बिहारी एक्सप्रेस

बिहारी एक्सप्रेस

तीन बेटियाँ और दो बेटों से भरा-पूरा परिवार…पर यही तो बोझ था जो सँभाले नहीं सँभलता था। ‘…बाप रे! इत्ता बड़ा परिवार! सात जन! कुल एक्कीस का चौका-चूल्हा रोज!…’ कभी-कभी चन्नर जब सोचता था तो जनाना से कहता, ‘बेटे के लालच में यह सब जंजाल गले का फँदा बनता चला गया! एक बेटा आया भी तो तीन बेटियों के बाद, और जब तक सँभलता तब तक दूसरा भी पेट में तैयार!’ कहते-कहते वह उदास हो जाता था। जैसे अंदर ही अंदर रो-कलप रहा हो। पर तब पत्नी कहती, ‘आने भी तो दो! भगवान ने जब मुँह चीरा है, तो दाना भी जुटा ही देगा।…हम कौन होते हैं आनेवाले को रोकने वाले?…वह तो वही सब करता है जो उसे ठीक लगता है। दुनिया का कर्ता तो एक है जो सब को एक नजर से देखता है। उसके काम में दखल देने वाले हम कौन होते हैं?’

वैसे पत्नी की बातों का समर्थन पति भी करता है। वह कहता है, ‘हम कोई पाप नहीं करेंगे और आनेवाले को रोककर अपना परलोक भी नहीं बिगाड़ेंगे, बल्कि हम तो आनेवाले का स्वागत करेंगे।’

‘और नहीं तो क्या? जो भी आएगा, सबके साथ वह भी जी लेगा। कैसे मरने देंगे! जान लगा देंगे…!’

और सचमुच इस बार भी बेटा ही हुआ था और सबने थाली बजाकर उसका स्वागत किया था। घर में खुशी की लहरें उफन पड़ी थी। ‘…एक आँख और एक पाँख का क्या भरोसा कि कब टपक जाए!…दो बेटे यानी चार हाथ और चार पाव! दो-दो दाने लाएँगे तो चार दाने हो जाएँगे। भूखे पेट तो नहीं न सोएगा कोई!…बस, बाड़ी-फूलबाड़ी हरी-भरी रहे और जिंदगी बनी रहे!’

पत्नी की बातों से पति भी कम खुश नहीं हुआ था। वह भी बोला था, ‘चौथे और पाँचवें हम दोनों पति-पत्नी के हाथ-पाँव और आँखे हैं जिनसे हम दोनों रोटी पाएँगे और अपने भविष्य को देखेंगे भी…।’

तभी पत्नी हुलसकर बोली थी, ‘बस! थोड़े दिनों का दुःख है। कहावत है न, ‘आयल पुन आयल दुःख कमाये लागल पुन, भागल दुःख।’ फिर तो दोनों ठहाका लगाकर हँसे थे। पाँच-पाँच बच्चे, फिर भी ठहाका! जैसे लड़के सब कमासुत हों…। मन तो सब कुछ समझ भी रहा था, पर पेट कहाँ मानने वाला था। वह तो शाम की शाम खाली ही रह जा रहा था। पर उपाये भी क्या था? भूख का कहर तो सहना ही सहना था।

खेत-पथार तो बाप-दादा के समय से ही नहीं था। वैसे भी जात का ब्राह्मण था–वह भी कंटाहा ब्राह्मण यजमानी, काम-क्रिया, श्राद्ध-कर्म, पिंडदान, दान-दक्षिणा, सूत-तोड़ाई आदि-आदि–यही सब तो कमाई के जरिया थे।…मरनी-हरनी होती थी, हँकारा आता था, तो भोजन के साथ कुछ पैसे भी हाथ पर आ जाने थे और एक-दो माथा चूड़ा, चावल, आटा, आलू, प्याज, बैंगन, नमक, दाल आदि भी। जैसा यजमान वैसी दान-दक्षिणा। पर ऐसा हादासा रोज-रोज तो क्या महीना-पंद्रह दिनों पर भी कहाँ हो पाता था। कभी-कभी तो महीनों खाली रह जाना पड़ जाता था। जबकि रासन-पानी, दवा-दारू कपड़ा-लत्ता, परब-त्योहार, मर-मेहमान आदि के लिए तो पैसे चाहिए ही चाहिए।…जब सुंदर-सुंदर नाजुक-नाजुक, प्यारे-प्यारे बच्चों के कुम्हलाए चेहरे को दोनों पति-पत्नी निहारते थे, तो उनकी आत्माएँ रो पड़ती थीं। आँखों से गंगा-यमुना बह निकलती थीं। उसी मानसिकता में एक दिन रोते-कलपते मन से पत्नी बोली, ‘बच्चों की हालत तो अब मुझसे देखी नहीं जाती! मन दिन-रात रोता बिलखता रहता है…।’

‘यही दशा तो मेरी भी है! परंतु बोलती हो मैं चुप रहता हूँ।’

‘मेरी छाती फटती रहती है! मन बौराता रहता है…!’

क्या करूँ?…बाहर कहीं निकल जाऊँ?, ‘और क्या करेंगे तब? इन सबको मरते भी तो नहीं देख सकते…?’

‘भला अपने कोख-जाया को कोई कैसे…।’

‘जब मैं नहीं रहूँगा, तो गृहस्थी सँभाल लोगी?’

‘जाही विधि राखै राम, ताही विधि रहिहौं…। अभी ही कौन सुख से हैं सब…! मौत का साया तो हर समय…।’

‘किसी को, बस मरने मत देना। हड्डी भी बची रहेगी न, तो माँस भरते देर न लगेगी! ब्राह्मण के बच्चे हैं। भीख माँगकर भी पेट भर लेंगे।’ उसने नाक का बलगम साफ करते हुए आगे कहा, ‘बाहर कहीं जाकर कुछ न कुछ जरूर कमाऊँगा।…तू किसी तरह माह-भर चला लेना। कुछ भी कर लेना। एक शाम भी पेट में कुछ डालने को मिल जाएगा, तो प्राण बच जाएँगे सबके।…भूख सहने की आदत तो है ही…।’ पति रो रहा था और बोल रहा था। पत्नी कपस रही थी और सुन रही थी। टहा-टही लोर दोनों के गालों पर टघर रहे थे। पति का बोलना जारी था, ‘भोज-भात जहाँ भी होगा, वहाँ बच्चों समेत पहुँच जाना और यजमान से हाथ-पाँव जोड़कर सबको भर पेट भोजन करा देना। उस समय अपनी जाति अथवा अपने धर्म पर ध्यान मत देना। भूख की न तो कोई जाति होती है और ना ही कोई धर्म।…कहा भी गया है ‘मरता क्या न करता!’ तुम्हारा तो जो भी कर्म होगा, जीने के लिए होगा। इसलिए अपराध भी क्षम्य होगा…।’

भोरे-भिनसरे गाड़ी थी। गाड़ी तो दिन में भी थी। पर बच्चों के सामने घर से निकलने की हिम्मत वह जुटा नहीं पा रहा था। इसलिए किरण फुटने से पहले ही, जब बच्चे सब सो ही रहे थे, वह घर से निकल पड़ा था। साथ में उधार के चने-मक्के का सत्तू, एक टीन का लोटा, फटी-पुरानी एक धोती, एक कुर्ता, एक गमछा, चटटी का एक थैला, बस!

