माला

माला

राजेश ने आँखें चुराकर देखा कि वह बाला बड़े मौज से अपनी ठुड्डी उसके दाहिने हाथ पर रखे सामने के दृश्यों को निहार रही है। उसने जरा कसमसाहट जाहिर की मगर उसे तो कोई परवाह ही नहीं; बस, वह तो मोटर पर उसी तरह बैठी शहर के तमाशों को देखकर मुस्कुरा रही है। वह हैरत में है–बड़ी ढीठ जान पड़ती है यह!

उसकी बगल में सतीश बैठा था और उस बाला के साथ उसकी सहेली और भाभी बैठी थीं। और दोनों की जान-पहचान भी तो अभी घंटे-दो घंटे की ही ठहरी, फिर यह ढिठाई क्यों? यह शरारत कैसी? अजीब बात है!

ड्राइवर ने एक झटके से गाड़ी की ‘स्पीड’ धीमी कर उसे सतीश के मकान की ओर घुमा दिया तो उसने चौंककर पूछा–“क्या घर आ गया? वाह, इतनी जल्दी!”

“हाँ”–आवाज बुलंद कर ड्राइवर ने गाड़ी बरसाती में खड़ी कर दी।

वह राजेश की ओर एक नजर फेरती ड्राइंग रूम में चली गई और राजेश उसे नमस्ते करता अपने घर की ओर चल पड़ा।

विधि की रचना कैसी–दूसरे दिन संध्या समय देवी के मंदिर में उससे अकस्मात भेंट हो गई। राजेश फूल चढ़ाकर देवी की सौम्य मूर्ति को एकटक देख रहा था कि किसी ने झट चुटकी ली–“क्यों, क्या मना रहे हो?”

वह चौंक पड़ा। देखा, वह बाला हाथ में आरती की शिखा लिए चली आ रही है। वह झेंप गया परंतु उसने वही परेशानी जाहिर की–“क्यों, नहीं बताओगे?”

“आखिर क्या?”

“यही कि देवी की प्रतिमा के सम्मुख खड़े होकर क्या माँग रहे हो?”

“अजी, कुछ तो नहीं–बस, यों ही खड़े-खड़े…”

“झूठ! अपनी भावी पत्नी के विषय में सोचते होंगे!”

“धत!”

“तो लो, मैं ही तुम्हारी ओर से माँग देती हूँ–”

और वह बिना झिझक राजेश की बगल में आकर खड़ी हो गई और लगी एक सुर में कहने–“देवि! राजेश की भावी पत्नी अप्सरा-सी सुंदर हो और कमल-सी कोमल। किशोरी की मुस्कान-सी मीठी हो और सुधा-सी निर्मल। सरसी की लहरियों की तरह चंचल हो और…”

“बस करो, बहुत-बहुत माँग लिए। लगता है कविता भी करती हैं आप!”

“हाँ,…”

“और उँगली में मिजराब पहन रखा है तो सितार भी बजाती हैं आप!”

“जी…”–उसने झेंपते हुए उँगली से मिजराब निकालते हुए कहा।

“तो आओ, तुमने मेरे लिए माँगा, मैं तुम्हारे लिए माँगूँ–” राजेश ने मुस्कुराते हुए कहा।

“माँगो।”–उसने अपनी दोनों भौंहों को जुटाते हुए कहा।

राजेश को भी शोखी सूझ गई। वह भी एक सुर में कह गया–“माला का पति संसार का कोमल कवि हो और इसकी कविता और कला संगीत और सौंदर्य का प्राण हो।”

उसने मुस्कुरा दिया तो राजेश ने चट कहा–“क्यों, अपनी कविता नहीं सुनाओगी?”

