दीवार में रास्ता
- 1 August, 2015
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- 1 August, 2015
दीवार में रास्ता
‘छोटी जान आजमगढ़ आ रही हैं।’
मोहसिन को महसूस हुआ कि अब दीवार में रास्ता बनाना संभव हो सकता है। भावज ने पोपले मुँह से पूछ ही लिया, ‘अरे कब आ रही है? क्या अकेली आ रही है या जमाई राजा भी साथ में होंगे? सलमान मियाँ को देखे तो एक जमाना हो गया है।…वैसे, मरी ने आने के लिये चुना भी तो रमजान का महीना!’ भावज की आँखों के कोर भीग गए।
रात को सक़ीना ने अपनी परेशानी मोहसिन के सामने रख दी, ‘सुनिए जी, क्यों आ रही हैं छोटी जान? अचानक पचास साल बाद क्यों हमारी याद आ गई?’ ‘कुछ साफ तो मुझे भी नहीं पता। सुनने में आ रहा है कि छोटी जान इंग्लैंड में बड़ी सियासी शख्सीयत बन गई हैं।…शायद एम.पी. हो गई हैं…शहर वालों ने इज्जत देने के लिये बुलाया है।…मगर उनके आने में अभी तो देर है।’
‘पता नहीं क्यों, मेरा तो दिल डोल रहा है।’
‘घबरा नहीं, सब ठीक हो जाएगा!’
मोहसिन की आँखों से भी नींद गायब है। बिस्तर छोड़कर कमरे से बाहर आ गया है।…उसके पीछे सक़ीना की प्रश्न पूछती आँखों की जोड़ी भी साथ आ गई है। गोल बरामदे तक चला आया है। कभी शाही शान-ओ-शौकत वाला गोल बरामदा आज भुतहा अहसास दे रहा है। खंडहर सा लग रहा है। हल्की बूँदा-बाँदी शुरू हो गई है। अपने खेतों पर निगाह डालता है।…कितने वर्ष बीत गए हैं…कितने दशक!…उसके हालात क्यों नहीं बदलते?…इतने बड़े घर और इतनी जमीन का मालिक, इक गरीब की जिंदगी जीने को क्यों अभिशप्त है?
अभिशप्त तो ये सारी प्रॉपर्टी ही लगती है। बस पैसे डाले जाओ, जितने चाहो डाले जाओ, लेकिन कहीं कोई बदलाव आने वाला नहीं। प्रॉपर्टी तो खंडहर बनती जा रही है…अब तो ठाकुरों ने प्रॉपर्टी के भीतर आने का रास्ता तक बंद कर दिया है। इस मुल्क में गरीब का और ज्यादा साथ देने वाला कोई नहीं।…फिर ऊपर से अगर गरीब मुसलमान भी हो तो…!
‘छोटी जान कितने वक्त के लिये आ रही होंगी?…क्या उनको पहचान भी पाएगा मोहसिन?…उनका आज इस जायदाद से क्या रिश्ता हो सकता है? उनके बाकी भाई बहन तो यहाँ ज्यादा रहे भी नहीं…बस उनका बचपन ही तो बीता है इस घर में…दरिया महल में।…क्या छोटी जान को आज भी लगाव होगा इस घर से?…सक़ीना भी न जाने क्या क्या सोचती रहती है…।’
आवाजें पीछा नहीं छोड़ती हैं।…आवाजें कभी कभी सवाल बन जाती हैं तो कभी आईना बन कर सामने खड़ी हो जाती हैं। मोहसिन को ये आवाजें कभी भी कहीं से भी सुनाई देने लगती हैं। क्या कारण है कि इतनी बड़ी जायदाद का अकेला रखवाला समाज में अपना कोई स्थान नहीं बना पाया? जबकि इसी प्रॉपर्टी के दूसरी तरफ रहने वाली संध्या ठाकुर सियासत में अहम् स्थान बनाए हुए है।…उसका पति जनार्दन ठाकुर जाना माना डॉक्टर है…उनसे मुकाबला भी तो नहीं कर सकता…अगर सब कुछ बेच बाच दे तो कहीं तीन बेडरूम का सुंदर-सा घर ले कर अपने परिवार को रख सकता है–सुख दे सकता है अपनी औलाद को, बीवी को और बूढ़ी माँ को।…अचानक मेंढक टर्राने लगा है…झींगुर की आवाज भी साथ में शामिल हो गई है!
‘नींद नहीं आ रही न?’ सक़ीना आ खड़ी हुई है।
‘बस छोटी जान के बारे में सोच रहा था।’
‘आज तो अम्मा भी बहुत बेचैन हैं। उन्होंने ही तो छोटी जान को बचपन में पाला था। आज बहुत भावुक हो रही हैं। बस कहे जा रही हैं कि अल्लाह-ताला छोटी जान के आने तक उन्हें सेहत बख्श दें। उनको देखे बिना तो जन्नत भी नहीं जाना चाहतीं।’
‘कल पता करता हूँ कि आखिर आने का सबब क्या है। सोचता हूँ कि इम्तियाज भाई से कुवैत में बात कर लूँ। शायद उनसे कोई बातचीत हुई हो।’
‘मेरा ख्याल है कि आप सीधे लंदन फोन घुमाइये।…चाहें तो मोबाइल से ही कर लीजिए।…इन लोगों के आने की खबर से मुझे न जाने क्यों बेचैनी हो रही है।’
‘बेचैनी किस बात की?’ मोहसिन के माथे पर भी विचारों की धार अपना घर बनाती जा रही थी।
‘ये लोग, हमसे प्रॉपर्टी वापिस तो नहीं माँग सकते न?’ सक़ीना की आवाज में भय ने अपना चेहरा दिखा ही दिया।
‘अरे नहीं!…हमारे पास पक्के कागज हैं।…और फिर, अब तो ये लोग पाकिस्तानी हो गए हैं।…यहाँ भारत में इनका किसी चीज पर कोई हक़ नहीं रह गया।…हमारे दादा हुजूर ने बाकायदा पेमेंट कर के खरीदा है दरिया महल!…अब ये सिर्फ हमारा है।’
‘अम्मा तो कुछ और ही कहती हैं। वे तो इन लोगों का अहसान मानते नहीं थकतीं। अपनी फुफिया सास को हमेशा अपनी नमाज में दुआ देती हैं कि हमारे जीने और रहने का पक्का इंतजाम कर गईं।’
‘अरे अम्मा की भली कही! वे बूढ़ी हो चली हैं। उनकी याददाश्त भी उनकी तरह बुढ़ा रही है।’
‘फिर भी पता तो कीजिए कितने दिन के लिये आ रही हैं? उनका प्रोग्राम क्या है।’ कहते कहते सक़ीना मोहसिन के और निकट आ खड़ी होती है। गीली हवा में सक़ीना के बदन की महक मोहसिन की साँसों में तनाव उत्पन्न करना शुरू कर देती है।
मोहसिन के जीवन से रोमांस जैसे गायब ही हो चुका है। एक बेटी और दो बेटों के जन्म के बाद से जीवन केवल जिम्मेदारियों का पुलिंदा बन गया है। आज अचानक सक़ीना के बदन की महक को बाँहों में भर लेने को जी चाहा है। चाँदनी रात में हल्की फुहारों के बीच साँवली सक़ीना ने दिल के तारों को झंकृत कर दिया है। मोहसिन अपने आपको रोक नहीं पा रहा। अपने टेंशन को सक़ीना के बदन में गहरे उतार देने को बेचैन हो रहा है। सक़ीना कसमसा रही है…मोहसिन की बाँहों की गर्मी में पिघलती जा रही है। कुछ ही पलों में पास पड़ी चारपाई पर दो बदन गुत्थमगुत्था होने लगते हैं…कुछ देर बाद सब शांत हो जाता है।
सुबह अपने साथ एक बार फिर वही सवाल ले आई है। उलझने सुलझाने का प्रयत्न करता है मोहसिन। काश! छोटी जान अपना सियासी सुलूक यहाँ इस्तेमाल कर सकें। क्या इंग्लैंड के सियासतदान के रुतबे से संध्या ठाकुर प्रभावित हो सकती है? संध्या ठाकुर की पहुँच तो यू.पी. की सत्ता के गलियारों में खासी अंदर तक है। स्थानीय बी.जे.पी. की बड़ी लीडर हैं। भला सीधा सादा मोहसिन उससे पार पाये भी तो कैसे? लड़ाई तो दादा हुजूर और संध्या ठाकुर के ससुर के जमाने से चली आ रही है। अब्बा जान ने अगर ठाकुरों से सुलह कर ली होती, तो हमारी जिंदगी तो बेहतर हो जाती! कोर्ट कचहरी भला किसी के सगे हुए हैं क्या? बड़े भाई तो ऐसे कुवैत गए कि मुड़ कर पीछे नहीं देखा!
