गहरी गहरी साँसें

गहरी गहरी साँसें

‘आनी…! आज न जाने क्यों ऐसा महसूस हो रहा है कि अपना मन आपके सामने खोल दूँ। मैं बोलती जाऊँ…और आप तक मेरी सारी कहानी पहुँच जाए। नहीं आनी मुझमें किसी भी तरह की कोई गिल्ट की भावना नहीं है। मैं केवल आप तक वो पहुँचाना चाहती हूँ जो आप नहीं जानती हैं। हमारे जीवन में ऐसे बहुत से रहस्य हैं जिनके बारे में सोचने पर ही नाक पर कपड़ा रखना पड़ता है…इतनी सड़ाँध महसूस होती है।’

‘आप तो मुझे मेरे बचपन से जानती हैं…क्या कभी मैंने आपसे ऐसे बात करनी चाही थी? कभी भी इतना बोलने की इच्छा जाहिर की थी?’

‘सच तो यह है कि मेरे लिए अधिक बोलना समय की बर्बादी है…हमारे जीवन में जो भी समय है वो केवल पकड़ने के लिए है…हम हैं उसके पीछे भागने के लिए…और मैं…भागती रही समय के पीछे। और समय…! वो आँख मिचौली खेलता रहा…वो आँख मिचौली भी तो मेरी खुशी के लिए खेलता था। उसे मालूम था कि मुझे भी एक ब्रेक…विश्राम करने का अवसर चाहिए। कब तक भागती रहूँगी…अपने से क्या कोई आज तक अपनी परछाईं से भाग सका है? सर्दियों की रात की बेहद सुंदर फैली हुई ठंडी-ठंडी चाँदनी में अपनी सिकुड़ी हुई परछाईं कितनी भयानक लगती है…जी चाहता है कि परछाईं से छुटकारा हासिल कर लूँ। मगर ऐसा हो नहीं पाता है…आनी आपने कभी अपनी परछाईं को छोड़ कर भागने का प्रयास किया है?’

‘मेरे बाप ने जब बताया कि वो मुझे लंदन भेज रहे हैं आगे पढ़ने के लिए, आप हैरान हो रही हैं न कि मैं अपने पिता को इतनी बदतमीजी से अपना बाप क्यों कह रही हूँ? हालात ही कुछ ऐसे हैं…शुक्र तो यह है कि मैं उन्हें मिस्टर वर्मा या खाली वर्मा नहीं कह रही…हाँ, तो मैं बता रही थी कि मेरे बाप ने मुझे लंदन भेजने का फैसला लिया। हालाँकि उनके पास फीस देने के लिए काफी पैसे नहीं थे…फिर भी मुझको भेज रहे थे…और हाँ मुझे यह इंस्ट्रक्शन भी दी थी कि दिल लगाकर पढ़ना होगा…घूमने-फिरने की ओर से एहतियात बरतना होगा क्योंकि उसमें भी पैसे खर्च होंगे। मेरे लिए सबसे ज्यादा खुशी की बात यह थी कि लंदन में ‘आप’ मेरी गार्जियन होंगी। मगर मैं अपनी खुशी को छिपा गई…क्योंकि मेरे बाप मुझे खुश देखकर फौरन निर्णय बदल देते कि मैं खुश क्यों हुई…कोई गड़बड़ तो नहीं है..! मेरे बाप दूसरों को खुश देखकर दुखी हो जाते हैं। जलन उनके दिलोंदिमाग को डसने लगती है…शायद मम्मी की बुराई कर-कर के इसी तरह के व्यवहार के आदी हो गए थे…किसी की प्रशंसा भी नहीं सुन पाते थे…हर समय अपनी ही प्रशंसा सुनना चाहते, बल्कि कुछ ऐसे खास लोग रखे हुए हैं जिनका काम ही यही है कि बादशाह सलामत के सामने खुशामदी बातें करें और हर बात पर वाह-वाह करते रहें…इसी को कहते हैं ‘हलाल की खाना।’

