होत चीकने पात

होत चीकने पात

‘मेरे लाल मैं तेरे प्रति सब तरफ से बेफिक्र हो गई थी, कि अब तो तू जवान हो गया है, तेरे हाथ में हुनर और दिमाग में विद्या है। तू अब खुद करने-कहने वाला है, अब तू किसी की क्यों सुनेगा? यह अब मैं क्या करूँ, मैं माँ होने के फ़र्ज़ से तेरी कुछ सेवा करके अपने मन को शांत कर लेती, परंतु दुर्भाग्य ने वह भी नहीं होने दिया। क्योंकि मुझे भी तो खाट पर डाल दिया। मैं भी तो अपने बच्चों का लालन-पालन करने लायक न बची।’ किशोर हो चुके धीरज की स्मृति में माँ शब्दशः उतर आई। वह सोचने लगा।

‘माँ उसे हर समय बलवान क्यों देखना चाहती थी? उसे ही नहीं, वो उसके सभी छोटे-बड़े भाइयों-बहनों को भी। वे भी मेरे जैसे हो सकते थे। उन्हें भी मेरे जैसी शिक्षा देनी थी। उसके घर में मछली-मांस पकाया जाता था। बनाने-पकाने के काम में वह भी साझीदार होता था। परंतु उसने जब स्कूल में प्रवेश पाया, तब भैंसे के मीट का प्रयोग तो एकदम छोड़ दिया था। स्कूली साहित्य में उसने कबीर, सूर और तुलसी को पढ़ा था–इनमें सबसे अधिक कबीरदास जैसे अच्छे कवियों से तो वह इतना मुतास्सिर हुआ कि वह हर समय कबीर जैसी साधु-मंडली को ढूँढ़ता रहता था। गाँव में जब कोई साधु-संत आता था तब वह उसकी ज्ञान रूपी भजन-वाणी को प्रेमपूर्वक सुना करता था। जो कुछ सेवा उससे संभव हो पाती थी, सो वह मनोयोग से करता था। वह उनकी सुलफिया चिलम भरता था, औरों को हाथ तक न लगाने देता था, साफा की पट्टी सबसे पहले ठंडे जल में धोता था। उनके कपड़ों को साबुन द्वारा बड़ी मेहनत से स्वच्छ चमकदार बना देता था। इस पर भी अपने स्कूल का दैनिक गृह कार्य भी पूरा करता था। वह संतों की कुछ साखियाँ तथा दोहों को कंठस्थ कर स्कूल के रास्ते में गाता-गुनगुनाता जाता था। उसके मन से हर समय निर्गुन साँई के नाम के इकतारे की धुन-सी निकलती रहती थी। अब वह इस भक्ति भावना से इतना ओत-प्रोत हो गया था कि यही सोचता रहता था कि किसी तरह मुझे कोई श्रेष्ठ गुरु मिल जाए। जो मुझे अपना शिष्य बना ले, उसका विचार था कि ज्ञान के मार्ग में श्रेष्ठ गुरु को पाना ही सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है। उसने यह समस्या मदद मिलने की आशा से अपने घरवालों के सामने रखी। परंतु यह सुन कर तो वे एकदम सहम गए। उन्होंने सोचा कि यह क्या होने वाला है? उनका बच्चा तो हाथ से निकलने वाला है। वे उसमें त्याग-वैराग्य का आंशिक भाव देख कर चौंकने लगे, वे उसे समझाने लगे, उन्हें उसके बचपन के क्रिया-कलाप याद आने लगे कि जब यह छोटी कक्षाओं में था तब उसे माँ की कहानियों में कितनी गहरी रुचि थी। माँ उसे कवियों, मुनियों तथा भगवान की अनेक कथाएँ सुनाती-समझाती थी, परंतु आज वह भी पागल-सी दीखने लगी है। उसे यह आशंका कदापि नहीं थी कि उसके लाड़ले के मन में ऐसे भाव भी उत्पन्न हो सकेंगे! वैसे तो उसके परिवारी भी ईश्वर में अटूट विश्वास रखते थे। परंतु ऐसी वैराग्यपूर्ण अनासक्ति किसी में नहीं थी।’

उन्होंने उससे पूछा था, ‘बेटा, तू ऐसी भक्त्ति-वैराग्य जैसी बातें क्यों कहता है? हम तुझसे इनके विपरीत घर-गृहस्थी वाला दुनियादार बनने की आशाएँ रखते हैं।’ उसने मीरा के शब्दों को दोहराते हुए कहा, ‘मोह-माया बंधन बना है, इससे मुक्ति पाना मनुष्य का परम कर्तव्य है। कर्तव्य से विमुख न होना ही मनुष्यता है।’ ऐसा कहा तो उन्हें लगा मानो आग पर पानी पड़ने की बजाय घृतार्पण हो गया है।

उन्होंने पूछा, ‘बेटा तूने ऐसी मुक्ति-युक्ति की बातें सीखी कहाँ से है? हम तो सोचकर ही अधमरे हुए जा रहे हैं, कि इस प्रकार भविष्य में हमारा घर-परिवार, कुल-वंश चलेगा कैसे?’