आलम मियाँ–उसके ही गाँव के पास के गाँव का रहने वाला था। तब उसके अब्बा ज़ान से चन्नर पाँड़े के पिता की खूब छनती थी। प्राथमिक पाठशाला की पढ़ाई दोनों ने साथ-साथ पूरी की थी। फिर दोनों ने पढ़ाई छोड़ दी थी और अपने-अपने पिता के काम में हाथ बटाने लगे थे।…आलम के अब्बा ज़ान दर्जी थे और चन्नर के पिता यजमानी किया करते थे। दोनों के बीच की दोस्ती का कारण भी उनका अपना-अपना धंधा ही था। चन्नर के पिता यजमानी में जो दान के कपड़े लाते थे वे सबके सब सीधे दर्जी की दुकान में पहुँचा देते थे। वह उन्हें काट-छाँटकर और जोड़-जाड़कर बिछावन, परदा, झोला, पेटीकोट, हाफ पैंट, लंगोटा, अंडर बीयर, तकिया कारबोल, रजाई का कवर आदि बनाता था और बिक्री के लिए कभी-कभी हाट-बाजार का भी दौरा कर आते थे। उससे जो पैसे आते थे, दोनों आधा-आधा बाँट लेते थे। वर्षों तक वह दोस्ती चलती रही थी जो आपसी ईमानदारी और विश्वास की एक मिशाल थी। आपस में न तो कोई बक-झक था ना ही कोई तना-तनी थी। पर आलम को अपने पिता का वह दर्जी वाला धंधा ठीक नहीं लगा था। वह हमेशा अधिक कमाई की बात सोचा करता था और इसीलिए वह पैसे वाला धंधा करना चाहता था। चन्नर के पिता ने उसे कभी कहा भी था, ‘तुम्हारी ललाट समृद्ध है, बेटा! हाथ की रेखाओं में यश है! जिस धंधे में हाथ लगाओगे, उसी में बरक्कत होगी! एक दिन तू खुद का मोख़तार बनेगा।’ वह आशीर्वाद भी कभी-कभी उसे हिम्मत देता रहता था।

और एक दिन जान-पहचान के एक ट्रक-ड्राइवर के साथ वह सीधे दिल्ली भाग गया था। सप्ताह दिनों के बाद ही उसने एक चैराहे के पास अंडा बेचने का धंधा शुरू कर दिया था। पैसे आने लगे थे। कमाई होने लगी थी।…कच्चा अंडा, सीजा अंडा, आमलेट, अंडा ब्रेड, अंडा कड़ी, अंडा सब्जी आदि-आदि। पास ही एक होटल था। वह शाकाहारी था। ग्राहक इस दुकान से अंडा-कड़ी अथवा अंडा-सब्जी तथा होटल से तबे की रोटियाँ और सलाद लेकर अपने डेरे पर चले जाते थे और प्रेम से खाते थे। बाद में तो उसने भाड़े की दुकान भी ले ली थी और काम जम जाने पर अंडे की एजेंसी भी ले ली थी।…धीरे-धीरे उसने गाँव से भाइयों को भी बुला लिया था। उन सब को भी उसी धंधे में लगा दिया था। अपने पाँच भाइयों में आलम सबसे बड़ा था इसलिए वह अभिभावक की भूमिका में था। धीरे-धीरे आमदनी बढ़ने लगी थी। उसने पास ही माटी माइंस में जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा ले लिया था और थोड़ा-थोड़ा करके उसमें एक मकान भी खड़ा कर लिया था। गृह-प्रवेश के एक रोज पहले ही उसके अब्बा ज़ान और अम्मी ज़ान गाँव से आ गए थे।

चन्नर पांडेय उन्हीं लोग के साथ दिल्ली आया था। उसी दिन, शाम के बख़त चाय-नाश्ता के समय आलम के अब्बा ज़ान ने आलम से कहा था,

‘…चन्नर मेरे बचपन के दोस्त का बेटा है। इसी के पिता ने तुम्हारी ललाट देखकर भविष्यवाणी की थी कि तुम जिस धंधे में हाथ लगाओगे, उसी में बरक्क़त होगी। सचमुच आज तुमलोग मनगर से कमा-खा रहे हो।…पर इसकी दशा मुझसे देखी नहीं गई थी, साथ ले आया।…गाँव में पाँच-पाँच गदेल बच्चे हैं–दाने-दाने के मुहताज! अच्छा होता, यदि अपने भाइयों की तरह इसे भी किसी धंधे में लगा देते तो एक डूबते परिवार को तिनके का सहारा जरूर…!’

‘आपके साथ इनको देखकर मुझे भी खुशी हुई थी!’ आलम बीच में ही बोल पड़ा था, ‘इनके अब्बा जान की सारी बातें मुझे याद हैं।…अल्लाह ने चाहा तो इनके लिए भी कोई न कोई राह निकल ही आएगी। मैं कोशिश में लग जाऊँगा।’

पास के गाँव का नागेंदर सिंह जिन्हें लोग सम्मान से हाक़िम कहते थे, उन्हीं के घर चन्नर की पत्नी गई थी। उनकी बहू की गोद-भराई थी। शादी के तक़रीबन पंद्रह-सोलह साल बाद कहीं जाकर बड़की बहू ने थोड़ी उम्मीद जगाई थी। इस बीच हाक़िम ने बेटे की दूसरी शादी भी कर दी थी। उससे शादी के भी छह-सात साल लग गए थे। पर उधर से भी कोई उम्मीद नहीं जगी थी। पर देखिए, ईश्वर की लीला, इतने वर्षों बाद उम्मीद बनी भी तो बड़ी बहू से ही। सबने उसे आँखों पर बिठा लिया था…। सब खुश थे। गोद-भराई का रस्म उसी खुशी में मनाया जा रहा था।…जवाहर पासवान की जनाना बुलाने आई थी। वह चन्नर-बहू के सामने बुदबुदायी थी, ‘तुमने तो पाँच बच्चे जने हैं।…हाकिम-बहू की इच्छा है कि उनका घर-परिवार भी बाल-बच्चों से हरा-भरा हो जाए! जरूर आना और बच्चों, सबको भी बटोरकर लाना। सब खुश…।’

जनकिया ने नौ बार बहू को निहुछा था, फिर अपने आँचल से ढँक कर आशीर्वाद दिया था, ‘दूधो नहाओ पूतों फलो।’ फिर तो ‘गोद-भराई’ का रस्म पूरा हुआ था। लौटते समय हाक़िम की पत्नी ने जनकिया को दस किलो चावल, दस किलो गेहूँ, पाँच किलो आलू, शीशी-भर सरसों का तेल, दो सेट कपड़ा–एक पुरान और एक नया तथा दो सौ इकावन रुपये नकद दिए थे।

उसी रुपये को पास में लेकर चन्नर गाँव से चला था। स्टेशन पर ही उसे आलम के अब्बा और अम्मी मिले थे। टिकट तो उन्होंने ही खरीद दिया था।…स्टेशन से अब्बा और अम्मी को ले जाने के लिए आलम ने गाड़ी भेजी थी। चन्नर भी उसी पर आ गया था।