“माफ कीजिए, मेरी कविता किसी की तफरीह नहीं बन सकती।”–उसने तेवर बदलते हुए कहा।

“तफरीह नहीं, तकलीफ ही सही।”

“नहीं, कुछ भी नहीं, मैं अपनी कविता दिखाने की नहीं।”

“तो फिर मेरे-तेरे दरम्यान सदा खींचतान रहेगी।”

“तो यह झगड़ा मुझे पसंद है।”–कहती वह झम-से बाहर चली गई और रात की अँधियारी में विलीन हो गई। राजेश तो अवाक हो उसे देखता रहा।

माला यौवन की माला पहन तो चुकी है परंतु फिर भी वह बालिका है–बालिका-सी कोमल, बालिका-सी चंचल। बालिका-सी अनजान, बालिका-सी निर्मल। संसार-वायु उसे छू नहीं पाई है, यथार्थ के छींटे उसके दामन पर अभी बरस नहीं पाए हैं। वह तो शरत् पूनो की तरह उज्ज्वल है और उषा की तरह ज्योतिर्मयी सुंदर। उसकी कविता जीवन के हास पर खिली है, सुमन की पंखुड़ियों पर थिरकी है और सौंदर्य की माधुरी पर नाच उठी है। उसकी स्वर-लहरी किसी की दर्दसरी नहीं बन सकी, उसका संगीत किसी का हाहाकार नहीं बन पाया। जो कोमल है वह उसे सुलभ है और जो संतप्त है वह उससे विरक्त। माला की छाती में एक उदीयमान कोमल कलाकार की आत्मा है, उसकी चपल पुतलियों में सौंदर्य की अद्भुत अभिव्यंजना है और लंबी और पतली उँगलियों में चित्रण की मंत्रणा।

राजेश ने माला को पहली बार सतीश के घर पर देखा था। वह चित्र बना रही थी और उसकी सहेली उस पर अपनी टिप्पणियाँ दे रही थी। राजेश वहाँ अकस्मात पहुँच गया। माला चित्रकारी छोड़कर भागने ही वाली थी कि राजेश ने झट कहा–“आप कहाँ जा रही हैं, जरा सुनिए तो…”

मगर उसने एक न सुनी। कमरे में भाग गई। चित्र की कॉपी टेबल पर ही छोड़ गई। राजेश ने उसे उठा लिया और लगा उसकी चित्रकारी को आँख फाड़कर देखने।

मगर उससे न रहा गया। वह दौड़ी चली आई और अपनी कॉपी के लिए आरजू-मिन्नत करने लगी तो राजेश ने मुस्कुराते हुए कहा–“बताओ, यह किसका चित्र है?”

“मुझे नहीं मालूम–”

“सच-सच कहना–नहीं तो कॉपी नहीं मिलेगी।”

“ओह, देखते नहीं, एक बालिका का चित्र है। उसका आँचल हवा पर फरफरा रहा है।”

“हाँ, समझ गया! तुम एक बालिका का चित्र तो बना लेती हो मगर क्या किसी सताई हुई जर्जर बूढ़ी और भूखी भिखमंगिन का चित्र बना सकती हो जिसकी अस्थि-पंजरियाँ चमड़े की ओट से साफ-साफ झलककर मानवता की मर्यादा की मिट्टी पलीद कर रही हों?”

“ना, यह मुझसे न बन पाएगा–”

“क्यों?”

“डर लगता है मुझे–”–कहती वह कॉपी राजेश के हाथ से छीनकर झट भाग गई।

माला सचमुच अभी बालिका है। भयानक चित्र बनाते डर लगता है उसे।

×                        ×                        ×

दूसरे दिन सतीश के नींबू के बाग में राजेश की माला से भेंट हो गई। उसे देखते ही वह झट पास दौड़ी चली आई और नींबू के एक फाँक को, जिसे वह चूस रही थी, उसे दिखाते हुए बिना किसी झिझक के पूछ बैठी–“क्यों, नींबू खाओगे?”

“धत! पागल हो गई हो क्या?”

वह शरमा गई।

“चलो माला, कहीं घूम आएँ–”

“हाँ, चलो–अभी चलो।”

“भई, अभी बहुत समय है। आज तुम्हें मैं एक नाटक दिखाऊँगा–उसे देखकर तुम नाच उठोगी।”

“सच?”

“हाँ, सच।”

नाटक देखने की उत्कंठा में वह पागल-सी हो गई। दौड़कर घर गई और सज-सँवर कर झट चली आई।

दोनों नाट्यशाला में दाखिल हो गए। बढ़िया ‘सीट’ चुनकर जम गए। माला नाच रही थी और उसकी हँसी राजेश की भी हँसी बन रही थी। परंतु खेल शुरू होते ही उसकी हँसी आँसू बन गई, आशा ने निराशा का बाना पहन लिया। स्टेज पर बंगाल के अकाल का दृश्य बड़े नग्न रूप से दिखाया जा रहा था। माँ बेटे की रोटी छीन रही है, सड़क का कुत्ता आदमी के मुँह से आम की सूखी गुठलियों को झपटकर खींच लेता है।…

माला का कोमल हृदय काँप उठा। उसकी सुकुमार वृत्तियाँ झनझना उठीं और उसने आँचल से आँखें ढँक लीं।

फिर राजेश ने झट पूछा–“क्यों, क्या बात है?”