उसने अपनी प्रतिबद्धता और समर्पण को दोहराते हुए उत्तर दिया, ‘प्रथमतः तो उस ऊपर वाले की कृपा से मेरे तीन बहन-भाई और हैं। जिनके द्वारा आपकी अभिलाषा भगवान करे खूब फलीभूत हो, और अगर मैं आपका एक बच्चा भक्ति-भाव में गृह-त्यागी संत कवि हो जाऊँ तो ऐसा होने से आपको कोई आपत्ति तो नहीं होनी चाहिए।’

‘अरे-अरे बेटा! तू यह क्या कह रहा है? क्या जो पढ़ने-लिखने लगते हैं वे सब घर-गृहस्थी छोड़ कर भगौड़े-परजीवी हो जाते हैं? अगर ऐसा था तो हम तुझे पढ़ाते-लिखाते ही क्यों? ऐसी तूने दुनिया की कौन-सी अनोखी किताबें पढ़ी हैं। जो तू सबसे निराला विद्यार्थी होने जा रहा है? पढ़े तो हमारे बाबा साहब भी थे।’

दिन प्रतिदिन की लगातार काउंसलिंग से भी वे उसे उसके मार्ग से किंचित भी न डिगा सके, क्योंकि भक्ति-भावनाओं का अमृत उसकी नस-नस में समा गया था। ऐसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी उसे किसी मतलब का नहीं लगता था। जिसके हृदय में भक्ति-भाव न हो और जो लाख मोह हो अनासक्त न हो। परिणामस्वरूप अब उसकी और उसके घरवालों की अनबन रहने लगी थी। वह हर पल यही सोचता रहता था कि ‘मुझे सदमार्ग चलने से रोकने के बजाय यदि मेरे माता-पिता मेरे लिए एक अच्छे गुरु को ढूँढ़ने में मेरी सहायता करते तो कितना अच्छा रहता। परंतु अब उसे निश्चय हो गया कि वह खोज-कर्म भी उसे खुद ही करना पड़ेगा। अस्तु वह हर समय गुरु और ज्ञान की खोज में रहने लगा। हालाँकि विद्यालयी विद्या में उसे विज्ञान और तर्कशास्त्र की पढ़ाई भी आकर्षित कर रही थी। उसकी यह दृष्टि कबीर की कविता की ओर ले जा रही थी या कबीर की कविता उसे तर्कशास्त्र और विज्ञान की ओर ले जा रही थी। वह कुछ तय नहीं कर पा रहा था, पर घटित कुछ ऐसा ही होता जा रहा था। मन में प्रकृति, कृषि और हरियाली से प्रेम जाग रहा था।

उसने अपने घर की खाली पड़ी हुई जमीन को हरियाली से भर देना चाहा। उसने सोचा कि ‘क्यों न कल्पना को अमल में लाया जाए, इस खाली जमीन में परिश्रम करके कुछ प्रकृति प्रेम प्रकट कर देश वालों का फायदा किया जाए। उसके विचारों का सिलसिला अविराम चल रहा था और आज तो विचारों में झड़ी-सी लग गई। उसने पढ़ा और जाना था कि प्राचीन काल में ऋषियों के आश्रमों में चेले रहा करते थे। वहाँ चारों ओर हरियाली रहती थी, जिससे शांत, मंद सुगंध पवन बहती रहती थी। उनका मन प्रसन्न रहता था। वे प्रसन्न तन-मन और स्वस्थ वातावरण में गहरे चिंतन-मनन किया करते थे। यूँ प्रसन्नता ही सब सुखों का आधार थी। और अप्रसन्नता दुखों का, गुलामी को कोई मूर्ख बन कर सुख न समझने लगे। आजकल हमारा देश कितनी अस्पृश्यता- दरिद्रता में है। इसका निवारण पृथ्वी के पेट से उत्पन्न उत्पादन से ही संभव है। बस अब क्या था वह जुट गया। उस जमीन को कुदाल से खोद डाला। उसमें उसने कुछ अपने एक पड़ोसी के मूली के बीज बोये तथा धनिये के बीज बाजार से लाकर चप्पलों से मिट्टी में रिला-मिला डाले। दो-चार दिनों के बाद पौधे जमीन से निकल कर ऊपर नये संसार में आए। जैसे नवजात शिशुओं ने आँखें खोली हों। तब उसकी खुशी का ठिकाना न था। वह उसमें हर समय खाद-पानी देता रहता था। अब पौधे अपने हरियाली रूपी यौवन को प्राप्त कर चुके थे। वह उस छोटे आठ-नौ वर्ग मीटर के खेत की एक खूट पर बैठ कर हाथ में पुस्तक लेकर पढ़ता रहता था, जिससे इस खेत की रखवाली भी होती रहती थी और उसकी पढ़ाई भी। जिस तरह खेत में फसल पौधों के अंकुर निकल रहे थे, उसी तरह उसकी मनोभूमि में ज्ञानांकुर फूट रहे थे। इसके लिए उसने एक और प्रबंध किया। उस खेत के चारों ओर दो-दो फुट गोलाकार ईंटें लगा दीं। जिससे उसको पर्याप्त वायु तथा प्रकाश मिल सके। इस प्रकार वह उन पर बैठ कर ऐसा समझता कि मानो मैं जंगल में ऋषियों जैसा आश्रम बना कर बैठा हूँ। पिता जी ने उससे पूछा कि धर्म स्थल की इन ईंटों को यहाँ कौन लाया? उसने कहा कि ‘उसने इन ईंटों को यहाँ बड़ी मेहनत से रखा है।’ परंतु वे नहीं माने और उन्होंने उन ईंटों को धकेल दिया, जिससे नई उपजी मूली, लहसुन और धनिये का नाश हो गया। उन अंकुरों का मसलना मिटना उसे किसी अजन्मे बच्चे की भ्रूण हत्या करने जैसा लगा।