वैशाली में अधिकांशतः बिहारी लोग ही रहते हैं। वैसे तो अन्य राज्यों के लोग भी रहते हैं, पर कम संख्या में। पर वहाँ रहने वाले प्रायः सभी निम्नस्तरीय लोगों ने चन्नर के प्रति प्यार और सम्मान ही दर्शाया था। दिशा-मैदान के बाद ही ओसारे के फर्श को पानी से धो-पोंछकर उसी पर वह पट गया था। रात-दिन का जागरण था। होटल का गरमा-गरम भात और राजमा की सब्जी। गरम मसाला, धनियापत्ता, टमाटर और अदरक का स्वाद! वह दम तक खाया था और अघाकर पट गया था। भोज-भात में ही वह भर-पेट खा पाता था। उस रात वहाँ भी उसका पेट उसी तरह से भरा था। वह जो सोया था तो घोड़ा बेचकर और उठा भी था तो सूर्योदय के बाद ही।

उसी दिन, शाम को, आलम की दुकान पर कई जन आ जुटे थे। कई-कई तरह की चर्चाएँ शुरू हो गई थीं। एक ने पूछ दिया था, ‘सुना है, अपने बिहार में कोई अनपढ़-गँवार औरत मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठी है?’ ‘हाँ’, सब हँसे थे, ‘एक अनपढ़-गँवार अँगूठा छाप औरत…!’ दूसरे ने सफाई पेश करते हुए यह भी जोड़ दिया था–‘यही तो लोकतंत्र है, जहाँ कमजोर से कमजोर आदमी भी अपनी काबीलियत से मुख्यमंत्री की कुर्सी पा सकता है!’

‘इतिहास गवाह है! एक समय उसी बिहार का नालंदा जहाँ विश्व के कोने-कोने से लोग अपनी ज्ञान-पिपासा शांत करने आते थे।…आज वहाँ की मुख्यमंत्री अँगूठा छाप है!’ चन्नर ने अपनी चिंता भी जताई थी।

‘बिहार शुरू से एक तरह से प्रयोगशाला रहता आया है!’ इस बार आलम के अब्बा ज़ान थे, ‘जयप्रकाश नारायण जैसे लोकनायक वहाँ थे, तो उन्होंने पूरे छात्र-समुदाय को राजनीति के अंधकूप में ढकेल दिया था।…कर्पूरी ठाकुर जैसे जननेता मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने बच्चों की पढ़ाई से ही अँग्रेजी को दरकिनार कर दिया था!…अब एक अनपढ़-गँवार महिला बिहार पर शासन करेगी…!!’

‘तो क्या हुआ?’ शंकर पंडित था, ‘इसी बिहार की वैशाली में हजारों साल पहले दुनिया का पहला गणतंत्र था–लिच्छवि गणतंत्र! तो क्या उस वज्जि संघ के सारे सदस्य पढ़े-लिखे ही थे और वह भी उस जमाने में…। राबड़ी देवी उसी परंपरा का तो अनुपालन कर रही है और यह सब लालू प्रसाद यादव करा रहे हैं…!!’

‘नामे-नाम कि उनकरै ले नाम!’ विषय बदलते हुए आलम ने आगे कहा, ‘लेकिन किसी न किसी रूप में नाम तो बिहार का ही हो रहा है न! हमलोग को तो खुश होना चाहिए…।’ उसने चुप लगाकर सिगरेट का कश मारा और धुएँ को ऊपर की ओर फेंकते हुए कहा, ‘अब हमलोग विषय बदलें और बिहार से सीधे दिल्ली आ जाएँ!…फिलहाल चर्चा का विषय यह है कि आज हमारे बीच एक बिहारी भाई और बढ़ गए हैं। ये हमारे ही गाँव-पास के हैं और जाति से ब्राह्मण हैं। पाँच बच्चों और बीबी को गाँव में भगवान-भरोसे छोड़ कर यहाँ आए हैं। घर गृहस्थी की माली हालत भी ठीक नहीं है। इसीलिए ये यहाँ आए हैं कि दो पैसा उगाहकर गाँव भेज सकें ताकि वहाँ भी दोनों शाम चूल्हा गरम हो सके और सबको दो जून की रोटी मिल सके…।’ इतना कहकर आलम चुप हो गया। वे सब उसकी बातों को ध्यान से सुन रहे थे। उसने आगे कहना शुरू किया, ‘हम बिहारी भाइयों के होते हमारा कोई भाई या उनके परिवार के लोग भूखे मरे या भीख माँगे–हम सब के लिए शर्म की बात होगी…इसलिए हम सबका यह फर्ज़ बनता है कि हम सब बिहारी भाई मिलकर इस भाई की मदद करें ताकि यह भी अपने पाँव पर खड़े होने में समर्थ हो सके और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके…।’

आलम की बातें सबको जँच रही थी। पाँच भाई तो आलम ही था। पाँच और मिलते देर न लगी थी। पाँच-पाँच सौ रुपये से सबने मदद की थी। दो-तीन दिनों में ही पाँच हजार रुपये चन्नर के हाथ में थे। चार हजार रुपये में ठेला और हजार रुपये में पूँजी। सातवें दिन से ही चन्नर सब्जी ठेलावाला बन गया था।

वह नौ बजे से वैशाली मेट्रो स्टेशन के पास रिक्शा भी लगाने लगा था। आलम ने ही उसे भाड़े पर एक रिक्शा दिला दी थी। बारह बजे के आस-पास जब वह रिक्शा जमा करके लौटता, तो फुटपाथ पर खाना खाकर रोड किनारे ही अपने ठेला पर लेट जाता था। नींद तो आनी ही थी। दिनभर का थका-माँदा जो रहता था। लेटते ही आँखें लग जाती थी। जब नींद टूटती थी तो चिड़ियों के मधुर कलरव और मीठे गीत कानों को सुनाई देते थे।…वह मुस्कुराता था, भगवान को धन्यवाद करता और उगते सूर्य को नमस्कार! फिर तो हड़बड़ाकर उठता, नदी की ओर भागता, दिशा-मैदान कर स्नान-ध्यान करता और लाल चाय और रेडिमेड नाश्ते के साथ ठेला पर आ बैठता, तो पत्नी-बच्चों की याद सताने लगती।…तब वह रो पड़ता! दोनों आँखों से टप-टप आँसू टपक पड़ते। तब न तो उसे चाय अच्छी लगती और ना ही पाँव-रोटी ही।…चायवाला भी बिहारी ही था। टोक देता, ‘घर की याद आ रही है मीता! अरे ऐसा ही होता है!!…पर चिंता न करो। आखिर उन सब के लिए ही न इतनी दूर आकर इतनी मेहनत कर रहे हो! उन सबके दिन भी लौटेंगे।…जल्दी चाय पी लो। मंडी जाना है ना, देर न करो। सवेरे निकल लो। ताजा सब्जी मिलेगी।’ वह भी सोचता, ‘आते-जाते पाँच किलोमीटर। ऊपर से हजारों रुपये की सब्जियाँ। खाली पेट ठेला पाएगा!’ वह गमछे से आँखें पोंछता, आनन-फानन में चाय में ब्रेड डूबोकर निगलता और चाय वाले को पैसे थमाकर मंडी को भागता।…अब तक तो उसकी आँखों में सब्जी-मंडी नाचने लगी थी।

