इनबॉक्स के अधूरे पन्ने

इनबॉक्स के अधूरे पन्ने

‘संबंधों में अगर अविश्वास आ जाए, तो इसे ढोने से अच्छा है कि इसका दि एंड कर दिया जाए।’ मैं यह बोल तो गया लेकिन मेरी बातें मेरे ही भीतर धँसने लगीं। काँटे की परतदार पट्टियाँ एक-एक कर मन की जमीन पर टाईल्स की तरह बिछ रही थीं और कई लोग उन पर लगातार मशीनें चला रहे थे, जिससे मैं लहूलुहान होने लगा था। ‘प्रोफेशन में प्रोफेशनल रिलेशन होता है भावनात्मक नहीं, जब तक काम तब तक नाम।’ कई चेहरों पर मुस्कान उभरीं, बाजारवादी मुस्कानें। मेरा अंदर घायल था, रक्तरंजित…। ऐसा नहीं कि लोग इसे समझ नहीं रहे थे, लेकिन वे मुझे बाहर से भी उसी रूप में देखना चाहते थे, लेकिन मुझे यह गवारा नहीं था। मेरा दम घुटने लगा। लगा कि कुछ देर और यहाँ रुका, तो शायद चक्कर खाकर गिर पड़ूँगा।

बसों, ऑटो और बाईक का शोर भीतर के शोर से काफी कम था। मैं पैदल बढ़ने लगा ताकि मन की थकान शरीर की थकान से आगे कम पड़ जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा था। जब टाँगें जबाव देने लगीं, तो मैं महरौली जाने वाली 502 नंबर की बस में बैठ गया। ‘मिस्टर शर्मा, जरा यह काम कर देंगे प्लीज…।’ ‘श्योर मैम…।’ ‘मिस्टर शर्मा मेरा भी यह काम।’ ‘हाँ सर बिल्कुल…।’ ‘ओ शर्मा सर आप कितने अच्छे हैं।’ मेरे भीतर कोई जहरीला कीड़ा रेंगने लगा था। मैं छटपटाने लगा। कुछ आँखों में आँसू तो थे…। पर सच्चे थे या घड़ियाली? पता नहीं…। अब समझ में भी नहीं आता कि किस आँसू को सच्चा समझूँ और किसको झूठा।

माघ की ठंडी हवा ने जैसे आर-पार छेद दिया था। दो सालों में तीन बार नौकरी गई। एटीट्यूट…मेरा या उनलोगों का? सामंतवाद कभी भी मर नहीं सकता। चाहे वह अगड़ी जाति का हो या पिछड़ी जाति का, जो इससे कुचलकर आगे आता है, उसमें दमनकारी वृत्तियाँ तो और भी प्रबल रहती हैं। वहाँ पत्थरों पर बैठकर मैंने कुछ देर बिताना चाहा लेकिन शाम के छह बजे ही वे पत्थर भी ओस से नहाकर गीले पड़े थे। मैं यहाँ भी नहीं बैठ सकता। घर ही जाना होगा। घर भी जाऊँ तो कैसे। किस मुँह से कहूँ कि नौकरी छीनी ही जाती है। कई प्रोफेशनल दुकानें चला रहे हैं नौकरी दिलाने और छीनने की। इसकी जड़ें काफी फैल चुकी हैं, जब नौकरी छीन ली जाती है, तब पता चलता है। मेरे पैर सुन्न पड़ने लगे हैं। लग रहा है कि हवा में उड़ने लगा हूँ। पैर उठाना चाहता हूँ, लेकिन वे इधर-उधर बहक रहे हैं जैसे मैंने शराब पी रखी हो। लेकिन मेरा तो मस्तिष्क भी शून्य हो गया है। मैं पूरी शक्ति लगा रहा हूँ अपनी चेतना वापस पाने की।

