एक दिन का युद्ध

एक दिन का युद्ध

अर्चना की रुलाई फूट पड़ी। गुस्से में थरथराती उसकी आवाज से अनुराग चौंक गया।

‘आठ, चालीस हो गए हैं और बाई का अब तक कोई पता नहीं है–मैं क्या करूँ जब मन आता है वह अपने घर बैठ जाती है बगैर कुछ बताए। इस हाल मैं बब्बू को किसके भरोसे छोड़कर जाऊँ?’ पैर पटकती अर्चना खिड़की की तरफ भागी।

वक्त को अपने जबड़े में दबाए घड़ी की सुई फिर आगे सरकी। अनुराग दरवाजे के बाहर आया। बरामदे की खिड़की से उसने झाँककर देखा–क्रांति नगर की पतली गली में सिर्फ एक अधनंगे बच्चे के दूर-दूर तक खामोशी थी। पार्वती बाई के आने का कोई निशान वह चाह कर भी नहीं देख पा रहा था। फोन की घंटी बजी। अनुराग तेजी से फोन की तरफ बढ़ा। उसने सुना, ‘ड्यूटी रूम से सुधा बोल रही हूँ, मैडम हैं?’

‘बोलो सुधा’ वह बमुश्किल बोल पाया।

‘शिमित अमीन का फोन आया है वे आधे घंटे में पहुँच रहे हैं। मैडम भी रास्ते में ही होंगी?’ फोन पर सन्नाटा था। फिर फोन अचानक कट गया।

‘यादव भाभी मान गई हैं, आज भर की तो बात है बब्बू को उनके घर छोड़कर जा रही हूँ।’ अर्चना की टुकड़ा-टुकड़ा आवाज उसके कानों में गिरी। वह लपक कर दरवाजे तक आना चाहता था, वह अर्चना को सुधा के फोन के बारे में बताना चाहता था, वह बब्बू को प्यार से दुलारना चाहता था, वह चाहता था कि यादव भाभी के घर वह खुद अर्चना के साथ चले पर दरवाजा झटके से बंद हो गया था।

अनुराग की आँखें फिर दीवार पर जा चिपकीं। घड़ी के जबड़ों के बीच दबे वक्त की झटपटाहट उसे अंदर तक हिला गई।

कार शेड के पास की पत्थरोंवाली गली पार कर वह कब सड़क तक आया, सड़क से कैसे उसने साँई बाबा मंदिर के सामने का रास्ता पार किया, कब वह बगैर आगे-पीछे देख दनदनाते रेल की पटरियों को पार कर प्लेटफाॅर्म नंबर तीन पर चढ़ गया–उसे कुछ नहीं मालूम। उसे पता ही नहीं चला कि कैसे, किस गति से उसने घर और स्टेशन के बीच पसरे सत्रह मिनट के फासले को तेजी से पार कर लिया है।

अब वह सीढ़ियों को पार कर पुल पर था और उसे पुल से उतरकर प्लेटफाॅर्म नंबर पाँच पर पहुँचना था। कैसे भी, हर हाल में। पटरियों के पार उसकी नजर गई–नौ, बयालीस की फास्ट उसे आती हुई दिखी।

अब की अनुराग दौड़ पड़ा। आगे भीड़ खिसक रही थी और अनुराग खिसकती उस भीड़ में छटपटा रहा था। जब उसके पैर आखिरी सीढ़ी तक पहुँचे, ट्रेन फिसल गई थी। वह कुछ देर ठिठका। उसने देखा फास्ट ट्रेन का तो कहीं पता ही नहीं। इंडीकेटर कुछ और दिखा रहा था। तेज-तेज साँसों पर काबू करते उसने सुना, ‘प्लेटफाॅर्म नंबर पाँच पर आनेवाली नौ, बयालीस की तेज लोकल आज प्लेटफाॅर्म नंबर तीन से रवाना होगी, यात्रियों को होने वाली असुविधा के लिए हमें खेद है।’