सुबह की सब्जियाँ ताजा होतीं। जब वह वापस होता तो गृहिणियाँ सब टोक देती, ‘ऐ सब्जी वाला, जरा ताजा सब्जी देता जा!’ धीरे-धीरे चन्नर समझने लगा था कि सुबह की ताजा सब्जियों को ग्राहक भी पसंद करते हैं और कीमत भी ऊँची देते हैं। वह भी दाम कस देता था।…आधी सब्जी तो वह गली-मोहल्लों में ही खपा देता था। पूँजी निकल जाती थी, जो सब्जी बच जाती थी, वह शुद्ध लाभ का सौदा होती थी। वैसे भी वह ब्राह्मण था। इसका जनेऊ उसकी पहचान था। धीरे-धीरे औरतें सब उसे सब्जी वाला न कहकर पंडित जी कहकर बुलाने लगी थी। आलम ने उसे समझा भी दिया था, ‘शुरू-शुरू में लालच ज्यादा मत करना, पहले ग्राहक बनाना, उसका विश्वास जीतना, विश्वास जम जाने पर वे ही ग्राहक मुँह-माँगी कीमत देंगे।’ उसने यह भी कहा था, ‘तुम यहाँ बिजनेस करने आए हो, पैसे कमाने नहीं! जब बिजनेस चमक जाएगा तो पैसे भी बरसेंगे ही…।’

ढेर दिनों तक चन्नर आलम के कथन का अर्थ समझ नहीं पाया था; पर जब उसकी आमदनी बढ़ने लगी थी, तब धीरे-धीरे सारी बातें उसकी समझ में आने लगी थीं। आलम ने उसे मोबाइल भी पकड़ा दिया था। जो ग्राहक फोन पर सब्जी का आदेश देता था, उसे वह घर तक भी सब्जियाँ पहुँचा आता था और पैसा भी ले आता था। वैसे ग्राहक से रेट भी टाइट मिल जाता था।

महीना दिन होते न होते एक दिन चन्नर ने आलम से कहा, ‘आलम भाई! सोते-जागते, खाते-पीते–हर समय बाल-बच्चों की याद सताती रहती है! न जाने वे सब कैसे खाते-पीते होंगे!! खाते भी होंगे या फाँका-कसी में ही दिन गुजार रहे होंगे!’ बोलते-बोलते वह रो पड़ा था। टहा-टही आँसू!

‘आप क्या कहना चाहते हैं?’ उसने चिंतित मुद्रा में पूछा था।

‘एक दिन हिसाब करके देखते…! सोचता हूँ, कुछ पैसे गाँव…! क्या पता, उनमें से एक-दो भूख का ग्रास ही बन…!’

‘नहीं भाई ज़ान! मन छोटा मत कीजिए। अल्लाह-ताला बहुत रहम दिल होता है। वह किसी का भी नुकसान नहीं चाहता!… कल महीना लगने वाला है।’ उसने डायरी निकाल कर चन्नर का हिसाब देखते हुए कहा, ‘अब तक तुम्हारे एक हजार पच्चास रुपये जमा हो सके हैं।…यह तुम्हारी बीस दिनों की कमाई है। तुम ये रुपये घर भेज दो।…कल महनार का एक बंदा गाँव जा रहा है। वह घर जाकर पैसे पहुँचा आएगा और बच्चों सब को भी देख लेगा। रुपये हथौकी भेजने से मनीऑर्डर का खर्च भी बच जाएगा…!’

‘वाह! यह तो बहुत अच्छा होगा! भेज दो।’ चन्नर खुश था। कोहड़े के फूल की तरह खिला-खिला। वह उसी आनंदातिरेक में बोल उठा, ‘सब के प्राण बच जाएँगे, भैया! घरवाली भी खुश होगी। पहली बार वह एक साथ इतने रुपये देखेगी! वह भी अपने मरद की कमाई! वह मारे खुशी के पागल हो जाएगी…!’

‘ठीक है। पैसे चले जाएँगे। अब तुम जाओ मंडी। देर हो रही है।…ताजा सब्जी नहीं मिलेगी। ताजा सब्जी टाइट दाम में बिकती है। तब कमाई का भी पता चलता है…। और हाँ, सब तरह की सब्जी लेना। वेराइटीज रहने पर ग्राहक नहीं लौटते।…मंडी में छोटे किसान भी रहते हैं। उनकी पूरी सब्जी ले लेना। कम दाम में ही दे देगा जो छटुआ सब्जी बचेगी, उसे तुम भी कम दाम में बेच देना। गरीब-दुखियारी वैसी ही सब्जी खोजती है!…ग्राहक को लौटने मत देना! जो ग्राहक आज कम पैसा देगा, विश्वास जमने पर वही कल ज्यादा भी देगा…!’

सच तो यह था कि चन्नर की सफलता रूपी नई पौध के मूल में आलम का सुझाव रूपी खाद ही था। वह जैसा-जैसा सिखाता था, वह वैसा-वैसा ही करने का प्रयास भी करता था। परिणाम भी अच्छा ही निकला था। अगले ही माह में उसे सब खर्चा काटकर दो हजार रुपये बचे थे। आलम ने चन्नर की सहमति से एक हजार रुपये गाँव भेज दिए थे और हजार रुपये दस बिहारी भाइयों को उधार वाला सौ-सौ रुपये वापस कर दिए थे। कर्ज के रुपये की वापसी की बातें भी कुछ ऐसी ही थीं। वैसे चन्नर समझ नहीं पा रहा था कि उसके लिए इस समय सबसे खुशी की बात कौन-सी है, घर पर पैसे भेजना अथवा कर्जदारों को सौ-सौ रुपये हर माह वापस करते जाना अथवा दोनों। लेकिन वह जरूर सोचता, ‘यदि इसी तरह कमाई होती रही तो मात्र पाँच माह में सारे कर्ज सध जाएँगे और घर की माली हालत भी सुधर जाएगी। तब हर माह हजार रुपये बचने लगेंगे। और तब तो यही अच्छा होगा कि गाँव से सबको यहीं ले आएँगे।…नजर के सामने सब रहेंगे और पढ़ेंगे-लिखेंगे भी। अब दिल्ली छोड़कर कहाँ जाएँगे! अब तो जीना-मरना यहीं है, इसी दिल्ली की माटी में…।’ उसे दिल्ली से मोहब्बत हो गई थी।

