बजे आ जाइएगा। देर मत कीजिएगा। मेरा परिवार आठ बजे रात का भोजन करता है।’

‘ठीक है। आ जाऊँगी।’

‘आपको मेरे घर का रास्ता मालूम है?’

‘आप उसकी चिंता न करें। मैं आ जाऊँगी।’

‘ठीक है।’

संध्या पौने सात बजे से मैं प्रतीक्षा में बैठ गया। यदि सात बजे उन्हें यहाँ पहुँचना था तो अब तक मेरे घर से कहीं चार-पाँच किलोमीटर की दूरी पर होंगी। पहुँच ही रही होंगी।

सात बज गए और द्वार की घंटी नहीं बजी तो मैंने उनको फोन मिलाया, ‘कहाँ तक पहुँची हैं आप?’

‘बस अब चल ही रही हूँ। पंद्रह मिनट में पहुँचती हूँ।’

‘अभी चलीं नहीं। कहाँ हैं आप?’

शाहजहाँ रोड पर अपने मित्र के फ्लैट में हूँ। बस चल रही हूँ। अभी तो सात ही बजे हैं। पंद्रह मिनट में पहुँचती हूँ।’

‘आपको सात बजे यहाँ पहुँचना था और अभी आप शाहजहाँ रोड पर मित्र के घर ही बैठी हैं।’ मैंने कहा, ‘यदि आप अपने कहने के अनुसार तत्काल वहाँ से चल पड़ें तो भी आप यहाँ आठ से पहले नहीं पहुँचेंगी।’

‘नहीं। पंद्रह मिनट में पहुँचती हूँ।’

‘लगता है कि आपको वहाँ से मेरे घर तक की दूरी का कोई ज्ञान नहीं है। न आपको पता है कि वहाँ से यहाँ तक आने में कितना समय लगता है। आप हैलिकॉप्टर में भी आएँ तो पंद्रह मिनट में नहीं पहुँच पाएँगी।’

‘तो?’

‘तो अब आप यहाँ आने का विचार छोड़ दें। यहाँ न आएँ। बहुत देर हो चुकी है। आपको लौटना भी तो होगा।’

‘अरे मुझे तो आपसे मिलना था। आपको मुंबई आने का निमंत्रण देना था।’

‘पर मुझे आपसे ऐसा कोई निमंत्रण नहीं चाहिए। मुझे मुंबई नहीं आना है।’

‘अरे हम आपको एयर टिकट देंगे।’

‘जानता हूँ। वैसे मैं आजकल ट्रेन से यात्रा ही नहीं करता हूँ।’

‘तो मैं न आऊँ?’

‘जी नहीं।’

‘कैसे व्यक्ति हैं आप।’

मैं भी कहना चाहता था, कैसी मनुष्या हैं आप। सात बजे आने के लिए कह कर, अभी मेरे घर से पंद्रह मिलोमीटर दूर बैठी हैं।… पर उनसे क्या पूछता, अधिकांश लोग तो ऐसे ही हैं। उनकी दृष्टि में भी मैं ही पापी हूँ, जो उनको अपने घर आने से रोक रहा हूँ।


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Artist : Lyubov Popova
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स्वामी विवेकानंद और उनके साथी राजकीय बग्घी में बैठे। उनके साथ अंगरक्षकों के नेता के रूप में राजा के भाई थे। भारतीय और विदेशी बैंड साथ चल रहे थे। ‘देखों हमारा जगत्-विजेता नायक आ रहा है।’ गीत की धुन बजाई जा रही थी। राजा स्वयं पैदल चल रहे थे। सड़क के दोनों ओर मशालें जल रही थीं और लोगों के द्वारा हवाइयाँ चलाई जा रही थीं। चारों ओर हर्ष और उल्लास का वातावरण था। जब वे गंतव्य के निकट आ गए तो राजा की प्रार्थना पर स्वामी बग्घी से उत्तर कर राजकीय शिविका में बैठे और वे पूरे तामझाम के साथ शंकर विला में पहुँचे। थोड़ा विश्राम करने के बाद स्वामी सभागार में उपस्थित हुए, जहाँ लोग उनको सुनने के लिए उपस्थित हुए थे।