आनी आप कितनी चालाक हैं! आपने भी तो ये सुनकर कि मेरी गार्जियन बनाई जा रही हैं यही तो कहा था कि ‘बहुत जिम्मेदारी हो जाएगी’ फिर मुझको कितने प्यार से देखा था…कनखियों से…मम्मी कितनी खुश हो गई थीं क्योंकि वे मेरे इतनी दूर जाने से घबरा रही थीं कि उनको अकेलापन और काटने लगेगा।

वे तो भीड़ में अकेली थीं…बंबई से उठ कर कानपुर आ गई थीं…उनका तो जन्म भी बंबई में ही हुआ था…बॉम्बे आर्ट्स कॉलेज से डिग्री ली थी…उनके अंक सब से अधिक थे…पुराने दिनों में तो सौ में से पचहत्तर अंकों को डिसटिंग्शन कहा जाता था पर अब 75 नंबरों वाला जमाना चला गया है। अब तो अच्छे विद्यार्थियों से 90 और 95 प्रतिशत की आशा रखी जाती है। गणित में तो पूरे नंबर लाने होते हैं…मेरी मम्मी के 100 में से 96 अंक आए थे! मेरी मम्मी उस दिन खुशी से नाच रही थी। मामूली बात थोड़ी ही थी, फाइन आर्ट्स और क्लासिकल नृत्य की डिग्री ली थी…बंबई की बेटी थीं, ऊपर से बॉलीवुड डांसिंग तो विरासत में मिली थी…आज सारा परिवार मम्मी के बांद्रा वाले घर में बधाई देने आ गया था। कलकत्ते से हवाई जहाज से मिठाई मँगवाई गई थी…जो अतिथि आता ‘ओ! कलकत्ते की मिष्ठी’ कहते हुए मिठाई मुँह में भर लेता…आपको मालूम है कि उस दुकान का संदेश केवल भारत ही में नहीं फॉरेन में भी भेजा जाता है…यह बड़ी नाजुक मिठाई होती है। इसको कुँवारी युवती की भाँती आइस बॉक्सेस में रखकर बाहर भेजा जाता था…ये केवल एक ऐसी मिठाई है जिसका नाम तो मिठाई है पर ऐसी गऊ माता का दूध लिया जाता है जो राजनीतिज्ञ की तरह लच्छेदार नहीं संगीत की तरह सुरीली होती हैं…इसलिए असली संदेस में चीनी नहीं भरी होती है…डायबिटीज के रोगी भी चख सकते हैं…मगर आनी, क्या आपको याद है कैसे लोग मुँह में इतने संदेस भर लेते थे कि बधाई देने में भी परेशानी होती थी, बिल्कुल वैसे ही जैसे लोग मुँह में पान भर कर मुँह को आकाश की ओर उठाकर बोलते हैं…लाल-लाल खूनी छींटें अपने ही मुँह पर वापस बरसते हैं।

