अघोरिया

अघोरिया

स लड़की ने कपार फोड़ डाला रे, मेरे बच्चे को मार डाला। सुखिया…ओ सुखिया की घरवाली सुनती हो कि नहीं, तेरी बेटी ने आज फिर मेरे बेटे को मारा है। और उसके कपार से खून बह रहा है।

‘अरे! अघोरिया ऐसा क्यों करेगी…’ अघोरिया की माँ ने पूछा।

‘तुम उसको बुलाओ और उससे पूछो। अघोरिया अघोरिया कहाँ है रे तू?’

‘काहे नहीं समझती हमको घर-गाँव से निकलवा कर रहेगी क्या?’

‘अघोरिया के बाबू इस लड़की को तुम कुछ काहे नहीं समझाते हो! रोज के रोज हंगामा खड़ा करती रहती है। समझ में नहीं आता है कि इस लड़की का हम करें तो क्या करें? सात साल का बच्चा एकदम अबोध होता है और इसे तो देखो कभी कहीं लड़ाई कर लेगी, कहीं किसी को पीट आती है।’ अघोरिया की माँ ने उसे खोजना शुरू किया। ‘आज इस कुलक्षणी को हम मार कर ही दम लेंगे। जीना हराम कर दिया है।’ हर तरफ अघोरिया को खोजा जाने लगा। देखा पलंग के नीचे छिपकर बैठी है। ‘निकल बाहर’ हाथ पकड़कर अघोरिया की माँ ने उसे बाहर खींचा, ‘काहे तू लड़का को मारी बता आज, नहीं तो हम मार-मारकर खाल उधेड़ देंगे। काहे मारी उस लड़का को, काहे उसका कपार तोड़ी, बोल’ और यह कहकर कोने में पड़ी संटी उठाकर अघोरिया को बेतहाशा मारने लगी। अघोरिया, लाल-लाल आँखें कर ताक रही थी और बस उसकी आँखों में आँसू के दो-चार बूँद झलक रहे थे।

इतने में उसकी बड़ी बहन ने आकर पूछा, ‘बताती क्यों नहीं है रे, अघोरिया? काहे के लिए तू मार खा रही है, तू काहे गोपिया को पेंसिल भोंक दी और माथा पर पत्थर मारी, संतोषवा जरूर कुछ किया होगा तभी तो…तू काहे पीटी।’ 

अघोरिया से रहा नहीं गया, उसने अपनी बहन को बताया, ‘ऊ कुत्ता संतोषवा का कॉपी छीन रहा था, जब वह देने के लिए मना किया तो उसको पेंसिल भोंक दिया और टीचर जी को बोला कि यह हमारा कॉपी चुरा लिया है। टीचर भी संतोषवा को ही मारी। हम देख रहे थे, जब कक्षा समाप्त हुई तब भी उ खच्चर संतोषवा को चिढ़ाए जा रहा था। हमसे रहा नहीं गया, हम उठा एक पत्थर औरो गोपिया की कपार पर खींचकर मार दिए।’ 

माँ ये सब बातें सुन रही थी, उन्होंने कहा, ‘तू काहे मारी, तू क्या इस गाँव की मुखिया है। किसी-न-किसी को मारकर आ जाती है।’ अघोरिया की माँ ने अघोरिया की पीठ पर दोहत्तड़ लगाते हुए कहा।