मोहसिन अकेला ही कोर्ट कचहरी से जूझता फिर रहा है। ठाकुर परिवार से लोहा लेना कोई आसान काम भी तो नहीं रहा। छोटी अदालत से लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट तक मोहसिन अकेला ठाकुर परिवार से कानूनी लड़ाई लड़ रहा है। खगेंद्र ठाकुर स्वयं अपने जमाने के बड़े सर्जन थे और उनके बेटे जनार्दन और निरंजन भी डॉक्टर ही हैं। बड़े लोगों से लड़ाई ने मोहसिन को बहुत छोटा बना दिया है। मुस्तफा साहब ने तो बुलवा भी भेजा था, ‘क्यों मोहसिन मियाँ, कैसी छन रही है?’
‘जी आप तो अच्छी तरह वाकिफ हैं। अब तो ठाकुरों ने दरिया महल तक पहुँचने के रास्ते तक बंद करवा दिये हैं।…भला कौन सा कानून इस बात की इजाजत देता है?…लेकिन कानून भी तो अमीर आदमी की भैंस हैं या उसी के हिसाब से करवट लेता है।’
‘मियाँ दिल छोटा न करें। हम अगली मजलिस में आपका केस रखवा देते हैं।…इन ठाकुरों से मुझे भी कई हिसाब तय करने हैं…संध्या ठाकुर चुनाव लड़ने के चक्कर में है।…चलो छोड़ो…बात तुम्हारी प्रॉपर्टी में दाखिल होने की हो रही थी।…बोलो, अबकी ठाकुरों ने क्या नई चाल चली है?’
‘अब तो उन्होंने शराफत की सभी हदें पार कर दी हैं।…हमारी दिक्कत यह है कि कोर्ट से जब जब हमारे हक में कोई फैसला बनता है, ठाकुर कोई न कोई ऐसी चाल चल देते हैं कि लगता है जैसे फैसला उनके हक में हुआ हो।’
‘पहेलियाँ तो बुझाइये मत मोहसिन मियाँ। अंदर की बात बताइये।’
‘ठाकुरों ने हमारे घर में घुसने वाले रास्ते पर पक्की दीवार खड़ी कर दी है। हमें अपने ही घर में दाखिल होने के लिये कच्चे रास्ते का दो मील का रास्ता तय करना पड़ता है।…अब आपको तो मालूम है कि हमारी अम्मा कितनी बूढ़ी हैं। उन्हें आँखों से ठीक से दिखाई भी नहीं देता।…हमारी बेगम को भी परेशानी होती है और बच्चों को स्कूल जाने के लिये डेढ़ दो मील की एक्सट्रा दूरी तय करनी पड़ जाती है। हम तो अपने ही घर में कैदी हो गए हैं।’
‘यार तुम ये प्रॉपर्टी बेच क्यों नहीं देते?…कहो तो हम ही खरीद लेते हैं।’
मोहसिन ये सुन कर कुछ कसमसाया।
‘अरे भाई, अगर यह मंजूर नहीं तो मजलिस के नाम कर दो।…खुद किसी ठीक ठाक घर में रहो…अपना परिवार पालो।…यह खेती तुम्हारे बस का काम नहीं है।’
मोहसिन अचानक खड़ा हो जाता है। मुस्तफा साहब की तरफ देखता है, ‘भाई जान की मर्जी के बिना कुछ नहीं कर सकता। वे तो कुवैत में बैठे हैं। मोहसिन ने अपने कुर्ते के कफ को कुछ यूँ कस कर पकड़ा लिया है जैसे प्रॉपर्टी उसी कफ के काज में से निकल कर मुस्तफा साहब तक पहुँचने वाली है।
‘एक बात बताओ मोहसिन मियाँ, आप ठाकुर से सीधे सीधे भिड़ क्यों नहीं जाते? बिना जेहाद किये कभी कुछ हासिल हुआ है क्या?’
‘मालिक, हमारा उनसे क्या मुकाबला! संध्या ठाकुर बड़ी नेता हैं। औरतों की रहनुमा हैं। उनके खाविंद बड़े डॉक्टर हैं। दबदबा है उन लोगों का।…भला हमारी क्या औकात है?’
‘सुनिए मोहसिन मियाँ, बस एक बार भिड़ जाइये! अल्लाह कसम आग लगा देंगे शहर में।…समझ क्या रखा है इन ठाकुरों ने?…रजवाड़ों वाले दिन लद गए। आज का मुसलमान दबने को तैयार नहीं है। माइनारिटी कमीशन हमारे साथ है…आप शुरुआत करिये हल्ला हम बोल देंगे।’
डरा सहमा मोहसिन वापिस घर आ गया। जलते हुए शहर के बारे में सोच कर ही डर गया है। उसकी बीमारी हल्का सा बुखार है और मुस्तफा साहब ऑपरेशन की सलाह दे रहे हैं।…अगले हफ्ते फिर से कोर्ट के आर्डर आने की उम्मीद है।…पिछली बार अम्मा को भी ले गया था कोर्ट में। उस बार तो जज भी मुसलमान था–क्या अच्छा सा नाम था।…फैसला मोहसिन ही के हक में हुआ था। यह कैसी व्यवस्था है?…कैसा निजाम है? गरीब की कोई सुनवाई ही नहीं!…जज तो मोहसिन को डाँट भी रहा था, ‘अरे, क्या मार ही डालोगे अपनी अम्मा को? इतनी बूढ़ी औरत को कचहरी में लाने की जरूरत क्या थी?’ मन में कहीं उम्मीद थी कि शायद यही तरकीब काम कर जाए। जज ने तो आर्डर भी कर दिया था कि रास्ता खोल देना चाहिए। दीवार तोड़ देनी चाहिए।…लेकिन दीवारें तोड़ना क्या इतना ही आसान है? जज के आदेश को कार्यान्वित करने वाले भी तो होने चाहिए। वे सब तो संध्या ठाकुर की मुट्ठी में हैं।
संध्या ठाकुर कहने को तो महिलाओं की हिमायती हैं। उनके हक़ की लड़ाई लड़ती हैं। फिर मोहसिन की बूढ़ी अम्मा और पत्नी की दुर्दशा उनकी आँखों से कैसे छिपी रह पाती है?…
भावज को छोटी जान के आने की सबसे अधिक प्रतीक्षा है। या यूँ कहा जाए कि उनकी प्रतीक्षा निस्स्वार्थ है। वे केवल अपनी बिट्टो की प्रतीक्षा कर रही हैं, ‘अरे मोहसिन, तेरी बात लंदन हुई क्या? कब आ रही है मेरी बिट्टो?…क्या बताऊँ तुम्हें, मरी जब छोटी थी तो आम के पेड़ पर चढ़ जाया करे थी! कच्ची कैरी की तो चटोरी थी। बड़े बच्चे तो सभी होस्टलों में रह कर पढ़े, एक यही थी जो मेरे हाथ से पली! रोजाना डाँट खावे थी।…आ री सक़ीना, तुझे एक बात बताती हूँ।…यहाँ घर में शक्कर रखने का एक बहुत बड़ा सा ड्रम हुआ करता था। आदमकद से भी बड़ा…। बिट्टो को शक्कर खाने का बहुत शौक था। न जाने कैसे चढ़ी उस ड्रम पर और धड़ाम से अंदर छलाँग लगा गई। पहले तो मजे मजे से शक्कर खाती रही। जब जी भर गया तो बाहर निकलने की सोची। अब इतने ऊँचे ड्रम पर वापिस चढ़े कैसे? जितनी ऊपर चढ़ने की कोशिश करे उतने ही पाँव शक्कर में धँसे जाएँ। डर के मारे किसी को आवाज भी नहीं दे पा रही थी। घबरा गई। रुआँसी हो कर वहीं सो गई। घर में ढूँढ़ मच गई। सब उसे ढूँढ़ रहे थे। न कहीं दिखाई दे और न ही सुनाई। अचानक मुझे लगा कि मुझे कोई आवाज दे रहा है।