‘सर, आप यहाँ इतनी ठंड में क्यों खड़े हैं?’ रोहित मेरी ओर ही आने लगा है। मैंने अँधेरे में छिपने की कोशिश की लेकिन उसने मुझे देख लिया है। उसे कैसे बताऊँ कि अब मैं तुम्हारा सर नहीं रहा। कल से तुम्हारी क्लास कोई दूसरा लेगा। घने कोहरे में दबा अँधेरा बाहर निकला और मेरे ऊपर बरसने लगा। हवाएँ सरसराकर मुझे चारों ओर से दबाने लगीं। लेकिन रोहित मेरी ओर बढ़ता ही आ रहा है, जैसे चक्रवाती हवा अपने साथ सूखे पत्ते, घास, फटे-पुराने कागज सब कुछ लिए मेरी ओर आ रही हो, मुझे भी अपने साथ उड़ा ले जाने के लिए। कल से प्रश्नों की बौछारें होगीं। व्हाट्सअप पर ब्लॉक कर दिया, ग्रुप से एक्जीट और फिर डिलिट…लेकिन फोन? किस-किसको कहूँ कि विश्वविद्यालय के नियुक्ति-सिस्टम में मैं फिट नहीं बैठता। मौसम की तरह यहाँ समीकरण बदलता है। ‘आप थ्रू आउट फर्स्ट क्लास हैं तो रहा करें, हम तो इस बार सेकेंड डिविज़नर को ही लेंगे।’ ‘अच्छा आप पीएचडी हैं, लेकिन यूजीसी नेट तो नहीं कर सके हैं न आप। नेट वाले क्रीम होते हैं और जब वे हमें मिल रहे हैं, तो हम विदाउट यूजीसी नेट वाले को क्यों रखें?’ ‘अगर दोनों हैं, तो कोई बात नहीं, विदाउट नेट वाला भी आपसे बेहतर कैंडिडेट है, हम उन्हें ही रखेंगे।’ ‘वह थर्ड डिवीज़र है तो क्या हुआ पढ़ने-लिखने वाला है। देखिये कितने आर्टिकल्ज हैं इसके।’ ‘आप फर्स्ट डिविज़नर है लेकिन लिखते-पढ़ते तो नहीं हैं न। पाँच मैगज़िन का नाम भी नहीं जानते। यू आर नॉट डिज़र्विंग…।’ ‘आपकी कई किताबें हैं, रिज़ल्ट भी अच्छा है, लेकिन इंटरव्यू तो अच्छा नहीं  गया है न। सेलेक्शन तो इंटरव्यू बेसिस पर ही होता है।’ ‘आपका विज़न बड़ा है, शार्प माइंडेड भी है और अच्छा लिखते भी हैं लेकिन हमें लेखक नहीं चाहिए भाई। टीचर चाहिए।’

मौसम में तो इतनी श्योरिटी है कि सर्दियों में पसीने नहीं आएँगे। गर्मियों में रजाई या कंबल नहीं लेना पड़ेगा और बरसात में भले ही अनठावन दिनों तक बारिश नहीं हो, लेकिन दो दिन तो पानी बरसेगा ही। लेकिन विश्वविद्यालय का यह नियुक्ति सिस्टम…! पिछले दस सालों से देख रहा हूँ। न्यूनतम तापमान दो डिग्री सेल्सियस हो तो भी एसी चलना ही चाहिए और छियालिस डिग्री के टेंप्रेचर में भी हम कोट पहनेंगे ही, यहाँ केवल हमारी ही इच्छाएँ चलेगी। आप हमें मत समझाइयें कि हमें कैसे कैंडिडेट का सेलेक्शन करना है। हम चुन-चुनकर क्रीम को ही लेते हैं।

मैं सोचता हूँ कि क्रीम मिल्क का हो या कॉस्मेटिक, है तो वह क्रीम ही। वैसे जहाँ शिक्षा की नहीं, बल्कि अपने विचारों की दुकाने चलानी हो, वहाँ यह चेक करना तो जरूरी नहीं ही है कि कहीं यह एक्सपायरी डेट वाली क्रीम तो नहीं? जो भी हो, लेकिन इस क्रीम में यह शक्ति तो है ही कि चुटकियों में ये किसी के करियर को तबाह कर दें। मैं दुर्बल होना नहीं चाहता फिर भी पता नहीं क्यों ईश्वर को पुकारता हूँ। स्वर भी काँपते हैं कि कैसा न्याय है यह? ‘अन्याय जिधर है उधर शक्ति?’

‘शक्ति जिधर है करो भक्ति। फिर देखो इस भक्ति की शक्ति।’ मैं चौंकता हूँ। जानना चाहता हूँ कि यह बेसुरी आवाज किसकी है, लेकिन सामने कोई नहीं है। आस-पास भी कोई नहीं दिखता। हो सकता है कि अचेतन में कोई पुरानी सीडी पड़ी हो, जो बिना बजाए ही बजने लगी हो। आजकल मेरे साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है लेकिन इस शक्ति की भक्ति भी तो काम नहीं आती। यह भी तो देख ही चुका हूँ।

डॉ. राधिका सिंघल काफी सीनियर हैं। मेरे डिपार्टमेंट की भी नहीं है, फिर भी पता नहीं क्यों उन्हें मेरे ऊपर सहानुभूति है। उन्होंने मेरे तने चेहरे के भीतर की टीस देख ली है। उनकी बड़ी-बड़ी फैली आँखों से झर रहीं पिघली, तरल संवेदनाओं की झींसी मेरे मन को भिंगोने लगी है। लेकिन उनका अनुभवी मन यह भी अनुमान लगा चुका है कि आसमान ताप की अपनी चरम सीमा पर है और अपने को समेटते-समेटते वह थककर भरभराने लगा है जिससे उसका कोई निश्चित आकार बन नहीं रहा। वे मेरी पीठ थपथपाकर जैसे मेरे भीतर के बिखराव को थाम लेती है ‘बेकार टाईम वेस्ट मत करो बच्चे। उस समीकरण को हल करो, जो आजकल यूनीवर्सिटी में चल रहा है।’ उन्होंने मुझे सीढ़ियों के नीचे एक कोने में खींच लिया है जैसे किसी रहस्य का खुलासा वे सबके सामने नहीं कर सकतीं।