“कुछ न पूछिए राजेश बाबू! जाने कहाँ आप मुझे नरक में उठा लाए! रोते-रोते तो मेरी आँखें सूज आई हैं। बाप रे! बड़ा दर्दनाक दृश्य है। यदि मैं पहले जानती कि यह ऐसा खेल है तो कभी नहीं आती।”

वह आँखें मूँदकर बैठ गई।

राजेश को तो जैसे पाप लग गया। और, माला की सुकोमल उँगलियाँ राजेश की पुष्ट हथेली में सो गईं। यह स्पर्श शायद उसके भय को दूर करने को आवश्यक था।

राजेश ने जी कड़ा कर कहा–“माला! संसार में स्वर्ग भी है और नरक भी। कानन भी है और श्मशान भी। यदि तुम्हें यहाँ रहना है तो दोनों को देखो, किसी एक को नहीं। दोनों की झाँकी हो मगर किसी से आसक्ति नहीं। तमाशे को देखो–तमाशबीन की तरह, उसमें रमो नहीं।”

माला ने आँचल से मुँह छिपाते हुए कहा–“वाह, धन्य हैं आप! कलेजे में बर्छी चुभा दी जाए और आह भी न निकले; गाल पर करारी चपत पड़े और मुँह से एक आवाज भी न आए! भला यह कब मुमकिन है? मैं तो इस धरती की वासी हूँ–किसी की मुस्कान पर हँस देती हूँ और किसी की आह पर पिघल पड़ती हूँ।”–कहकर वह अनमनी-सी बैठ गई।

माला वह नाटक न देख सकी। राजेश ने बड़ा जतन किया मगर वह मजबूर थी। राजेश को तो लेने के देने पड़ गए। उसे नाहक ही सताया उसने।

नाटक समाप्त होने के कुछ पहले ही माला बाहर आकर खड़ी हो गई। और कुछ देर बाद जब राजेश सवारी लाने को बढ़ा तो वह भीड़ को चीरती अकेली उस भिखमंगे के पास पहुँची जो चिथड़ा लपेटे एक पैसा के लिए घंटों से आवाज लगा रहा था और कोई उधर कान भी नहीं देता था। जेब में हजार के नोट रखनेवाले पूँजीपति भला उसे देने को एक पैसा भी कहाँ से निकाल पाते! माला ने अपने ‘पर्स’ में से कुछ रिजकारियाँ निकालकर उसकी सूखी हथेली पर रख दीं और फिर आकर मोटर में सवार हो गई। उसकी मुद्रा बदल गई। वह प्रसन्न है। आँसू बहकर गालों पर सूख चुके थे।

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आज माला से मिलने जाते समय राजेश को एक खेल सूझ गया। जी में आया आज उसे एक माला भेंट दे दे। फिर मालिन को झट बुलवाया और फरमाइश पेश कर दी–“भई, जुही का एक सुंदर गजरा जल्द तैयार कर ला।”

“किस लिए बाबू साहब? आपके घर में तो कोई…?”

“इससे तुझे क्या मतलब? ले, यह अठन्नी ले–देख, खूब सुंदर बनाना।”

“आप इतमीनान रखें बाबू साहब, मैं गुल कतर दूँगी–गुल!”–वह मुस्कुराती चली गई। राजेश उसके मजाक पर चुप रहा।

शाम को राजेश को देखते ही भाभी ने चट टोक दिया–“माला किसके लिए राजेश बाबू?”

“माला के लिए!”–उसने हँसते हुए कहा।

“वाह! अब माला भी दी जाने लगी?”–वह हँस पड़ी।

राजेश चौंक पड़ा–गजब हुआ!