…भावज मुझे निकालो!…मैं हैरान कि आवाज आ कहाँ से रही है। आवाज शर्तिया बिट्टो की ही थी। अरे…कितनी मुश्किलों से मरी को उस ड्रम में से निकाला।…फिर तो उसकी जम कर पिटाई हुई थी। फूफी जान उसे मारे जाएँ और मैं उसके बदन को ढके जाऊँ। मुझे ही कितने थप्पड़ पड़ गए। मजाल है उसमें जरा भी बदलाव आ जाए। सारा सारा दिन खुराफातें सूझती थीं उसको।…पता नहीं कहाँ कहाँ से घूमती बड़े पुल के नीचे जा छुपती थी…मरी को सभी खेल लड़कों वाले पसंद थे।…उसके दोस्तों की फेहरिस्त भी कमाल की थी…रामदीन धोबी का बेटा, शंभुनाथ माली का बेटा, और रसोइये का बेटा तो उसका खास दोस्त था।…और फिर पढ़ी भी तो यहीं के सरकारी इस्कूल में। इसीलिए बाकी भाई बहनों की तरह अँग्रेज नहीं बन पाई। मगर मेरी बिट्टो पहुँच गई इंग्लिस्तान।…कितनी चाह थी कि उसकी डोली दरिया महल से उठती…इस घर की दीवारों तक से जुड़ी थी मेरी बिट्टो!…लेकिन शादी के लिये तो उसे सरहद पार जाना पड़ा।’
सक़ीना को आजकल अम्माँ की भावनाएँ रोजाना सुननी पड़ती हैं। उसने स्वयं तो छोटी जान को कभी देखा तक नहीं। भला उन्हें छोटी जान क्यों कहा जाता है, यह तक तो उसे मालूम नहीं। वह बस उतना ही जानती है जो उसकी सास उसे बता देती है। उसकी सास ने दरिया महल के शाही ठाठ भी देखे हैं। और आज की गरीबी भी। छोटी जान के आने से उनके अपने जीवन में क्या बदलाव आ सकते हैं? बस यही सोचती रहती है।…फिर अपने घर की तरफ देखती है।…क्या छोटी जान इस घर में एक रात भी बिता पायेंगी? बिना एयरकंडीशन के कहाँ सो पाएँगी वे?
छोटी जान आकर रहेंगी कहाँ? उनका मेजबान कौन होगा? क्या वे पहले हमें मिलने आएँगी या फिर कहीं ठहर कर हमें वहाँ बुलाएँगी? शहर में कोई बड़ा होटल तो है नहीं।…शायद शिवली कॉलेज के प्रिंसिपल ने बुलवाया होगा।…या फिर किसी राजनीतिक पार्टी की मेहमान भी हो सकती हैं…एक तो मोहसिन भी ठस के ठस बैठे रहते हैं…अभी तक तो कुवैत भी फोन नहीं किया।…बस छोटी जान हमारा एक काम करवा दें तो हमारा जीवन सुधर जाएगा।…बस हमारा रास्ता खुलवा दें…दीवार में एक रास्ता बनवा दें…संध्या ठाकुर शायद उनकी सुन ही लें।
मोहसिन स्वयं परेशान है। अगर छोटी जान दो चार दिन रुकती हैं, तो उनको रखा कहाँ जाएगा?…दिक्कत तो ये है कि सलमान मियाँ भी साथ होंगे। अब छोटी जान तो फिर भी घर की हैं, मगर फूफा जान के सामने तो इज्जत बचा कर रखनी ही होगी।…वैसे अगर छोटी जान एक मीटिंग संध्या ठाकुर के साथ करवा दें तो मामला सुलझ भी सकता है।…अगर अब्बा हुजूर ने डॉ. खगेंद्र ठाकुर से कोई समझौता कर लिया होता तो मामला इतना पेचीदा न बनता।
सक़ीना की अलग समस्या है, ‘अम्मा, ये छोटी जान का हमसे रिश्ता क्या लगता है? आप कहती हैं कि आपने इन्हें पाला है। मोहसिन कुछ और लंबा सा रिश्ता बताते हैं। आखिर वे हमारी लगती क्या हैं?’
‘वो क्या है बहूरानी, ये जो दरिया महल है, इसके मालिक थे डॉ. अमानुल्लाह। उनकी बेगम के जो सगे भाई थे वे मोहसिन के दादा थे। छोटी जान डॉ. अमानुल्लाह की तेरहवीं औलाद हैं। उनकी मौत के वक्त छोटी जान बस दो साल की रही होंगी। अब फूफी जान के जिम्मे तो सारे काम आन पड़े। वे ही कचहरी सँभालती थीं और वे ही खेती।…तो ऐसे में छोटी जान की सारी जिम्मेदारी मेरे सिर आन पड़ी। वह जब तक आजमगढ़ में रही, उसकी हर छोटी बड़ी जरूरत का ख़याल मैं ही रखती थी।…बिट्टो को दूध पीने में बहुत दिक्कत होती थी। दूध पीने के बाद हमेशा उसके पेट में दर्द होता था…बहुत चिल्लाती थी…फूफी जान को कभी समझ नहीं आता था कि उसे दूध पचता क्यों नहीं है…वो मरी अँग्रेजी में क्या बोले हैं…उसे अलर्जी है दूध से।…मेरे तो पीछे पड़ी रहती थी…कहती…भावज…आप इतना हँसती क्यों हैं?…(ठंडी साँस)…अब तो हँसे हुए भी एक जमाना हो गया है।’ भावज का पोपला मुँह एक बार फिर यादों में खो गया है।
चाहत सक़ीना की भी एक ही है कि छोटी जान एक बार संध्या ठाकुर से मिलकर दीवार में से रास्ता खुलवा दें। जवान लड़की को खेतों में से होकर वक्त बेवक्त जाना पड़ता है। कहीं कोई अनहोनी न घट जाए। पति पर भी झुँझलाहट हो रही है कि अभी तक लंदन फोन पर बात नहीं की है।
मोहसिन बिना बात किये ही सपने देखे जा रहा है। सलमान मियाँ खुद भी तो इतने बड़े बैंकर हैं। छोटी जान और सलमान मियाँ से घर की मरम्मत के लिये भी तो बात की जा सकती है। अगर एक कमरा और पक्का बनवा लिया जाए, तो नई बैठक सज सकती है।….मगर फिलहाल जो बैठक है उसमें भी तो कोई फर्नीचर नहीं है।…वैसे भी तो ईद के अलावा घर में आता ही कौन है?…बस ईद से पहले टेंट वाले से फर्नीचर किराये पर ले लिया जाता है। हफ्ते भर की अय्याशी के बाद फर्नीचर वापिस हो जाता है। पिछली ईद पर तो कोई भी मेहमान घर तक नहीं पहुँच पाया। लोग साफ कहने लगे हैं कि कौन खेतों में से हो कर आए। मोहसिन मियाँ, आपलोग ही हमारे यहाँ आ जाया करिये।…आज जरूर छोटी जान को फोन करेगा। मोहसिन ने निर्णय ले लिया है।
फोन भी तो अजीब किस्म की चीज है। उस पर मोबाइल का तो कहना ही क्या!…कभी भी कहीं भी बज उठता है। मोहसिन भी अपने बजाज चेतक स्कूटर पर घर से निकला ही था कि उसका मोबाइल बज उठा। देश में मोटर साइकिल क्रांति आ जाने के बावजूद मोहसिन अपने पुराने दुपहिये को जोते जा रहा है। स्कूटर रोका…मोबाइल पर एक अनजान नंबर उभरते देखा…माथे पर सिलवटें पड़ीं… ‘हेलो!’
