बैकग्राउंड

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क्यों बेटे उदास क्यों हो? पढाई सिर्फ अँग्रेजी मीडियम में तो नहीं होती।’

‘नहीं बापू, मैं अपने लिए नहीं आपके लिए सोच रहा था, मेरे कारण…’

‘नहीं बेटे, उन्होंने बात मुझे नहीं मेरी स्थिति को सुनाई थी–जो मेरे वश में नहीं तुम भी जानते हो।’

‘जी बापू…’ कहते हुए नवल की आँखें भर आईं, जिसे जल्दी से बापू से छुपा कर वह उनके काम में हाथ बटाने लगा। मगर बापू कोई बच्चा नहीं थे। वह सोचने लगे–जो मुझे नहीं मिल सका, उससे बेटा भी दूर रहे ऐसा क्यों है ईश्वर! ऐसा अगर हुआ तब आप पर से इनसान का यकीन खत्म हो जाएगा।

हरदयाल, एक बहुत ही मेहनती इनसान था। अभी वह स्कूल के छठे क्लास में ही था कि उसके बाबू जी का देहांत हो गया। उस वक्त उसकी उम्र यही कोई तेरह वर्ष थी। वह पढ़ने में अच्छा था, मगर बाप के बिना उसका गार्जियन कौन था जो यह सोचता–बस चाचा ने उसे पुश्तैनी मकान से एक कमरा, एक रसोई, एक वरांडा देकर उसे एक होटल में लगा दिया ताकि वह चार पैसे ला कर अपना और अपनी माँ का पेट पाल सके। हरदयाल क्या कहता, उसने माँ की तरफ देखा। माँ उसके दिल की हालत खूब समझ रही थी। उसके लिए यही बहुत था कि उनलोगों ने उन्हें बेघर नहीं किया था। तब से हरदयाल होटल में काम करने लगा और उसका वह स्वप्न कि वह ऑफिस में कुर्सी पर बैठ कर फाइल निपटाएगा–सपना ही रह गया। लेकिन, हालात पर किसका वश रहता है जो उसका ही रहता। मगर इतना जरूर था कि यहाँ भी उसने ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ा और बड़ी मेहनत और लगन से काम में लगा–माँ और अपना पेट पालता रहा। उसे तो पता ही नहीं चला कि कब उसने बीस भी क्रॉस कर लिया।

‘बेटा मुझसे अब इतना काम नहीं होता–कुछ पैसे मैंने इकट्ठा किए हैं तुम उनसे अपना कोई काम शुरू कर लो ताकि मैं बहू लाकर कुछ आराम कर सकूँ।’

‘माँ’ हरदयाल एकदम से जमीन पर आ गया, ‘इतना लंबा समय कैसे हो गया। समझ नहीं आया। मैं भी अब कोई अलग काम करना चाहता हूँ, रोज-रोज यह होटल के मालिक की चख-चख नहीं सह सकता। कुछ रुपये मैंने भी बचाए थे यही सोच कर।’ तब फिर दोनों ने रुपये इकट्ठा कर जोड़े जो लगभग दो हजार थे।

‘इतने से क्या हो सकता है?’ माँ ने निराश हो कर कहा।

‘तुम चिंता न करो। मैंने सोचा है, मैं एक ठेला ले लूँगा और शाम में एक गुंजान मुहल्ले के पास अंडा उबाल कर बेचने का काम करूँगा।’

‘इससे क्या होगा?’

‘माँ, आज इसका बिजनेस अच्छा चलता है। बीच में दिन के समय कोई एक अन्य काम भी देख लूँगा।’

‘हाँ, यह ठीक रहेगा। तुम ठेला वगैरह की व्यवस्था करो। मैं लड़की देखती, बल्कि देखना क्या है अपनी पड़ोस में ही एक लड़की है रजनी। बचपन से देखा है–अच्छी है, बात करूँगी, उसकी माँ भी तुम्हें पसंद करती है।’ हरदयाल को शादी की इन बातों में बस इतनी ही दिलचस्पी थी कि वह माँ के लिए उसे जरूरी लगी।

