यथावत की यात्रा

यथावत की यात्रा

हतप्रभ थे सारे लोग, यह जान, धीरे-धीरे फैलते जा रहा है झूठ। वे बता रहे थे–‘यह तो कुछ भी नहीं है, झूठ जितना सफेद होता जाएगा, एक दिन पवित्र भी यही कहलाएगा।’ यह सुन, सब स्तब्ध रह गए!

एक ने कहा–‘फिर क्या सारे तीर्थ झूठे पड़ जाएँगे। कुछ भी काम नहीं आएगा।’

‘अब यार, झूठ के साथ सभी झूठे तो पड़ते ही जाएँगे ना!’ दूसरे ने उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा और कहा–‘चल अब!’

‘रुको!’ बात अभी खतम नहीं हुई है। फिर उन्होंने हँसते हुए कहा–‘फिर धीरे-धीरे फैलता जाएगा मजाक! और आदमी जितना दयनीय होता चला जाएगा मजाक भी बनता जाएगा।’

‘फिर होगा क्या आखिर?’

‘उसे पता ही न चल सकेगा और वह बड़े-बड़े जुल्म ढोता फिरेगा।’

‘उसके बाद!’–अचंभे से भरी फिर एक आवाज!

‘फिर, पवित्र-सा लगता सफेद झूठ और दयनीयता से भरे मजाक, एक जगह मिल जाएँगे।’

‘तब तो प्रलय ही होगा ना!’

‘नहीं! नहीं!! इतनी जल्दी नहीं। तुम सब कहोगे लोकतंत्र, लोकतंत्र और सांस्कृतिक लोग विचारते मिलेंगे कि सफेद झूठ बोले जाने के वक्त पवित्रताएँ कितनी नजदीक खड़ी देखी गई और तलाशेंगे यह भी कि मजाक में दयनीयता कब शामिल होना शुरू हुई।’

‘इससे क्या होगा?’

‘लोकतंत्र का विकास।’


Image: Bleeker and Carmine Streets
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: George Luks
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