डार से टूटे हुए
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- 1 February, 2021
डार से टूटे हुए
अचानक मोबाइल बजने से मास्टर साहब भड़भड़ा गए। घड़ी देखी सुबह के पौने पाँच बजे थे। बड़ी देर तक मोबाइल की ओर देखते रहे। मोबाइल पर ‘बुद्धम् शरणम् गच्छामि…संघम् शरणम् गच्छामि…धर्मं शरणम् गच्छामि’ की रिंगटोन बजे जा रही थी। मास्टर साहब को काटो तो खून नहीं। मन में एक आए, एक जाए। ‘पौने पाँच बजे कौन, मतलब जरूर कोई अनहोनी है। कहीं सरैया वाली मौसी तो न निकल ली। फिर एक ही पल में सोचने लगे…अभी परसों ही तो उसका बेटा कह रहा था अम्मा अब काफी ठीक है। फिर…फिर…किसका है फोन। अरे हाँ…कासना वाली बुआ का होगा, बता रही थी फूफा की हालत ठीक नहीं है। फूफा लंबे समय से बीमार हैं। फूफा ही लग रहा चल दिए। फिर हिम्मत की, उठे। कँपकपाते हाथों से फोन उठाया, ‘आं, हैलो’ कहना था ‘आं’ ही कर पाए।
‘हैलो’ दूसरी ओर से आवाज आई थी।
‘हैलो’ हाथ अब भी काँप रहे थे।
‘अरे मास्टर साहब मैं बोल रहा हूँ।’
‘मैं कौन।’
‘मैं सतेन्द्रपाल। सियाराम जी का बड़ा बेटा।’ उधर से आवाज साफ हुई तो मास्टर साहब की जान में जान आई।
‘अच्छा, सतेन्द्रपाल साहब–दिल्ली वाले।’ अब हाथ कँपकपाना बंद हुआ।
‘हाँ…मास्टर साहब जयभीम कर रहा हूँ।’
‘जय भीम…जय भीम, कैसे हो। सब ठीक तो है। सुबह-सुबह ही।’
‘कहाँ मास्टर साहब। सब ठीक ही तो नहीं है।’ और सतेन्द्रपाल ने अपनी सारी व्यथा मास्टर साहब को मोबाइल पर बता दी थी। फिर आगे बोले थे, ‘अरे अपने छोटे वाले भाई से कहकर मेरी मदद करा दो। उसके तो एक फोन में ही सब ठीक हो जाएगा। मंत्री जी के पास है। लोग कहते हैं मंत्री जी का मुँह लगा है। अब मेरी नैया उसी के हाथ में है।’ फिर आगे लगभग गिड़गिड़ाए थे, ‘अगर अपना समाज काम नहीं आएगा तो किससे गुहार लगाएँगे। मास्टर साहब आपके आगे हाथ जोड़ते हैं। पाँव पड़ते हैं। मेरी मदद कर दो। सादर जय भीम करता हूँ।’ कहकर फोन काट दिया था।
मास्टर साहब बड़ी देर तक फोन कान से लगाए रहे थे। फिर होश आया, ‘अरे फोन तो कट गया है!’ तब स्वयं से ही सादर जयभीम बोलकर फोन रख दिया था।
घड़ी की ओर देखा। पाँच बजकर सात मिनट हुए थे।
मास्टर साहब छह बजे उठते हैं। घूमने जाते हैं। सात बजे तक वापिस आते हैं। नहाते-धोते, खाना खाते, अखबार पढ़ते-पढ़ते आठ-साढ़े आठ हो जाते हैं। फिर स्कूल के लिए चल पड़ते हैं। प्रधानाध्यापक हैं। ‘लेकिन अभी तो टाइम है।’ कहते हुए पुनः लेट गए थे। फोन आया था तब हड़बड़ाए हुए थे, लेकिन अब आश्वस्त थे। हालाँकि मन परेशान था। सतेन्द्रपाल की व्यथा सुनकर। ‘भगवान ने उस बेचारे को कितना दुःख दिया।’ सोचते-सोचते न जाने कहाँ खो गए थे–