‘कौन-सा समीकरण?’ मेरी आँखों के अनजानेपन से वे कुछ तन गई हैं ‘इतने दिनों तक यूनिवर्सिटी से जुड़े रहने पर भी तुम्हें कुछ पता नहीं?’ रेगिस्तान में प्यास से व्याकुल होकर मैं पानी के भ्रम में दौड़ते-दौड़ते थक गया हूँ और राधिका जी मेरी कायरता पर तिरस्कार और गुस्से से भरकर मुझे घूरने लगी हैं। वैसे कुछ समीकरण के बारे में मैंने अभी-अभी कुछ सुना है, लेकिन मन उस पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा है। बुद्धि यह तर्क करने लगी है कि कल तक जो दूसरे पर उँगली उठा रहे थे, वे ही आज यह सब कैसे कर सकते हैं। इतने कम समय में कोई कैसे इस तरह बदल सकता है। वैसे मेरी बुद्धि ने धीरे से अभी यह भी कहा है ‘बेचारा वह तो मनुष्य है, आसमान से उतरा कोई अवतार नहीं…!’ और मैं उलझ गया हूँ। दमित इच्छाएँ अवसर पाते ही अमरबेल बन जाती हैं। वह अपने आस-पास चैतन्य मन और विवेक को देखना नहीं चाहती। यह तो मैं वर्षों से देखता आ रहा हूँ लेकिन फिर भी…! पापा जी ठीक कहते हैं मनुष्यों को मैं समझ ही नहीं पाता। कैसे समझूँ हर दिन रंगों के नये शेड्स…! केवल यही काम तो नहीं है न! मैं छटपटाने लगा हूँ। कठौत का पानी कहीं खत्म हो गया है और मछली बार-बार मुँह खोलकर और ऊपर उठकर माँग रही है…पानी…! पानी…! और मछुआरा सोच रहा है कि अब तो इसे काटना ही है तो फिर पानी देकर क्या होगा? लेकिन फिर भी वह थोड़ा पानी डाल देता है मछली के मुँह के ठीक ऊपर। बेचारा वह मछुआरा भी क्या करे? ग्राहक भी तो आजकल खरीदने से पहले मछली को उठा-उठाकर देखते हैं कि यह जिंदा है कि नहीं।

‘सच को समझो अमित। आज गिव एंड टेक का कल्चर है।’ मेरे चेहरे पर शायद घना काला बादल है, जो गरजने लगा है। भीतर बिजली कड़की है लेकिन राधिका जी स्थिर हैं। उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया है। ‘आई.एम. सॉरी बच्चे। मैं कुछ कर नहीं सकती। केवल तुम्हें रास्ता दिखा सकती हूँ। वह भी केवल इसलिए कि मुझे लगता है कि तुम डिज़र्व करते हो।’

‘साल भर जॉब करता हूँ, तो दो साल बैठा रहता हूँ। ऐसे में कैसे…?’ ‘कई क्षेत्र हैं बच्चे। आपको ढूँढ़ना पड़ेगा।’ राधिका जी की आँखें कभी सिकुड़ती हैं और कभी फैलती हैं। कभी मुझे देखती हैं और कभी बाहर देखने लगती हैं, जहाँ केवल सन्नाटा पसरा हुआ है। कुछ दिनों की सरगर्मी के बाद का यह सन्नाटा बड़ा भयावह है।

मैं मस्तिष्क के टूटे आईने में खुद को देखता हूँ तो मुझे लगता है कि चारों ओर दरारें हैं, उन दरारों से पानी रिस रहा है, गंदा पानी टॉयलेट का…। आसमान जो कुछ देर पहले झींसी की नमी से बिखरता-बिखरता बच गया था, अब कई आकारों में बँटने लगा है, धूल-धूसरित जूते, पैरों के पसीने से भींगे मोजे, पीपल के पेड़ों के कारण दो फाँक में झूलती दीवारें और न जाने क्या-क्या…।