मार खाकर भी अघोरिया बाहर जाकर पेड़ पर उल्टा लटक गई। अपने दोनों पैरों के घुटने से डाली को पकड़ लेती और पूरा धड़ पीछे कर नीचे को गिरा देती। उल्टे लटकते बाल, लाल-लाल, पीली-पीली आँखें। उल्टा लटक कर अघोरिया भारी-सी बेसुरी आवाज में गाना गुनगुनाती रहती, जैसे कुछ हुआ ही न हो। जैसे-जैसे बड़ी होती जा रही थी उसके कारनामे भी बड़े होते जा रहे थे, लेकिन थी पूरी मनमौजी–सबकी मदद करने को हमेशा तत्पर। एक दिन पहाड़ की तलहटी में अपनी बकरियाँ चरा रही थी तभी पीछे से हरिया चाची ने आवाज लगाई, ‘अघोरिया अघोरिया कहाँ जा रही है? जरा देख तो भैंसी को क्या हो गया है? बस रँभाये जा रही है। न कुछ खाती है, न खड़ी ही हो रही है, बस जोर-जोर से रँभा रही है। देख न क्या हो गया है?’ अघोरिया ने बड़े प्यार से भैंस के ऊपर अपना हाथ फिराना शुरू किया, भैंस ने अपना सिर इधर-उधर हिलाया, जैसे उसे इसी प्यार भरे स्पर्श का इंतजार था। अघोरिया उसके पूरे बदन पर अपना हाथ फिराने लगी, जैसे ही उसका हाथ भैंस के खुर के पास पहुँचा भैंस ने अपना पैर खींच लिया, अघोरिया ने देखा कि एक बड़ा-सा काँटा उसके खुर में गड़ा हुआ है। उसने बड़ी मुश्किल से उसके काँटे को निकाला। काँटा निकलते ही भैंस का रँभाना भी कम हो गया। अघोरिया दौड़कर झोपड़ी में आई और वहाँ से हल्दी और सरसों का तेल लाकर उसे मिलाकर भैंस के खुर पर लगा दिया। उसके बाद तो मानो अघोरिया और भैंस में बड़ी दोस्ती हो गई, अगर वह दूर से भी गुजरती तो भैंस जोर से रँभा कर उसे आवाज लगाती, अगर कभी भैंस खुली रहती तो आगे-आगे काली अघोरिया उलझे-उलझे बाल और पीछे-पीछे भैंस। 

अघोरिया थी पूरी चमकदार काली रंग की लाल और पीलापन लिए हुए गोल-गोल, छोटी-छोटी आँखें, चपटी नाक, चौड़ा-सा चेहरा, चकइठ बदन की, पढ़ने में बहुत होशियार, अब अघोरिया दसवीं कक्षा में पहुँच गई थी। बायोलॉजी उसका प्रिय सब्जेक्ट था। बड़ा मन लगाकर पढ़ती थी। कुछ दिनों से देख रही थी कि जब वह घर से स्कूल के लिए निकलती तो कोई उसका पीछा करता। दो-तीन दिनों तक देखा फिर एक दिन वह चलते-चलते अचानक घूमी और देखा कि उसी के विद्यालय का नौवीं कक्षा का लड़का उमेश मरांडी था। अघोरिया ने आव देखा न ताव उमेश का कॉलर पकड़ लिया और अपनी ओर खींचते हुए बोली, ‘काहे रे उमेशवा का बात है, मैं रोज-रोज तुमको देख रही हूँ, काहे पीछा करता है रे…दूसरा लड़का लोग के साथ काहे नहीं स्कूल जाता है।’

उमेश की घिग्घी बँध गई, बोला, ‘हम तो ऐसे ही अकेले चलते हैं, सोचते हैं कि तुम अकेली जा रही हो तो तुम्हारे साथ हो जाएँ।’ 

‘काहे रे चोट्टा…दिखाई नहीं देता कि हमारे साथ और भी दो तीन लड़कियाँ हैं।’

इसके बाद उमेश इतना डर गया कि उसने अब अघोरिया का पीछा करना छोड़ दिया, लेकिन न जाने क्यों अघोरिया की आँखें उसको तलाशती रहती थीं। रविवार को हाट लगती थी। रविवार की एक शाम अघोरिया हाट से सामान लेकर लौट रही थी तभी उसे उमेश दिखाई दिया, ‘कहाँ है रे उमेशवा, आजकल दिखाई नहीं दे रहा है, कहाँ रहता है? स्कूल जाता है कि नहीं?’ 

उमेश हकलाते हुए अघोरिया से बोला, ‘तुम ही तो मना की थी कि हमारा पीछा मत करो।’

‘हम मना करेंगे तो तुम नहीं करेगा’ कोई काम कहकर अघोरिया ने मुस्कुराकर उमेश का हाथ अमेठ दिया। दोनों के होंठ चुप थे लेकिन आँखों ने एक-दूसरे को दिल का हाल बयान कर दिया। अगले दिन से दोनों स्कूल साथ जाने लगे।