मेरी मम्मी पर बधाइयों की वर्षा रिम-झिम, रिम-झिम बरस रही थी। मम्मी भावुक हो गई थी। अपनी खुशी के आँसुओं से आप ही सराबोर हो रही थी, आनी!… आपको तो याद होगा मेरी मम्मी के गालों पर शाम के ठंडे सूरज की लाली फूट रही थी…हाँ आनी, मैं अपनी मम्मी को जिस रूप में चाहूँ देख सकती हूँ…उनके जन्म की पहली झलक भी महसूस कर सकती हूँ। मम्मी को काले सिल्क के तारों जैसे चमकते हुए बालों की चादर लपेटे, जब वो अपनी डेनिम की जीन्स और सफेद कुर्ते में कथक जैसी चाल चलतीं तो हर पग उनके गोल-गोल बॉटम्स के मूवमेंट…बालों से सितार जैसी रागनी-भैरवीं के कोमल सुरों के सरगम की तान गूँज रही होती तो ये सदा सुहागन रागिनी भी अपने उन कोमल सुरों को ले उड़तीं…पर मेरी मम्मी तो कभी भी सदा-सुहागन न बन सकी…! आनी आप सोच रही होंगी कि मैं पागल हो गई हूँ…हाँ आनी मैं हो गई हूँ पागल…! मन करता है कि अपनी मम्मी के गुजरे हुए हर उस खूबसूरत पल को उस जालिम के चंगुल से छीन कर वापस लाकर मम्मी के उन पलों में लपेट दूँ…कि जैसे मम्मी की हर साँस से होली के रंग फैल रहे हों…और उनका मुरझाया हुआ चेहरा गुलाल हो जाए..! आनी मैं भी तो मम्मी ही की बेटी हूँ। जैसे वो अपने बनाए चित्रों में हर रेखा के कोई न कोई अर्थ समझा देती हैं वैसे ही मैं भी मम्मी के हर कदम के अर्थ समझ जाती हूँ पर बेचारी मेरी मम्मी कदम उठा भी नहीं पाती है कि वहीं कुचल  दिया जाता है…हर भावना चकनाचूर कर दी जाती है। आनी आपको मालूम ही नहीं होगा कि ऐसे शिकार कैसे तड़पते होंगे…कभी आपने जख्मी हिरण की कजरारी आँखों में जीवन की भीख को अनुभव किया है? नहीं आनी आप तो मखमल पर चलने वालों में से हैं जिनके पैरों में जमीन पर चलने से भी छाले पड़ जाते हैं…आनी मैंने अपनी मम्मी के जख्मी व्यक्तित्व को देखा है। उनकी रोती हुई आँसुओं की प्यासी आँखों को देखा है…जब वहीं उसी जमीन पर मेरी मम्मी को पुराने घर में हम आधे दर्जन बच्चों को छोड़ कर मेरे बाप ने एक मिनट के फासले पर नया लाल ईंटों का घर बनवा लिया था। उन दोनों घरों को जोड़ने के लिए पुराने माली बाबा ने ऊपर से फूलों की बेलें चढ़ा कर लंबा-सा मंडप जैसा बना दिया था। हम बच्चे बहुत खुश हुए थे अपने बाप के इस फैसले पर, क्योंकि पुराने घर की ईंटों का रंग भी मेरी मम्मी के रंग की तरह फीका पड़ चुका था। घर तैयार हुआ…मेरा बाप अपनी कपड़ों की अलमारी खाली कर उधर को चल पड़ा और हम सब हमेशा की तरह आज भी इंतजार ही कर रहे हैं…मम्मी के जीवन का तो अर्थ ही इंतजार है…वो आज भी अच्छे समय के इंतजार में हैं। मेरी भोली-भाली मासूमियत से भरपूर माँ…म…माँ…!

आनी मैंने झिझकते हुए मम्मी के सामने एक प्रस्ताव भी रखा…कि वे मेरे साथ लंदन चलें! आप जानती हैं आनी उनका उत्तर क्या था…‘तुम्हारे पापा जी की देखभाल कौन करेगा…उनकी आँखों में दवा कौन डालेगा, उनका खाना कौन पकाएगा?’ आनी मैं तो उनको आँखें मल-मल कर देखने लगी कि ये मेरी माँ है किस ग्रह की प्राणी…? जी चाहा कह दूँ कि वही बेगैरत औरतें जो रात के अँधेरे में उनकी सेवा करती हैं…मैं चुप हो गई कि मम्मी का दिल दुखाने से क्या हासिल होगा…मगर मैं उसी दिन समझ गई थी कि ये पुरुष अपनी पाक-पवित्र पत्नी को जेब में समाज को दिखाने के लिए अपनी इज़्ज़त का प्रतीक बनाकर रखते हैं…और बिस्तर में खेलने का खिलौना बदलते रहते हैं।