सियाराम चच्चा के दो ही बेटे हैं। सतेन्द्रपाल बड़ा है और राजेन्द्रपाल छोटा। सियाराम चच्चा ने सिलाई कर-करके पढ़ाया था सतेन्द्र को। तब सिलाई में ज्यादा कमाई नहीं होती थी। एक कमरे का घर था। उसी के आगे छप्पर डाल लिया था चच्चा ने। छप्पर में ही मशीन रखी थी। चाची ने भैंसें पाल ली थी दो। उनकी देखभाल में ही रहती थी। किसी तरह घर की गुजर-बसर चल ही जाती थी।
सतेन्द्र बारहवीं में थे और राजेन्द्रपाल दसवीं में। सतेन्द्र मेहनती थे सो मेहनत से पढ़ते और साथ ही साथ टाइप भी सीखते थे। राजेन्द्रपाल मस्त था। शरीर सुडौल बना लिया था। अम्मा मठा, दूध, दही, घी से नहला देती थी दोनों बेटों को। एक भैंस तो दोनों बेटों के लिए ही थी, लेकिन सतेन्द्र शुरू से ही सुइया-सींकिया पहलवान और राजपाल सचमुच का पहलवान।
सतेन्द्र ने बारहवीं पास कर ली। टाइपिंग भी अच्छी सीख ली। जिला कलेक्ट्रेट में क्लर्क की वैकेंसी निकली। सतेन्द्र चयनित हो गए।
राजेन्द्रपाल ने भी दसवीं की। शरीर तो सुगठित था ही सो पुलिस में भर्ती हो गया। सिपाही बन गया। सियाराम चच्चा के आँसू पूछ गए। मानो चच्चा की मेहनत, ईमानदारी और नेकदिली पर ऊपरवाला मेहरबान हो गया हो। दोनों बेटों की नौकरी लग जाने पर भी सियाराम चच्चा ने सिलाई नहीं छोड़ी और न चाची ने भैसियाँ रखना छोड़ा। दो ही साल में सियाराम चच्चा के दो कमरे और बन गए। घर ठीक हो गया तो बच्चों की शादी-ब्याह की चिंता भी सताने लगी। लड़के नौकरी कर रहे थे। शादी होना सहज था सो पड़ोस के साहिब सिंह भैया ने सतेन्द्र की शादी करवा दी। उनके साले की लड़की थी बी.ए. पास। साहिब सिंह भैया के बड़े साले लेखापाल थे सो धन-दौलत से सियाराम चच्चा का घर भर दिया उन्होंने।
सतेन्द्र अब शादी-शुदा थे। राजपाल की पोस्टिंग दूसरे जिलों में रहती थी। राजेन्द्रपाल के मामा की बड़ी लड़की सरला राजपाल को मन ही मन चाहती थी। रिश्ता मामा-फूफा का था। भांजा-मामाओं के लिए वैसे भी मान पक्ष का होता है। बहुत अड़चन नहीं आई थी। सरला की शादी राजपाल से हो गई। राजपाल को कोई प्रॉब्लम नहीं थी। वह मस्त होकर सिपाहीगिरी करता और ड्यूटी से घर आता। उसने साफ कह दिया था कि अब पिता जी सिलाई नहीं करेंगे लेकिन सियाराम चच्चा ने भी कह दिया ‘जब तक आँखें साथ देंगी वे सिलाई नहीं छोड़ेंगे।’ राजेन्द्रपाल पिता के आगे सरेंडर हो गया। सरला अपनी बुआ, जो अब उसकी सासु थी, के आगे बिछी रहती। गाँव की लड़की थी। जीवन को हथेली में भींच लिया था उसने। देखते ही देखते सासु-ससुर की चहेती बहू बन गई थी।