एक साँझ आँगन में बैठी अघोरिया रोटी बना रही थी तभी उसे अपनी माँ और बगल वाली चाची की आवाज सुनाई दी, ‘रघु की बीवी को पहले से ही पाँच-पाँच बच्चे हो चुके हैं और अब छठा होने वाला है। रघु की घरवाली बहुत कमजोर हो गई है, कैसे जनेगी? छोटा बच्चा अभी तो नौ महीने का ही है और छठा पेट में आ गया’, भीतर बैठी अघोरिया सब बातें सुन रही थी। न जाने क्या पट्टी पढ़ाई रघु की घरवाली को कि एक सप्ताह बाद रघु के घर से जोर-जोर से झगड़े की आवाज आने लगी। रघु की माँ रघु की घरवाली को गलिया रही थी, श्राप रही थी, ‘बता रे डायन कहाँ गया पेट का बच्चा, खा गई का…’ पर रघु की घरवाली भी थी पूरी जबरदस्त, एक लब्ज भी मुँह से न निकाला। साँझ को अघोरिया पेड़ पर उल्टा लटकी अपने भारी गले से गुनगुना रही थी, बाल नीचे लटके और चमकती हुई लाल-लाल आँखें। अघोरिया की माँ का कलेजा काँपने लगा, क्योंकि उन्हें पता था कि जब अघोरिया कोई अपने मन का काम करती है और उसकी दृष्टि में वह…ठीक होता है, तो इसी तरह पेड़ पर उल्टा लटक कर गुनगुनाती रहती है। वह समझ चुकी थी कि यह पट्टी रघु की घरवाली को अघोरिया ने ही पढ़ाई है। अघोरिया के इसी रूप को देखकर उसकी माँ ने उसका नाम अघोरिया रख दिया था।

अघोरिया और उमेश धीरे-धीरे एक दूसरे को चाहने लगे थे। अघोरिया जो पढ़ने में अच्छी थी उसने उमेश के क्लास में आने के कारण दसवीं की परीक्षा के प्रश्न पत्र के उत्तर में कुछ भी नहीं लिखा और फेल हो गई, इस तरह उमेश और अघोरिया दोनों एक कक्षा में आ गए, एक दिन स्कूल जाते समय हल्ला होने लगा कि एक लकड़बग्घा गाँव में आ गया है।

सारे बच्चे झुंड बना कर ही स्कूल जाया करें। गाँव में लकड़बग्घे का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा था। किसी भी समय आ जाता, छोटे जानवरों को उठाकर ले जाता, पूरे गाँव में दहशत फैल गई थी। गाँव वाले ने जाकर वन विभाग में अपनी समस्या बताई।

वन विभाग का कार्यालय भी बस खानापूर्ति के लिए था। पहाड़ की तलहटी में कलकल बहती नदी और दूसरी तरफ दो कमरों में सीमित लकड़ी का बना हुआ वन विभाग का कार्यालय, जिसमें कुछ पिंजड़े रखे थे, कुछ जंग लगी बंदूकें रखी थीं। एक बूढ़ा चपरासी, एक ड्राइवर और एक गनमैन, वन विभाग के फॉरेस्ट ऑफिसर तो न जाने कितने दिनों तक कार्यालय आते ही नहीं थे। हाँ, उन्हीं के पास रहती थी एक बंदूक जिससे कि जानवरों को बेहोश किया जाता था। गाँव वालों की शिकायत के बाद भी जब वन विभाग ने कोई कार्रवाई नहीं की तो गाँव के मुखिया तथा अन्य कुछ लोग मुख्यमंत्री के जनता दरबार में जाकर उनसे गुहार लगाई और अपनी परेशानी बताई। वन विभाग के पदाधिकारी के खिलाफ कार्रवाई हुई और उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी करके सस्पेंड कर दिया गया। अब उनकी जगह आए एक नए पदाधिकारी। दिन के तीन बजे लकड़बग्घा फिर गाँव में घुस आया, अघोरिया को जैसे ही पता चला कि उसकी बकरी को पकड़कर वह जंगल की ओर गया है। उसने आव देखा न ताव हाथ में गड़ासा लिया और लकड़बग्घे के पीछे जंगल की ओर भागी। उसके पीछे-पीछे भागा उमेशवा।

लकड़बग्घे ने जब देखा कि अघोरिया उस पर आक्रमण करने के लिए आ रही है, तो उसने भी अघोरिया पर वार कर दिया और बकरी को छोड़ उसका ही हाथ बुरी तरह से नोच लिया। एक तरफ से उमेश लाठी से प्रहार करता तो दूसरी तरफ से अघोरिया। अघोरिया ने गड़ासा उठाया और एक वार से से ही लकड़बग्घे का काम तमाम कर दिया।