राधिका जी मुझे ऊपर से नीचे तक देख रही हैं। उनकी दृष्टि की नमी, चुभन मैं सबकुछ अपने भीतर महसूस करता हूँ। वे काफी असहज हैं, जैसे अपने को कई हिस्सों में बाँट रही हों। उन्होंने इधर-उधर देखकर अपना चश्मा निकाला है और उसे पोंछने लगीं है। लेकिन उनकी चुप्पी से मैं घुमड़ने लगा हूँ। शायद वे सोच रही हैं कि मैं बेकार इससे उलझकर अपना समय बर्बाद कर रही हूँ। सच ही तो है, वे मेरी कोई लगती तो नहीं। न जाति की, न क्षेत्र की और न डिपार्टमेंट की। वे बड़ी गाड़ी से आती हैं और मैं बस में धक्के खाता हूँ। मेरी बेचैनी बढ़ने लगी है। ‘नहीं’ वे ऐसा नहीं सोच सकतीं।’ भीतर कुछ है जिसकी नमी अभी तक सूखी नहीं है।

अचानक उन्होंने मेरी आँखों में देखते हुए कहा है ‘वैसे सबलोग अपने स्वाभिमान को बेच तो नहीं ही पाते हैं…।’ मेरे अचेतन की सीडी बजने लगी है ‘शक्ति की तुम करो भक्ति…’ और मैं उनकी ओर देखता हूँ, शायद वैसे ही, जैसे किसी खरगोश के बच्चे ने किसी बड़े बिडाल को देख लिया हो। वे पिघल उठती हैं–‘बच्चे, कोई पॉलिटिकल ऐपरोच नहीं है तुम्हारा? है तो लगाओ न…।’ मुझे लगता है कि बिडाल ने खरगोश के बच्चे को मुँह में दबा लिया है…। गर्दन से निकलता खून…! आवाज भी जैसे उस खून से सन गई है! ‘अगर ऐपरोच होती, तो क्या मैं बार-बार इसी तरह नौकरी से निकाला जाता?’ मुझे लगता है कि मेरी आवाज किसी अंधे कुएँ से आई है। सन्नाटा, अंधकार और रहस्यों से भरा वह कुआँ…। कितने लोगों ने इसमें कूदकर आत्महत्या कर ली है! ‘फिर तो बच्चे काफी मुश्किल है…।’ कुएँ का अंधापन गहराने लगा है।

वे चली गई हैं और सीढ़ियों के नीचे हतप्रभ-सा खड़ा मैं उन्हें जाते देख रहा हूँ। पॉलिटिकल ऐपरोच…! पैसे की शक्ति…! शक्ति की भक्ति…! शिष्यवाद…! सेक्सवाद…! जितने मुँह उतनी बातें। लेकिन ये सब तो बातें हैं इनका मैं क्या करूँ? अगर सचमुच मुझसे किसी को सहानुभूति है, तो वे इसका विरोध क्यों नहीं करते? और इसकी क्या गारंटी है कि जब बोलने वाले को मौका मिलेगा तो वे ऐसा नहीं करेंगे? आज तो देख ही रहा हूँ, कल तक तो मौका नहीं मिलने के कारण इन बातों की निंदा कर रहे थे, उन्होंने ही आज इनको अपने व्यक्तित्व का अंग बना लिया है। आज सबको कोठियाँ और बैंक बैलेंस तो चाहिए ही चाहिए और फोर व्हीलर तो पहली नीड है।

डंक…। डंक…। डंक…। बिच्छुओं का डंक…! मैं छटपटाने लगा हूँ। मेरे अंदर और बाहर कई बिच्छु रेंगने लगे हैं। जबतक जिसके हाथ में शक्ति नहीं होती, तभी तक कोई किसी के लिए सोचता है। मिस्टर अरोड़ा को तो देख लिया न? तुम किस मृगमरीचिका में फँसे हो?

मेरे सामने रोहित खड़ा है। मैं उसकी ओर देख रहा हूँ। मेरे पाँव थरथराने लगे हैं। मुझे लग रहा है कि उसकी आँखें मेरे मन को, मेरे चेहरे को, मेरे हाथों को, मेरे पाँवों को…और मेरे सारे शरीर को घूर रही हैं।

‘सर आप काँप रहे हैं। वैसे ठंड तो काफी बढ़ गई है। लेकिन…आपकी तबीयत तो ठीक है न?’

मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन कुछ बोल नहीं पाता। सारे शब्द जैसे ठंड में ठिठुरे, अकड़े बैठे हैं। भीतर से केवल शी…! शी…! की आवाज निकलती है। मैं केवल उसे देख रहा हूँ। क्या कहूँ? यह तो अभी बच्चा है।

‘सर, आज कॉलेज में कुछ लोग बातें कर रहे थे।’ रोहित की आँखें मेरे भीतर कीलें ठोकने लगी हैं और मैं दर्द से छटपटाने लगा हूँ। वह चुप हो गया है।