सतेन्द्रपाल ने नौकरी करते-करते ही बी.ए. पास कर लिया और आगे की बड़ी नौकरी के लिए तैयारी में लगे थे। ससुर लेखापाल थे सो पैसों की कोई कमी न थी और खुद भी जिलाधीश के कार्यालय में थे सो माल चीर रहे थे। ससुराल से मोटरसाइकिल मिली थी। उसी पर आगे पट्टी लगवा ली थी जिस पर लिखा था ‘जिलाधीश ऑफिस।’ कई बार तो उन्हें देखकर लगता कि वे स्वयं ही जिलाधीश हों। अपने साथी लड़कों को कुछ नहीं समझते थे। अब वे सियाराम चच्चा के साथ नहीं रहते थे।
गौरी शंकर के दोनों बेटे जुआरी, टंटाली निकल गए थे सो उन्हीं का मकान खरीद लिया था और तोड़कर नया बनवा लिया था। पैसे की कमी तो थी ही नहीं। सो अब खूब ठाठ से रहते थे। आदमी को आदमी नहीं समझते थे। सियाराम चच्चा और अपनी अम्मा तथा छोटे भाई को भी घास नहीं डालते। रिश्तेदार आते तो सतेन्द्रपाल के घर जाने से डरते ‘क्या साले नंगा-लुच्चाओं की तरह चले आते हैं। शर्म आनी चाहिए। आखिर कलक्टर साहब के यहाँ नौकरी करते हैं हम। कुछ मेरी तो लाज रखो। तुम तो नंगा हो सो बने रहो।’
समाज में भी लोगों से दूरियाँ बनाई हुई थी। ‘क्या हर समय अंबेडकर, अंबेडकर लगाए रहते हैं ये मास्टर साहब और उनके साथी। अरे ठीक है अंबेडकर तो क्या उन्हें खोपड़ी पर धरकर घूमें!’
लोग उन्हें जयभीम करते तो जय माता दी कहते। लोगों को मजा आता, और चिढ़ाते। चिढ़ाने वालों में नई उमर के लड़के आगे थे। कलक्टर साहब ‘जय भीम’ सुनने पर अंदर तक सुलग जाते सतेन्द्रपाल।
बड़ा गाँव नहीं था, लेकिन सभी सुविधाएँ थीं और पास में ही मार्केट था–सदर मार्केट। वहीं जाकर बैठते थे सतेन्द्रपाल जब समय मिलता। गाँव में तो उनकी टक्कर का कोई था ही नहीं, ऐसा उन्हें लगता था। हालाँकि त्रिलोकी दाऊ का बड़ा लड़का कॉलेज में लैक्चरर था। रामस्नेही का छोटा भाई एफसीआई में था। सीताराम का चचेरा भाई इंस्पेक्टर और स्वयं मास्टर साहब थे। इतना ही नहीं मास्टर साहब का छोटा भाई भी पढ़ने में होशियार था। कलक्टरी का क्लर्क तो वह चाहे जब बन जाता लेकिन सतेन्द्रपाल की बात ही अलग थी। ‘ये सब साले चमट्टा जयभीम वाले, हट। जयभीम घुसी रहती है इनके। जयभीम से पेट भरता है। मुझे देखो मेरा उठना बैठना जैन-बनियों के साथ है। इनमें बैठो तो चमट्टा ही कहेंगे लोग। जबकि सतेन्द्रपाल अपने अहंकार में भूल रहे थे कि वे जिन जैन-बनियों में बैठते थे वे लोग उन्हें पीठ पीछे चमट्टा ही कहते थे। मगर उन्हें भ्रम था।
समय सरक रहा था। सतेन्द्रपाल में एक और बदलाव आया। अब वे माथे पर बड़ा-सा त्रिपुंड लगाने लगे और रुद्राक्ष की माला भी गले में लटकाने लगे थे। ‘जय माता दी’ तो करते ही थे, अब वे लोगों से ‘जय सियाराम’ या फिर ‘राम-राम जी’ भी करने लगे। अब वे सियाराम चच्चा के साथ नहीं रहते थे। गाँव में जागृति की लहर चल रही थी वहीं सतेन्द्रपाल विपरीत दिशा में स्वयं के अहंकार में चूर रहते थे।
