पछतावा

पछतावा

अस्पताल से घर लौटते पिता बार-बार पूछ रहे थे, ‘घर आ गया!’

‘अभी नहीं आया।’ माँ का खीज भरा स्वर था।

‘रास्ते में बहुत ट्रैफिक है, थोड़ी देर लगेगी।’–मैं बोला।

पिता फिर बोले, ‘और कितनी देर!’

‘जिंदगी भर तो घर का रास्ता याद आया नहीं!’–माँ ने उलाहना दिया। पिता कुछ नहीं बोल सके।

आधे घंटे बाद जब गाड़ी रुकी, तो मैंने कहा–‘आप उतर जाइए!’

‘क्यों!’

‘घर आ गया है।’

‘अस्पताल से सीधे घर आए ना!’

‘हाँ! हाँ! कहाँ रुकते! जब घर है तो!’

‘काश! जिंदगी में ऐसा होता।’–पिता का एक निःश्वास भरा स्वर था।

‘घर हो भी जाता।’–भर्राई आवाज में कहते हुए माँ भीतर चली गई।

तभी बेटा किताब लिए बाहर आ मुझसे पूछ बैठा, ‘पापा, पछतावे का मतलब!’…कहाँ लिखा है? मैं समझा माँ ने कुछ कहा होगा!

‘ये देखो!’–बेटे ने शब्द के नीचे पेंसिल का निशान बनाते हुए बताया।

मैं आहिस्ता आहिस्ता घर के भीतर जाते पिता को देख रहा था।

‘आप दादा जी की तरफ क्या देख रहे हो।’

‘हाँ, तो तुम पूछ रहे हो, पछतावे का मतलब…!’


Image : Self-portrait
Image Source : WikiArt
Artist : Joaquín Agrasot
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