‘इंटरव्यू में मेरा सेलेक्शन नहीं हुआ बच्चा।’ मेरी आवाज इस बार किसी गहरी गुफा से आई है लेकिन इसे रोहित ने सुन लिया है, क्योंकि उसके भीतर लैंपपोस्ट की रोशनी बुझ गई है। गलती मेरी ही है। इन बच्चों से इमोशनल अटैचमेंट जरूरी तो नहीं है। मेरा काम पढ़ाना है। पढ़े या नहीं, डेवलपमेंट हो या नहीं हो, इससे मुझे कोई मतलब नहीं रखना चाहिए। क्राइम करता हूँ मैं। घर जाकर सबसे पहले सबके नंबर डिलिट करूँगा। ‘प्लीज कम बैक सर’ मैं रोहित को क्या हूँ? कैसे बताऊँ कि वर्षों के एसोसिएशन का दि एंड हो गया। ‘प्रोफेशन में भावनात्मक रिलेशन नहीं होता मिस्टर शर्मा…।’ बिच्छू के डंक की टीस मेरे पूरे शरीर में फैल गई है। आज कितने चेहरे ऐसे मिले, जिन्हें मैं हर दिन देखता तो था, लेकिन पहचानता नहीं था। साप्ताहिक बाजार में जैसे हम सब्जियाँ और दूसरी चीजें खरीदते थे, मोल-भाव करते थे और कभी सामान सस्ता मिल गया तो हम एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते थे।

‘केवल काम करते रहने से कुछ नहीं होगा। तुम्हारे डिपार्टमेंट में यहाँ सब तुम्हें एरोगेंट मानते हैं। मिस्टर अरोड़ा को तुम्हारे खिलाफ कर दिया गया है।’ डॉ. तिवारी ने गैलरी में मुझे देखा, तो रोक लिया। ‘क्या कहा गया?’ मेरी आवाज तल्ख हो गई। ‘यही कि तुम किसी के आगे झुकते नहीं हो। मिलने पर डिपार्टमेंट वाले को नमस्ते नहीं करते।’ डॉ. तिवारी की आँखों में कई प्रश्न थे, जैसे रेलिंग पर पंक्तियों में चीटियाँ चल रही हों। ‘नमस्ते तो उसे किया जाता है, जो इसका अर्थ समझे। यहाँ कोई अपने को मुकेश अंबानी समझता है तो कोई अपने को नरेंद्र मोदी…। नमस्ते करो तो भी तो व्यंग्य ही होता है। नौकरी बचाने के लिए अपने को कितना नीचे गिराऊँ? कितना झुकाना चाहते हैं वे मुझे?’ मेरी आँखों में दोपहर का सूरज उतरने लगा। ‘अरे! यह सब तो करना ही पड़ता है। भले ही यह समझ लो कि स्टेज पर प्रोग्राम कर रहे हो।’ डॉ. तिवारी मुस्कुराये। ‘वैसे, मिस्टर अरोड़ा से मिलकर देखो।’

‘मैं मिला था, लेकिन मैं जानता हूँ कि रंग बदलते उन्हें देर नहीं लगती। व्यावसायिक बुद्धि है। शब्दों से तो शहद टपकता है, लेकिन अंदर जहर भरा है। अपनी नजर में वे मोस्ट टैलेंटेड और सबसे अधिक ईमानदार हैं। जिन्होंने उनको आगे बढ़ाया आज वे उसी के खिलाफ खड़े हैं।’ कई स्मृतियाँ मेरे आसपास मँडराने लगीं और मेरे भीतर कड़वे सहजन का स्वाद भर गया। छी! सहजन भी इतना कड़वा होता है क्या? न नीम, न करैला, पता नहीं कैसा स्वाद है इसका?

‘किसी के सामने तुम अपने को ज्यादा बौद्धिक शो मत किया करो। जो छल, बल या जिससे भी तुमसे ऊपर आ गए हैं न, वे तुम्हें हमेशा अपने से नीचे ही देखना चाहेंगे।’ डॉ. तिवारी ने मुस्कुराकर मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। ‘हम सभी मनुष्य हैं भाई। सोबाई ऊपरे मानुष सोत्ति तार ऊपरे केऊ नाई…।’ वे खिलखिलाकर हँसने लगे। ‘यह मनुष्य भी बड़ा विचित्र जीव है।’ उन्होंने अपनी मुस्कुराहट मेरे ऊपर चढ़ाने की कोशिश की, लेकिन नहीं चढ़ा पाये। मेरा चेहरा धनुष की तरह तना ही रहा।