फिर इस पहाड़ को पार करना है, उसने सीढ़ियों पर तैरते जनसमुद्र को बेचारेपन से निहारा। तीन से पाँच, पाँच से फिर तीन–क्या करें अनुराग? वह फिर सीढ़ियों पर था। धीरे-धीरे खिसकता भीड़ का रेला। उस रेले के ठीक बीचोंबीच फँसा अनुराग जब प्लेटफार्म नंबर तीन पर पहुँचा तो ट्रेन सरकने लगी थी। बायें हाथ से रेलिंग को थामे जब अनुराग ट्रेन में चढ़ा तो उसके दायें हाथ का बैग कई जोड़ा सिरों के ऊपर से टकराता डिब्बे के भीतर उसके पहले घुस चुका था।

दरवाजे से चिपका वह यह समझ ही नहीं सका कि यह कैसे संभव हुआ कि भीड़ ने ही उसे तीन से पाँच नंबर के प्लेटफाॅर्म पर फेंका, भीड़ ही उसे पाँच से तीन नंबर पर ले आई और अब भीड़ के धक्के ने ही उसे डिब्बे में चढ़ा दिया है।

अनुराग अब तक हाँफ रहा था। तेज बारिश में सड़क के किनारे की कोई ओट या धायँ-धायँ बरसते हथगोलों के बीच दीवार से चिपककर खड़ा कोई निहत्था सैनिक जैसे जीवन को दसों उँगलियों से पकड़ना चाहता है–ट्रेन के दरवाजे से चिपके अनुराग की हालत भी ठीक ऐसी ही थी।

पहले-पहल उसके कुछ समझ में नहीं आया था कि खचाखच भरी ट्रेन में आखिर कैसे चढ़ा जाए? उसे अच्छी तरह याद है कि जब वह मुंबई और इस रेलवे काॅलोनी में नया-नया आया था तब अतुल कुमार उसे घंटों इस शहर के कायदे-कानून बताते रहते थे। ट्रेन में चढ़ने और उतरने पर उनके नए-नए नुस्खे उसे रोज ही सुनने पड़ते थे।

अक्सर उसकी यादों में वह सुबह चमक उठती है जब ऊँचे-पूरे अतुल कुमार घर से निकलते ही रास्ते में पड़ने वाले हर मंदिर के सामने झुकते। कई-कई बार सूर्य को प्रणाम करते वक्त उनके माथे का सफेद टीका उनके काले शरीर पर चिपका हुआ लगता। अनुराग तब उनके संग-संग स्टेशन तक आता। अतुल कुमार उसे बताते बीच का डिब्बा ही अक्सर पकड़ा करो। पीछेवाले डिब्बे में जेबकतरे इसी स्टेशन में चढ़ते हैं। लगेज का डिब्बा भूल से कभी मत पकड़ना। उसमें तो अपराधी समूहों में बैठते हैं। वे लूटपाट कर आपको कहाँ धक्का दे देंगे पता ही नहीं चलेगा। सबसे आगे डिब्बे में पढ़े-लिखे लोग तो होते हैं पर उनका गिरोह इतना मजबूत है कि न वे आपको चढ़ने देंगे, न उतरने देंगे। यह गिरोह कल्याण से चढ़ता है और वीटी उतरता है। बस सबसे सुरक्षित यही बीच का डिब्बा है। इसमें सब भले लोग चढ़ते हैं।

इन्हीं भले लोगोंवाले डिब्बे में वह एक दिन अतुल कुमार के साथ चढ़ा। भजन गुनगुनाते, हाथ मिलाते अतुल कुमार आगे-आगे, वह पीछे-पीछे। वे दोनों स्टेशन तक आ गए। ट्रेन आई। भीड़ का रेला उतरा और उसने देखा अतुल कुमार भीड़ के धक्कों के बीच हाथ-पैर मार रहे हैं। उनके बुशर्ट के सारे बटन खुल गए थे। उनका नीला थैला किसी और के हाथ में लहरा रहा था। एक आदमी का मुक्का हवा में था। एक चीख रुक-रुककर बज रही थी। एक धोतीधारी सज्जन लगभग निर्वस्त्र प्लेटफाॅर्म पर खड़े थे और एक बच्चा मिमियाता हुआ डिब्बे से बाहर निकल आया था।

ट्रेन चल दी, भीड़ से ठसाठस भरी ट्रेन ने जब गति पकड़ी तो उसने देखा बायें हाथ से दरवाजे के डंडे को पकड़े अतुल कुमार सन्नाटे में थे, दहशत के मारे अनुराग की हालत खराब थी। शाम को वह तड़पकर अतुल कुमार से मिला।

‘कैसे हैं, कहीं लगी तो नहीं?’ उसने मिलते ही उनसे पूछा।

‘मुझे क्या हुआ?’ अतुल कुमार सहज थे।

‘सुबह भीड़ ने आपको बुरी तरह घेर लिया था।’ लगभग हकलाते हुए बोला।

‘वह तो रोज की बात है। भीड़ से क्या डरना? वह तो हमारे जीवन का हिस्सा है। वही तो हमें दफ्तर पहुँचाती है भाई। भीड़ न चढ़ाए तो क्या मैं अकेले ट्रेन में चढ़ या

उत्तर सकता हूँ?’