आवाज में एकाएक तेजी आ गई।.. ‘अरे छोटी जान! कैसी हैं आप?…कब आने का पक्का किया है?…फूफा मियाँ भी साथ आ रहे हैं न?…’
जब तक बात ख़त्म हुई मोहसिन तनाव के मारे पसीने पसीने हो रहा था।…अब उसमें स्कूटर चलाने की ताक़त शायद नहीं बची थी।…यह कैसे हो सकता है?…यह कैसी साजिश है?…क्या दीवार में रास्ता बनने के बजाए दीवार और ऊँची उठा दी जाएगी?…सक़ीना को कैसा लगेगा?…अम्मा क्या सोचेंगी? ये हुआ कैसे?…अल्लाह मियाँ कैसे-कैसे इम्तहान लेते हैं! क्या पूरे आजमगढ़ में एक भी मुसलमान इस काबिल नहीं था जो छोटी जान का मेजबान बन पाता?
तीन महीने पहले जब एक शूटर ने अपनी मोटर साइकिल से मोहसिन पर गोली चलाई थी, उससे तो बच निकला था मोहसिन…मगर इस समाचार की मार से कैसे बचा पाएगा अपने आपको?…सक़ीना को बताता हूँ।…अल्लाह भी कैसे कैसे मजाक करता है गरीब बंदों के साथ?…
सक़ीना को तो मोहसिन थोड़ा खिसका हुआ लगा। भला छोटी जान ऐसा कैसे कर सकती हैं?…यह कैसी राजनीति है? छोटी जान की मेजबान संध्या ठाकुर!…यह नहीं हो सकता। भला संध्या ठाकुर ने ये क्या प्रपंच रचा है। अल्लाह की मार पड़ेगी उस पर! ‘बोलीं क्या छोटी जान?’
‘वो बोलीं कि कोई संध्या ठाकुर हैं जिन्होंने उन्हें बुलाया है। बस एक रात के लिये आ रही हैं। बनारस से आजमगढ़ इनोवा वैन से आएँगी। साथ में फूफा जान तो हैं ही। दो हिंदू जर्नलिस्ट भी हैं।…पहले अपने इस्कूल जाएँगी। वहाँ से हमारे घर आकर दोपहर का खाना खायेंगी। फिर नेहरू हॉल में उनका पब्लिक रिसेप्शन है। शाम को प्रेस कॉन्फ्रेंस हैं और रात का डिनर संध्या ठाकुर के घर। वैसे शाम को ही डी.एम. के साथ चाय भी है।’
‘दोपहर का खाना हमारे घर?…या अल्लाह! रोजा नहीं रखती हैं क्या?’
‘बड़े लोगों की बड़ी बातें होती हैं। फिर उम्र भी तो खासी हो गई है। साथ में हिंदू जर्नलिस्ट भी हैं। पाँच लोगों के खाने की बात कह रही हैं।’
‘अगले दिन कहाँ जा रही हैं?…कहीं आसपास घूमने जा रही हैं क्या? सुनिए, क्या आपको डी.एम. के घर चाय पर साथ नहीं ले जा सकतीं? आप उनसे भी बात कर सकते हैं।’
‘मैं तो यह सोचकर परेशान हो रहा हूँ कि संध्या ठाकुर से हमारे बारे में बात कब करेंगी?’
एक लंबी सी चुप्पी छा जाती है। पति पत्नी दोनों गहरे सोच में डूबे बैठे हैं।…क्या छोटी जान को मालूम है कि संध्या ठाकुर का परिवार हमें कितना कष्ट दे रहा है?…फिर वे ऐसा क्यों कर रही हैं?…संध्या ठाकुर के गुंडों ने तो मुझ पर गोली भी चलाई थी…फिर क्या कारण हो सकता है?
‘अरे पगले, भला उस मासूम को कहाँ पता होगा कि संध्या ठाकुर ने ही हमारी जमीन हड़प रखी है। उसे तो यह भी नहीं मालूम होगा कि संध्या उन्हीं ठाकुरों की बहू है जिनको सैंतालीस में सरकार ने दरिया महल का हिस्सा दे दिया था।…अगर शाहिद और जमाल सैंतालीस में पाकिस्तान न चले जाते तो ठाकुर दरिया महल के इतने बड़े हिस्से पर कब्जा नहीं कर सकते थे। उन दोनों भाइयों ने किसी की नहीं सुनी।…मेरी बिट्टो तो सड़सठ तक भारत में रही…जब तक फूफी ने उसकी शादी कराची में नहीं कर दी…दरिया महल के साथ सबसे गहरी तो मेरी बिट्टो ही जुड़ी थी।…यहाँ के चप्पे चप्पे से प्यार था उसको…उसे तो इलाहाबाद और बनारस से भी बहुत प्यार था। बहुत रोई थी जब उसकी शादी कराची में तय हो गई थी। मेरे अलावा कोई नहीं समझ सकता कि वो आजमगढ़ क्यों आ रही है।…उसे अच्छी तरह मालूम है कि दरिया महल अब उसका नहीं है।…लेकिन दरिया महल उसके दिल में है…आत्मा में है। मुझे मालूम है यहाँ का हाल देख कर उसकी आँखों से खून के आँसू निकलेंगे। मैं जानती हूँ वह ठाकुरों से जरूर बात करेगी।…अरे पगले तूने क्या कभी बिट्टो को बताया है कि ठाकुरों के शूटर ने तुम पर गोली चलाई थी?…और फिर अब दरिया महल तुम्हारी जिम्मेदारी है।…वह बेचारी तो अपने बचपन को दोबारा जीने आ रही है।…मेरे गले लग कर रोने आ रही है। तुम उसे अपने पचड़े में मत फँसाओ।…मैंने तो सुना है कि जमाई राजा खासे सख्त आदमी हैं। न मालूम बिट्टो कैसे गुजारा कर रही होगी।’ भावज अपनी कमजोर नजर से पुराने चित्रों को इकट्ठा कर रही थी। आज उनकी यादों का बाँध टूट रहा था यादें छन-छन कर बाहर आ रही थीं।
‘अरे छुटकी सी थी। वो पगला कासिम यहाँ आया करता था। दोनों बंसी ले कर निकल जाते थे मछली पकड़ने। यह छुटकी नदी किनारे मिट्टी से केंचुए निकाल निकाल कर बंसी पर लगा कर कासिम को देती थीं। दोनों घंटों मछली पकड़ते रहते। फिर बिट्टो मछली लाकर मुझे देती। गर्मी के मारे मुँह लाल हो जाता था उसका। मैं उसका मुँह धुलवाती थी और उसकी लाई मछली उसे फ्राई करके देती थी। कितने चाव से खाती थी मेरी बिट्टो! मुझे तो डर ही लगा रहता था कि कहीं कासिम को पागलपन का दौरा न पड़ जाए मछली पकड़ते पकड़ते। मगर मजाल है कि यह छटाँक भर की छोकरी जरा भी डरे। बस दो चोटियाँ बनवाती थी और उनमें लाल रिबन पहन लेती थी। सारे काम लड़कों वाले। मरी को चैन तो मिलता ही नहीं था। चोटें तो इतनी लगती थीं उसे कि बदन का कोई न कोई हिस्सा तो फटहड़ रहता ही था।…मगर प्यारी बहुत है मेरी बिट्टो। खुद ही देख लीजो।’
