जो सोचा वो कब हुआ

जो सोचा वो कब हुआ

यामिनी को सीनियर सिटीजन हाउसिंग सोसाइटी में शिफ्ट हुए दो महीने से ज्यादा हो चुके थे। बेटे द्वारा अपराधी बनाए जाने की पीड़ा उसके दिल और दिमाग से निकल ही नहीं रही थी। बेटे की बातें सोते-जागते टुकड़ों में आकर उसका खाना-पीना हराम किए हुए थी। अब उसका मन भीतर ही भीतर टूटने लगा था।

एकाएक यामिनी के दिमाग में खुद के पागल होकर सड़कों पर घूमने की कल्पना जैसे ही प्रविष्ट हुई; उसने जल्द से जल्द इस सोच से बाहर आने का निर्णय लिया। पागल हो जाने के बाद तो उसे सँभालने वाला भी कोई नहीं था। अपने भविष्य के लिए जरूरी निर्णय लेने से पहले उसने पुनः एक बार अतीत के पृष्ठों की उलट-पुलट करने का सोचा।

उस रोज़ भी देर रात लगातार बजती डोरबेल की आवाज़ सुनते ही सोई हुई यामिनी झटके से उठकर खड़ी हो गई थी। बेटे का इंतज़ार करते-करते कब कुर्सी पर बैठे-बैठे झपकी लग गई थी; उसे पता ही नहीं चला। दरवाज़ा खोल कर घंटी पर रखी हुई बेटे की उँगली को हटाया; फिर उसे सहारा देकर कमरे तक ले आई।

नशे में धुत्त बेटे के शरीर के भार ने छोटी-सी दूरी को एकाएक मीलों की दूरी तय करना महसूस करवा दिया था। अनायास यामिनी की साँस धौंकनी-सी फूलने लगी थी। पल भर को लगा किसी ने उसके दिल को मुट्ठी में लेकर कसकर निचोड़ दिया हो और वह गिरफ्त से छूटने की जद्दोजहद में पसीने-पसीने हो गई हो। निढाल यामिनी ज्यों ही अपने बिस्तर पर लेटी उसके अंतर्मन ने कचोटा…‘क्या उसने और जतिन ने इसी दिन के लिए इतना संघर्ष और भाग-दौड़ की थी? जिस सुख की चाहना थी, वह कहाँ खो गया?…’ उसके संपूर्ण जीवन की मेहनत के इर्द-गिर्द शून्य सिमटकर रह गया था। गुज़रे हुए तीन सालों से यामिनी हर दिन ही ऐसे प्रश्नों से जूझ रही थी; जिन्होंने उसकी नींद हराम कर रखी थी।

रिटायर होने के बाद यामिनी के पास समय ही समय था। वह चिराग के स्वास्थ्य को लेकर बहुत चिंतित थी। नशे में बोली हुई बेटे की बातें उसके मन को आहत करने वाली थी। उसने सभी बातों के विश्लेषण करने की रफ्तार बढ़ा दी थी। वह अपनी भी गलतियों को खोजना चाहती थी, ताकि कोई समाधान निकल सके।

बढ़ती उम्र में शारीरिक कष्टों के साथ मानसिक यंत्रणाओं का भी बढ़ना यामिनी को असहज कर रहा था। नित चिराग का नशे में गाड़ी चला कर घर लौटना यामिनी को चौबीस घंटे दहशत में रखता था। चिराग न सिर्फ़ अपनी जान का दुश्मन बन रहा था, बल्कि वह सड़क पर चलने वाले मासूमों के लिए खतरा साबित हो सकता था।

अगले ही दिन सुबह रसोई के काम निपटाते समय ज्यों ही चिराग ने आवाज दी, उसके विचारों की शृंखला टूट गई…‘मम्मा! प्लीज चाय बना दो।…बारह बजे मीटिंग है। लंच अपने साथ लेकर जाऊँगा। डिनर घर पर नहीं करूँगा, दोस्तों के साथ है।’

‘डिनर दोस्तों के साथ है?’… चिराग की बात सुनते ही यामिनी के शरीर में खौफ़ भरी झुरझुरी दौड़ गई थी।