अतुल कुमार के शब्द रेशा-रेशा उसके भीतर उतरे। वह डर जो सुबह उसकी रग-रग में समा गया था, अतुल कुमार से मिलकर अचानक उस कौतुक में बदल गया जिसे वह दोबारा याद भी नहीं करना चाहता था।

उसकी चाहत तो यह थी कि आज वह आराम से घर पर बैठे। उसका मन था कि आज बब्बू को गोद में लिए वह इस कमरे से उस कमरे में, कभी बरामदे में तो कभी रेलवे काॅलोनी के उस विशाल मैदान में बे-आवाज घूमे, जो अक्सर वीरान रहता है। उसकी इच्छा थी कि वह बब्बू को झूले में बैठाकर ‘आ जा री आँखों में निंदिया, तू आ जा री आ’ गुनगुनाये जो अक्सर अम्मा किसी भी बच्चे को सुलाते वक्त गुनगुनाती थीं, तो कभी वह बब्बू को पलंग पर बैठाकर कोई गाना इतनी जोर से चला दे कि पड़ोस के सरदार जी ‘क्या हुआ पुत्तर’ कहते निकल आएँ। वह चाहता था कि आज बब्बू को लिए वह तब तक नाचता रहे जब तक वह थक न जाए।

पर गुरुवार को वह छुट्टी कैसे ले सकता है? उसने कई बार, कई तरीके से सोचा कि आखिर इस तरह दौड़ते-दौड़ते वह पहुँचेगा कहाँ? उसका आखिरी ठिकाना कहाँ है? रोज-रोज दौड़ते कहीं किसी दिन उसके दिमाग की नस फट गई तो अर्चना क्या करेगी? बब्बू का क्या होगा? उसने यहाँ तक सोच लिया था कि इस हाल में अर्चना सबसे पहले किसे बुलाएगी? यदि किसी को बुलाया भी तो इस शहर में क्या कोई दौड़ा-दौड़ा आ पाएगा।

अनुराग का इस कॉलोनी में आना भी एक संयोग था। अपने-अपने शहर में, अपनी-अपनी जिंदगी, अपने-अपने तरीके से जी रहे अर्चना और अनुराग अलग-अलग आँखों में सपना एक ही देख रहे थे। छोटे शहर की, छोटी जिंदगी से ऊब कर महानगर में बस कर बड़ा आदमी बनने का कभी खत्म न होने वाला सपना। इस सपने का एक छोर अर्चना के पल्लू में बँधा था और दूसरा छोर थामें था अनुरागरत्न उपाध्याय।

अर्चना के हाथ में सिर्फ सपनों के कुछ नहीं था। वह आकाशवाणी दरभंगा में आकस्मिक उद्घोषिका थी। अपनी खनकदार आवाज पर उसे भरोसा था पर जीवन की रपटीली राह पर सिर्फ आवाज के सहारे कैसे चला जा सकता था? चौड़ी लाल बिंदी लगा, माथे पर पल्लू डाल जब वह दहलीज पार करती तो जिया कहतीं ‘बारात अब इसी घर में आएगी।’ चुप-चुप अर्चना घर छोड़ देती। अर्चना पहले ड्यूटी रूम जाती। चार्ट देखती। कार्यक्रम अधिकारी से मिलती। स्क्रिप्ट हाथ में लेती। उसे एक बार पढ़ती। रिकाॅर्ड चुनती। स्क्रिप्ट के मुताबिक गाना लगाती। कुछ देर बाद हवाओं के रथ पर सवार अर्चना की आवाज गूँजती–