इस घटना से मानो उसके मासूम मन पर कठोर बज्रपात हो गया। अस्तु घर से उसका मन उखड़ गया। उसने जैसे-तैसे दूसरे दिन अवसर पा छोटे भाई को चाबी दी और वह गुरु की खोज में घर से बाहर निकल पड़ा। रास्ते में चलते-चलते उसके मुँह से निकल पड़ा, ‘भगवान तुम्हारा भला करे।’ इसी शब्द को जीविका का मूल मंत्र मान कर उसने उसे निभाया। वह पैदल बड़ी तेजी से सड़क पर चला जा रहा था। दिन छिप चुका था। थोड़ी ही देर में अँधेरा हो चला था। ‘अब कहा जाऊँ?’ सोचा कि ‘इस घने जंगल में घुस जाऊँ और जानवरों के साथ सो जाऊँ?’

परंतु न जाने, क्यों डर से, विवेक से या जो संस्कार उसे उसके घर से मिले थे। दिल ने इसे भी नहीं माना। दुखद कि उस दिन उसे कोई साधु-संन्यासी भी न मिला। सोचा कि पास की खाली पड़ी हुई झोपड़ियों में रात भर विश्राम कर लूँ। परंतु उनमें भी कोई न था। सड़क पर ही पी.ए.सी. (पुलिस) का बहुत बड़ा केंद्र था। वह वहाँ पर चक्कर लगाने लगा। अंत में उसे कोई आदमी दीखा जो भैंस खरीद कर ला रहा था। उसने पूछा, ‘भाई कहाँ जाएगा।’

‘कही नहीं।’ ‘फिर भी कहीं तो जाएगा?’ ‘कहीं भी जाऊँ, तुझे क्या मतलब?’ ‘तू बता कौन है, किसलिए भटक रहा है?’

अधिक पूछे जाने पर उसने उसको अपना परिचय दिया और बताया कि ‘वह तीसरे ‘तांतर’ गाँव का रहने वाला हूँ। यहाँ एक भैंस लेने आया था सो मिल गई है। अब सूरज छिप गया, पूछा कि आओ हम पास के किसी चौपाल पर रह लेंगे।’ रात अंधकारमय होती जा रही थी। गाँव के कुत्तों को भनक लग चुकी थी, वे उन पर भौंकने लगे थे। पूछते-पूछते वे कथित छोटी जाति के किसान के यहाँ टिके। शुरू में तो टिकने में बड़ी मुश्किल पेश आई। क्योंकि चोर लोग यहाँ न जाने क्या-क्या भावनाएँ लेकर आते हैं। इस कारण ये किसी को रात्रि में ठहरने नहीं देते थे। पहले एक सज्जन ने भैंस को देख कर अनुमान लगाया कि क्या बेचारा ऐसा दुबला-पतला, सीधा-सादा कोई चोर उचक्का हो सकता है? सोच-विचार कर उन्हें आश्रय और उनकी भैंस के लिए चारा दे दिया। इतना ही नहीं अपितु उनके लिए खाना तैयार करवा दिया। परंतु धीरज ने खाना नहीं खाया। अगले दिन सुबह मुर्गा की बाँग के साथ ही वे उठे और किसान का धन्यवाद कर वहाँ से चल दिए। नजदीकी सड़क के पुल पर पहुँचे, तब उस युवक ने उससे पूछा कि क्या तुम मेरे साथ चलोगे? हमारे यहाँ सिलाई का काम होता है। वह काम हम आपको सिखवा देंगे तथा हम भी तुम्हारे साथ वह काम करते रहेंगे। परंतु उसके तो विचार ही भिन्न थे। धीरज ने उस युवक का प्रस्ताव एकदम अनसुना कर दिया। परंतु वे कुछ कदम साथ-साथ चल कर वहाँ से एक दूसरे के विपरीत राह के राही हो गए। उनके रास्ते अलग, मंजिलें अलग हो गईं।