चन्नर पांडे की दुकान के पास ही एक नाई की दुकान थी। नाम था सुन्नर। कहावत है, ‘पंछी में कउआ और आदमी में नउआ!’ ये दोनों बहुत धूर्त और चालाक होते हैं।…वह भी बहुत तेज था। नीम पेड़ की छाया तले मात्र ऊँची शीटवाली लकड़ी की एक कुर्सी और नीम के पेड़ में ठोकी गई काँटी से लटकता एक आईना। इधर-उधर बिखरे पड़े ईंट-पत्थरों की जोड़ाई कर बना एक चबूतरा जिस पर बिछे लाल, पीले, हरे, काले प्लास्टिक का उसी पर बैठकर ग्राहक लोग खैनी फाँकते हैं, बीड़ी का शूट खिंचते हैं, देश-दुनिया की खबर बाँचते हैं और अपनी बारी का इंतजार करते हैं। बिहारी भाई प्रायः उसी के यहाँ बाल बनवाते, दाढ़ी बनवाते व सिर मुड़वाते हैं। उनलोग से वह पैसे भी कम लेता है। दाढ़ी कमाई दस रुपये, बाल-दाढ़ी के बीस, बाल के पंद्रह रुपये बस! उसका कहना है, ‘बिहारी भाई दूर देश से यहाँ आए हैं पईसा कमाने। ये पईसा नहीं बचाएँगे तो गाँव को क्या भेजेंगे? घर पर उनके बाल-बच्चे, माँ-बाप क्या खाएँगे। वैसे शहर में सुन्नर का खर्च कम था, जबकि कमाई अच्छी थी। बचते थे पैसे। वह भी हर माह घर पर पैसे भेजता था।…चन्नर से उसकी खूब छनती थी। वह सब्जी आदि भी उसी से लेता था। कभी-कभी चन्नर बची सब्जी उसी को दे देता था। दुःख-तकलीफ की बातें भी दोनों आपस में बाँटते रहते थे। इससे दोनों का मन हल्का हो जाता था। तभी एक रात, जब दोनों अपनी-अपनी दुकान उठाने की तैयारी कर रहे थे, अचानक वहाँ तक गाड़ी आ लगी। झटके से गाड़ी का गेट खुला और एक आदमी उससे नीचे उतरा। उसने सुन्नर के करीब आकर आदेश के लहजे में कहा, ‘तुमको अभी, तुरंत, एक जवान का बाल छिलना है!’

‘लेकिन अभी तो मैं दुकान उठाने जा रहा हूँ!’

‘तो क्या हुआ? बाद में दुकान उठा लेना…!’

‘ऐसा कैसे होगा, साहब? दुकान उठा लेने के बाद फिरसे…!’

‘नहीं।…कोई बहाना नहीं।’ तब तक वहाँ दूसरी गाड़ी भी आ गई थी। सुन्नर थोड़ा अकबकाया टुकुर-टुकुर सबको देखने लगा। वह कुछ समझ नहीं पा रहा था। तभी उसने आगे कहा, ‘ढाई सौ मिलेंगे! जल्दी तैयार हो जाओ!’ तब तक एक सुंदर-सा हट्टा-कट्टा-सा युवक झटपट गाड़ी से उतर कर कुर्सी पर जा बैठा था। उसके बड़े-बड़े घुँघराले बाल थे जिनसे पानी की बूँदें चू रही थीं…आज की कमाई में ढाई सौ रुपये का इजाफा…! उसका मन डोल उठा। वह अस्तुरे को ब्लेड में फँसाकर बाल छिलने में लग गया। तभी उसने पूछा, ‘यहाँ कोई पंडित मिलेगा! अभी…इसी वक्त!’

‘मिलेगा तो, लेकिन वह भी अपनी दुकान उठाकर….।’

‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं! उसे पाँच सौ रुपये मिलेंगे! जाओ उसे जल्दी बुलाकार ले आओ…!’

अब तक चन्नर ने अपनी दुकान उठा ली थी। वह अपनी दुकान से तब से सारा कुछ देख रहा था। उसने केस छिलना छोड़कर चन्नर की ओर दौड़ लगा दी। किंतु उसकी उस हरकत को देखकर वह आदमी एक बारगी बिफर पड़ा, ‘यह क्या बेवकूफी है? तू हजामत बनाना छोड़कर कहाँ दौड़ा जा रहा है…?’

‘साहब! आपने ही तो कहा था जल्दी से पंडित बुलाने को!’ सुन्नर दूर से ही चिल्लाया, ‘अभी पंडित लेकर आता हूँ…।’ वह आदमी दूर से ही अकबका-सा गया था। गुस्सा भी…।’ तभी सुन्नर चन्नर को साथ लिए आ धमका था।

उस आदमी की घबराहट थोड़ी कम हुई। उसने हड़बड़ाकर चन्नर से पूछा, ‘क्या तू ब्राह्मण है?’

‘जी हुजूर…!’

‘जनेऊ है?’

‘जी साहब!’ उसने गरदन-पास से जनेऊ निकालकर दिखा दिया…।

‘ठीक है। जल्दी से नहा-धोकर और कपड़े बदल कर आ जाओ।’ उसने नई धोती, गंजी और गमछा उसकी ओर बढ़ा दिए और बोला, ‘तुमको अभी श्राद्ध कराना है।’ चन्नर बिना कुछ बोले कपड़ों के साथ स्नान करने चला गया। देखते ही देखते वहाँ दर्शकों की एक खासी भीड़ जमा हो गई थी। नीचे बह रहे नाले के पास श्राद्धकर्म की सारी तैयारियाँ पूरी हो गई थीं।

युवक को ही अपने बाप का श्राद्ध कराना था।…बाप के हत्यारे को सजा देने के लिए वह जेल से भागकर आया था। भीड़ जब तक कुछ समझ पाती, तब तक तो सारा खेल ही समाप्त हो चुका था। टीम निकल भी गई थी। चन्नर और सुन्नर अपने-अपने हाथ में नोट पकड़े मुस्कुरा रहे थे और हँस-हँसकर खुशी जता रहे थे। तभी वहाँ पुलिस की गाड़ी आ पहुँची और देखते ही देखते नाई तथा पंडित को गाड़ी में बैठाकर थाने की ओर उड़ चली। बिजली की गति से वह खबर चारों तरफ फैल गई। देखते ही देखते वहाँ बिहारी भाइयों की खासी भीड़ जमा हो गई। सब आक्रोश में थे। गुस्से में सुलग रहे थे। फिर क्या था? सबने जाकर थाने को घेर लिया।…बिहारी भाइयों ने वहाँ जिस एकजुटता का परिचय दिया वह अभूतपूर्व था…सिनेमावाले यही भीड़ तो चाहते थे। दर्शकों को जो दिखाना था। सबके सब बेहद खुश थे। हालाँकि सिनेमा निदेशक और प्रायोजक ने बाद में थाना-पुलिस से समझ लिया था। वैसे वह सब पुलिस की मिलीभगत से ही हुआ था। पर इससे बिहारी भाइयों की एक जुटता का जो नया रूप सामने आया था, उससे पुलिस भी चिंतित हो उठी थी। कुछ स्थानीय नेताओं ने तो यहाँ तक कह दिया था कि बिहारी भाइयों की यह एकजुटता भविष्य में आने वाले खतरे की पूर्व सूचना तो नहीं है!…पर सच तो यह था कि बिहारी भाइयों के मन में वैसा कुछ नहीं था। दिल्ली उन्हें बिहार की तरह ही प्यारी थी, जहाँ से वे सब रोटी पा रहे थे। तभी तो वे सब कहते थे, ‘अपनी दिल्ली, प्यारी दिल्ली…।’