प्यारी बहनों,

‘स्वप्न महल’ में आपको अर्चना शुक्ला का प्यार भरा नमस्कार। सपनों के इस महल की शुरुआत आज हम गिरिडीह की चमेली मंडल की इस फरमाइश से करते हैं। उनकी यह पसंद हम सबकी पसंद है। सच तो यह है कि जिंदगी की आपाधापी में आज हम कितने अकेले होते जा रहे हैं यह दर्द इस गीत में बख़ूबी उभरा है। तो आइए सुने चमेली मंडल की यह पसंद–अर्चना की आवाज रुकती और हवा में गूँजता :

‘तुझसे नाराज नहीं जिंदगी हैरान हूँ मैं
-हाँ हैरान हूँ मैं,
तेरे मासूम सवालों से परेशान हूँ मैं
-हो, परेशान हूँ मैं।’

परेशानी का गोल-मोल चक्का रह-रहकर अनुराग के हाथ में भी तेज-तेज घूमता। सुबह से शाम वह हर छोटे-बड़े अखबार में चक्कर लगाता। उसके होंठों पर अचानक उग आए तमाम सवालों के जवाब उसे कहीं से नहीं मिलते। एक रात उसने सोचा छोटे अखबारों की छोटी नौकरी उसे क्या देगी?

तब कौन, क्या देगा? माँगने और देने की इस जद्दोजहद में उसने पाया कि सुबह उग आई है और वह निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर खड़ा है।

दिल्ली में यह उसका पहला दिन था। कैलेंडर के बदलते-बदलते वह पहला दिन रबड़ की तरह खिंचता हुआ आठ साल में तब्दील हो गया। इन आठ सालों की यादों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर निस्सहाय खड़ा अनुरागरत्न उपाध्याय इस बीच ‘स्वप्न महल’ की अर्चना शुक्ला से गहरे तक जुड़ चुका था। उसके मन में यह विचार जड़ जमा चुका था कि जब सब जगह आसमान का रंग नीला है, सबकी आँखों में सपने पलते हैं, उम्मीदें किसी की भी दम तोड़ सकती है, मन कहीं भी बेखौफ उड़ सकता है तो सामानांतर चल रहे सपनों को क्यों न एक छत मिले। झक्क सफेद छत के नीचे रोज-रोज बड़े हाक रहे सपनों को देखना कितना रोमांचक होगा?

जिस दिन यह विचार अनुराग के मन में उभरा उस रात अर्चना शुक्ला की नींद को न जाने किसने सोख लिया था। सब कुछ उसे टूटे इंद्रधनुष के बिखरे रंगों को मुट्ठी में सँजोने जैसा लग रहा था। वे दिन रह-रहकर उसकी यादों में जलतरंग से बजते। यह खूब सज-धजकर आकाशवाणी जाती। पुराने रिकॉडों की धूल को अपने नीले रूमाल से बार-बार पोंछती। कभी वह वाणी जयराम का गीत ‘बोल रे पपिहरा’ सुनती, तो कभी ‘खुद मेरे घर आना मेरी जिंदगी’ गुनगुनाती। क्या हो गया है अर्चना शुक्ला तुम्हें? वह कई-कई बार खुद से ही पूछती। पर खुद से पूछा अर्चना का यह सवाल घर की दीवारों से चक्कर लगाकर, घूम-फिरकर उसी के पास लौट आता।

अनुराग फिर दिल्ली की यादों में लौट गया।

उस दिन अखबार के पन्ने बदलते-बदलते अचानक उसकी नजर एक विज्ञापन पर जम गई। ऊपर-नीचे, दायें-बायें सब तरफ से उसने उस विज्ञापन को पढ़ा और वह इस नतीजे पर पहुँचा कि यह विज्ञापन सिर्फ और सिर्फ उसके लिए ही निकला है। वह जब-जब विज्ञापन पढ़ता तब-तब उसके कान के पास न जाने क्यों समुद्र की उठती-बैठती लहरों का तेज-तेज संगीत बजने लगता। उसे लगता जैसे यह शोर उसके कान के परदों को फाड़कर उसके भीतर तक उतर जाएगा। उसने दोनों हाथ कानों पर रख लिए पर आवाज का रुकना नहीं थमा था।