इधर चिंतातुर घरवालों ने तथा पड़ोसियों ने उसे बहुत ढूँढ़ा। सब निराश हो कर बैठ गए। माता-पिता विलाप करने लगे। क्या भाई-बहिन और क्या पड़ोसी? सब एक दूसरे से अधिक दुखी हो रहे थे। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कई रातें गुजर चुकी थीं, पर सब व्यर्थ। छोटे भाई ने रोते हुए कहा, ‘यदि मुझे पता होता तो मैं उससे चाभी न लेता।’ माँ बिल्कुल दुबली-पतली, ममता भरा उसका दिल, न जाने कैसे आज वह अपने लाल को गली-गली ढूँढ़ रही थी। कभी किसी से पूछती, तो कभी आत्मलाप करती। मानो बेटा सामने है और माँ उसे समझा रही है। तो कभी किसी बाजार से आती-जाती स्त्री का पल्लू पकड़ कर पूछती, ‘अरी सुन री बहन, क्या तुमने मेरा लाल कहीं आते-जाते हुए देखा है? अरी यो कम्बखत बेहया की तो बताओ जो उसे पकड़ कर ले गई है। उसे लगता था मेरे लाल को कोई स्त्री बहला-फुसला कर ले गई है। परंतु बताये कौन? किसी ने देखा भी तो नहीं था। कभी पंडित और ज्योतिषी से बड़े निश्चय से पूछते। कोई पंडित कहता कि अब दक्षिण दिशा में गया है, तो कोई कहता पश्चिम दिशा में, परंतु सही-सही निश्चित दिशा में कोई न बता सका। आखिरकार सबने इकट्ठा टोकर मौन धारण करके भगवान से प्रार्थना की। भाई तथा बहिनों ने स्तुति की, ‘हे भगवान हमें हमारा बीर (भाई) मिल जाय’ तथा माता-पिता ने कहा कि ‘हे भगवान हमें हमारा लाल (बेटा) मिल जाय।’ यह उनकी सच्ची आत्माओं की पुकार थी।

धीरज के भाई ने कहा, ‘माँ रोवे मत, तेरे लाड़ले को तो कबीर का यह कहन कि ‘जो घर फूँके आपनो चले हमारे साथ’ खींच कर ले गई, और वो घर फूँक कर चला गया। अब उसे मत ढूँढ़ो, सब्र करो। फूँके-उजड़े घर को फिर से बसा सको तो बसाओ। जो नष्ट होने से बचा है, उसे बचाओ।’ ये आपस में बतिया रहे थे तभी उसकी अलमीरा झाड़ते हुए एक पुरानी-सी स्कूली कॉपी, जिस पर उसके स्वभाव के प्रतिकूल चौकाने वाली लिखत मिली। वह भी फिल्मी गीत। उसी वर्ष 1966 में ही एक फिल्म आई थी ‘मस्त कलंदर’ उसकी कौम के शायर शैलेन्द्र का गीत उसमें फिल्माया गया था–‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है। न हाथी है न घोड़े हैं, वहाँ पैदल ही जाना है। तुम्हारे महल चौबारे यहीं रह जाएँगे सारे…’

देखो पिता जी भैया की कॉपी में यह फिल्मी गीत? आप तो कहते थे उसे तो संत साहित्य का प्रभाव खींच ले गया। वह तो फिल्मी गीत गाने लगा था। इसमें तो फिल्म और शायर दोनों के नाम लिखे हैं।

पिता ने कॉपी पकड़ी और घर से बाहर निकल गए। नहर के साथ-साथ घास पर चलते-चले गए। दूर जा कर नहर के पानी में घुटनों तक पैर डाल कर बैठ गए और एक बार फिर कॉपी के पन्ने खोल कर पढ़ने लगे।

गीत को कई बार पढ़ा और अपने आप से पूछा, ‘क्या शैलेन्द्र के गीत का भाव कबीर का भाव नहीं है? आज कबीर होते और फिल्मों के लिए गीत देते, तो क्या ऐसा सूफियाना कलाम नहीं देते?’

उधर धीरज के विचार बदले। वह घर वापसी की सोचने लगा, बल्कि उसी रात वह अपने घर की ओर मुखातिब हुआ। उसने सुबह होने का भी इंतजार नहीं किया। वह अँधेरे में भी चलता रहा। इस प्रकार लगा कि मानो रात में रास्ता भूले हुओं के लिए विश्वास जैसे कि भगवान हाथ में चिराग लिए हुए रास्ता दिखा रहे हैं। दो-तीन मील चलने के बाद सूर्य ने संसार को प्रकाशित किया। चलते-चलते वह एक बाग में पहुँचा और सुस्ताने बैठ गया। वहाँ से जब आगे चला तो देखा सामने से रोती हुई उसकी माँ चली आ रही है। उसने माँ को गौर से देखा और माँ ने उसे देखा। माँ बेटा सुबक-सुबक कर रोते हुए एक दूसरे के समीप आए। एक-दूसरे की कौली भर बहुत रोये। हिचकियों के साथ माँ उससे पूछ रही थी, ‘बेटा तू कहाँ था?’ आँसुओं से नहाया वह बता रहा था, ‘माँ मैं यूँ ही एक ग्राम में चला गया था।’