किंतु स्थिति यहाँ तक बिगड़ जाएगी, पुलिस बेकसूरों को पकड़कर ले जाएगी और उन्हें हाजत में डाल देगी, इन सब बातों की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। उसको याद कर दोनों अब भी डर जाते थे। दोनों यह सोच कर परेशान भी हो जाते थे कि भाग्य से अथवा बिहारी भाइयों के दवाब के कारण दोनों हाजत से बाहर निकल तो आए, वरना जेल की चक्की चलानी पड़ती, और तब बाल-बच्चों का क्या होता!…पर जो लोग पहले से वहाँ रहते आ रहे थे, वे लोग दोनों को समझाते रहते थे, ‘अरे भाई! अब तो चिंता छोड़ो! डरने की कोई बात नहीं है! अपना-अपना धंधा शुरू करो। कुछ नहीं होगा यह दिल्ली है! आए दिनों यहाँ यह सब होता ही रहता है।’ पर चन्नर और सुन्नर ने मारे डर और चिंता के अपनी-अपनी दुकान बंद ही कर रखी थी। तीसरे दिन बहुत समझाने-बुझाने के बाद तब कहीं जाकर दोनों ने अपनी-अपनी दुकानें खोली थी। फिर तो धीरे-धीरे सारा कुछ सामान्य हो गया था। सब अपने-अपने धंधे में जम गए थे।

चन्नर की दुकान अब पहले से कुछ ज्यादा ही चलने लगी थी। सबको पता चल गया था कि वह ब्राह्मण है। न जाने क्यों उससे सब्जी लेने में ग्राहक का मन भरता था और सुकून भी मिलता था। अधिकांश बिहारी भाई अब उसी से सब्जी लेने लगे थे और जब बिक्री बढ़ी थी तो कमाई भी होने लगी थी। दोनों जब थोड़ा चिंता मुक्त हुए थे और मन-मस्तिष्क से भय का भूत भी हट गया था, तब एक दिन सुन्नर से कहा, ‘हमलोग को हर माह घर पर पैसे भेजने पड़ते हैं।…तो क्यों न हमलोग अपने-अपने परिवार को यहीं बुला लें…?…गाँव में तो वैसे भी हमलोग के पास खेत-बाड़ी है नहीं जिसकी रखवाली की जरूरत है। वहाँ भी तो बाजार से ही खरीदकर खाना पड़ता है और यहाँ भी खरीदकर ही खाना होगा। हाँ, थोड़ा खर्च जरूर बढ़ जाएगा। पर उसका फायदा यह होगा कि पत्नी और बच्चों की भी मदद मिलेगी। वे लोग जितने का खाएँगे उससे कहीं ज्यादा काट हल बजा लाएँगे। पत्नी तो पूरी दुकान ही चला लेगी।…जगह मिलने पर दूसरी दुकान कर सकते हो अथवा कोई दूसरा धंधा भी। और सबसे बड़ा फायदा यह कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी हो सकेगी और सब के सब नजर के सामने रहेंगे भी।’

सुन्नर की बातों से चन्नर बहुत प्रभावित हुआ। हँसकर बोला, ‘अरे भाई! तुमने तो मेरे मन की बात कह दी। कई बार इस तरह की बातें मेरे दिमाग में भी आई थीं। पर इस तरह से मैंने कभी सोचा नहीं था। पर आज तुमने मेरी आँखें खोल दीं…!’

‘तो क्या गाँव चलने का प्रोग्राम बनाओगे?’

‘सबकी बहुत याद आती है।…अब तो उड़कर पहुँच जाने का मन करने लगा है…।’

‘ऐसा करो…। तुम प्रोग्राम बना लो। फिर हम दोनों साथ ही चल चलेंगे…। …पत्नी-बच्चों से मिलने का मजा ही कुछ और होगा।’

‘बस, आठ माह में ही जोर-पगहा तोड़ने लगा, साल दो साल कैसे रहोगे? असाम-बंगाल से तो लोग दो-ढाई वर्षों में वापस होते हैं। कैसे रहते होंगे वहाँ? कभी सोचा है…?’

‘हमलोग एक पत्नी-व्रता हैं न…।’ चन्नर ने हँसकर कहा। चन्नर धीरे से मुस्कुराया, फिर उसकी बातों में हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘सो तो है, भैया।’ उसने आगे कहा, ‘सात दिन बचा है मोहर्रम को, तीसरे दिन चल चलो। उस दिन एतवार है और पूर्णिमा भी है। शुभ दिन है।’

‘अरे हाँ! मोहर्रम भी पकड़ा जाएगा। ढेर दिन हो गए लाठी भाँजे…।’

‘और झाड़ खेले भी। इस बार खूब गीत गाएँगे और झाड़ खेलेंगे।’ वह धीरे-धीरे गाने भी लगा, ‘हाय-हाय, कह में से आब हथि राजा जी के बेटवा, कह में से आब हई धो बिनभाजी।’

‘अरे! यह तो राजकुमार और धोबिन की प्रेम कहानी वाला गीत है। एक मजेदार प्रेम गीत! इस बार यह गीत भी गाएँगे।’

चन्नर खुश था। दोनों ने आलम मियाँ से एक-एक कमरे की बात कर ली और खुशी-खुशी गाँव को निकल पड़े।

गाँव आने पर चन्नर के घर में जैसे खुशियों की बरसात आ गई थी। बच्चे सब तो कुछ ज्यादा ही खुश थे। चन्नर दिल्ली से सब के लिए कुछ न कुछ लाए थे जिन्हें पाकर वे सब फूले नहीं समा रहे थे। वैसे भी उसके कारण घर की माली हालत बहुत सँभल गई थी और सब भले-चंगे थे। ढेर दिनों के बाद वह पत्नी और बच्चों के चेहरे पर रौनक देख रहा था।

किंतु पत्नी ने तो शहर जाने से साफ इनकार कर दिया था। ‘…तीन-तीन बेटियाँ हो जिस माँ के सिर पर, भला उस माँ का अपना सुख-चैन कहाँ रह जाता है।’ उसने पति के जोर देने पर साफ-साफ कह दिया, ‘गरीब की बेटी की बाढ़ रेड़ी के पेड़ जैसी होती है। बढ़ते देर नहीं लगती।…एक-दो साल में शादी नहीं होगी तो एक दिन तीनों बिगड़ती चली जाएँगी और माथे का बोझ बन जाएँगी। तब कहाँ से जुटाओगे तीनों की शादी के पैसे? होशियारी इसी में है कि एक-एक कर निबाहते चलो…। ये तीनों जब अपनी-अपनी जगह पकड़ लेंगी तो जहाँ कहना चलूँगी…!’

‘हाय दादा! यह क्या हो गया? रोजा छुड़ाने आया था, गले पड़ी नवाज!…यह सब तो मैंने सोचा ही नहीं था।…सच तो यह है कि पत्नी सोलहों आना सच बोल रही है।…आठ माह में ही समय कितना बदल गया! खाद-पानी के बिना दम तोड़ रही लता की तरह भोजन पाकर बेटियाँ सब तो लहलहा पड़ी हैं। अब एक-एक कर सबको निबाह लेने में ही समझदारी है।’ उसने पत्नी से कहा, ‘तुमने तो मेरी आँखें खोल दी! अब आ ही गया हूँ तो इस बार बड़की को निवाह लूँगा। कल से ही निकलता हूँ! शायद कहीं बात बन जाए!’