गाँव के पास में ही एक तलैया थी। लोगों ने उस तलैया को मिट्टी से पटवाकर महामानव बाबा साहब की मूर्ति स्थापित करने के लिए योजना बनाई। पूरा गाँव सहज भाव और खुशी से इस कार्य में जुटा था। चंदा भी इकट्ठा होना था और शारीरिक श्रम भी आवश्यक था। लोगों ने चंदा इकट्ठा करने की प्रक्रिया में सतेन्द्रपाल से भी चंदा माँगा। ‘इन सब बेफिजूल की बातों के लिए मैं चंदा देने वाला नहीं। गाँव वाले चंदा को डकार जाएँगे। रही बात अंबेडकर की प्रतिमा की तो इस देश में पहले से ही कितनी प्रतिमाएँ लगी हैं। आए दिन कोई-न-कोई झगड़ा बना ही रहता है। एक और मुसीबत पाल लो। चंदा…इंपोसिबल’ और उन्होंने प्रतिमा के लिए चंदा नहीं दिया। जब चंदा ही नहीं दिया तो श्रमदान क्या देते। लोगों ने उनसे माँगना ही बंद कर दिया। गाँव वालों के अथक प्रयासों और शारीरिक मेहनत का फल यह हुआ कि महामानव बाबा साहब की बहुत सुंदर-सी प्रतिमा लग गई और गाँव सुशोभित हो उठा। सभी में हर्षोल्लास था, खुशियाँ थीं।
सतेन्द्रपाल गाँव के ही पास में, सड़क के उस पार बनियों-बक्कालों के मंदिर में पूजा करने जाते थे। लोग इस जगह को बरखंडी अर्थ बनखंड कहते थे। पूजा अर्चना का फल कहें या महामायी की कृपा सतेन्द्रपाल के घर एक सुघढ़, सुंदर कन्या ने जन्म लिया। सतेन्द्रपाल का दुःख आसमान छू गया। ‘क्या माँ भी न। महामायी की पूजा में कोई कमी छोड़ी जो बेटी दे दी। बेटी की कोई मनाही थोड़े ही थी लेकिन पहले बेटा दे देती!’ सतेन्द्र ने दुःख को पी लिया था।
मेहनती तो थे ही सो फिर असिस्टेंट की तैयारी में जुट गए। पूजा-पाठ भी जारी था। एसएससी से असिस्टेंट का एग्जाम पहली ही बार में पास कर गए और पोस्टिंग मिली दिल्ली में। पोस्टिंग पर जाने से पहले घर में जागरण करवाया। तब जागरण और तरह का होता था, आज जैसा नहीं। शायद गाँवों में आज भी होता हो। एक आदमी बहुत सारे लोहे-लंगड़ से जड़ित कपड़े पहनता है और घूम-घूमकर गाता है। बहुत बड़ा-सा हवन कुंड बनाया जाता है। उसी में घी, फल, फूल, मेवा, मिष्ठान चढ़ाए जाते हैं। किसी-किसी व्यक्ति पर माँ की सवारी भी चढ़ बैठती है। दो-तीन लड़के भी लड़कियों, औरतों के कपड़े पहनकर नाचते हैं। लोग पैसे भी देते हैं। इस तरह की नौटंकी टाइप का कुछ होता था। खैर सतेन्द्रपाल अब दिल्ली में थे। बेटी बड़ी होने लगी थी। उनका आना-जाना गाँव में लगा रहता था। सियाराम चच्चा और चाची की उन्हें न तो तब कोई चिंता थी जब वे गाँव में रहते थे और अब तो बिल्कुल ही नहीं थी। उन दोनों की पूरी देखभाल राजेन्द्रपाल की पत्नी करती थी। वह बहुत ही नेक बहू थी। पूरा गाँव राजेन्द्रपाल और उसकी बहू की इज्जत करता था। ‘बहू हो तो राजेन्द्रपाल की बहू जैसी। सियाराम और उनकी औरत आज जिंदा हैं तो उसी की बदौलत!’