वह सोच रहा था, मैं गया क्यों था? भक्ति तो घर पर रह कर भी हो सकती है। यह नहीं कि घर से दूर जंगलों तथा काननों में ही हम सच्ची तपस्या कर सकते हैं। चूँकि हम समाज में उत्पन्न हुए हैं, इसलिए हमें समाज में रहते हुए उसकी सेवा करनी चाहिए। समाज सेवा का अर्थ मनुष्यों की सेवा है, क्योंकि व्यक्ति समाज की इकाई है। मानव सेवा ही सबसे बड़ी तपस्या है। सब वस्तुएँ उस परम शक्ति द्वारा निर्मित है। अतः यदि हम उसको प्रसन्न रखना चाहते हैं, तो हमें उसकी बनाई हुई वस्तुओं को प्यार करना चाहिए। मानव भी उसी का बनाया हुआ है। ‘धर्म-जातियाँ’ उसकी निर्मिति नहीं हैं। ये सब तो उसके बनाए मानव की निर्मितियाँ हैं।

इन उत्तम विचारों को व्यक्त कर अंत में वह अपने सब पड़ोसियों तथा कुटुंबियों से प्रेमपूर्वक मिला। उसने गाँव भर में एक चक्कर लगाया ताकि सबको पता चल जाए कि वह लौट आया है, और वे सब भी कहने लगे, ‘चलो, जो हुआ सो हुआ, जो बीती सो बिसार दो। सुबह का खोया, शाम को घर आ जाए तो वह खोया हुआ नहीं समझा जाता।’

‘धीरज’ सभ्य किंतु साधारण परिवार का बच्चा है। उसके पिता किशोरीलाल एक सरकारी कारखाने में एक सर्व-प्रिय श्रमिक हैं। उनकी सर्वप्रियता का कारण अपने ऊपर लिए कार्य को कुशलता से अंजाम देना और काम से कभी जी नहीं चुराना है। कारखाने के सभी कारीगर, हेड मिस्त्री उसे पसंद करते हैं। यहाँ तक कि मैनेजर तक उसकी प्रसंशा करते हैं। वे मामूली हिंदी तथा कामचलाऊ उर्दू जानते हैं। परंतु वे अपने बच्चे की शिक्षा की ओर काफ़ी ध्यान देते हैं। वे चाहते हैं कि मेरा बच्चा पढ़-लिख कर इंजीनियर बन जाए। इसलिए कि उनके पेशे में इंजीनियर ही बड़ी चीज थी। उनकी जवानी अँग्रेजी राज में बीती है। उन्होंने अनुभव से एक बात जानी थी कि जिनके पास विद्या थी, उन्हीं के पास आज़ादी आई और जिनके पास अशिक्षा थी उनके पास गुलामी। ‘धीरज’ अब कक्षा दस का विद्यार्थी है। परिवार को उसकी पढ़ाई से बहुत उम्मीदें हैं। किशोरीलाल अब भी उसको जेब खर्च के लिए पैसे नहीं दे पाते हैं। परंतु खुराक में कोई कमी नहीं आने देते हैं। घर पर एक दुधारू भैंस है। माँ उसका दूध बिलोती है, जो घी निकलता है सब ‘धीरज’ का होता है। वे स्वयं गुड़ के साथ मट्ठा-वगैरह पी लेते हैं।

धीरज पढ़ता बहुत है। क्या सुबह, क्या शाम और क्या दिन, क्या रात? हर समय पढ़ता ही रहता है। जो बच्चे, स्त्री-पुरुष उसे देखते हैं, उसके हाथ में किताब देखते हैं, उसे पढ़ते देखते हैं। गाँव वाले हों या मुहल्ले वाले उसकी पढ़ाई के चर्चे करते रहते हैं। कुछ ईर्ष्या में व्यंग्य करते हैं–‘किताबी कीड़ा बन के कौन जंग जीतेगा? देखते रहो, दो-चार साल में आँखें और खराब कर लेगा।’ तो कई शुभकामनाएँ भी रखते थे। घरवालों से कहते, इस बालक को खूब पढ़ाना, क्योंकि यह रात-दिन की पढ़ाई से ही घर-बस्ती को खुशियों से भर देगा। पिता भी उसकी पढ़ाई के प्रति सचेत और आशान्वित हैं।