‘नहीं!’ पत्नी बीच में ही बोल पड़ी, ‘एक को नहीं बल्कि दोनों को निबाह लो!…आजकल के गाँव में सुंदर जवान लड़कियाँ दूर से ही गमकती रहती हैं! गंध पाकर कुत्ते सब घर तक आ पहुँचते हैं।…लड़की ठीक-ठाक है। गछते देर न लगेगी। थोड़ा-बहुत दान-दहेज देकर निवाह लेना है…!’

‘लेकिन एक साथ इतने पैसे?’ पति की आवाज में थोड़ी झुँझलाहट थी।

‘तुम्हारे सारे पैसे बचे हैं।’ पर पत्नी की आवाज में कोमलता थी। वह मुस्कुरा भी रही थी, ‘अब तक मेहनत-मजदूरी कर बच्चों को पालती-पोसती रही हूँ!…बाकी तू चला लेना…! वैसे भी शादी-विवाह में यज्ञ-जप में तो करजा-पईचा भी तो चलता ही रहता है…!’

‘वैसे तो हैं, और जरूरत पड़ी तो बिहारी-भाई भी मदद करेंगे!…हम कल निकल ही जाते हैं। कल मोहर्रम है। शुभ दिन भी है।…मंगलवार-हनुमान जी का जन्म दिन। कहा भी गया है ‘मंगला मुरथी, सदा सुखी।….मंदिर में लड्डू चढ़ाऊँगा, फिर निकलूँगा…।’…आदतन बातचीत में ही ढेर रात निकल गई थी। वह आदतन अचानक उठा और बाहर अपनी खाट की ओर बढ़ने लगा कि तभी पत्नी ने टोक दिया, ‘बच्चे सब तो अंदर ही पट गए…!’

‘अरे हाँ, मैं तो…।’ चन्नर ने झेपते हुए कहा।

‘क्यों? वहाँ कोई सौतन रख ली है क्या?’ पत्नी ने व्यंग्य किया। ‘अब तक तो नहीं है और संभव है आगे भी कोई नहीं ही होगी।’ दोनों एक साथ धीमे से हँसे। पत्नी ने किल्ली लगा ली और डिबिया को भी फूँक मारकर बुझा दिया।

पर अब तो गाँव-देहात में भी वर की तलाश उतना आसान नहीं रहा जितनी कि चन्नर ने सोचा था। तकरीबन पखवाड़ा लग गया था। आधा दर्जन गाँव भी छान डाले थे। पर दो क्या, करीने का एक लड़के का भी कहीं जुगाड़ न कर पाया था। हाँ, बातें कई जगह जरूर चल रही थीं, पर तय-तमन्ना, दान-दहेज की बातें कच्ची थीं। चूँकि चन्नर के हाथ में कुछ पैसे थे और कुछ मिलने की भी उम्मीद थी, वह अपने से अच्छे घर का लड़का चाहता था। पर जब वह बातचीत के लिए वहाँ पहुँचता था, तब उसे दिन में ही तारे दिखाई देने लगते थे। हाथ झारकर भागना पड़ता था तब उसे वहाँ से। इतने  ही दिनों में जैसे वह थक-सा गया था। उसकी चिंता भी बढ़ गई थी। कहाँ वह दोनों की शादी करना चाहता था। पर यहाँ तो एक की शादी के ही लाले पड़े थे। वह अंदर से कमजोर पड़ता जा रहा था।

और तभी एक दिन दिल्ली से फोन आ गया था। आलम कह रहा था, ‘अरे चन्नर भाई, कहाँ अँटक गए?…गाँव-घर का समाचार तो ठीक है?’

‘हाँ, समाचार तो ठीक है, भैया!’ चन्नर ने बताया, ‘पर पत्नी चाहती है कि इस लगन में कम से कम एक बेटी की शादी निबटा लें। इसीलिए अँटकना पड़ रहा है…।’

‘सो तो ठीक है। पर कच्चा सौदा का धंधा है। कब तक बंद रखोगे? ग्राहक तो हड़क ही गया। अब तो फिर से धंधा जमाना पड़ेगा और यदि धंधा जम भी जाएगा फिर से, तो इसका क्या भरोसा है कि अपनी जगह सुरक्षित भी रह पाएगी या किसी दूसरे के द्वारा हड़प ली जाएगी! यहाँ तो सैकड़ों बिहारी रोज आ रहे हैं इस दिल्ली महानगरी में…।’

घर आकर चन्नर एक तरह से भूल ही गया था कि उसका धंधा बिल्कुल ही कच्चा सौदा का है और यह भी वह फुटपाथ पर है जो हर शाम बसता है और उजड़ता भी है…। हालाँकि इसके दो कारण थे–हाथ पर पैसे का होना और बेटी की शादी की चिंता। आलम की बातों से वह हठात् चौंक उठा था। वह घबराकर बोला, ‘आपका भी कहना सही है आलम भाई। पर सयानी बच्ची की शादी भी तो जरूरी है। जमाना कैसा है, वह तो आप जानते ही…।’

‘ठीक है…ठीक है।’ आलम ने बीच में ही झल्लाकर कहा, ‘ज्यादा बिगड़ता है तो सबको साथ लेकर आ जाइए।…हमलोग यहीं लड़का ढूँढ़ लेंगे। हाथ में पैसे होंगे तो यहाँ भी दस लड़के मिलेंगे। अब और देर नहीं।…कोई दूसरा केला वाला जगह पकड़ लेगा। फिर तो जमा-जमाया धंधा…।’ टेलीफोन कट गया था।

चन्नर डर गया था। रात में उसने पत्नी से सलाह मशविरा किया और दूसरे ही दिन सपरिवार दिल्ली के लिए निकल पड़ा। पत्नी और चन्नर दोनों को आलम मियाँ की बातें जँच रही थीं। ‘…दिल्ली में लाखों की संख्या में बिहारी भाई हैं। सब के सब अपने पाँव पर खड़े हैं। किसी न किसी का लड़का जरूर मिल जाएगा। …बेटी-दामाद दोनों नज़र के सामने रहेंगे। दुःख-विपत्ति में एक-दूसरे की मदद भी मिलेगी।…आलम ने जब कहा है तो वह कोई न कोई राह जरूर निकालेगा। भर राह वह कुछ इसी तरह से सोचता रहा और पत्नी को भी समझाता रहा था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि पैसे की व्यवस्था होनी ही होनी थी। पत्नी के लिए यह बड़े सुकून की बात थी। पति की बातों को सुनकर उसे तो अब ऐसा लगने लगा था जैसे पति के साथ शहर आकर उसने अच्छा किया।…मन ही मन उसने भी सोच लिया था कि वह भी आलम भैया से मिलेगी और उनसे अनुनय-विनय करेगी कि वे दोनों बेटियों की शादी एक साथ एक मड़वा में करा दें। तब गाँववाले अपना-सा मुँह बना लेंगे। …साला! जिसके घर में एक शाम की खर्ची नहीं रहती थी उस घर का लौंडा भी ऐसा करता था जैसे बेटी को घर से उठा लेगा…। तब तो तीसरी बेटी की माँग भी चुटकी बजाते भर जाएगी।’ वह हौले से हँसी थी। भले ही चन्नर उस हँसी का रहस्य न समझ पाया हो।