धीरे-धीरे सतेन्द्रपाल का गाँव जाना-आना लगभग बंद हो गया था। उनकी बेटी बड़ी हो गई थी। एम.ए. कर रही थी। सतेन्द्रपाल की पूजा-अर्चना का ही सुफल था कि उनके बेटी के बाद कोई बच्चा पैदा ही न हुआ। न जाने कितने तरीके लगाए–अल्ट्रासाउंड से लेकर आईवीएफ तक वैष्णो देवी से लेकर जाहरवीर तक नाक रगड़ने के बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो भगवान को दोष देने लगे थे। ‘राजेन्द्रपाल को देखो तीन-तीन लौंडा दे दिए और मुझे एक बेटा भी नहीं दिया गया। भगवान तुम भी न। किसी को छप्पर फाड़कर देते हो और किसी को कुछ नहीं। चलो…जैसी आपकी मर्जी।’ कहकर मन को शांत करने लगे थे सतेन्द्रपाल साहब लेकिन अहंकार में कोई कमी नहीं थी।
गाँव आते तो अपने होने का बखान करते, ‘वहीं करोलबाग के पास में ही तो है पटेलनगर उसी में बहुत बड़ा घर बनवाया है। गाड़ी तो बहुत पहले ही ले ली थी। पैसे की कोई कमी नहीं है। अंबार लगे हैं। अब बस एक ही चिंता खाए जाती है कि बेटी अच्छे घर में चली जाए। कर तो मैं कल दूँ उसकी शादी अच्छे घर में लेकिन वैष्णवी की जिद है शादी करेगी तो एनआरआई से ही। और वह भी लड़का डॉक्टर ही चाहिए। कोई बात नहीं। सब कुछ है तो उसी का ही। उसकी मन की तो करनी ही होगी।’ एक-दो आदमी पूछ भी लेता, ‘ये एनआरआई क्या होता है’ तो उसे वे डाँट देते ‘तुम नहीं समझोगे’ और आखिरकार महामायी ने उनकी सुन ली, लड़का मिल गया।
एनआरआई और वह भी डॉक्टर और डॉक्टर भी यूएसए में। लड़का पंजाबी था, सुंदर सुघड़। उन्हें तो मानो मन माँगी मुराद मिल गई। किसी ने कहा भी, ‘लड़की पंजाबियों में ब्याहोगे।’ तो सीधा जवाब दिया, ‘और क्या इन चमट्टों में ब्याह दें जिन्हें सोचने की भी अक्ल नहीं। बेटी विदेश में रहेगी। इस देश में धरा ही क्या है। मेरा वश चले तो दीयासलाई दे दूँ इस देश में।’ फिर आगे बोले थे, ‘वैष्णवी के जाने के बाद, मैं भी रिटायरमेंट के बाद वहीं चला जाऊँगा। बस…।’ पंख लग गए थे।
एक दोयम दर्जे के होटल में शादी कर दी थी वैष्णवी की। गाँव के किसी भी आदमी को नहीं बुलाया था। सियाराम चच्चा की आँखों से दिखना बंद हो गया था। चाची की आँखों में पहले से ही मोतियाबिंद था सो दोनों नहीं जा पाए थे। राजेन्द्रपाल की पत्नी अपने सासु-ससुर की देखभाल में ही अपने जीवन का सुख निहारती थी, सो वह गई नहीं। राजेन्द्रपाल का बड़ा बेटा गया था शादी में सो उसकी दो पैसे की कर दी थी सतेन्द्रपाल ने, ‘जब अच्छे कपड़े नहीं थे तो शादी में आना जरूरी था क्या। अब वहाँ फाइव स्टार होटल में ये सुतन्ना-सा पेंट पहनकर और ये चम्पू से बाल बनाकर मेरी नाक कटवाना हो तो आना, नहीं तो यहीं घर पर बैठकर टी.वी. देखो। राजेन्द्र भी, इतना कमाता है लेकिन बच्चों को ढंग के कपड़े भी नहीं दिलवा सकता!’