आज बैठे-बैठे किशोरीलाल ने सोचा कि ‘क्यों न मैं धीरज की अलमीरा को साफ कर दूँ? उसे तो पढ़ने-लिखने से फुरसत नहीं होती। बड़ा अध्यवसायी विद्यार्थी है। इस प्रकार हाथ में एक कपड़ा लेकर वे उसकी अलमीरा साफ करने लगे। वे एक किताब के बाद दूसरी किताब देखने लगे। ‘मदर इंडिया’, ‘धूल का फूल’, ‘नागिन’, ‘मैं चुप रहूँगी’ आगे न जाने क्या-क्या शीर्षकों की किताबें निकलीं, उसकी अलमीरा से। किशोरी की त्यौरियाँ चढ़ीं, देख कर वे गुस्से से लाल हो गए। ये साठ के दशक की सभी प्रचलित पुस्तकें थीं। इस तरह उसके स्कूली कोर्स से बाहर की ढेर किताबें अलमीरा में निकलीं। लड़का पढ़ता तो बहुत है, पर ऐसी ऊल-जुलूल कॉलेज से बाहरी किताबें पढ़ कर यह बनेगा क्या? करेगा क्या? ये किताबें नहीं हैं विष की बेले हैं, इनमें लिपटेगा तो ये इसे बर्बाद कर देंगी।’ सोच कर पिता की सुआशाओं पर तो मानो तुषारापात हो गया। उनका धैर्य टूटने लगा, क्रोधाग्नि भड़क उठी। धीरज कॉलेज से आया है। सामने पिता जी गुस्से से लाल हुए बैठे हैं। वह उन्हीं को देख कर बोला, ‘नमस्ते पिता जी।’ … ‘हूँ, नमस्ते।’ किशोरीलाल ने गर्दन हिलाते हुए बेमन से नमस्ते ली।

‘अब तो बेटा तू पढ़ने-लिखने में जरूरत से ज्यादा मेहनत कर रहा है।’

उन्होंने पहला व्यंग्य बाण मारा और वह बिना विचलित हुए, ‘जी, पिता जी, खूब पढ़ रहा हूँ।’ धीरज ने उत्तर दिया।

‘इस तरह तो तू सबसे ऊपर प्रथम श्रेणी में ही पास होगा।’ 

‘वह तो मैं नहीं कह सकता पिता जी, वह तो किस्मत है, मेहनत में कोई कमी नहीं कर रहा हूँ।’

‘हाँ-हाँ, बेटा सो तो हम देख रहे हैं बेटा तू कैसी-कैसी रंग-बिरगी मेहनत कर रहा है। बहुत मेहनत कर रहा है। चार की जरूरत पर चौदह किताबें पढ़ता है। एक-से-एक बढ़िया किताब, तू ही तो पढ़ता है, नैतिक आदर्श और परोपकार सिखाने वाली किताबें। हाँ, बाजारू फुटपाथी कामसूत्र और कोकशास्त्र पढ़ने की कमी दिखती है। बाकी तो सब पर तेरी पढ़ाई चल ही रही है।’

धीरज भी अब समझ गया था कि आज जरूर दाल में कुछ काला है, फिर भी उसने दिल थाम कर पिता को सफाई पेश की, ‘मुझे क्या मालूम मैं तो इन किताबों की बातों से कोसो दूर हूँ।’

‘तू दूर होगा, पर ये किताबें तो तुझसे सूत भर भी दूर नहीं है?’

‘पिता जी, मैं तो इनमें से कभी किसी को नहीं देखता।’

‘तो क्या ये किताबें तुझे देखती है?’

‘जब मैं इन्हें नहीं देखूँगा तो ये मुझे कैसे देखेंगी पिता जी?’

‘नहीं देखेंगी, कोई प्रमाण।’

‘मुझे क्षमा करें, आपकी आशंका का क्या प्रमाण पिता जी?’

‘प्रत्यक्ष को प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं होती है बेटा।’ कहते हुए वे उठे और धीरज का कान पकड़ कर अलमारी में रखी पुस्तकों को दिखाया।

‘अब तो मानेगा? या अभी भी कहेगा कि इनसे मिलता नहीं, इन्हें देखता नहीं।’ धीरज का मुँह फीका पड़ गया और वह रोता हुआ कहने लगा, ‘ये मेरी नहीं हैं।’ 

‘तो और किसकी हैं?’

धीरज अवाक् था। उसकी गलती पकड़ी जा चुकी थी। किसी झूठ से या बहाने-बाजी से सच्चाई बदलने वाली नहीं थी। अतः उसने गलती कुबूल की और कहा, ‘पिता जी, इस बार माफ करो।’ माँ ने भी आगे बढ़ कर कहा, ‘हाँ जी, बच्चा है माफ कर दो।’

‘हूँ माफ करूँ, अरी इसकी नालायकियों को माफ कर दूँ?’ कहते हुए वे यकायक तैस में आ गई और उसे आगे से लात मारी। 

‘क्या मैं इसलिए पढ़ा-लिखा रहा था कि यह आगे चल कर तू हमारे वंश पर कलंक की कालिक चढ़ाएगा? मैं तो नहीं जानता था इस शराफती चोले में इतने बड़े-बड़े चोर छिपे हैं। न जाने कैसे आज-कल के लड़के कॉलेज का मुँह देखते-ही-देखते हवा से बातें करने लग जाते हैं। न इनमें देश प्रेम ही है और न गर्त में गिरी कौम के उत्थान की कोई कल्पना है। अगर हमारे इस बूढ़े, परंतु बालक देश में ऐसे विद्यार्थी कॉलेज से निकलने लगे तो आगे चल कर देश का क्या होगा? क्या ऐसी ही नालायक संतानों से देश अमरीका बन जाएगा? किस तरह अमरीका-अफ्रीका में काले गुलाम आजाद हुए तालीम की कश्ती को खे कर।