डिनर के साथ ड्रिंक्स होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। कुछ दिनों पहले ही चेकअप के लिए अस्पताल जाते समय, यामिनी को उसकी कार सीट के नीचे अल्कोहल की खाली बोतल रखी हुई दिखाई दी थी। खुद के सीने में दर्द होने की वजह से वह उस समय चुप रही। उसे बात करने का बाद में भी कोई मौका नहीं मिला।

उस रोज़ भी देर रात सोया चिराग ग्यारह बजे उठकर ऑफिस जाने की तैयारी में लग गया था। ऑफिस जाते हुए बेटे को टोकना या सलाह देना यामिनी की आदत नहीं थी और बेटा कभी होश में घर लौटता नहीं था। दोनों के बीच चुप्पी बढ़ती जा रही थी। उसके लिए यामिनी की उपस्थिति के कोई मायने नहीं थे। बेटे का कुछ फ़रमाइशों के अलावा उससे कोई संवाद नहीं था। यह बात उसकी परवरिश पर भी प्रश्नचिह्न खड़े करती थी।

दूसरे शहर में ग्रेजुएशन और एम.बी.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद चिराग को अपने ही शहर में नौकरी मिल गई थी। पिछले तीन साल से माँ और बेटा साथ थे।

हालाँकि पहले भी यामिनी और जतिन के कामकाज़ी होने से उन तीनों के बीच गप्प-शप जैसी बातचीत नहीं होती थी, मगर ज़रूरी बातों का आदान-प्रदान होता था। यामिनी छुट्टी वाले दिन चिराग के साथ कुछ अधिक वक्त गुज़ारने की भरसक कोशिश करती थी। हफ्ते के अंत में जतिन जब भी अपनी कंपनी के टूर से लौटता, परिवार के साथ ही समय गुज़ारता।

शुरुआत से ही यामिनी को चिराग का मन टटोलने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। जितना वह उसके साथ दोस्ती करने की कोशिश करती, वह उतना ही कछुए के जैसे ख़ुद को शेल में बंद कर लेता।

छुट्टी वाले दिन जतिन उसके साथ कोई गेम्स खेलने की कोशिश करते, वह अधिक होम-वर्क का बहाना बनाकर अपने ही कमरे में वक्त गुज़ारता। यामिनी ने डॉक्टर से भी सलाह ली थी। उनका कहना था… ‘अगर बच्चे के व्यवहार में अन्य कोई दूसरी अप्राकृतिक बात दिखाई नहीं दे रही तो उसे अपनी बातें बताने और अपने साथ काम करने के लिए प्रोत्साहित करिए। सब ठीक हो जाएगा।’ यामिनी और जतिन ने बहुत जतन किए, मगर वे चिराग की दुनिया में नहीं घुस सके।

जिस गृहस्थी की नींव यामिनी और जतिन ने मिलकर रखी थी, उसकी खुशियों और समस्याओं में दोनों की बराबर की साझेदारी थी। जतिन के असमय ही चले जाने से वह अकेली ही सभी समस्याओं से जूझ रही थी।

बेटे की नौकरी लगने के बाद यामिनी ने दबे स्वरों में उसे कई बार टोका, मगर चिराग ने न अपना शेड्यूल बदला, न ही आदतें बदली। जब उसकी हरकतें सांत्वना देने की बजाय डराने लगी, यामिनी ने खुलकर बात करने का सोचा। परिस्थितियों ने उनके रिश्ते को इतना औपचारिक बना दिया था कि बात शुरू करने से पहले यामिनी को बार-बार सोचना पड़ रहा था।

‘बेटा! थोड़ा वक्त मेरे साथ गुज़ारोगे तो अच्छा लगेगा। हर रात तुम्हारा नशे में आना; मुझे चिंतित करता है। मैं तुम्हारी खुशियों और परेशानियों को जानना चाहती हूँ।’

यामिनी के बात शुरू करते ही एक गहरी चुप्पी के बाद चिराग मानो फट पड़ा था। उसके उलटवारों ने यामिनी को झँझोड़ कर रख दिया। रात के नशे का हैंग ओवर था या अन्य कोई तनाव एकाएक वह समझ ही नहीं पाई।

‘आप और पापा भी तो अपनी युवावस्था में व्यस्त ही थे। अगर मैं भी व्यस्त हूँ तो आप उलाहना क्यों दे रही हैं?’