आनी, मैंने उस समय मम्मी के गालों का आता-जाता रंग देखा था जब उनका पति अपनी सुहागन पत्नी को जीते जी विधवा बना कर के दूसरी औरतों की आगोश की रौनक बनने जा रहा था और वो भी दो मिनट के फासले पर…और…मैंने वो रंग भी देखा जब मेरी मम्मी हर सुबह की तरह आज भी अपने खूबसूरत बालों को धोकर अपने ‘उजड़े दयार’ की खिड़की से खड़ी अपने सुहाग को उजड़ता देख रही होती थीं। उनकी सोच भी कुछ अजब ही थी। यदि हर रात कोई नई-नवेली वेश्या होती तो वे सुकून महसूस करती थीं। डर था कि कहीं कोई जम न जाए…अगर कोई जम गई तो उनका पत्ता कट जाएगा। रोजाना की आती-जाती बीमारी तो ठीक भी की जा सकती है पर पक्की, पुरानी सड़ी-गली आदतों का कोई इलाज नहीं…उनकी सड़ाँध पीछा नहीं छोड़ती…वो तो घुन बनकर लग जाती हैं…दीमक बनकर चाट जाती हैं…फैले हुए कैंसर की तरह तिल-तिल जलाती हैं…मेरी मम्मी दिवाली का वो अंतिम दीया बन गई जो सवेरे तक अकेला ही टिमटिमाता रहता है बेमकसद…उखड़ी हुई साँसों की तरह…अब जीन्स और स्कर्ट पहन कर ये गंदी औरतें जो शादी-शुदा मर्दों के बिस्तर की रौनक बनती हैं…वो अपने को ‘तवायफ़ या वेश्या’ नहीं कहलवाना चाहती हैं…वे तो गर्लफ्रेंड्स होती हैं…यह भी एक मॉडर्न तरीका है। पुरुषों की दुनिया के कानून भी निराले हैं। पुरुष जब चाहे अपनी पत्नी को ठंडी लाश घोषित करके दूसरी औरतों में गर्मी ढूँढ़ता फिरे…हर औरत को मम्मी की तरह ही घुटना है। मेरे नाना जी ने मम्मी से वादा किया था कि अगर अच्छा रिजल्ट लाएँगी तो उनके लिए स्टूडियो बनवा देंगे…पेंटिंग करने के लिए और डांस की प्रैक्टिस करने के लिए…मेरी मम्मी ने भी सपने बुनने शुरू कर दिए थे।

उन सपनों में न जाने कहाँ से मेरे बाप ने सेंध लगा ली थी और शामिल हो गए थे मेरी मम्मी के बुने हुए सपने उधेड़ने में। ऐसा जादू चलाया था कि मेरी सुंदर सजल सरल सुहानी मम्मी घूँघट में घुसकर कानपुर आ पहुँचीं…आनी आप तो मम्मी के जीवन में मेरे जन्म के बाद ही आई थीं…शायद भगवानजी ने मेरी गार्जियन उसी समय भेज दी थी…लव यू आनी…रीयली लव यू…।

‘आनी, आजकल तो आप मुंबई के सेमिनार में हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि जब मैं लंदन पहुँचूँगी तो आप पहले से वहाँ पहुँच चुकी होंगी…आप मेरे लिए एक मजबूत सहारा होंगी परदेस में।’

आनी आप यही मालूम करना चाहती हैं न कि क्या मैंने कभी कुछ पाने के लिए प्रयत्न किया है, मेहनत की है.? हाँ आनी मैंने रात-दिन पढ़ाई की है, अपने जेब खर्च के लिए नौकरी भी की है…केवल उन पलों के लिए जो मेरा अपना जीवन होंगे…मेरे अपने फैसले होंगे…मेरी अपनी खुशी होगी…मुझे अपने खुशी के पलों में अपने उस बाप की मिलावट नहीं चाहिए जिसे घर को घर बनाना नहीं आया…अपनी पत्नी से अधिक आकर्षक अनजानी औरतें लगीं…!