ये क्या जाने कि इनके बड़े-बुढ़ों ने कितनी मुसीबतें सहकर इस स्वतंत्रता को प्राप्त किया था। अभी तो सामाजिक बराबरी रूपी आज़ादी मिली भी नहीं है। और हम अपने ही मुल्क में गुलामों से बदतर अछूत…और हमारे ये लाड़ले ऐसे परिश्रम से प्राप्त हुई थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता को भी खोने को तुले बैठे हैं। ऐसे कमीने नालायक बच्चों की हमारे घरों में बिलकुल भी जरूरत नहीं है। ऐसी औलादों से तो हमारी कौमें बे-औलाद ही अच्छी हैं। इन्हें होश सँभालते ही अय्याशी और आराम चाहिए। ये लाइब्रेरी तक पैदल नहीं जाना चहते और सत्तर साल के गाँधी ने मीलों यात्राएँ कीं, छुआ-छूत मिटाने और धार्मिक सदभाव लाने के लिए बाबा साहब अम्बेडकर ने मधुमेय से पीड़ित रह कर दिन रात संविधान की ड्राफ्टिंग की।’

‘पिता जी गलती हुई क्षमा कर दें, कसम लेता हूँ, यह पहली और आखिरी गलती होगी।’

‘क्यों हुई? क्या इसलिए कि हमने तुझे अपने ऊपर कष्ट सह कर पढ़ाया। परंतु अब मैं यह पूछता हूँ कि तेरे पास पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे कहाँ से आए? जबकि मैं कभी जेब खर्च भी नहीं दिया। क्या, तू झूठ बोलने के साथ-साथ चोरी भी करता है।’

‘नहीं-नहीं, पिता जी, ये किताबें मैंने पढ़ी नहीं है, केवल देखी है।’

जैसे जो चीज लिखी जा सकती है, छापी जा सकती है, तो देश-समाज हित में ही होगी, वरना सरकार छापेखाने बंद नहीं करा देगी?’ 

‘तो क्या वे पुस्तकें देवियाँ-परियाँ थीं, जो स्वत उड़कर आई और अलमीरा में जा बैठीं, आज तुम्हें अच्छी तरह बतला दूँगा।’ थोड़ी देर में, बाहर निकल जाते हैं। क्योंकि वे उनके पास ही रहते हैं। उनका कोई नहीं था। केवल एक बूढ़े पिता और माँ थी।

उसे पिटता देख, उस बेचारे बूढ़े से न सहा गया, वे कहने लगे, ‘बस बेटा, अब इसको मत पीटो, बहुत पिट चुका है, यह अब समझ जाएगा। इसलिए इसे अब मेरे सामने मत मारो।’

‘बस आप चुप रहो। तुम बड़े आए लाड़-प्यार जताने वाले। मैं आपसे अधिक कुछ कहना नहीं चाहता।’ इस प्रकार धीरज ने सोचा था कि मेरी गलती पर बड़े-बुढ़ों को भी सुनना पड़ रहा है, उसमें इस तरह के विचार उत्पन्न होने लगे कि अब से वह पक्का स्थायी देश-भक्त बन सका। इस दिन ने मानो उसकी जिंदगी को ही बदल दिया। उसने सबके सामने यह प्रतिज्ञा की कि ‘मैं न केवल स्वयं को बदल कर दिखाऊँगा, बल्कि अपने सहपाठियों को भी सुमार्ग पर लाऊँगा, अब प्रतिदिन अपनी स्कूली पुस्तकों के आलावा अच्छी, सच्ची पुस्तकें ही पढ़ूँगा-पढ़ाऊँगा।’