चिराग के इस तरह बात शुरू करने से यामिनी अकस्मात सकपका गई थी।

‘बेटा! ये उलाहना देना नहीं है। तुम्हारा हर रोज़ नशे में लौटना, शायद हमारी बातचीत के बँधने वाले उन सिरों को भी काट देता है, जो बातें हम साथ वक्त गुज़ारने पर करते। मैं तुम्हारे साथ वक्त गुज़ारना चाहती हूँ।’

यामिनी ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि चिराग ने बीच में ही उसकी बात काटते हुए कहा…‘आज यह सब बातें क्यों? मैं भी तो आप दोनों की अनुपस्थिति में घर की बाई के साथ वक्त गुज़ारता था। तब आप दोनों में से कोई भी इस विषय पर क्यों नहीं सोच पाया?’

‘सोचा क्यों नहीं? तुम्हारे पापा और मेरे कामकाज़ी होने से वक्त की कमी थी, मगर हमने तुम्हारे साथ हमेशा वक्त गुज़ारना चाहा। हमारे पास ख़ुद की कमाई के अलावा घर परिवार चलाने और तुम्हें अच्छी एजुकेशन देने के लिए, विरासत में मिला हुआ खजाना नहीं था। यह बात तुम अच्छे से जानते हो बेटा। छुट्टी वाले दिन मेरी और तुम्हारे पापा की भरसक कोशिश रहती थी, तुम्हारे साथ अधिकतम वक्त गुज़ारें मगर तुम…’

यामिनी की पूरी बात बगैर सुने ही चिराग उस पर वार कर रहा था…‘आपकी हर रोज़ की भाग-दौड़ में मेरे अधिकतर काम बाई के ज़िम्मे होते थे। जिस बाई को आपने घर के कामों के लिए रखा था, वही मुझे बरगलाकर पीड़ित करती रही। खाने-पीने से जुड़ी कोई भी ख्वाहिश पूरी करवाने के लिए मुझे उसकी चाहत पूरी करनी पड़ती थी। जब समझ आने लगा, बहुत कुछ भूलने के लिए दोस्तों के साथ नशे की लत पाल ली। मम्मा! मैं नहीं भूल पाता हूँ…उन चोटों को जिन्हें आपके विश्वास तले रौंदा गया।’

एकाएक चिराग की बातें पिघले सीसे के जैसे यामिनी के दिल और दिमाग में उतरती चली गई। अपने बेटे के साथ हुए शारीरिक दुर्व्यवहार की बात सुनकर यामिनी के रोंगटे खड़े हो गए थे। कुछ ऐसा उनके बेटे के साथ हो सकता है वह और जतिन कभी सोच नहीं पाए। उसे तो लगता था कि हरेक बच्चे को अपनी परेशानी सबसे पहले माँ-पापा से साझा करनी चाहिए। यही परिवार के मायने होते हैं। उसने बेटे को सफाई देते हुए कहा…‘अगर बाई तुम्हें चोट पहुँचाती थी तो हमें बताते; तभी तो हम कोई निर्णय लेते। हमारी तो चाहना बस यही थी कि तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ें। क्रेश में हमेशा काफ़ी बच्चे रहे। आठवीं तक तुम्हारा स्कूल डे-बोर्डिंग था। नवीं क्लास के बाद ही तुम अकेले रहे होंगे। तेरह-चौदह साल के किशोर से गलत और सही बात को समझने की उम्मीद की जाती है। तुम्हारे साथ जब भी कुछ गलत होना शुरू हुआ; तुमने बताया क्यों नहीं?’

‘किशोरावस्था में नशे की लत के साथ, शरीर की लत लगना, आप सोच भी नहीं सकती थी मम्मा। जिस समाज से आप आई थीं, वहाँ विश्वास बहुत बड़ी चीज़ थी। बड़े शहरों में विश्वास में सेंध लगाने वाले बहुत लोग होते हैं।…यह बात आप दोनों को कैसे समझ नहीं आई?’