राजेन्द्रपाल का बेटा स्वाभिमानी था सो उसी रात घर वापिस आ गया था। राजेन्द्र को दुःख हुआ था। राजेन्द्र पुलिस में था लेकिन ईमानदार था। तीन-तीन बेटे और माँ-पिता की देखरेख में ज्यादा बचा नहीं पाता था, लेकिन परिवार में कोई दुःख नहीं था। बच्चे अच्छे पढ़ रहे थे, स्वस्थ थे। लेकिन फैशन के नए-नए कपड़े नहीं दिलवा पाता था। भोला भी था राजेन्द्र ‘भइया भी बोलते समय आगे पीछे का नहीं सोचते।’ बात आई की गई हो गई थी। सतेन्द्रपाल ने बेटी की शादी में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। घर-गृहस्थी की कोई ऐसी चीज नहीं जो न दी हो। एक गाड़ी भी दी थी।
बहुत खुश थे सतेन्द्रपाल बेटी को एनआरआई डॉक्टर लड़के से ब्याहकर। लड़के के माँ-पिता दिल्ली में ही जनकपुरी में रहते थे। बेटी कुछ दिनों के लिए जनकपुरी में ही रह रही थी। वीजा-पासपोर्ट में समय तो लगना ही था। देखते-देखते छह महीने निकल गए। लड़की गर्भवती हो गई थी। जब छह महीने तक लड़का यूएसए न गया तो दबी जुबान से बेटी ने पूछा भी था ‘यूएसए कब जाओगे।’ तो लड़के ने कोई बहाना बना दिया था।
देखते-देखते साल होने को आया। लड़की छह महीने का पेट लेकर जब घर पहुँची तो सतेन्द्रपाल के घर में कोहराम मच गया। सतेन्द्रपाल का दामाद अर्थात वैष्णवी का पति कोई डॉक्टर-फॉक्टर नहीं था। न ही यूएसए में था और न ही एनआरआई। वह अपने भटिंडा वाले मौसा जी के यहाँ रहकर एक प्राइवेट डॉक्टर के पास कंपाउंडर था। सतेन्द्रपाल के किसी अरोड़ा साथी ने झूठ बोलकर उनकी बेटी की शादी जनकपुरी वाले अपने रिश्तेदार अरोड़ाओं में करवा दी थी। इतना ही नहीं उस लड़के की एक पत्नी भी है और चार साल का बेटा भी जो भटिंडा में ही रहते हैं। लड़के ने वैष्णवी से साफ कह दिया, ‘तुम भी रहो, लवली भी रहे, मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं।’
सतेन्द्र ने जब सारी बात सुनी तो उन्हें काटो तो खून नहीं। अब क्या करें। जितना कर सकते थे किया। अब अपनी जाति-बिरादरी में ऐसा कुछ हुआ होता तो संबंध भी निकालते और धमकाते भी। एक दो बार कोशिश भी की लेकिन कुछ नहीं कर पाए उल्टा ये और हुआ कि लड़के के बुजुर्ग माँ-बाप ने केस कर दिया कि घर में घुसकर मार डालने की धमकी दी है, सो पुलिस ने उल्टा इन्हें ही और धमकाया और पैंतीस-चालीस हजार रुपये ऐंठ लिए। सतेन्द्रपाल ने अपनी बेटी का रिफरेंस दिया तो लड़के के पिता ने साफ-साफ कह दिया कि इन्हें सब बात बता दी थी। इनकी लड़की ही मेरे बेटे के पीछे पड़ी थी, तो हारकर उसने मान ली बात। जब सतेन्द्र ने बेटी के गर्भवती होने की बात कही, तो लड़के के पिता ने साफ कह दिया कि लड़की चरित्रहीन है किसी और का पाप लिए है। मेरे बेटे को फँसाने की साजिश है।
पुलिस अच्छी तरह जान रही थी कि लड़के का पिता झूठ बोल रहा है लेकिन नोटों की गडडियों के नीचे पुलिस दबी हुई थी। सतेन्द्रपाल हारने लगे थे। और इसी हारने-जीतने के सिलसिले में उन्हें अचानक समाज याद आने लगा था। अब दिल्ली में तो उनका कोई समाज था नहीं और गाँव में कभी समाज को माना नहीं था। करें तो क्या करें।