सक़ीना और मोहसिन ने कभी अम्मा को किसी के प्रति इतना भावुक होते नहीं देखा था। कभी उनकी आवाज गीली होती तो कभी आँखें। सक़ीना की समस्या सबसे अलग है। उसे ऐसे मेहमान की प्रतीक्षा करनी है जिसे कभी देखा नहीं। केवल सुन सुन कर किसी भी रिश्ते को कैसे महसूस करे! मोहसिन ने भी छोटी जान को कितना देखा होगा?…छोटी जान तो चालीस साल पहले शादी करके कराची चली गई थीं। मोहसिन तो उस वक्त दस साल के रहे होंगे। उनकी यादें भी कुछ खास गहरी नहीं होंगी।…फिर भी छोटी जान का रुतबा है…उन्होंने विलायत में अपने लिये जगह बनाई है…कहते हैं कि पाकिस्तान की सियासत में भी उनकी अच्छी पैठ है…शायद यहाँ हिंदुस्तान में भी उनकी चलती हो।…एक तो मोहसिन भी सीधी बात करना नहीं जानते। इधर उधर की हाँकने लगते हैं। मूल मुद्दा कहीं गायब हो जाता है। क्या मुझे खुद छोटी जान से बात करनी चाहिए?…मुझे तो छोटी जान का नाम भी ठीक से मालूम नहीं!…आज अम्मा से पूछती हूँ…अम्मा भी तो उन्हें बिट्टो ही कह कर काम चला लेती हैं।
लंदन से एक बार फिर फोन आया है। बीस तारीख को आ रही हैं छोटी जान।…बीस तारीख…सक़ीना का जन्मदिन बीस फरवरी उसके पुत्र परवेज का जन्मदिन बीस नवंबर! मोहसिन और सक़ीना की शादी बीस मार्च! मोहसिन गोली से बाल बाल बचा–बीस जुलाई! और अब छोटी जान का आगमन-बीस सितंबर! बीस तारीख का सक़ीना के जीवन में बहुत महत्त्व है।
‘सुनिए, आप मौलवी जी से पूछिए कि छोटी जान का बीस तारीख को आना क्या अल्लाह की किसी खास मरजी से हो रहा है।’
‘मुझे नहीं लगता कि इस मामले में मौलवी साहब कुछ बता सकते हैं। वह रस्तोगी न्यूमोरोलोजिस्ट है, उससे बात करता हूँ। यह नंबरों और तारीखों के बारे में उसकी नॉलेज बेहतर है।’
‘हाँ, बात करके देखिए। शायद ये बीस तारीख हमारा काम बनवा दे।’
‘लेकिन छोटी जान ने कहा है कि उनके साथ दो जर्नलिस्ट भी हैं।…हमें कमरे में कुछ फर्नीचर तो रखवाना ही पड़ेगा।’
‘हाँ, उन्नीस तारीख से एक हफ्ते के लिये टेंट वाले से भाड़े पर ले लीजिए।…एक तो सोफा सेट ले लीजिए…दो टेबल खाना लगाने के लिये…साथ में डोंगे, प्लेटें, कटलरी वगैरह…बारह लोगों के लिये आर्डर कर दीजिए…उस्मान मियाँ को कह दीजिए।’
‘बीस की दोपहर का खाना भी आफताब के रेस्टोरेंट से आर्डर कर देता हूँ।’
‘रहने दो जी…घर में सस्ता पड़ेगा।’
‘मैं तो तुम्हें आराम देने के ख्याल से कह रहा था। रोजा रख कर तुम्हें डबल मेहनत पड़ जाएगी।’
‘आप मेरी फिक्र छोड़िए।…और फिर छोटी जान तो, आपने बताया, कि लहसुन और प्याज भी नहीं खाती हैं।…बस एक डिश गोश्त की बना लूँगी और एक चिकन की…बाकी सब तो वेजिटेरियन ही बनाना है।…अम्मा कह रही हैं कि अचारी करेले और अरहर की दाल तो वे ही बनाने वाली हैं। छोटी जान को बचपन में ये दोनों चीजें बहुत पसंद थीं।’
‘चलो फिर मीनू तुम ही तय कर लेना।’
‘जरा बच्चों को एक एक जोड़ा नया बनवा दीजिए। छोटी जान तो घर की हैं मगर फूफा जान के सामने पुराने कपड़ों में कैसे दिखेंगे।…वैसे भी ईद पर तो लेने ही हैं, थोड़ा पहले ही ले लेते हैं।’
‘‘हाँ, ये भी ठीक रहेगा।…तुम परेशान न होना। मैं इंतजाम कर लूँगा।…पहले तो रस्तोगी से बात कर लेता हूँ। शायद यह बीस तारीख हमारी जिंदगी में एक नया रास्ता खोल दे।’ ‘इंशा-अल्लाह!’
इंतजार की घड़ियाँ भी अजीब होती हैं। कभी कटती नहीं और कभी धड़ाधड़ दौड़ती हैं।…मोहसिन का जी चाह रहा है कि संध्या ठाकुर से जा कर पूछ ले कि बीस तारीख़ का पूरा प्रोग्राम क्या है। उहापोह मची है और बीस तारीख़ का सवेरा भी हो गया है। सुबह के आठ बज गए हैं और मोहसिन के दिल में धुकधुकी हो रही है। आज वह सुबह सुबह दीवार के पास तक चलकर आया है। दीवार को छू भी लिया है…दीवार के इस तरफ पलस्तर नहीं किया गया है बस ईंटों में बेढब-सा सीमेंट दिखाई दे रहा है। दीवार के दूसरी तरफ पूरी तरह से पलस्तर किया गया है। मोहसिन दीवार को ताके जा रहा है और मन ही मन दुआ कर रहा है–या अल्लाह छोटी जान के हाथों में ऐसी बरकत बख़्शना कि ये दीवार उनके हाथों से ही टूटे!
दस बज गए हैं। सक़ीना रसोईघर में काम किये जा रही है। आज गोश्त में खास तौर पर चाप्स मँगवाई गई हैं और चिकन मुगलई स्टाइल का बनाया गया है। भावज ने आज बरसों बाद किचन में कदम रखा है। वह मसालों के साथ साथ अपनी मुहब्बत भी उड़ेल रही हैं। वहीं से मोहसिन को आवाज भी दे रही हैं, ‘अरे मोहसिन पता तो लगइयो कहाँ तक पहुँचा है काफिला मेहमानों का?…मैं भी अजब अहमक हूँ अपनी बिट्टो को ही मेहमान कहे जा रही हूँ।’ अरहर की दाल में जीरे का छौंक लगा कर उस पर हरा धनिया छिड़क रही हैं भावज। आम के अचार के मसाले से भरवाँ करेले बना रही हैं। सक़ीना ने मीठे के लिये बाजार से रसमलाई मँगवाई है तो घर में सिवइयाँ बनाई हैं। लगता है कि रमजान महीने के बीचों बीच अचानक चाँद दिखने की उम्मीद में आज ही ईद मनाई जा रही हो। भावज के दिल का चाँद तो आज दोपहर ही निकलने वाला है।
मोहसिन का मोबाइल बज उठा है। काफिला बनारस से संध्या ठाकुर की बहन रूपा सिंह के घर से नाश्ता करके चल पड़ा है। मोहसिन परेशान है। पहले केवल संध्या ठाकुर उनके हक पर डाका डाल रही थी। अब उसकी बहन भी साथ जुट गई है। एक डेढ़ बजे तक स्कूल पहुँच जाएगा काफिला। मोहसिन से वहीं आने को कह दिया गया है ताकि वह उन्हें अपने घर ले जा सके। क्या संध्या ठाकुर की बहन से छोटी जान ने बात की होगी?