दूसरे ही दिन उसने एक ठेला का इंतजाम कर लिया और पोल्ट्री फॉर्म से कम दाम के अंडे की भी व्यवस्था कर ली (थोक में जो लेना था)। शाम में माँ के हाथों से पूजा करा कर और गैस का चूल्हा वगैरह ले कर वह मुहल्ले के क्रॉसिंग पर एक कोने में खड़ा हो गया। वहाँ आस-पास कोई अंडा वाला नहीं था–हरदयाल मेहनती और हँसमुख था। जल्द ही लोगों की भीड़ उसके यहाँ लगने लगी। पाँच बजे शाम से लेकर वह दस बजे रात तक रहने लगा। खर्चा वगैरह निकाल कर रोज उसकी आमदनी तीन-चार सौ होने लगी। इसे देख कर वह तो खुश था ही, माँ भी बेहद खुश हो गई और वह अपनी मुहल्ले की दोस्त से बात कर उसकी बेटी रजनी को तरीके से ब्याह कर ले आई। हरदयाल बहुत छोटे से ही जवाबदेही से काम और अपनो के नेगलेक्ट में जीवन जीता आया था। अब जो एक उसके इन सभी परेशानियों की साझीदार और उसके घर की जिम्मेदारियों को हल्का करने वाली को देखा तो अचंभित-सा रह गया। उसने अपना इतना ख्याल रखने वाली माँ के अलावा कोई दूसरी हस्ती (महिला) अब तक देखी कहाँ थी। अब जो रजनी ने उसकी जिंदगी में पदार्पण किया तो एकदम से जैसे उसकी जिंदगी ही बदल गई। रजनी थी भी बहुत प्यारी, भोली और घरेलू लड़की। उसके आने से पहली बार हरदयाल को लगा कि जिंदगी कितनी हसीन है। एक दिन माँ ने कहा–‘हर वक्त कमरे में घुसा रहता है–तूने तो कहा था दिन में कोई दूसरा काम भी देख लूँगा।’

‘हाँ, कहा था, मगर इतने पैसे जो आ रहे हैं रोज यह क्या हमारी गृहस्थी की गाड़ी को अच्छे से नहीं खींच रहे हैं?’

‘वह तो है, मगर अब खर्च बढ़ेगा भी, फिर क्या करोगे। हर गाड़ी ईंधन से चलती है, पता है न।’

‘पता है, जब जरूरत पड़ेगी और ईंधन की कमी महसूस करूँगा तो वह भी देख लूँगा।’

‘हाँ, याद रखना–गाड़ी हमेशा…’

‘ईंधन से चलती है।’ हरदयाल ने वाक्य पूरा किया।

माँ को और क्या कहना था, बेटा समझदार है। इसमें उन्हें कहाँ कोई शक था। इसलिए ज्यादा कुछ कहना उन्हें ठीक नहीं लगा कि कहीं बहू को बुरा न लग जाए। गृहस्थी की गाड़ी सभी को मिल कर ही खींचनी पड़ती है। हुक्म से नहीं।

‘दयाल’, एक दिन माँ ने बाहर जाते देख कर टोका।

‘जी माँ…’ वह रुक गया।

‘बहू की तबीयत ठीक नहीं, उसे किसी लेडी डॉक्टर को दिखा दो ले जाकर।’ दयाल ने गौर से माँ को देखा। ‘ठीक है, कल जाऊँगा।’ कहते हुए वह बाहर हो गया। दूसरे दिन डॉक्टर को दिखा कर लौटते हुए वह थोड़ी मिठाई माँ के लिए ले कर लौटा। ‘अम्मा, तुम दादी बनने वाली हो।’

‘मालूम है’, अम्मा ने मुस्कुरा कर कहा।

‘मालूम है फिर मुझे क्यों भेजा डॉक्टर के पास।’ वह चौंका।

‘डॉक्टर को दिखाना जरूरी है। अब वह डॉक्टर की निगरानी में ही रहेगी।’

‘जी’ कहते हुए वह कमरे में चला गया।

‘थक गई?’

‘नहीं तो।’

‘अब तुम्हें अपना पूरा ख्याल रखना है क्योंकि तुम्हें मेरी अमानत की देख-भाल भी करनी है।’

‘पता है।’

‘सब तुम दोनों को ही पता है। मैं तो जैसे बिचौलिया हो कर रह गया हूँ।’ हरदयाल ने मुँह बनाया और रजनी हँसने लगी।

‘आप बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूँ।’

‘तुम रहने दो–मैं बनाता हूँ।’

‘यह क्या हुआ, मैं कोई बीमार हूँ!’ कहते हुए रजनी बाहर निकल गई।

इसी तरह हँसते-मुस्कुराते एक दूसरे का ख्याल रखते तीनों ने नौ महीने पूरे किए और जब नर्स ने ला कर एक प्यारे से सेहतमंद बच्चे को माँ की गोद में डाला, हरदयाल खुशी से रो पड़ा।