अचानक उनकी तीसरी आँख खुल गई। मास्टर साहब का छोटा भाई दिल्ली में ही मंत्रालय में मंत्री जी के साथ है। उसी की याद आ गई थी सतेन्द्रपाल को। हालाँकि दिल्ली में आए उन्हें काफी समय हो गया था। उन्होंने मास्टर साहब के छोटे भाई को कभी पूछा तक नहीं था, ‘होगा मिनिस्टर के साथ तो हम क्या करें। कम थोड़े ही हैं हम उससे। वह उम्र में छोटा है उसे मुझसे मिलना चाहिए था।’
‘आपत्ति काले मर्यादा नास्ति’ वाले सूत्र पर आज याद आ गई थी उसकी। मास्टर साहब का छोटा भाई बहुत ही विनम्र और सरल है। उसके परिवार में भाइयों में बहुत प्यार है। सभी संपन्न हैं। समाज के प्रति मास्टर साहब तो समर्पित हैं ही उनका छोटा भाई भी समर्पित है। जहाँ वे सब महामानव बाबा साहेब अंबेडकर को मानते हैं, उनके बताए मार्ग पर चलने की कोशिश करते हैं, वहीं समाज में, अपने परिवार में और गाँव में भी लोगों के साथ मिल-जुलकर रहते हैं।
मास्टर साहब लौट आए थे स्वप्न लोक से। समय देखा, स्कूल के लिए लेट हो गए थे। सतेन्द्रपाल की बेटी के दुःख और पीड़ा से करुणा जाग गई थी मन में फिर गुस्सा भी आया था सतेन्द्रपाल के समाज के प्रति और अपने माँ-पिता, भाई के प्रति व्यवहार पर। ‘मैं नहीं करता फोन छोटे वाले से। जिस आदमी ने कभी समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व नहीं समझा आज अटक गई तो मदद चाहता है, मैं नहीं करूँगा।’ कि अचानक ‘आप ऐसे कब से हो गए मास्टर साहब आपने तो हमेशा सभी को प्यार किया, समाज में एका कराने के लिए आपने अपमान सहा और आज सतेन्द्रपाल की मदद नहीं करेंगे? आप तथागत को तो मानते ही हैं। आपके मोबाइल पर ‘बुद्धम् शरणम्’ क्यों बजती है। बुद्धम् तो क्षमा, शील, करुणा के सागर हैं तो मान जाइए। छोटे वाले से फोन कर दो। वह सतेन्द्र के लिए कुछ कर सकता है। चलो छोड़ो, मानवता के नाते ही सही।’
जंग जारी थी कि बुद्ध हमेशा की तरह जीत गए थे। मास्टर साहब ने अपने छोटे वाले को फोन मिला दिया था। आपस में प्यार, स्नेह और घर परिवार की बातें होने लगी थीं और अंत में मास्टर साहब ने अपने छोटे वाले से फोन पर कहा था, ‘सतेन्द्रपाल की जितनी मदद हो सकती है कर दो’ और उसकी बेटी के दुःख तथा उसकी पीड़ा को अपने छोटे भाई के समक्ष परोस दिया था।
मास्टर साहब का छोटा भाई आज्ञाकारी था। भाई की बात से बढ़कर उसके लिए कुछ भी न था फिर भी पूछ लिया था, ‘भइया एक बात पूछना चाह रहा था।’
‘पूछो।’
‘भइया सतेन्द्रपाल ने जीवन भर समाज का साथ नहीं दिया। समाज रूपी डार से टूटे हुए लोग हैं ये! फिर आज समाज उनका साथ क्यों दे?’ सीधा प्रश्न किया था मास्टर साहब के भाई ने मास्टर साहब से। जीवन में पहली बार था कि वह अपने बड़े भाई से प्रश्न कर रहा था और उसका जवाब भी चाहता था। मास्टर साहब ने अपने छोटे भाई के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया था। इतना ही नहीं वे तो अब भी फोन कान से लगाए अपने छोटे भाई के प्रश्न का उत्तर खोज रहे हैं।
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