दिल्ली आकर चन्नर ने थोड़े ही दिनों में दुकान को सँभाल लिया। इसका एक बड़ा कारण यह था कि पत्नी भी हाथ बटाने लगी थी। वह सबसे पहले चन्नर द्वारा लाई गई सब्जियों को नल के ताजे जल से धोकर उसे ठेले पर सजा देती और ठेले को ले जाकर अड्डे तक पहुँचा भी आती थी। तब तक चन्नर नहा-धोकर और चाय-नाश्ता कर तैयार हो जाता था और रिक्शा लेकर निकल जाता था। यह उसका रोज का काम था। उसने तो कभी सोचा भी नहीं था कि उसके पास जो मैन-पावर है, शहर में उसके लिए इतना महत्त्वपूर्ण हो सकता है। पति-पत्नी दोनों बच्चों से खुश थे।

थोड़े ही दिनों बाद पत्नी ने वहाँ एक छोटा-सा ढाबा शुरू कर दिया था। उस इलाके में बिहारी लोगों की भीड़ थी। जबकि उनके मन के मुताबिक खाने का छोटा-मोटा ढाबा भी नहीं था और ना ही होटल। था भी तो वही छोला-बटूरा, मैदा की तंदूरी, बस। सादा चावल, दाल, सब्जी नदारद ही। दाल की जगह आलू-टमाटर की पानीदान सब्जी। गेहूँ की रोटी या पराठा भी नदारत। वैसे भोजन से बिहारियों का मन नहीं भरता था। जानकी एक तो ब्राह्मण महिला थी, दूसरे सुंदर, ऊपर से साफ-सुथरा। वैसे हाथ का बना स्वादिष्ट भोजन ग्राहक का मन खूब भरता था।

जानकी की सुबह-सुबह आलू का पराठा, टमाटर, धनियाँ-पत्ता, लहसुन, हरी मिर्च और अदरक की चटनी, उसना मोटा चावल का भात, कभी मूँग-मसूर, कभी राहर-मसूर अथवा केवल मसूर की दाल, दही की कढ़ी, चने के बेसन की बड़ी तो कभी अरवा चावल और चने की दाल, शनिवार को दिन में खिचड़ी तो रविवार को रात में खीर-पूड़ी। आलू-पालक की सब्जी और गेहूँ की चपाती पर तो सब जान देते थे। उसके ढाबे का मटन खाने के लिए तो लोग लाईन लगाते थे। रविवार को दिन में तो भीड़ लगती ही थी, गुरुवार को शाम में वह जब गोइठे की आग पर लिट्टी सेकती थी और आलू तथा बैंगन के भर्त्ता के साथ घी में डुबा कर परोसती थी तो ग्राहक उँगली चाटते रह जाते थे। पाँचों बच्चों की फुरती तो देखते बनती थी। एक पाँव पर नाचते रहते थे सब। क्या दिन क्या रात। सब अपनी ड्यूटी भँजाते रहते थे। धीरे-धीरे दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तराखंड आदि राज्यों के लोग भी वहाँ के भोजन का लुत्फ उठाने लगे थे। आलम ने वहाँ एक बोर्ड लगवा दिया था–‘बिहारी लिट्टी-चोखा ढाबा।’

रात को जब दोनों पति-पत्नी साथ होते और जब पैसे का हिसाब करते होते, तब चन्नर कहता–‘बिक्री तो मेरी ही ज्यादा होती है, पर कमाई तू ज्यादा करती हो, क्योंकि तुम्हारी कमाई में मुझसे ज्यादा बचत होती है।’

तब जानकी हौले से मुस्कुरा देती और कहती, ‘आप तो अकेले सारा कुछ करते हो, जबकि हम सबलोग रहते हैं। जोड़ कर देखो तो तुम्हारी ही कमाई ज्यादा होगी।’

वक्त के साथ चन्नर की आर्थिक स्थिति सुधरती गई। थोड़े ही दिनों बाद आलम ने चन्नर की दोनों बेटियों के लिए दो वर तलाश दिए। पहला लड़का ड्राइवर था। गैरेज में काम करता था। घर से गाड़ी लाता था और बन जाने के बाद फिर से वापस पहुँचा आता था। मालिक उसे पाँच हजार देता था जबकि महीने में दो-ढाई हजार बख्शीस से कमा लेता था। दूसरा लड़का सुलभ इंटरनेशनल में काम करता था। उसे साढ़े सात हजार रुपये मिलते थे। दोनों लड़के बिहार के ही थे। चन्नर और जानकी को भी पसंद थे। दोनों खुश थे। बेहद खुश। चन्नर ने पच्चास हजार रुपये दोनों को नकद दिए थे। कपड़े, घड़ी, मोबाइल, जूते-मोजा आदि भी। सब में डेढ़ लाख रुपये खर्च हुए थे। एक लाख रुपये उसने निकाले थे और पच्चास हजार कर्ज से थे। बिहारी भाइयों ने दिए थे बिना सूद के। यथासमय शादी भी हो गई थी। बिहार के सुदूर क्षेत्रों के लोग यहाँ आपसी सद्भाव के साथ आबाद थे। उनमें जाति, ऊँच-नीच किसी तरह का भेद न था, जैसे बिहार से दिल्ली आकर वे बिहारी एक्सप्रेस थे। उस रात जमकर भोज-भात भी हुआ था–मुर्गा-भात, पापड़, सलाद। सब के सब खूब नाचे-गाये। शादी की रात तो रातभर कीर्तन यानी शिव-विवाह का प्रसंग चलता रहा था। मंडली तो बिहार की ही थी, पर एक से बढ़कर एक गवैया। देखने वाले तो झूम उठे थे। सिंदूरदान के समय तो सब भाव-विह्वल हो उठे थे।

सुबह में जाकर विवाह-कीर्तन खत्म हुआ था। सब गद्गद थे।

दोनों लड़कियों की विदाई के समय सबकी आँखें नम थीं। जुबान भी बंद थीं। किंतु मन के अंदर वर-वधू के लिए ढेरों दुआएँ थीं। दोनों दुल्हिन के खोइछे में सबने रुपये डाले थे। दोनों दामाद बाबू को सबने सलामी भी दी थी। जब दोनों गाड़ियाँ दूल्हा-दुल्हिन को लेकर जाने लगी थीं, तब चन्नर की जनानी ने सबके हाथ में चाय से भरा कप पकड़ा दिया था। फिर क्या था। सबके सब यानी पूरा बिहारी एक्सप्रेस नाचने और गाने लगे थे। गीत भी कैसा। किसी व्यास ने ही तो बनाया था–

‘अपनी दिल्ली प्यारी दिल्ली, हम सब की दुलारी दिल्ली।

जान-सुधा बरसाने वाली, सुख-समृद्धि लाने वाली

दुःख-तकलीफ मिटानेवाली, सबको रोटी देने वाली।

मंगल हो तुम्हारी दिल्ली, सदा जय हो तुम्हारी दिल्ली

जन-जन की दुलारी दिल्ली, अपनी दिल्ली प्यारी दिल्ली।’


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Artist : Amrita Sher Gil
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