सक़ीना बच्चों को नहाने को कह रही है। आज उन्हें नहा कर नये जोड़े पहनने हैं। बच्चे खुश हैं, मगर फिर भी कुछ सहमे सहमे हैं। आज उनके घर एक अमीर रिश्तेदार आने वाला है। निलोफर सलाद काट कर माँ का हाथ बँटा रही है। अरशद और नवाब बरतन धोकर पोंछ रहे हैं और मेज पर लगा रहे हैं। घर में सही तौर पर त्योहार का माहौल है। अचानक घड़ी की सुइयाँ आहिस्ता आहिस्ता चलने लगी हैं। घड़ियाँ प्रतीक्षा की जो हैं।
मोहसिन सोच में डूबा है। उसने आज छोटी जान को दिखाने के लिये ट्रैक्टर किराये पर ले रखा है। एक टोयोटा क्वालिस भी मँगा ली है। ड्राइवर नहीं बुलाया। खुद ही चलाएगा। दोनों बेटे बार बार क्वालिस को छूकर देख रहे हैं। मोहसिन ने अपने बाल भी एक दिन पहले ही रंग लिये हैं। मूँछों को भी काला किया है। साढ़े बारह बज गए हैं। यानी कि काफिला किसी भी पल राजकीय उच्चत्तर कन्या विद्यालय तक पहुँच जाएगा। सोचते ही मोहसिन के पेट में मरोड़ सा उठा है। लपक कर लैट्रिन में दाखिल हो गया है। आज उसने हाथ धोने के लिये भी अस्थायी वाश बेसिन टेंट वाले से ही किराये पर ले लिया है। दुकान वाले को उसकी बात ठीक से समझ नहीं आई, वह गलती से दो वाश बेसिन ले आया है। मोहसिन दोनों वाश बेसिन में पानी भर रहा है।
मोबाइल फिर बजा है। छोटी जान स्कूल पहुँच गई हैं। भावज ने डाँट लगाई है, ‘अरे अभी तक घर में घुसा हुआ है। तुझे तो वहाँ पहले से खड़ा रहना चाहिए था। वह जब गाड़ी से उतरती तो उसका इस्तेकबाल करता। अब तो वो लोगों से घिर जाएगी। उसे मिलेगा कैसे?’
‘अरे अम्मा, तुम चिंता न करो। मैं उनसे बात कर लूँगा।’
मोहसिन क्वालिस के स्टीयरिंग व्हील पर बैठ गया है। अरशद और नवाब भी साथ हो लिये हैं। आजमगढ़ है ही कितना बड़ा? बस पाँच सात मिनट में स्कूल के बाहर पहुँच गया। वहाँ भी कुछ त्योहार का सा माहौल लग रहा था। मोहसिन ने देखा कि लखनवी शलवार सूट पहने, कटे बालों वाली एक महिला को स्कूल की प्रिंसिपल हार पहना रही थी। जीन के नीले रंग का कुर्ता पहने एक पुरुष उनके फोटो खींच रहा था। यह जरूर उन पत्रकारों में से एक होगा–सोचने लगा मोहसिन। एक बुजुर्ग से सज्जन के साथ लाल कमीज पहने एक और पुरुष खड़ा था। मोहसिन को अंदाज लगाने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई कि बुजुर्ग दिखाई देने वाले सज्जन उसके फूफा हैं और लाल कमीज वाला दूसरा पत्रकार। फिर ये पाँचवा इनसान कौन हो सकता है जिसके लिये छोटी जान खाना बनाने की बात कह रही थीं। कोई और दिखाई भी नहीं दे रहा। मोहसिन ने हाथ हिला कर छोटी जान को बताना चाहा कि वह आ चुका है। मगर छोटी जान अपने प्रशंसकों से घिरी हुई थीं।
मोहसिन ने देखा कि प्रिंसिपल छोटी जान को अपने कमरे में ले गईं। साथ ही कैमरे वाला पत्रकार, बुजुर्ग सज्जन और लाल कमीज वाला भी अंदर चले गए। मोहसिन कमरे के भीतर घुसने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उसने बाहर से देखा कि प्रिंसिपल ने छोटी जान को अपनी कुर्सी पर बिठा दिया है। छोटी जान थोड़ा शर्माते हुए मुस्कुरा रही हैं और प्रिंसिपल से बात कर रही हैं। कैमरे वाला पत्रकार फोटो खींच रहा है। बुजुर्ग सज्जन न तो मुस्कुरा रहे हैं और न ही बातचीत में कोई दिलचस्पी दिखा रहे हैं। वे और लाल कमीज वाला आपस में बात कर रहे हैं।
छोटी जान के लखनवी शलवार सूट का सफेद रंग उनके व्यक्तित्व को भव्यता प्रदान कर रहा है। छोटी जान स्कूल में जिधर भी जा रही हैं उनके पीछे अध्यापकों और विद्यार्थियों की भीड़-सी चल पड़ती है। मोहसिन ने कभी सोचा भी न था कि छोटी जान इतनी बड़ी हस्ती हो सकती हैं। थोड़ी देर बाद ही संध्या ठाकुर भी आ गई हैं। उन्हें भी जब छोटी जान को दी जाने वाली इज्जत का अहसास हो गया, तो वे भी बुजुर्ग सज्जन के साथ बातचीत में व्यस्त हो गईं। वे तीनों अब आपस में बात कर रहे थे। अचानक वह कैमरे वाला पत्रकार आकर इन तीनों के चित्र खींचने लगा। छोटी जान के निकट एक बंदर आकर उनके साथ खेलने की मुद्रा में आ गया। छोटी जान भी उसके साथ बात करने लगीं। फोटोवाले का कैमरा खटाखट वाली मुद्रा में आ गया।
मोहसिन ने देखा कि छोटी जान ने कैमरे वाले पत्रकार को नजदीक बुलाया और उसे कुछ कहा। उसने अपना पर्स निकाला और हजार हजार के कुछ नोट गिन कर एक लिफाफे में डाले और वह लिफाफा छोटी जान को दे दिया। छोटी जान ने प्रिंसिपल के कान में कुछ कहा और वह लिफाफा उनके हवाले कर दिया। मोहसिन को लगा जैसे उसके हिस्से के कुछ पैसे बँट गए हों। किसी ने उसके हक पर डाका डाल दिया हो। उसने अपने पुत्रों की तरफ देखा। वे दोनों इन सभी बातों से अनभिज्ञ आपस में बातें कर रहे थे।
छोटी जान अपने साथियों के साथ अपनी सफेद इनोवा वैन की तरफ बढ़ीं। स्कूल की लड़कियों ने जो एक बार ऑटोग्राफ लेने का सिलसिला शुरू किया तो थमने में ही नहीं आ रहा था। छोटी जान हँसते हँसते सभी को खुशियाँ बाँट रही थीं। संध्या ठाकुर ने उनको अपनी कार में बिठा लिया और बाकी सभी लोग इनोवा में समा गए। काफिला चल दिया। मोहसिन ने अपनी क्वालिस वैन उनके पीछे लगा ली। छोटी जान की गाड़ी संध्या ठाकुर के घर के सामने जा कर रुक गई। मोहसिन ने देखा कि छोटी जान दीवार की तरफ इशारा करके संध्या ठाकुर से कुछ बात करने लगी। संध्या ठाकुर के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव उभरे। वे जैसे छोटी जान को कुछ आश्वासन देती सी दिखाई दीं। इतने में मोहसिन की जेब में मोबाइल बज उठा। छोटी जान ही बात कर रही थीं, ‘जी छोटी जान, मैं मेन रोड पर आपका इंतजार कर रहा हूँ। स्कूल से आपके साथ ही साथ आया हूँ।’
‘अरे तुम स्कूल तक आए थे क्या? फिर मिले क्यों नहीं?’