सर मैं तो केवल वही काम करता हूँ, जो मुझे दिया जाता है। लोग खुद ही कॉम्पलेक्स से भरे हुए हैं तो मैं क्या करूँ? दूसरे लोग तो कर ही रहे हैं, अब क्या मैं भी खुद को क्रश करूँ? सबकी अपनी-अपनी प्रवृत्ति होती है। कोई लेगपुलिंग करता रहता है और कोई अपने कामों में लगा रहता है। आपने भी तो कई लोगों से किनारा कर लिया है।’ पापा जी कहते हैं कि ‘तुम गुस्से में टेपरिकॉर्डर हो जाते हो, जब तक कैसेट खत्म नहीं हो जाता, तब तक बजते ही रहते हो।’ दोपहर की धूप से गैलरी तप रही है और डॉ. तिवारी का गोरा चेहरा ताप से रक्तिम होने लगा है।

‘मेरी बात और है। मैं परमानेंट हूँ और तुम एडहॉक बेसिस पर। कोई यह नहीं देखेगा कि तुम्हारी प्रोफाइल क्या है या तुम्हारी उम्र क्या है। सब यही देखेंगे कि तुम्हारी औकात क्या है। तुम जानते ही हो कि तुम्हें हटाने में इन्हें कितनी देर लगेगी।’ उनका चेहरा तमतमाने लगा। ‘जानता हूँ सर, सिर्फ चौबीस घंटे’ मेरे भीतर किसी ने जलती हुई कोई चीज फेंक दी, जिससे कुछ पिघला और मेरी आँखों के रास्ते से बाहर निकलने लगा। शायद डॉ. तिवारी के भीतर भी कुछ पिघल रहा था ‘देखो शर्मा। इनलोगों को न टैलेंट की जरूरत है और न अनुभवी लोगों की। इन्हें ऐसा व्यक्ति चाहिए, जो रोबोट की तरह इनका भी काम करे और जहाँ तक लेग पुलिंग का सवाल है तो आज देखो कितने लोग यही करके कहाँ से कहाँ पहुँच गए।’

‘सर सुनता हूँ कि परमानेंट सेलेक्शन में अर्थवाद और…’ उन्होंने बात काट दी क्योंकि जो कुछ मैं बोलना चाह रहा था शायद वे जानते थे, लेकिन सुनना नहीं चाहते थे। बोले ‘देखो जी, सुनता तो मैं काफी कुछ हूँ, लेकिन हो सकता है कि सब फ्रस्ट्रेशन में कही हुई बातों का मुरब्बा हो। तुम्हारे पास कोई प्रमाण है क्या? और जब तक प्रमाण नहीं मिले, तुम किसी के लिए कुछ कैसे कह सकते हो?’ मेरी आँखों में पिघली तरल चीजें कुछ ठोस बनने लगी थीं। ‘कई प्रोफेसर तो इसी के कारण सस्पेंड भी हुए हैं।’ डॉ. तिवारी दिल के अच्छे तो थे ही दिमाग के भी सुलझे हुए थे। बोले ‘वैसे, हो तो बहुत कुछ रहा है इस यूनिवर्सिटी में। यहाँ ही क्या दूसरी जगह जाओ तो और भी दुर्गंध फैली है लेकिन ताकत के विरुद्ध तुम लड़ पाओगे क्या? यह ताकत पैसे का है और पावर का भी। फिर तुम्हें तो नौकरी भी चाहिए, तो चुप तो रहना ही पड़ेगा। अगर आवाज उठाओगे तो कुचले जाने में कितनी देर लगेगी, क्योंकि तुम्हारे पास न पैसा है और न पावर।’

शब्द फूँफकारते हैं, इसके फन होते हैं और ये कुंडलियाँ मारकर भी बैठते हैं। यह आज मैंने जाना है। वैसे जब डॉ. तिवारी स्टाफ एसोसियेशन के प्रेसिडेंट थे, तब कई बार उन्होंने मेरे लिए मिस्टर अरोड़ा को कहा भी है, लेकिन मिस्टर अरोड़ा एक बात पर टिक नहीं पाते हैं। वे कान के काफी कच्चे भी हैं जिससे उनके भीतर कब कौन-सा रंग गाढ़ा होगा कहा नहीं जा सकता।

‘सर प्लीज अब आप घर चले जाइए।’ मैं चौंककर देखता हूँ कि रोहित अभी भी मेरे साथ ही खड़ा है। पता नहीं मैं कब से गीले पत्थर पर बैठा हुआ हूँ। ठंड मेरी हड्डियों में घुसने लगी है। पैर अकड़ गए हैं। उठने की कोशिश करता हूँ, लेकिन उठा नहीं जा रहा है। अब बैठा भी नहीं जा रहा है। बर्फीली हवाएँ भीतर छेद करके मेरे चिथड़े करने पर तुली हैं, लेकिन अब मैं उसे चुनौती भी नहीं दे सकता।