उसने विज्ञापन को अखबार से काटकर अपनी जेब में रख लिया। एक क्षण उसे लगा जैसे अब दिल की धड़कनें बढ़ गई हैं। दिल की बढ़ी हुई इन धड़कनों के साथ उसका मन उछल-उछलकर मुंबई पहुँच जाता। उसने मन-ही-मन यह तय कर लिया कि इरादों की बारीक डोर को थामे वह उस समंदर की जमीन को जरूर छू लेगा जो बहुतों का सपना होता है। उसने तय किया कि दूसरों का सपना इस बार उसकी सच्चाई बनेगा। बाद के बहुत सारे दृश्य आपस में गड्डमगड्ड है जिन्हें अनुराग साफ-साफ नहीं देख पा रहा। स्याह-सफेद इन यादों में दर्ज है अनुराग की बेचारगी, उसका एक रात चुपचाप दिल्ली से गायब हो जाना, कई-कई रात समंदर की रेत पर अकारण भटकना, विज्ञापन के सच को पूरी तरह झपट लेना। देश के सबसे बड़े अखबार में नौकरी पाना, पत्थरों की ऐतिहासिक इमारत को दर्प के संग अपना दफ्तर कहना, भाग कर दरभंगा जाना, दौड़ते हुए अर्चना से लिपटना, लाल फूलोंवाले छोटे से बक्से में उसका कपड़ों को ठूँसना, हाँफते हुए स्टेशन तक आना, चलती ट्रेन में लपककर चढ़ना–अनुराग को धीरे-धीरे सब याद आया।

उसे याद आए वे क्षण जिनमें दर्ज थी दो जोड़ा आँखों की कायरता, जिनमें दर्ज थी व्याकुलता, जिनमें दर्ज थी हिकारत और जिनमें दर्ज थी तकलीफों की न भूलनेवाली इबारत। प्यार, प्यास, भूख, त्रास, दंभ, दया, मान, इत्मीनान, रिक्तता, छल, यातना, कपट और यश के इतने चेहरे उसकी आँखों के सामने बेपरदा हुए कि अनुरागरत्न उपाध्याय उन चेहरों के ऊपर चढ़ी बारीक पर्त को खुरचना तक नहीं चाहता।

ट्रेन रुक गई थी। अनुराग ने आसपास देखने की कोशिश की तो चाहकर भी वह अपना सिर घुमा ही नहीं सका। एक-दूसरे से रगड़ खाते जिस्म। सिर्फ हाथों का हिलना भर देख पा रहा था। दायें-बायें उसकी नजर गई तो देखा कई ट्रेनें एक साथ रुकी हैं। कुछ यात्री बेखौफ पटरियों पर दौड़ रहे हैं। कुछ जोर-जोर से बातें कर रहे हैं। कुछ उतरना चाह रहे हैं पर लोग उन्हें उतरने ही नहीं दे रहे। कोई मोबाइल पर बात कर रहा है तो कोई मोबाइल न लगने का रोना रो रहा है।

‘सारी दुकानें बंद हो रही हैं। दादर पर जगह-जगह पत्थरबाजी शुरू हो गई है। कल रात शिवाजी पार्क की सभा में जो बवाल मचा था उसकी आग आज पूरी मुंबई में फैल गई है।’ अनुराग ने सुना कुछ लोग आपस में बातें कर रहे हैं।

‘आठ, सत्रह की विरार फास्ट अब तक अटकी है। जब वही आगे नहीं बढ़ी तो इसकी क्या उम्मीद?’

‘एक औरत आज सुबह एलफिंस्टन में कट कर मर गई। हड़बड़ी में पटरी पार कर रही थी।’

‘सात-आठ लड़कों ने कल रात एक टैक्सीवाले को इतना मारा कि अस्पताल ले जाते वक्त उसकी मौत हो गई।’

‘लाल बाग, लोअर परेल, काला चौकी, पांडुरंग वाड़ी, प्रभादेवी, फूल बाजार–सब जगह हिंसा जारी है। जिंदाबाद के नारे लगाने वाले लड़के नाम, पता पूछकर इतना मार रहे हैं कि आदमी मर ही जाए।’

‘पुलिस चुप है। पुलिस कप्तान बेटी की शादी की तैयारी में जुटा है और मुख्यमंत्री कुर्सी बचाने के चक्कर में कल रात से दिल्ली दरबार में हाजिरी लगा रहा है।’