“जाइए, वह छत पर टहल रही है–कविता कर रही होगी–आज उसकी तबीयत ठीक नहीं।”

राजेश दौड़कर ऊपर पहुँचा। मुँड़ेरे पर बैठी माला आकाश में चमकते हुए एक तारे को बड़े गौर से देख रही है और कुछ गुनगुना भी रही है। राजेश चुपके से गया और उसके गले में माला डाल दी। वह चौंककर खड़ी हो गई, फिर उसे देखते ही अनमनी-सी बैठ गई। राजेश का सारा हौसला पस्त हो गया। वह कुछ देर तक उसे निहारता रहा, फिर धीरे-से बोला–“क्यों, क्या बात है?”

“सुना, तुम आज जा रहे हो?”

“हाँ, मगर तुम्हें कैसे मालूम हुआ?”

“यों ही। मेरा जी जाने क्यों–न जाओ–”

“मगर मुझे एक जरूरी काम है।”

“कब आओगे?”

“वृहस्पति को।”

“जरूर?”

“हाँ, जरूर! मगर एक शर्त है।”

“कहो–”

“इस बार आऊँ तो तुम्हें अपनी कविता दिखानी होगी।”

“जो हुक्म!”

“मगर तुम परेशान क्यों हो?”

“सूरज अस्त हो रहा है। देखते नहीं–दूर क्षितिज में आकाश की लाली एक रेख में सिमट रही है।”

एक क्षण शांत रह वह उस माला को देखने लगी। फिर बड़े मधुर स्वर में बोली–“वाह! कितना सुंदर है यह हार! कितनी सुरभित हैं इसकी कलियाँ–धन्यवाद!”–उसने राजेश की ओर अपनी पुतलियों को नचाते हुए कहा।

फिर अपनी लोनी-लोनी उँगलियों से राजेश के कंधे को स्पर्श कर वह नीचे चली गई।

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इधर दो-चार दिनों से माला की तबीयत अच्छी नहीं है। वह दिनभर अनमनी-सी रहती और रात में आँखें झिपते-झिपते खुल आतीं। कॉलेज जाने और कॉलेज की किताबें पढ़ने में भी उसे जी नहीं लगता। कभी वह कविता लिखती तो कभी सादे कागज पर चिचरी बनाती और जब जी बहुत ऊब जाता तो सितार लेकर एमन से मोड़ निकालती। खाने समय भी कुछ कुतुर कर उठ जातीं। और जब कभी उसके पलंग के सिरहाने रखी हुई उस माला पर दृष्टि पड़ जाती, तो दृश्य अदृश्य हो जाता, पराग परिमल बन जाता।

आज भाभी से न रहा गया।

“क्यों माला, अभी तुम्हारा दिमाग स्थिर नहीं हुआ? देखती हूँ, तुम बराबर खोई-खोई सी रहती हो। किसी काम में तुम्हारा जी नहीं लगता। अब तो राजेश चला गया। फिर अपने काम में क्यों नहीं जी लगाती?”

माला सन्न रही। वह क्या सुन रही है। धरती तो नहीं बदल रही है! उसने जी कड़ा कर कहा–“तुम्हारी गलत धारणा है भाभी!”

“नहीं, मैं ठीक कहती हूँ। राजेश भी तुम्हारी ओर खिंच गया है। यह बात मुझसे छिपी नहीं है। आखिर यह माला किस बात की गवाही दे रही है?”

वह मारे लाज के गड़ गई। शायद इतनी लज्जा उसे कभी नहीं आई थी। उसका गौर मुख लाल हो गया। कानों पर भी लाली उतर आई। वह भागकर बरामदे में चली आई।

मगर भाभी ने उसे वहाँ भी न छोड़ा–“क्या मैं झूठ कह रही हूँ? तुम राजेश को–” उसने उसकी ठुड्डी हिलाते हुए कहा।

फिर मानिनी का मान जाग पड़ा–“भाभी! तुम झूठ कहती हो या सच, यह तो मैं नहीं जानती; परंतु हाँ, इतना मैं जरूर कहूँगी कि उनकी सहृदयता कोई कम आकर्षण की वस्तु नहीं। बस, इतना ही।”

वह भाभी से जान छुड़ाकर अपने कमरे में चली गई। और कॉलेज जाने की तैयारी करने लगी तो उसकी दृष्टि उस माला पर पड़ी। जाने क्यों उसे झट उठाकर डेस्क में बंद कर दिया।

कॉलेज में पहुँची तो अमला ने उसे देखते ही चुटकी लेना शुरू किया–“माला! मिठाइयाँ खिलाओ–देखो, जी भर खिलानी होंगी–और सिर्फ मुझे ही नहीं, औरों की भी फरमाइश है।”

“अरी, मिठाई और मुझसे? काहे की–?”