पूरे गाँव में अघोरिया की जय-जयकार होने लगी। थानेदार ने भी घोषणा की, कि इस बार 26 जनवरी को अघोरिया को सम्मानित किया जाएगा। शहर से जब अघोरिया के पिता वापस आए तो उन्हें अघोरिया के बारे में पता चला कि किस प्रकार उसने बहादुरी से लकड़बग्घे को मार गिराया है। वह उसे पुकारने लगे। बहुत खोजने के बाद देखा कि वह अपने घायल हाथ होने के बाद भी पेड़ पर उल्टा लटकी भारी आवाज में गुनगुना रही है। बाल नीचे की ओर झूल रहे हैं, आँखें लाल-लाल काले चेहरे पर और भी भयावह लग रही है। होंठों पर एक विजयी मुस्कुराहट व्याप्त थी।

गाँव में आदिवासियों का अपना धर्म चलता है, वे प्रकृति पूजक हैं। नदियाँ, पर्वत, वायु, सूर्य, चंद्रमा की आराधना करते और इस तरह की पूजा में सभी आदिवासी बड़े उत्साह से हिस्सा लेते हैं। अघोरिया तो जैसे बौरा-सी जाती थी। उसके लिए न कोई बच्चा था न कोई युवा और न ही कोई उम्रदराज, सबों के साथ कर्मा हो या सरहुल लाल पाड़ की सफेद साड़ी पहने घर-घर जाकर चिल्लाती और हर किसी को इकट्ठा करती ‘नाची से बाची’ अर्थात जो नाचेगा वह बचेगा। बच्चों और सहेलियों के बीच खड़ी हो जाती और सबको प्रवचन देती कि सफेद रंग हमारे सर्वोच्च देवता सिंगबोला और लाल रंग बुरुबोंगा का प्रतीक है। लाल रंग संघर्ष का है इसलिए हम लड़कियाँ सरहुल में लाल पाड़ की साड़ी पहनती हैं। ताली बजा-बजाकर उछलती, कूदती, फाँदती लड़कियों को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे पवित्र नदी पहाड़ से कूदती-फाँदती नीचे मैदानी इलाकों की ओर बढ़ रही है। नदी की दूसरी तरफ मिट्टी के कच्चे मकान बने थे। जिस पर बड़ी ही कलात्मकता के साथ बाँस की तूलिका बनाकर आदिवासी महिलाएँ चित्र उकेरा करती थी। उन चित्रों में पर्वत, नदी, जानवर और नृत्य करती लड़कियाँ होती थी, जो इस बात का द्योतक थी कि आदिवासी प्रकृति के कितना करीब हैं।

इधर गाँव में एक और बात फैल रही थी कि गाँव में कोई बुरी आत्मा या पिशाच का प्रवेश हो गया है, गाँव की ग्राम देवी रुष्ट हो गई है। यही एक मात्र अफवाह नहीं थी, गाँव के छोटे-छोटे बच्चे, बच्चियाँ अचानक गायब हो जाते और फिर उनका शव बड़े ही वीभत्स रूप से कुचले सिर के साथ खून से लथपथ मिलता था। ऐसा कि कोई भी देखता तो उसकी रूह काँप उठती। गाँववालों को लगता ग्राम देवी का प्रकोप है।

कोई भी अपने बच्चे को एक मिनट के लिए भी अपने से दूर नहीं होने देता। पुलिस वाले, वन विभाग के लोग भी पता लगाने की पूरी कोशिश करते कि वह कौन-सा जानवर है जो बच्चों को इस तरह से मार डालता है। अनपढ़ गाँव वालों के मन में यह बैठ गया कि ग्राम देवी का प्रकोप है, इसलिए ही बच्चे गायब हो रहे हैं।

इधर महीनों से कोई बच्चा गायब नहीं हुआ था। सरहुल का त्योहार आ गया, समस्त ग्रामवासी भी प्रसन्न थे कि चलो कई महीनों से कोई बच्चा गायब नहीं हुआ है और इसी प्रसन्नता में वह हड़िया पीने का पूरा मन बना चुके थे।