‘बेटा! माँ-बाप की व्यस्तताएँ अपने बच्चों के भविष्य के लिए होती है। तुम्हारे  नाना-नानी भी तो कामकाजी थे। हम भी घर में अकेले काफ़ी वक्त गुज़ारते थे। हमारे पास तो ज़रूरत भर के नौकर होते थे। घर के कामों से फ़ुर्सत पाते तो अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी करते थे।’

यामिनी चिराग को बच्चे के जैसे समझाने की कोशिश कर रही थी, मगर बेटे की सोच में उसकी बातों की जगह कहीं भी नहीं थी। बगैर सोचे-समझे वह जितना कड़वा बोल सकता था लगातार बोल रहा था।

‘आप दोनों तो ताउम्र वीकेंड पेरेंट्स ही बने रहे। जिस बच्चे ने हफ्ते के सात दिनों में से छह दिन अकेले परेशानियों को झेला हो, उसे अकेले रहने की आदत डालने वाले आपलोग ख़ुद हैं।’

वीकेंड पेरेंट्स नाम से संबोधित होते ही यामिनी के शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई थी। उसकी आँखों की नमी कोरों तक पहुँच गई थी। उसके तो आँसू पोंछने वाला भी कोई नहीं था। बड़े शहर की संस्कृति ने उसे अँग्रेजी में ही तमाचा मारा था। घर, परिवार और बेटे की परवरिश के इर्द-गिर्द घूमती जिंदगी, सातों दिन परिवार के लिए थी, मगर बेटा सिर्फ़ कमियाँ गिना रहा था।

यामिनी के माँ-बाउ जी भी जब काम पर जाते थे, सभी भाई-बहन माँ का काम कम करने का सोचते। उनके मन में यही ख्याल रहता कि माँ थकी हुई आएगी, उनके काम जल्द निपटा दें ताकि वह कुछ देर आराम कर सके। बाउ जी के लिए कुछ खास बना दें, ताकि वह आशीर्वाद दें। अपने ही बनाए घर में अपने ही बच्चे से प्रताड़ित होने की पीड़ा क्या होती है; यामिनी महसूस कर रही थी।

उस रोज़ यामिनी ने मानसिकताओं में आए हुए नाज़ायज़ बदलावों को बहुत क़रीब से महसूस कर लिया था। बेटे ने तो हर बात के लिए अपने माँ-पापा को ज़िम्मेदार ठहरा दिया था।

चिराग की बातों ने उस वक्त यामिनी को अपराधी बना कटघरे में लाकर ऐसा  खड़ा किया; वह खुद को तनाव से बाहर ही नहीं निकाल पा रही थी। वह जितना ख़ुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश करती, चिराग की बातें उसे वापस कटघरे में खड़ा कर देती।

वीकेंड पेरेंट्स…यामिनी बार-बार इन्हीं दो शब्द के बीच घूम रही थी। चिराग भूल गया था कि ग्यारहवीं के बाद उसकी नशे की लत छुड़वाने के लिए डी-एडिक्शन सेंटर में उसकी माँ ही साथ थी। वह डेढ़ साल के विदआउट पे अवकाश पर उस समय थी; जब घर और गाड़ी के लोन की किस्तें चल रही थी। कोई भी माँ-बाप अपने बच्चों को ऐसी बातें नहीं बताते, क्योंकि प्रेम में जताना छोटापन होता है। जब सोचने का तरीक़ा ही गड़बड़ा जाए तो विवेक भी कहीं गुम हो जाता है।

बेटे को डिग्री मिलने के साल भर बाद तक जब नौकरी नहीं मिली; तब यामिनी ने अपने मित्रों की मदद से नौकरी दिलवाई थी, ताकि नौकरी न होने की वजह से बेटा अवसादित न हो जाए।

यामिनी के लिए उस सरकारी नौकरी को छोड़ना आसान नहीं था; जिसे पाने के लिए उसने असाध्य श्रम किया था। आज उसी नौकरी के भरोसे रिटायरमेंट के बाद पेंशन मिलने से उसकी निशक्त होती काया को संबल था।

यामिनी बार-बार ख़ुद से ही प्रश्न पूछ रही थी… ‘उनसे चूक कहाँ हुई? बेटे को जो संस्कार और मूल्य देना चाहती थी, वह क्यों नहीं दे पाई? ख़ुद को इस फ्रंट पर हारते हुए देख, अचानक चोटिल माँ का मन फूट पड़ा था…‘वीकेंड पेरेंट्स…जिस माँ-पापा का नौकरी के बाद घर आना हर रोज़ तय था, उनके लिए तुम्हारी यह शब्दावली उम्र के इस पड़ाव पर सुननी पड़ेगी, मैंने कभी नहीं सोचा था बेटा! हम कभी किसी रात-बेरात की पार्टियों में नहीं गए? जहाँ भी गए तुम्हें साथ लेकर गए। मुझे लगता था कि तुम्हें मानसिक और शारीरिक तौर पर समर्थ बना रही हूँ, मगर समर्थता की परिभाषा अगर यह होती है, तो मेरे लालन-पालन पर बड़ा-सा प्रश्नचिह्न जड़ गया है।’