‘माँ आज मैं पूर्ण हो गया।’

‘पूर्ण तुम पहले भी थे, तुम इतने अच्छे इनसान हो–तुम्हें बना कर ईश्वर भी खुश हो गया होगा।’

‘नहीं माँ, अगर मैं अच्छा होता तो पिता जी ही क्यों असमय छोड़ जाते।’

‘वह दूसरी बात है। अच्छे इनसानों को हमेशा इम्तेहान से गुजरना पड़ता है।’

‘क्या पता।’ हरदयाल को अपने वह दिन याद आ गए जब वह स्कूल जाता था और बाबू जी हमेशा उसे इंजीनियर बनाने का स्वप्न देखा करते थे। मगर…‘अब मैं अपने बेटे को…’ उसने बात पूरी भी नहीं की थी कि माँ ने उसके होंठों पर उँगली रख दी।

‘बोलो मत, किए जाओ, कभी-कभी अपनी भी नजर लग जाती है।’

‘जी।’ कह कर हरदयाल चुप हो गया।

दिन हँसी-खुशी आगे बढ़ने लगे, घर में एक बच्चे की किलकारी ने सभी के दिल में जीने की नई उमंग भर दी थी। वह भी अब अपने काम में काफी मेहनत करने लगा था। वह चाहता था पढ़ाई के मामले में उसके बेटे को कभी पैसे के अभाव का सामना करना नहीं पड़े। मगर उसने दूसरा कोई काम नहीं पकड़ा था बस वही चार-पाँच घंटा रात में वह अंडा उबाल कर ऑमलेट बना-बना कर लोगों को खिलाता रहा। इससे उसकी आमदनी अच्छी थी और वह रोज ही बेटे के नाम से पचास रुपये अलग रख दिया करता था। उसका बेटा भी उसी की तरह सीधा और तेज था। हरदयाल घर में ही उसे खुद से पढ़ाया करता था। ताकि उसके दाखिले में किसी तरह की परेशानी का सामना न करना पड़े।

और फिर एक दिन वह भी आया जब उसने अपने बेटे का रजिस्ट्रेशन शहर के सबसे अच्छे अँग्रेजी स्कूल में एडमिशन के लिए करा दिया मगर…

रिजल्ट की लिस्ट में बेटे का नाम नहीं देख कर उसे बेहद मायूसी हुई। बेटा पढ़ने में खराब था या उसने उत्तर देने में गड़बड़ी की थी यह मानने को उसका दिल तैयार नहीं था। वह प्रिंसिपल के पास गया।… ‘यस, क्या बात है?’

‘जी यह मेरा बेटा, इसका नाम लिस्ट में नहीं है जबकि इसने दूसरे लड़कों से ज्यादा अच्छी तरह जवाब दिया था।’

‘हाँ, मुझे मालूम है।’ प्रिंसिपल ने कहा।

‘फिर…’

‘फिर क्या, देखो यहाँ अच्छी फैमिली के लड़के आते हैं। मैं उनके साथ एक अंडा बेचने वाले के लड़के को अगर लूँगा तो स्कूल का रेप्यूटेशन खराब होगा।’

‘क्या सर, आप कैसी बातें कर रहे हैं।’

‘मैं ठीक कह रहा हूँ। अब आप जा सकते हैं। मुझे और भी लोगों से मिलना है।’

‘मगर यह तो…’ वह कुछ और बोलता प्रिंसिपल ने चपरासी को बुलाकर दूसरे व्यक्ति को लाने को कहा और हरदयाल को तब उठना ही पड़ा।

वह बुझे दिल के साथ शाम में जब ठेला ले कर जाने लगा बेटे ने कहा–‘बापू, मैं भी चलू आपके साथ?’ हरदयाल का यह सुनते ही दिल धक से कर गया।

‘नहीं, ठीक है बेटे तुम्हारा उस स्कूल में नहीं हुआ, मगर स्कूल की कमी थोड़े ही है यहाँ।’

‘ठीक है बापू, मगर बाप की मदद करने में कौन सी खराबी है।’

‘ठीक है चलो, तुम्हारा दिल बहल जाएगा।’ बाप के साथ राकेश बड़ी मेहनत और सलीके से लोगों के अंडे का ऑडर लेता और पूरा करता रहा। तभी एक लेडी अपनी बड़ी सी गाड़ी से उतरी। ‘कम मैम, व्हाट कैन आई डू फॉर यू?’ राकेश ने पूछा तो वह आश्चर्य में पड़ गई। उसने अपने पति की तरफ देखा जो गाड़ी लगा कर वही आ गए थे।

‘व्हाट ए स्मार्ट चैप!’