हड़िया जो एक तरह की नशीली पेय पदार्थ होती है। यह चावल से बनाई जाती है। इसे पीकर कमर में हाथ डाल ढोल की थाप पर नृत्य करते थे गाँव के लोग। सरहुल का दिन आ गया, अघोरिया का सौंदर्य भी अपने चरमोत्कर्ष पर था। बेहद खूबसूरत दिख रही थी। एक धुन पर, एक से कपड़े, बालों में लगे सफेद फूल और नृत्य पर थिरकते पैर त्योहार को और मदमस्त बना रहे थे। अघोरिया के साथ में छोटी कजरी भी साड़ी में कम न फब रही थी। दोनों एक सी तो तैयार हुई थी। दोनों के बालों में जो फूल था वह भी एक सा ही था। जो दोनों की खूबसूरती में चार चाँद लगा रहा था। उमेश और अघोरिया कमर में हाथ डाले बड़े प्यारे लग रहे थे।

काफ़ी देर तक नृत्य करने के बाद अघोरिया को पेशाब लगी, उसने सोचा अब घर कौन जाए चलो पेड़ के पीछे ही निपट लेते हैं। वह जंगल की ओर झाड़ियों के पीछे चली ही थी कि अचानक उसने देखा की झाड़ियों के पीछे से वन पदाधिकारी भी अपनी पैंट को ठीक करता, बेल्ट कसते हुए इधर-उधर देखता हुआ चला आ रहा है। अघोरिया खी खी खी करके हँस पड़ी। अरे सभी तो करते हैं पेशाब, इतना घबरा कर इधर-उधर ताकने की क्या जरूरत है? वह पत्तों से अपना हाथ पोछता हुआ आगे बढ़ गया। अघोरिया काली-काली आँखों से उसके क्रियाकलापों और वन विभाग के पदाधिकारी को देख रही थी। वह वापस लौट आई और फिर नृत्य करने लगी। कुछ घंटों के उपरांत हल्ला हुआ कि कजरी नहीं मिल रही है, न जाने कहाँ है? ग्रामीण अपने हाथों में भाला, बरछा और मशाल लेकर जंगल की ओर बढ़ जाते हैं। कुछ दूर जाने पर उन्हें कजरी की लाश बड़ी ही दयनीय स्थिति में पड़ी मिलती है, ऐसा लगता था कि जैसे किसी ने उसके चेहरे को कुचल दिया था। उसके चारों ओर लहू फैला हुआ था। चीख-पुकार शुरू हो गई, हल्ला होने लगा।

गाँव की महिलाएँ वन देवी के सामने जाकर सिर पटकने लगती हैं…हे माँ कृपा करो, कब तक इस गाँव में पिशाच को भेजती रहोगी। कब तक इस तरह से इन मासूम बच्चों की बलि लेती रहोगी? दूर-दूर तक रुदन सुनाई देने लगता है। चारों ओर भयावह मंजर था।

भोर होने को आई तभी फिर हल्ला होने लगा कि वन विभाग के पदाधिकारी को भी पिचाश उठा कर जंगल में ले गया। उसका सिर पत्थर से कुचला हुआ है और खून से लथपथ शरीर पड़ा हुआ है। ऐसा तो गाँव में पहली बार हुआ था कि पिशाच ने किसी बड़े व्यस्क व्यक्ति को अपना शिकार बनाया हो। अघोरिया की माँ अघोरिया को ढूँढ़ने लगती है, उनका मन घबरा रहा था कि कहीं अगली लाश अघोरिया की न हो।

अघोरिया ने फॉरेस्ट ऑफिसर को अपने लहू से भरे हाथ पत्तों से पोछते हुए देख लिया था। अचानक पेड़ पर उल्टा लटकी अघोरिया पर माँ की नजर पड़ती है। आज फिर उसकी लाल-लाल आँखें चमक रही थी, बाल नीचे की ओर झूल रहे थे और पैर के घुटने से डाल को पकड़ रखा था। अघोरिया के मुख से निकलते गाने के बोल बता रहे थे कि आज वन देवी ने बच्चों को न्याय दिला दिया है। वह धीमें-धीमें गुनगुना रही थी…‘बुरू रे हाँसा जे तियांग ओ ता न, माडाँग सब्बे-सा डासी कू टासी।’ अर्थात गर्म किए गए लोहे को चिमटे से कौन पकड़ेगा, बड़े हथौड़े से गर्म लोहे को चोट करेगा…!


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रूबी भूषण द्वारा भी