एक गहरी साँस लेकर यामिनी ने अपनी बात पूरी की थी…‘हम भी थकते और परेशान होते थे, मगर हमने किसी नशे की आदत नहीं डाली? जो भी समय बचता तुम्हारे लिए ही होता था। अगर तुम्हें कहीं पीड़ा थी, तो हमें बताते बेटा। ख़ुद के मनचाहे स्वार्थों की पूर्ति में तुम माँ-पापा की उपस्थिति को कैसे नकार गए?… बहुत आसान होता है, उन लोगों पर दोष मढ़ देना जो आपसे प्यार करते हों, क्योंकि प्यार करने वाले रिश्तों की अहमियत जानते हैं। किसी की चुप्पी को अपनी जीत समझ लेना भूल होती है।’

‘भूल होती है…सच कहा माँ। भूल सबसे होती है। आप दोनों के पास तसल्ली से बैठकर बात करने का समय कब रहा? बताइए…वीकेंड पर घर के बाहर के कामों की लिस्ट कभी खत्म हुई थी क्या? सिर्फ़ खाने-पीने और पढ़ाई का ध्यान रखना, सब कुछ देना नहीं होता।’

यामिनी को चिराग की बातों से बहुत पीड़ा होने लगी थी। वह माँ-पापा के किए हुए को सकारात्मक तरीके से सोच ही नहीं पा रहा था। यह कैसा खोखला जनरेशन गैप था, जिसके गर्त में कौन जा रहा है?… उसी को नहीं पता था।

कितनी भी बहस कर लो? या कितनी भी गलतियाँ निकाल लो, जीवन में कितना कुछ अनकहा रह जाता है; यामिनी को उस रोज़ महसूस हो गया था। तभी अचानक चिराग ने कहा था…‘सब बातों को यहीं खत्म करिए माँ। माँ-बाप कभी भी गलत नहीं होते। जो जैसा चल रहा है, चलने दीजिए। अगर कुछ ज्यादा बोल गया हूँ…तो सॉरी। अब हम भविष्य में इस टॉपिक पर बात नहीं करेंगे।’

कितनी आसानी से बेटे ने अपनी माँ को अपराधिनी बनाकर, भविष्य में हो सकने वाले संवादों के सिरों को भी काट दिया था। उसे कोई अपराध बोध नहीं था, बल्कि उसने तो बहुत कुछ सोचने का बोझा अपनी ही माँ पर डाल दिया था।

हर रात बेटे का नशे में आना, उसके खाने-पीने का इंतजाम करना, यामिनी के लिए अब इस उम्र में मन शांत रखने में सहायक नहीं था। चिराग को सिर्फ़ सोने के लिए घर चाहिए था। बहुत शालीन, सौम्य और शांत दिखने वाला चिराग भीतर ही भीतर कितना क्रोध समेटे हुए है, यामिनी को उस रोज पता चल गया था। ऐसे में उसका मन आर्तनाद कर बुदबुदा उठा था…‘काश! तुम साथ होते जतिन। जो हम देख और सोच भी नहीं पाए, बेटा दिखा रहा है।’

बेटे द्वारा अपराधी बनाए जाने के बाद यामिनी अब उससे छोटी-सी भी चाहना नहीं कर सकती थी। रिश्ता कोई भी हो अपने स्वाभिमान को मार कर जीना बहुत मुश्किल होता है। उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि अपना बनाया हुआ घर ही छोड़ना पड़ेगा। अब बेटे के साथ रहना; अपनी पीड़ाओं को खुद ही बढ़ाना था। वह चाहती तो जतिन को अलग घर में रहने का कह सकती थी, मगर उसकी ममता इतनी निष्ठुर नहीं हो सकती थी।