“देख, झूठ न बोल, नहीं तो कॉलेज भर में शोर मचा दूँगी–”

“तो जा मचा दे शोर–तेरी जो मर्जी!”

माला भागने लगी तो अमला ने झट कहा–“बीवी जी, भागने से जान नहीं बचेगी। तुम्हारी महरी बता रही थी कि तुम्हारी शादी राजेश से ठीक हो गई है। देख, छिपाना नहीं। छिपाने से बात और भी फूटती है।”

माला को काटो तो खून नहीं। वह तो बिचारी वहीं गड़ गई। पृथ्वी फटी नहीं, वज्र गिरा नहीं। बस, उसके मुँह से इतना ही निकला–“कह, तू भी कह ले!”

साँझ को जब घर लौटी तो बड़ी मुरझाई-सी थी वह। अपनी पुस्तकों को मेज पर रखकर उसने डेस्क खोला और चाहा कि उस माला को तोड़कर इतनी दूर फेंक दे कि फिर उसका नामोनिशान ही मिट जाए; परंतु जाने क्या सोचकर उसने उसे उसी तरह बंद कर दिया।

फिर वह सितार लेकर बैठ गई और वागीश्वरी के सुर पर अपनी कविता की कड़ियों को गुनगुनाने लगी–गुनगुनाती ही चली गई, परंतु न उँगलियाँ ही थकीं, न स्वर ही टूटा। माला और उसका स्वर एक सुर में गुँथ गए, सौंदर्य और संगीत एक सत्ता में विलीन हो गए।

फिर सितार का एक तार टूट पड़ा, उसमें वह शक्ति न थी कि माला के हृदय के तार की गति का साथ दे सके। माला ने मिजराब निकालकर तूलिका उठा ली और लगी चित्र बनाने–एक-से-एक सुंदर, एक-से-एक सजीव। बहुत रात बीतने पर भाभी ने इस बार बड़ी आजिजी से पूछा–“क्यों, अब जी नहीं घबराता अकेले-अकेले?”

“नहीं भाभी, मैं अब नहीं घबराती। मैंने अपने दिलबहलाव के लिए काफी सामान जुटा लिया है–देखतीं नहीं, सितार भी है और तूलिका भी; कविता भी है, संगीत भी।”–और वह उसी तरह चित्र बनाती रही, गाती रही और बजाती भी रही। प्रतिदिन, निशिदिन!

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राजेश जल्द लौट न सका। इधर-उधर फँस गया और फँसा रहा। पूरे पंद्रह दिन बाद माला से मिलने गया।

साँझ के कोई पाँच बज रहे होंगे। भाभी सायबान में ही बैठी थी, माला कमरे में चित्र बनाने में व्यस्त थी। राजेश को देखते ही भाभी ने बड़े तपाक से नमस्ते किया और अपनी बगल में बिठाकर झट माला को बुलाने दौड़ पड़ी। राजेश की उत्कंठा बढ़ रही थी। वह सोच रहा था कि उसके आने की खबर सुनते ही माला नाच उठेगी और झट दौड़ी चली आएगी। परंतु ऐसा न हुआ। भाभी ने आकर कहा–अभी आती है। इधर चित्र बनाने में बहुत व्यस्त है।”

राजेश को बड़ा अचरज हुआ। उस पर गुस्सा भी आया। और सचमुच गुस्सा होने की बात भी थी।

वह समझ बैठा कि यह नारी का छलनामय रूप है। यह माला नहीं छलना है–छलना। उसे अपने पर भी गुस्सा आ रहा था।

भाभी ने बातों का सिलसिला जारी रखा मगर उसे उसमें जी नहीं लगा। इधर तो ‘मूड’ ही बिगड़ गया था।

आध घंटे बाद माला ने आकर उसे नमस्ते किया और दूर सरककर अनमनी-सी बैठ गई। जैसे उसका आना कोई बड़ी घटना न हो। फिर वह अपनी कुर्सी के सामने एक मेज रखकर चित्र बनाने लगी और बनाती ही रही। उनकी बातों में उसे कोई रुचि न थी, आकर्षण भी न था।