‘बच्चे…तुम…अभी तक नहीं गए?’ मेरी आवाज भी मेरे पैरों और हड्डियों की तरह ही हो गई हैं, बिल्कुल बेजान। रोहित ने मुझे देखा है, जैसे कोई पिता अपने बच्चे को देखता है, ममत्व से भरकर, जैसे कि वह सारी प्रतिकूलता से मुझे उबार लेगा। ‘सर, मुझे लगा कि आपके साथ किसी का होना अभी जरूरी है। मैं काफी देर से आपसे बोल रहा हूँ लेकिन पता नहीं शायद आप खुद में ही कहीं खो गए थे…।’ उसकी आवाज भींगी हुई है, गर्म पानी से निकले भाँप की तरह।

‘बच्चे प्रोफेशनल बनो, भावुक नहीं, नहीं तो काफी चोटें मिलेंगी।’ वहाँ फैली मरियल रोशनी में मेरी हँसी ने शायद एक विभाजक रेखा खींच दी है, अंधकार और प्रकाश के बीच। ‘हर आदमी की अपनी प्रकृति होती है। आप ही कहा करते हैं। अब उठिये सर’ उसने मेरा हाथ पकड़ना चाहा है, लेकिन मैंने अपने को खींच लिया है। ‘नहीं रहने दो। आदमी को अपना सहारा आप ही बनना चाहिए।’

‘जानता हूँ सर, आपने ही महात्मा बुद्ध का यह कोटेशन दिया था कि अपना दीपक स्वयं बनो, लेकिन मैं आपके साथ आपके घर तक तो जा ही सकता हूँ न?’ मैं उसकी ओर देखता हूँ। स्ट्रीट लाइट में उसका चेहरा बुझा हुआ है। ‘प्रोफेशनल रिलेशन में भावुकता नहीं चलती मिस्टर शर्मा…।’ डंक…! डंक…! फिर से वही बिच्छु का डंक। प्रोफेशनल रिलेशन तो वहाँ था सबके साथ, जो खत्म हो गया। लेकिन रोहित…! नहीं, इसके चेहरे पर सच्चाई है, छल नहीं। इसकी आँखें झूठ नहीं बोल रहीं। मैं उठता हूँ, लेकिन मेरे पैर थरथरा रहे हैं। रोहित ने फिर से अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया है, जिसे थामकर मैं सोचने लगा हूँ कि प्रोफेशनल लोगों के बीच भी रियल रिलेशन बन ही जाता है, जो अंधेपन के अँधेरे में रोशनी बनकर साथ रहता है।

रोहित मेरे साथ चल रहा है तंग गलियों में। नालियों की सड़ी गंध मेरे नथुनों में जबरदस्ती घुसने की कोशिश कर रही है। जानता हूँ रोहित भी इसी दुर्गंध को झेल रहा होगा। आस-पास के मकानों से पानी रिसकर जगह-जगह फैल रहा है। ‘जब दीवारों से पानी रिसता है, तो वह स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता सर, ऐसे में मकान को तो बदल ही लेना चाहिए।’ मैंने रोहित का हाथ छोड़ दिया, लेकिन उसकी ये बातें सीढ़ियों पर, बरामदे में और ड्राईंग रूम में भी मेरे साथ-साथ ही रहीं।

पापा जी सोफे पर बैठकर टीवी देख रहे हैं। कन्हैया कुमार सिंह का विरोध…। विरोध का विरोध…। पटियाला हाऊस में पत्रकारों के साथ मारपीट…। पता नहीं कौन सही है और कौन गलत? लगता है कि सिम्मी की गोद में ही रिंकी सो गई है, लेकिन उसने उसे पलंग पर नहीं सुलाया है। वहीं पापा जी के पास ड्राईंग रूम में बैठकर उसे थपक रही है।

मुझे देखते ही सिम्मी बेचैन हो गई है ‘आप कहाँ रह गए थे? आपका मोबाइल भी स्वीच्ड ऑफ था। बाहर कितनी शीतलहरी चल रही है। पापा जी भी कितने परेशान थे।’ मैं उसे बिना कुछ कहे सोफे पर निढाल-सा बैठ गया हूँ। सामने कुछ बिसरा पड़ा है…तिनके, कुछ चीजों की कतरने, रूई जैसी कुछ भूरे रंग की मुलायम चीजें…और न जाने क्या-क्या!