जब यामिनी ने अपने मन कड़ा कर सीनियर सिटीजन हाउसिंग सोसाइटी वाले घर में शिफ्ट होने का मानस बनाकर चिराग को सूचित किया, वह बोला…‘आप उस घर में क्यों जाना चाहती हैं? यही रहेंगी तो दोनों को सहूलियतें रहेगी।’

चिराग की सोच सिर्फ़ सहूलियतों के इर्द-गिर्द केंद्रित थी। उसकी बातों में अपनी माँ को हक़ से रोकने के भाव कहीं भी नहीं थे। अपनी ही संतान में माँ-पापा के प्रति इतने द्वेष भरे हो सकते हैं; यामिनी स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी। तभी वह मन ही मन बुदबुदा उठी थी…‘चिराग! तुमने तो वीकेंड बेटा भी नहीं बनना चाहा। जब रहना ही अकेले है, तो यहाँ रहूँ या वहाँ क्या फर्क़ पड़ता है? कम से कम तुम्हें हर रोज़ नशे में आता हुआ तो नहीं देखूँगी। एक बार नशा छोड़ने के बाद, वापस नशे की ओर  लौटना, तुम्हारा निर्णय था बेटा। किसका भविष्य क्या होगा? कौन जाने?’

फिर यामिनी ने खुद को संयत कर चिराग से कहा था…‘बेटा! सहूलियतें क्षणिक सुख की अनुभूतियाँ देती हैं। दोनों घरों के बीच मात्र आधा घंटे की दूरी है। जब अपनी माँ के पास आने का मन हो, आ जाना। मुझे अच्छा लगेगा। कभी मेरा मन हुआ तो मैं भी यहाँ आ जाऊँगी। नशे की आदत भी एक बीमारी है। जब इसे छुड़ाने के लिए कड़ा मानस बना लो; तुम्हारी माँ साथ खड़ी मिलेगी।’

‘यह आपका आख़िरी निर्णय है?’

‘आख़िरी कुछ भी नहीं होता बेटा! परिस्थितियाँ बदलने पर निर्णय भी बदलने पड़ते हैं। अपनो का लौटना हमेशा खुशियाँ देता है।’

कुछ इस तरह का निर्णय लेकर वह अपने बेटे को चेतनाशून्य होने से बचा लेने की भी कोशिश कर लेना चाहती थी। वह सोचती थी कि अगर रिश्ते की कमी का अहसास भटके हुए बेटे को राह दिखा दें, तो एक माँ की जीत ही होगी। यामिनी अपनी बात बोलने के बाद बिल्कुल खामोश हो गई थी। घर से निकलते वक्त जब उसने बेटे को गले लगाया, उसे छुटपन वाला चिराग बहुत याद आया; जिसे माँ चाहिए होती थी।

यामिनी वीकेंड पेरेंट्स नाम के तमगे को उसी घर में ही छोड़ आई थी। उसकी निशक्त होती काया भी कितने बोझ उठाती; जब उसका जीवन बोझ हल्के करने के पड़ाव पर पहुँच चुका था।

*****

अचानक घर की डोर बेल बजने से जैसे ही यामिनी ने दरवाज़ा खोला उसकी हमउम्र पड़ोसन मीता खड़ी थी। मुस्कुराते हुए उसने यामिनी को हैलो कहा और बोली…‘यामिनी! जब से तुम इस सोसाइटी में आई हो; घर में ही बंद हो। यहाँ से कुछ दूरी पर ही सूर सदन है। वहाँ काफ़ी म्यूज़िकल कॉन्सर्ट और थियेटर शो होते रहते हैं। मैं अक्सर अकेली ही जाती रही हूँ। तुम्हारी कंपनी रहेगी तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा।’

मीता की बात सुनकर यामिनी के चेहरे पर एकाएक सुकून पसर गया। उसे अपना मन बदली करने के लिए ऐसे ही परिवर्तन की आवश्यकता थी। अतीत से जुड़ी सभी कड़वी स्मृतियों को भुलाने के लिए, इससे अच्छा विकल्प फिलहाल कोई और नहीं था। यामिनी ने मुस्कुराकर मीता को साथ चलने के लिए हाँ कह दी।


Image : Portret Starice (Portrait of An Old Woman)
Image Source : WikiArt
Artist : Nadezda Petrovic
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प्रगति गुप्ता द्वारा भी