वह अपने सहपाठियों को समझाता, भाइयों! हमारे पूर्वजों ने खोयी हुई स्वतंत्रता को पुण्य स्वरूप प्राप्त किया है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि इस प्राप्ति के लिए उन्होंने कितना परिश्रम और स्वार्थ त्याग किया होगा। इस स्वतंत्रता की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है, यह महत्वपूर्ण तथा कठिन कार्य है। हमें इसके लिए बहुत कुछ करना है। जिस मालरूपी रत्न-रस अँग्रेजरूपी जोंक चूस कर ले गए हैं, उसकी क्षति-पूर्ति हमें ही करनी है। हमें अपने कंधों को मजबूत बनाए रखना है। क्योंकि न जाने भविष्य में कौन-सी जिम्मेदारी हमारे कंधों पर आने वाली है। हमें इस तिरंगे झंडे की आन को समझना है। इसे संसार के सभी झंडों से ऊँचा रखना है। अत: हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि ‘हे! परमपिता तू हम भारतवासियों में मिल-जुल कर रहने, परस्पर सहयोग करने, समता का व्यवहार करते रहने वाली की सद्बुद्धि दे।’ अपने ऊपर एक दायित्व लेना, जिम्मेदार नागरिक होना ही हमारा काम है। हम नये भारत के लिए नयी सफल योजना में नये यंत्र को, सब कुछ नये बनाएँगे। हमें नयापन प्रिय होना चाहिए। धर्म-जाति आदि के भेदभाव को मिटाना चाहिए। हमसे कोई पूछे कि तुम कौन हो तो हमारा उत्तर होना चाहिए, ‘भारतवासी (भारतीय), न कि हम हिंदू हैं, सिक्ख हैं, ईसाई हैं, मुसलमान है, बौद्ध हैं या अछूत हैं। अभी आज से हम तिरंगे की सौगंध खा कर प्रतिज्ञा करेंगे कि हम देशहित के लिए सब कुछ करेंगे और इसके विरोध में तो हम स्वप्न भी देखने की कल्पना नहीं करेंगे।’

यह किसी चमत्कार से कम न था कि बालक के बोलों में संत-संगति में कबीर-रैदास की कहन में परिवार खो गया था, भ्रमित हो गया। उसकी यात्रा कथा को भूल-सा गया था। इस बीच चर्चा हुई कि कॉलेज का परिणाम आ गया है। चौधरी का बेटा थर्ड क्लास और पंडित वेदबंधु का पुत्र संस्कृत में फेल हो गया। ‘अरे यह कैसे वे तो कहते थे हमारे बच्चे फालतु की किताबें नहीं पढ़ते। कोर्स की पढ़ते हैं या घर में रखी पुरानी चार किताबें…!’

‘धीरज का क्या हुआ? इम्तहान तो उसने भी दिया था, परिणाम भी देख आया होगा–घर में नहीं है क्या?’ पिता ने पत्नी को संबोधित कर पूछा। 

‘क्यों क्या करोगे?’ 

‘पढ़ाई का नतीजा आया है, हमें भी पता चले कैसा रहा?’

‘वो तो किसी महापुरुष का प्रवचन सुनने गया है, आप ही पता कर आओ कॉलेज जा कर, लौटते हुए कुछ साग-सब्जी भी लेते आना, कारखाने से छुट्टी ली है तो कुछ घर के काम-काज में भी हाथ बटाओ।’ 

‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं, मैं अभी जाता हूँ।’

किशोरीलाल ने बोर्ड पर लगे परिणाम को कई बार मुड़-मुड़ कर देखा कि देखने में उनसे कहीं कोई गलती तो नहीं हो रही है। पर उसे न तो धीरज का नाम दिखा और न उस सूची में कोई फर्स्ट क्लास वाला विद्यार्थी। वे हताश हो कर घर लौटे। अब उनसे घर के लिए साग-सब्जी भी नहीं खरीदी गई। आए और पस्ता हो कर सीधे चारपाई पर जा गिरे।

‘अरे, क्या हुआ, आपकी तबीयत खराब हुई क्या? और सब्जियाँ कहाँ हैं?’ पत्नी ने पूछा। 

‘नहीं, तबीयत नहीं किस्मत खराब हो गई, बल्कि औलाद की तो जिंदगी भी खराब होगी, क्योंकि आने वाली पीढ़ी गुलामी के गर्त में गई।’

‘क्यों ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?’

‘धीरज की पढ़ाई का नतीजा खराब आया क्या?’

‘और कैसा कहूँ, तेरे सिर चढ़े लाड़ले का तो नाम तक नहीं है नतीजा सूची में। मुझे तो उसके लक्षण तभी दिख गए थे जब यह छिप-छिप कर, एक बार तो मुझे सिगरेट के जले हुए ठूँठ इसकी खाट के पास पड़े मिले थे। सो लगा दी आग इसने हमारी उम्मीदों में, धुँआ-धुआँ कर दिया भविष्य अपना भी। ऊल-जलूल किताबें पढ़ा करता था।’

‘क्या बात कह रहे हैं आप, इतना पढ़ने वाला बच्चा…?’ इतने में किसी ने साँकल खट-खटाई? ‘धीरज है क्या?’

‘क्यों? भाई वह तो नहीं है, हम हैं उसके अभागे माता-पिता।’

‘तो कुछ मिठाई-विठाई लाइये, क्यों हमारी बर्बादी को मिठाई खा कर जश्न जाहिर करोगे?’

‘कैसी बातें कर रहे हैं? आपके बेटे ने यूनिवर्सिटी टॉप की है जनाब। आप अभागे नहीं, सौभाग्यशाली हैं, कॉलेज में आपको भी सम्मानित किया जाएगा।’ 

‘देखा, सुना जी, मैं भी उसकी लगन और पढ़न को देखती थी, तो मुझे सही में कवि की बात लगती थी कि ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’


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Artist : Kuzma Petrov-Vodkin
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