जब भाभी राजेश के लिए नाश्ता लाने गई तो वह उठकर बाहर बरामदे में आकर बैठ गई और स्वेटर बुनने लगी। उस कमरे की सारी चीजें राजेश को काटने लगीं। वह वहाँ बैठ न सका–उफ करता बाहर चला आया।

उसे देखते ही माला ने व्यंगभरी आवाज में मुस्कुराते हुए पूछा–“कहिए राजेश बाबू, कब आए?”

“आज ही तो आया।”

वह वहाँ भी खड़ा न रह सका। एक कुर्सी उठाई और सामने ‘लॉन’ में आकर बैठ गया। फिर माला को वहीं बुलाया। उसने आते ही पूछा–“कैसे आए?”

“बस, तुमसे मिलने–”

“अरे, मुझसे मिलने कौन आएगा!–” उसकी आवाज में एक दर्दभरी करुणा थी।

“नहीं, मैं तो तुम्हें ही देखने आया हूँ।”

“आने की कोई जरूरत नहीं। कल आपकी शादी हो जाएगी, फिर यह आना–क्यों, वृहस्पति को क्यों नहीं आए?”

“काम में फँस गया था। तुम इस तरह क्यों हो रही हो?”

“तुम्हें नहीं मालूम राजेश, तुम्हारे जाते ही यहाँ हर एक ने मेरा और तुम्हारा नाम लेकर फब्तियाँ कसना शुरू किया। मुझे तो यह बड़ा बुरा लगा। मगर मैं क्या करूँ, तुम्हारी यह माला मेरे गले का हार न रहकर फाँसी की रस्सी बन गई।…उसे तुम लेते जाओ। मैंने सहेजकर रख दिया है उसे। वह अब मेरे किसी काम की नहीं। मैंने अपनी चीज उसमें से निकाल ली है। सचमुच मेरे-तुम्हारे बीच वह दीवार-सी खड़ी हो गई है।”

राजेश के पैर तले से मिट्टी सरक गई। उसने बड़ी उत्सुकता से पूछा–“यह क्या हुआ माला? कहो, मैं यहाँ से आज ही…अभी ही…”

“पागल न बनो।”

“तो फिर?”

“फिर क्या? मैं जानती हूँ, मेरा-तुम्हारा संबंध कितना पवित्र है–पुनीत। दुनिया न माने न सही। मैं तो हृदय के काँटे पर मनुष्य को तौलती हूँ, वह मन के काँटे पर अंदाज लगाती है। मैं जीवन में कला देखती हूँ, वह जीवन में कामना देखती है। फिर हमारे और उसके जीवन में कितना अंतर, कितना फर्क है–तुम्हीं कहो।”

वह अवाक हो उसे देखता रहा। जान पड़ा जैसे वह उसके हृदय की ही बात कह रही हो।

सात बजते-बजते जब वह चाय पीकर जाने लगा तो माला ने अपनी माला लाकर उसके हाथ में थमाते हुए कहा–“इसे लिए जाइए राजेश बाबू, शायद आप इसे भूले जा रहे थे।”

राजेश ने माला थाम ली परंतु माला की आँखों को न देख सका। उन्हें देखने का उसमें साहस भी न था क्योंकि वह भी अपनी आँखें छुपा रहा था। हाँ, भाभी इस दृश्य को बड़ी शंकित होकर देख रही थीं। एक धीमी आवाज में बोलीं–“तुम देवी के मंदिर में आए हो और तुमने टीका नहीं लगाया। आओ, लगा दूँ।”

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माला की माला आज भी राजेश के कमरे में टँगी है। उसके फूल सूख गए हैं और कुछ बिखर भी गए हैं परंतु जाने क्यों राजेश को उससे बड़ी ममता है। वह कभी-कभी हँसते-हँसते कह बैठता है–“इसकी काया भले ही सूखी हो, मगर इसकी माया तो हरी है–आज भी हरी है और सदा हरी ही रहेगी।”

(गर्दनीबाग, गेटलाइब्रेरी हस्तलिखित पत्रिका में संकलित)

उदय राज सिंह द्वारा भी