‘तुम क्या लोगी’, हसबैंड ने उसकी बातें अनसूनी कर पूछा।

‘मैं ऑमलेट लूँगी।’ लेडी का ध्यान अभी भी राकेश पर था। उसने हरदयाल से पूछा। ‘आपका बेटा है?’

‘हाँ’

‘यहाँ क्यों काम करा रहे, किसी स्कूल में क्यों नहीं भेजा।’

‘स्कूल वाले एक अंडा बेचने वाले के बेटे को अपने स्कूल में लेने को तैयार नहीं थे।’

‘यह क्या बात हुई–मैं देखूँगी, कौन सा स्कूल था।’ हरदयाल ने नाम बता दिया। ‘अरे वह मेरे ऑफिस के पास ही है। मैं देखती हूँ।’ कहते हुए उसने पैसा दिया और उठ गई।

‘कौन थी ये बापू।’

‘मैं नहीं जानता, बहुत लोग रोज आते हैं–उनका परिचय तो लेता नहीं।’ वह लेडी यहाँ नई-नई आई थी और डिप्टी कलक्टर के पोस्ट पर थी। दूसरे दिन वह ऑफिस जाने के पहले स्कूल गई।

‘व्हाट कैन आई डू फॉर यू?’ प्रिंसिपल ने खुश एखलाकी से उसका स्वागत किया। ‘मैं यहाँ कुछ जानने आई हूँ।’

‘कहिए।’

‘क्या आपके स्कूल में एडमिशन बच्चे की मेरिट नहीं बाप-माँ का स्टेटस देख कर होता है?’

‘नहीं तो, आपसे किसने कहा?’ प्रिंसिपल उस लड़के को भूल चुका था।

‘फिर आपने एक अंडा बेचने वाले के लड़के को एडमिशन लेने से क्यों मना कर दिया?’ उसने रुखाई से पूछा।

‘जी, जी।’

‘कहिए।’

‘जी, मैडम आपको पता ही है कि शहर में हमारे स्कूल का अपना एक अलग स्टैंडर्ड है–बहुत सारे नियम हैं जिनका पालन करना ही पड़ता है, बच्चों के पेरेंट्स को।’

‘तो…?’

‘इस तरह के पेरेंट्स उन नॉर्म्स को पूरा नहीं कर पाते और हमेशा कम आमदनी का रोना ले कर खड़े रहते हैं। फिर बताइए हम कैसे अपना स्टैंडर्ड मेनटेन कर सकते है।’

‘इस वजह से आप एक अच्छे लड़के को एडमिशन नहीं देंगे और फिर आपने यह अनुमान कैसे लगा लिया कि जो पेरेंट आपके सामने हैं, जिसने फॉर्म भरा है वह खर्च नहीं जानता होगा?’

‘मगर इस तरह के बैकग्राउंड वाले छात्र को लेने से स्कूल के रेप्यूटेशन पर भी प्रभाव पड़ता है।’

‘आप अपना रेप्यूटेशन बचाने के लिए एक बच्चे के कैरियर से खिलवाड़ कैसे कर सकते हैं। प्रिंसिपल साहब अगर आपके बैकग्राउंड को देख कर किसी स्कूल ने आपका एडमिशन नहीं लिया होता तो आप भी ऊँची पढ़ाई कर इतना बड़ा स्कूल नहीं खोल सकते थे।’

‘जी।’

‘जी हाँ प्रिंसिपल साहब। मुझे आपका बैकग्राउंड अच्छी तरह पता है। जब उस बैकग्राउंड से आ कर आप प्रिंसिपल की कुर्सी पर बैठ कर स्कूल चला सकते हैं तो एक गरीब इनसान भी अपने बच्चे को अच्छे से पढ़ाने के लिए सब कुछ कर सकता है।’

‘जी।’

‘आप इस बच्चे का एडमिशन आज ही लेंगे वरना आपके स्कूल का एफीलीएशन इसी ग्राउंड पर रद्द कर देने में मुझे ज्यादा कठिनाई नहीं होगी और न कोई पश्चाताप ही होगा।’ यह कहते हुए वह उठ गई, साथ ही एहसास-ए-निदामत से भरे प्रिंसिपल साहब माफी माँगते हुए उन्हें सी ऑफ करने गेट तक आ गए।


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