मैं अपनी फैशन की दीवानी माँ की तरह जीवन भर अपनी मर्जी के विरुद्ध साड़ी लपेटे नहीं जी सकूँगी! आपको पता है आनी, डेविड को मेरे ऊपर मिनी स्कर्ट और शॉर्ट्स बहुत अच्छे लगते हैं। कहता है मेरी लंबी-लंबी टाँगें भगवान ने बनाई ही इसीलिए हैं। उन्हें कमर से नीचे बँधी हुई साड़ी और पूरी पीठ खुली हुई ब्लाउज पसंद है…यही सब तो मुझे भी अच्छा लगता है…हम गर्मियों में समुद्र के किनारे धूप में घंटों पड़े रहते हैं…रातों को देर तक किसी अच्छे होटल या क्लब में खाते हैं, पीते हैं और खूब नाचते हैं…आनी यही तो जीवन है…हमारी पीढ़ी में इसी को जीना कहते हैं। मैं अपने को मम्मी की तरह भारतीय दब्बू नारी के रूप में नहीं ढाल सकूँगी…कभी नहीं…कभी भी नहीं…।

आनी क्या आप समुद्र की दिशा बदल सकती हैं? उसकी लहरों को काबू कर सकती हैं? ऊँचाई पर उड़ते हुए बाज को नीचे उतार सकती हैं.? नहीं ना…नहीं कर सकती हैं न…? तो फिर डर किस बात का है? आपको पता है मेरी पीएच.डी. मामूली बात नहीं है…मुझे बड़ी-बड़ी कंपनियों से बुलाया जा रहा है पर मैं सोच रही हूँ डेविड के साथ मैं भी यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू कर दूँ। बच्चे पालने के लिए भी पढ़ाना ही बेहतर होता है। आने-जाने का समय, छुट्टियों का समय सब साथ-ही-साथ होता है। इस तरह हम दोनों को साथ रहने का अवसर अधिक मिलेगा। अगर अधिक पैसों की आवश्यकता होगी तो फिर अधिक पैसों वाली जॉब ले लूँगी।

‘हाँ आनी अब मैंने फैसला कर लिया है कि मैं डेविड से शादी कर लूँगी…।’

‘पर आप चौंक क्यों गई? वह बहुत बड़ा विद्वान है आनी.! आनी बरसों से मेरा गाइड है। हम दोनों बहुत प्यार करते हैं एक दूसरे को।’

‘और हाँ आनी मैं आपको यह भी बता देना चाहती हूँ कि मुझे अपने परिवार वालों की पसंद की शादी नहीं करनी है…पति के साथ मुझे जीवन बिताना है…मुझे मम्मी की कहानी नहीं दोहरानी है…आनी…आप भी कुछ कहिए न…आपका ये मौन मुझे नहीं चाहिए, ये मौन मुझे डरा रहा है!’

ये सब याद है न आपको? मैं कैसी पागल हो गई थी आपकी खामोशी से। तब और पागल हो गई जब आपने कहा…‘बेटा यह सुनकर तुम्हारे पापा तुम्हारी माँ का जीवन नरक बना देंगे, वैसे…मुझे कोई बाधा नहीं है…’ और…मैं भी बाप की ही बेटी बनकर सोचने लगी…स्वार्थी सेल्फ-सेंटर्ड और… और जालिम!

हाँ, आनी आप बिल्कुल सच कह रही हैं और यह भी सच है कि आपने मेरी बीमारी में जैसे मेरी देखभाल की वैसे एक माँ ही अपने बच्चे के लिए कर सकती है। उस रात आप दो बजे रात को अपने घर से निकलकर मेरे फ्लैट पर सवेरे चार बजे पहुँची थीं…स्ट्रैटफर्ड आपके घर से कितना दूर है…आपने परवाह नहीं की…और मुझे दर्द से तड़पता उठाकर अपने घर ले गई थीं और सारा-सारा दिन सारी-सारी रात मेरे साथ जागती थीं। बीमारी का मालूम ही नहीं हो पा रहा था कि ये दर्द कहाँ से निकलता है और क्यों पूरे वजूद में फैल जाता है। बिल्कुल मेरी मम्मी का जीवन बन गया था मेरा दर्द…मम्मी को भी नहीं पता चल सका कि उनके इस जहरीले जीवन का कारण क्या है…उनको ये सजा क्यों मिल रही है…वही हाल मेरा भी था पर तीसरे दिन आपने डॉक्टर और अस्पताल दोनों बदल दिए और उसी दिन इमरजेंसी में मेरा ऑपरेशन हो गया था।