छोटी जान संध्या ठाकुर की कार से उतरीं और मोहसिन जा कर उनसे तपाक से मिला, ‘छोटी जान! कैसी हैं आप?’
छोटी जान ने उसे गले से लगा लिया, ‘देखो मोहसिन, मैंने संध्या जी से बात कर ली है। अब तुम मेरे पीछे इनसे मिल कर इनकी मदद माँग लेना। अब यही तुम्हारी मुश्किल हल करेंगी।’
‘जी छोटी जान।’ मोहसिन ने संध्या ठाकुर को सलाम करते हुए कहा। उसे संध्या ठाकुर का चेहरा दीवार में से निकले रास्ते जैसा दीखने लगा।
छोटी जान संध्या ठाकुर की कार से निकल कर मोहसिन की क्वालिस में बैठ गई हैं। दोनों बेटे पीछे की सीट पर बैठे अपने मेहमान को टुकर टुकर ताके जा रहे हैं।
‘भावज कैसी हैं मोहसिन? और सक़ीना? उससे तो आज पहली बार मिलने जा रही हूँ।…और इन दोनों के क्या नाम हैं?’
‘यह नीली कमीज वाला बड़ा है अरशद दूसरे का नाम नवाब है। बेटी का नाम निलोफर है। बड़ा वाला सेकेंड ईयर कामर्स में है, निलोफर प्लस टू के फाइनल यानी कि बारहवीं में है और नवाब मियाँ दसवीं में हैं।…सक़ीना और अम्मा आपका इंतजार कर रही हैं।’
‘देखो मोहसिन, अभी लोहा गरम है, तुम जल्दी से संध्या ठाकुर से बात कर लेना। अगर देर हो गई तो मामला ठंडा हो जाएगा। वह कम से कम दिखा तो रही है कि उसका इन सारे झगड़े से कुछ लेना देना नहीं है।’
‘आप तो कह रही थीं कि पाँच लोग खाना खायेंगे। आपलोग तो चार ही हैं।’
‘अरे मोहसिन, हमारा ड्राइवर भी तो खाना खाएगा! उसके समेत तो पाँच ही हुए न?’
‘ओह, मैंने सोचा ही नहीं।…आपका प्रोग्राम अचानक कैसे बन गया?’
‘अरे मैं जनवरी में दुबई गई थी हिंदी कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने। वहाँ यह जो लाल और नीली कमीज वाले पत्रकार हैं न, हमारे साथ ही थे। नीली कमीज वाले मेहरा जी हैं, लंदन से हैं और लाल वाले हिंदी की एक मैगजीन से हैं। इन दोनों ने ही हमारे ट्रिप को सँभाल रखा है। हम कहाँ जाएँगे, कहाँ रहेंगे, क्या खाएँगे, इन सब का ख्याल ये दोनों रखते हैं। वैसे तुम्हारे फूफा का ख्याल भी यही रखते हैं। यहाँ से मैं गया जाऊँगी और फिर वापिस कानपुर और दिल्ली। वहाँ से दुबई और फिर लंदन। यह पूरा ट्रिप लिटरेरी है। बस यहाँ आजमगढ़ आई हूँ आपलोग से मिलने और अपना बचपन दोबारा जीने।’
मोहसिन की क्वालिस मुख्य सड़क से हट कर कच्चे रास्ते की तरफ मुड़ ही रही थी कि छोटी जान ने मोहसिन से पूछा, ‘अरे, ये तो बड़ा पुल है न?’
‘जी छोटी जान।’
‘अरे ये तो कितना छोटा लगने लगा है। हमारे बचपन में तो यह बहुत बड़ा लगा करता था। इसके जो ये गोल दायरे बने हैं, इनमें घुस कर हम बैठ जाया करते थे।’
मोहसिन बस मुस्कुरा भर देता है। अब क्वालिस कच्चे रास्तों में झटके देती आगे बढ़ रही है और उसके पीछे पीछे इनोवा भी आ रही है। छोटी जान खेतों को देख रही हैं और बीते वक्त को याद कर रही हैं। आज स्कूल में मिले स्नेह ने उन्हें भावनाओं से ओतप्रोत कर दिया है। वे सोच रही हैं क्या इतनी भावनाओं को वे सँभाल पाएँगी? उन्हें वह पीपल का पेड़ नहीं दिखाई दे रहा, न ही कैरी का, ‘मोहसिन वहाँ एक पीपल का पेड़ हुआ करता था और उधर दूसरी तरफ कैरी का। उनका क्या हुआ।’
‘छोटी जान, आप तो पचास साल पुरानी बातें कर रही हैं। अब तो कई पेड़ कट चुके हैं।’
अपने प्रिय पेड़ों के कट जाने का दुःख छोटी जान को भीतर तक भिगो गया है। क्वालिस रुकने लगी है। छोटी जान ने कुछ पलों के लिये आँखें भींच कर बंद कर ली हैं। गाड़ी पूरी तरह से रुक जाती है। मोहसिन उतर कर छोटी जान की तरफ का दरवाजा खोलता है। छोटी जान उतरती हैं। उनके पीछे की इनोवा से फूफा जान और दोनों पत्रकार उतरते हैं।
सबसे पहले सक़ीना आकर छोटी जान के गले मिलती है। फिर पीछे होकर छोटी जान के चेहरे को अपनी आँखों में उतारती है। भावज अंदर बैठी हैं। छोटी जान खुद आगे बढ़कर भावज के गले मिलती हैं। भावज अपना रोना रोक नहीं पाती हैं। उनकी कम देखती आँखें भी आँसुओं की धार की तेजी को महसूस कर लेती हैं। छोटी जान भावज के हाथ अपने हाथों में लेकर बैठ जाती हैं। नीले कुर्ते वाला पत्रकार भावज के पाँव छूता है। फिर लाल कमीज वाला भी वही करता है। फूफा जान को गर्मी महसूस हो रही है। पंखे का रुख उनकी तरफ कर दिया जाता है।
सक़ीना अपनी बेटी को लाती है। छोटी जान से मिलवाती है। न जाने क्यों नये कपड़ों के बावजूद, छोटी जान की मौजूदगी में, उसे अपने बच्चे साफ सुथरे नहीं लगते। छोटी जान का गोरा चिट्टा रंग और सफेद शलवार कमीज की भव्यता के सामने हर चीज बौनी होती जा रही है। सक़ीना महसूस करती है कि बातचीत के लिये कोई नया विषय बन नहीं पा रहा है। वह जल्दी से खाना लगवा देती है। छोटी जान, फूफा और दोनों पत्रकार महसूस कर रहे हैं कि सारा फर्नीचर किराये का है। सब चुप हैं। एक मेजपोश पर मदीना टेंट हाउस कढ़ाई करके लिखा भी हुआ है। छोटी जान भरपूर कोशिश कर रही हैं कि वातावरण सहज बना रहे। लेकिन कोई भी सहज नहीं है। बस भावज की खुशी एकमात्र सहज भावना दिखाई दे रही है। छोटी जान ने अपनी प्लेट में करेला, आलू की सूखी सब्जी और दाल की कटोरी रख ली है। फूफा की प्लेट में केवल मीट है। लाल कमीज वाले पत्रकार की प्लेट ऊपर तक भर गई है। नीली कमीज वाले का कैमरा फोटो खींचे जा रहा है। छोटी जान के बोलने से पहले ही फूफा जान कह उठते हैं, ‘अरे मेहरा जी, अब आप भी प्लेट बना लें। फोटो तो होती रहेंगी।’
‘जी, भाई साहब।’ और वह भी अपनी प्लेट लगाने लगता है। सभी लोग अलग अलग व्यंजनों की तारीफ कर रहे हैं। भावज खुश है क्योंकि दाल और करेले की तारीफ सभी कर रहे हैं। भावज छोटी जान के साथ उनके बचपन की बातें कर रही हैं। फूफा जान मीट खा चुके हैं। अब चिकन के साथ रोटी खा रहे हैं। लाल कमीज वाला पत्रकार अब चावल पर मीट का शोरबा और चाप्स डाल रहा है। नीले कुर्ते वाला पत्रकार करेले का मजा ले रहा है। छोटी जान का खाना भी चिड़िया के चुग्गे जैसा ही होता है। उनके सामने रसमलाई का दोना और सिवइयाँ रख दी गई हैं। छोटी जान के भीतर की बच्ची अचानक मचलने लगी है। वे थोड़ी सी सिवइयों के ऊपर एक रसमलाई डाल कर थोड़ा रस भी डाल लेती हैं। फिर तो फूफा जान को छोड़ कर सभी ऐसा ही करते हैं।
हाथ धोने के लिये सब बाहर की तरफ आ जाते हैं। वही टेंट हाउस वाले वाश बेसिन पर हाथ धोए जाते हैं। छोटी जान पूछ लेती हैं, ‘अरे मोहसिन यह पानी की टंकी कैसी? क्या कोई पार्टी वगैरह रखी थी?’