‘यह सब क्या है सिम्मी?’ सुनकर पापा जी और सिम्मी ने एक साथ उधर देखा है, जिधर मेरी उँगली उठी है।

‘अरे…रे…रे…! च…च…च! काफी दिनों से चिड़ियाँ उधर अपना घोंसला बना रही थी, किसी ने उसे नीचे गिरा दिया है।’ पापा जी की आँखों में दर्द भरने लगा है।

‘कुछ देर पहले दो बिडाल लड़ रहे थे। जरूर उन्हीं का यह काम होगा। पता नहीं ये बिडाल भी यहाँ कहाँ से आ जाते हैं?’ सिम्मी ने उधर देखा, जिधर से वे सारी चीजें नीचे गिरी थीं। दो-चार तिनके अभी भी ऊपर बिखरे दिख रहे थे। सिम्मी उसे देख रही थी जैसे कह रही हो ‘सब कुछ जब गिरा ही दिया तो उसे भी क्यों छोड़ दिया?’ मैं भीतर से सिहरने लगा हूँ। उसके भीतर कभी-कभी जब कुछ बिखरता है तो सब कुछ ही बिखर जाता है और समेटने की कोशिश में भी कुछ-कुछ बिखरा ही रह जाता है।

‘बिडालों का यही तो काम है। वे तो जब भी मौका मिलेगा, हर जगह पहुँच ही जाएँगे। प्रकृति में भी शक्ति का काफी मिसयूज होता है।’ पापा जी मेरे पास आकर बैठ गए। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा तो दीवारें भरभराकर टूटने लगीं, मैं भी जैसे दीवार ही बन गया। बनाने और टूटने का दर्द मेरे भीतर है जो मुझे और अधिक तोड़ने लगा है। वे मेरे बिल्कुल पास खिसक आए हैं, बचपन में वे मेरे पास होते थे। उन्होंने मेरे कंधे पर अपना हाथ रख दिया है जैसे अर्जुन को कृष्ण ने बिना कुछ बोले ही आश्वस्त कर दिया हो। लेकिन दीवारें फिर भरभराई, टूटीं और गिरीं, जिसमें मेरी घुटी हुई आवाज दबने लगी। शायद मैंने कहा था ‘पापा जी मेरी नौकरी फिर से छीन ली गई है।’

पापा जी ने रिमोट से टेलीविजन को म्यूट कर दिया। ‘खाना खा लो और सो जाओ, वेबसाइट पर मैंने रिजल्ट देख लिया है।’ वे इतने निश्चिंत कैसे हैं, सब कुछ जानकर भी? मुझे घबराहट होने लगी है। खिड़की का शीशा टूटा है। काँच आकर मेरे ऊपर गिरी है, कुछ उछलकर सिम्मी को लगी है। आँखों में, नाक पर, गालों पर खून के छींटे…। बिडाल ने चिड़िया को मारने की कोशिश की। इतनी क्रूरता…! शक्ति का इतना दंभ…! क्या हर जगह ऐसा ही है?

‘घबराओ नहीं, दो-तीन महीने तक सब कुछ आराम से चल जाएगा। इस बीच कहीं न कहीं कोई रास्ता तो निकलेगा ही। केवल अपने को कमजोर मत होने देना। दूसरों की नजर में तो बिल्कुल नहीं, क्योंकि ऐसे वक्त में लोग इसी तरह मजाक उड़ाते हैं। बेटे यही मनुष्यों की दुनिया है।’

शीशे की काँच से घायल सिम्मी चिड़िया बन गई है। बिडाल से घायल हुई चिड़िया! मैं जानता हूँ कि पापा जी के सपने इन खिड़कियों में थे, जिनसे वर्षों से वे बाहर की दुनिया देख रहे थे। पर अब उनके शीशे टूट गए हैं, जो टूट नहीं सके वे चनक गए हैं। पर उन्होंने अपनी जिंदगी के पैंसठ वर्षों में आँसुओं को भी म्यूट करना सीख लिया है। ‘क्या मुझे भी यह कला सीख लेनी चाहिए?’ अचानक जैसे मैं खुद से ही पूछने लगता हूँ।

‘बिडालों से डरो मत! नहीं, तो वे तुम्हारे ऊपर उछल पड़ेंगे।’ पापा जी ने मुझे बचपन में कहा था। बिडालों की हरी-भूरी आँखें मुझे बेहद डराती थीं। वे कब आकर  आक्रमण कर दे, कहा नहीं जा सकता क्योंकि उनके पैरों की आवाज नहीं होती। मैं उनके कंधे पर अपना सिर रखकर अपने भीतर महसूस करना चाहता हूँ वही डंक…वही दंश…वही जहर जो सुबह में मेरी जिंदगी को मुझसे छीन रहा था, लेकिन मैंने ऐसा कुछ भी महसूस नहीं किया। ‘दीवारों से पानी रिसने लगे सर तो वह स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता…’ रोहित की आवाज मेरे भीतर गूँजी है लेकिन यहाँ मेरे आस-पास की सारी दीवारें सूखी हैं। कहीं से भी पानी नहीं रिस रहा है पर वे दो बिडाल अब भी कहीं मेरे पास हैं, जिनकी हरी-भूरी आँखे अभी भी मुझे घूर रही हैं, जिन्होंने चिड़िया का घोंसला निर्ममता से तोड़कर वेंटिलेटर से नीचे गिरा दिया है।


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Artist : Yeghishe Tadevosyan
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