आपको याद है न आनी कि आप सारी रात जागीं…आनी उस हालत में भी मैं आपके लिए परेशान थी…जी चाहता था आपका हाथ जोर से पकड़े रहूँ और इन हाथों को कभी भी अपने से जुदा न होने दूँ…आपके हाथों को पकड़ कर ऐसा लगता था कि मौत का सामना भी आसानी से कर लूँगी, क्योंकि डॉक्टर ने बता दिया था कि ऑपरेशन गंभीर है…मैंने केवल गंभीर सुना और एकदम से मम्मी याद आ गईं…आँसू निकलने से पहले ही आपने कैसे फौरन प्यार से मेरा हाथ अपने गरम-गरम, नरम-नरम मजबूत हाथों में पकड़कर हल्का-सा दबाया, जैसे कह रही हों…‘घबराओ नहीं मैं जो हूँ।’

मुझे चैन-सा आ गया था…बहादुर बन गई थी मैं…आनी जब आँख खुली तो ऑपरेशन हो चुका था। ऑपरेशन से पहले जो इंजेक्शन दिया गया था और जैसा महसूस हुआ था, जी चाहता है जीवन वैसा ही हो जाए…आनी लगता था जैसे ऐसी दुनिया में जा रही हूँ…जहाँ केवल रंग हैं, फूल हैं, सुर हैं, खुशबू हैं…मैं और डेविड हैं…मैं उसी में डूबती चली जा रही हूँ!

आनी समय भी कितना कठोर होता है, कैसे जीवन से आगे-आगे भागता है–बिल्कुल रेलगाड़ी की तरह। आप आगे को दौड़ रहे होते हैं और गाड़ी से बाहर सड़क, नदी-नाले, पेड़-पहाड़, पशु-पंछी सब पीछे को भाग रहे होते हैं। ऐसे ही हमारे इनसानी रिश्ते भी होते हैं…ज्यों-ज्यों आप आगे बढ़ते हैं त्यों-त्यों आपके जीवन से जुड़े निकट-से-निकट वाले नाते-रिश्ते कहीं पीछे को छूट जाते हैं…बिल्कुल रेल यात्रा की तरह। उजाले और रौशनी की तरह। सुबह होती है तो कितनी प्यारी लगती है…हम सारा दिन ऐसे व्यस्त रहते हैं कि अहसास ही नहीं होता कि कैसे जीवन से रौशनी चुपके से खिसक जाती है और अँधेरी रात चुपके-चुपके भीतर घुस आती है और आवाज दे रही होती है कि आओ और मुझको गले लगा लो, इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं…और हम मजबूर हो जाते हैं आँखें बंद कर लेने के लिए…आनी क्या आपने कभी सोचा है कि प्यार और प्रेम की कोई सीमा नहीं होती…।

वहाँ विस्तृत आकाश होता है…गहरा समुद्र होता है…कड़ी धूप और ठंडी हवा होती है…सावन की लड़ी…मोती की झड़ी और घने दरख्तों कि छाँव होती है…और प्रेम लपेट लेता है अपनी आगोश में दो धड़कते दिलों को…।

आनी..! आज आपको मैं एक बहुत अहम बात बताने जा रही हूँ…बुरा मत मानिएगा। आपको तो मालूम ही है कि मेरी थीसिस पूरी हो चुकी है। अब मैं और डेविड शादी कर लेंगे। और…इसके बाद हम पापा की शक्ल भी नहीं देखना चाहेंगे। अपने बाप के अलावा सभी रिश्ते मेरे अपने हैं। मम्मी, बहनें, भाई…वे सब मेरे दिल में रहेंगे…मैं जानती हूँ कि उनमें से कोई भी उस जल्लाद की इजाज़त के बिना मुझसे संपर्क नहीं रख पाएगा…मगर वे सब मेरे अपने हैं…और आप भी…सुन रहीं हैं न आप आनी…आप फोन पर तो हैं न आनी…चुप क्यों हैं जवाब दीजिए न…कुछ तो बोलिए…आप चली गईं क्या…आप हैं नहीं क्या? गहरी-गहरी साँसें तो सुनाई दे रही हैं!…


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जकिया जुबैरी द्वारा भी