मोहसिन बात को टाल जाता है। छोटी जान ने मोहसिन को कहा कि वे घर देखना चाहेंगी। घर के नाम पर जो कुछ बचा था, वह छोटी जान को जख्मी किये जा रहा था। उनके घर के गोल खंभों वाला बरामदा देखने के लिये लोग दूर दूर से आया करते थे। छोटी जान, फूफा और दोनों पत्रकार उस बरामदे तक पहुँचे। किसी भुतहा फिल्म का दृश्य लग रहा था। कई खंभे टूट फूट गए थे। रंग पीला पड़ गया था। मकड़ी के घने जाले लटक रहे थे। ‘ये कैसे हो गया?’ छोटी जान अपनी निराशा को अभिव्यक्त किये बिना रह नहीं पाई। मोहसिन चुप ही रह सकता था।
छोटी जान ने जब कुआँ देखा तो उसे पाट दिया गया था, ‘छोटी जान ये बच्चे छोटे थे न तो हमें लगा कि कहीं गिर गिरा न जाएँ। इसलिए कुएँ को पटवा दिया।’ छोटी जान को अपना बचपन याद आए जा रहा था जो इस कुएँ के इर्द गिर्द ही बीता था।
‘हमारे दादा जान की कब्र कहाँ है। है या वह भी…’ छोटी जान दुआ मना रही थीं कि कहीं वह कब्र भी हटा न दी गई हो।
‘वह है, मगर झाड़ झंखाड़ खासे बड़े हो गए हैं, इसलिए दिखाई नहीं दे रही। दरअसल कुछ हिंदुओं ने उस पर दीया वगैरह जलाना शुरू कर दिया था। इसलिए हमें बताना पड़ा कि हमारे दादा की कब्र है, किसी पीर या औलिया की नहीं। हमें तो यह भी डर था कि कहीं इस कब्र के ऊपर कोई मंदिर खड़ा करने की संध्या सिंह की कोई चाल न हो। इस तरह वह हमारी बची खुची जमीन भी मार सकती थी।’
छोटी जान मोहसिन की कोई भी बात सुन नहीं पा रही थीं। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे और हिचकियाँ बँध गईं। फूफा ने आगे बढ़ कर छोटी जान को आगोश में ले लिया और छोटी जान उनके कंधे पर सिर रख कर फफक पड़ीं। मोहसिन को समझ नहीं आ रहा था कि उसकी प्रतिक्रिया क्या हो! सक़ीना हड़बड़ा कर घर के अंदर चली गई। लाल कमीज वाला पत्रकार खंभों को देखता रहा और नीले कुर्ते वाला पत्रकार फूफा के कंधों पर रोती छोटी जान के आँसुओं को अपने कैमरे में कैद करता रहा।
छोटी जान के आँसू थमे। टेंट से लाये गए वाश-बेसिन पर उन्होंने मुँह धोया और छोटे तौलिये से मुँह को पोंछ लिया। फिर अचानक उनके भीतर की छोटी सी लड़की जिंदा हो उठी। वे पैदल चलती हुई दूर बहती नदी की ओर चल दीं जहाँ कभी मछलियाँ पकड़ा करती थीं। फूफा के लिये वहाँ तक चल पाना संभव नहीं था। लाल कमीज वाला पत्रकार वहीं फूफा से बातें करता रहा। मोहसिन छोटी जान के पीछे पीछे चल पड़ा और नीले कुर्ते वाला पत्रकार ऐसा कोण ढूँढ़ने लगा जहाँ से नदी छोटी जान के सिर से निकलती दिखाई दे सके। छोटी जान को पता ही नहीं चला कि कब नदी अपना स्थान छोड़ उनकी आँखों से बहने लगी।
वापिस आकर छोटी जान ने फूफा के कान में कुछ कहा। फूफा अपना ब्रीफकेस एक कोने में ले जाकर कुछ खोजने लगे। उन्होंने छिपाते हुए कुछ गिना और एक लिफाफे में डाल कर छोटी जान को दे दिया। छोटी जान ने फूफा के कान में फिर कुछ कहा। फूफा ने इनकार में गर्दन हिला दी। छोटी जान को स्वयं ही वह लिफाफा सक़ीना और मोहसिन को देना पड़ा। सब चलने को तैयार थे। अबकी बार छोटी जान अपनी इनोवा में ही बैठीं। मोहसिन अपने दो पुत्रों के साथ क्वालिस में आगे आगे नेहरू हॉल की तरफ रास्ता दिखाते हुए आगे बढ़ रहा था। उसके दिल और दिमाग में एक ही सवाल खलबली मचाए था कि लिफाफे में कितना होगा? किंतु उसके लिये नेहरू हॉल तक जाना और वहाँ रुकना मजबूरी थी।
छोटी जान और फूफा को तिलक लगा कर फूलों की माला पहनाई गई। उनके गले में लहरिया प्रिंट की चुनरी डाली गई। फिर दोनों पारंपरिक दीया जलाने लगे। मोहसिन चुपके से उठा और मोबाइल से अपने घर फोन मिलाने लगा।
मोबाइल फोन में रिसेप्शन नहीं मिल रहा था। मोहसिन ने दो एक बार फोन को झटका फिर देखा, किंतु कुछ दिखाई नहीं दिया। एक दो बटन दबाए, किंतु कुछ हासिल नहीं हुआ।
मोहसिन का दिल कार्यक्रम में नहीं लग रहा था। मन ही मन हिसाब किये जा रहा था, ‘फर्नीचर, क्वालिस, ट्रैक्टर और खाना वगैरह मिला कर कुल नौ दस हजार रुपये तो खर्च हो ही गए होंगे। अगर छोटी जान इससे कुछ कम दे गईं तो बहुत नुकसान हो जाएगा।’ एक बार फिर फोन की तरफ देखता है। हॉल में स्थान बदलता है। किंतु रिसेप्शन है कि मिल ही नहीं रहा। सोचता है कि हॉल के बाहर जा कर कोशिश करे।
अचानक पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा। मोहसिन ने सहसा पलट कर देखा फोन बंद कर दिया और तालियाँ बजाने लगा।
Image : The old woman with a patterned headscarf
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Artist : Vasily Surikov
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