ट्रेन के हर कोने से आने वाली तरह-तरह की ख़बरों से अनुराग का दिल बैठने लगा। उसने आगे सरकने की कोशिश की तो किसी ने इस तेजी से उसकी बुशर्ट खींच दी कि उसे लगा कहीं बुशर्ट ही फट न जाए। तब फटी बुशर्ट पहनकर वह दफ्तर कैसे जाएगा? भीड़ में फँसे-फँसे उसे अर्चना की याद आ गई। सुबह उसकी बेचैनी अनुराग से देखी नहीं जा रही थी। उसे लगा, उसकी आँखें अचानक बरसने लगेंगी और उन टपकती बूँदों के संग-संग बहुत कुछ बहने लगेगा–अनुराग का धैर्य उसकी मुस्कान, उसकी खुद्दारी, उसका हौसला, उसका जीवट और उसका विश्वास। पर न अर्चना टूटी और न ही उसने अपना धीरज खोया। ऐसी बातों पर यदि वह ही टूट जाता तो न जाने कितने साल पहले वापस गाँव नहीं तो दिल्ली तो लौट ही गया होता। आखिर मुंबई की रोज-रोज की तकलीफें आदमी को अंदर तक हिला ही देती हैं, पर वह सीखता भी तो इन्हीं परेशानियों से है। अनुराग अपने ही सवालों के खुद ही उत्तर दे रहा था।

फिर उसे बब्बू की याद आई। कैसा है जीवन का यह रंग? एक सपने को अपनी आँखों में पाले दरभंगा की अर्चना मुंबई की एक रेलवे कॉलोनी में अपने सपनों को बड़ा होते देख रही है और छिंदवाड़ा के एक निपट देहात का अनुरागरत्न उपाध्याय दिल्ली होते एक नामचीन पत्रकार बनने की जिद में मुंबई की इस गोल-गोल घूमती जिंदगी का हिस्सा बनने को अभिशप्त है। तीस दिनों के सात सौ रुपया पाने वाली पार्वती जामसंडेकर का एक दिन न आना बब्बू को, उसे और अर्चना को कितना लाचार बना देता है? चाची, भाभी, मौसी और अम्मा के भरे-पूरे परिवार में एक पार्वती बाई इतनी बलशाली हो जाती है कि उसका एक दिन उन सपनों को ही धुआँ-धुआँ कर देता है जो सालोंसाल से अर्चना और अनुराग के जीवन का आधार है।

वाया दादर अनुराग अँधेरी स्टेशन पर उतर तो गया पर उसने देखा दूर-दूर तक न आॅटो का पता था, न बसें दिख रही थीं। स्टेशन के बाहर के चौराहे पर काँच-ही-काँच था। पता चला एक उन्मादी भीड़ ने बसों पर जमकर पत्थरबाजी की हैं। चौराहे के आसपास की दुकानों पर भी लूटपाट की कोशिश हुई। ‘नवरंग’ सिनेमा में चल रही भोजपुरी फिल्म को दंगाइयों ने रोक दिया। उन्होंने फिल्म के पोस्टर फाड़ दिए और कुछ दर्शकों के साथ मारपीट की। पुलिस का सायरन सुनते ही भीड़ भाग गई। बेबस अनुराग पैदल ही दफ्तर की तरफ चल पड़ा। उसने देखा तनाव हर मोड़ पर चमक रहा है। बंद दुकानों के बाहर खड़े लोग उबल रहे हैं। हनुमान मंदिर के बाहर की सब्जी की दुकानों की हालत साफ बता रही थी कि कुछ देर पहले यहाँ क्या हुआ होगा? रोती हुई एक औरत को भीड़ दिलासा दे रही थी पर उसके आँसू थम ही नहीं रहे थे। सड़क पर इक्का-दुक्का बसें ही रेंग रही थीं। रेंगती उन बसों के हर हिस्से पर यात्री लटक रहे थे।

दफ्तर में अफरातफरी का माहौल था। छोटे-छोटे झुंड में लोग इधर-उधर आपस में बातें कर रहे थे। उसे देखते ही भीड़ फट गई।

दिनकर कुछ संवाददाताओं के साथ उसके सामने था। वह बता रहा था–शहर में हिंसा बढ़ रही है। हर जगह संवाददाता और फोटोग्राफर तैनात हैं। सांताक्रुज और सहारा हवाई अड्डे पर दत्ता जाधव और संदीप माने को भेज दिया है। कल्याण, ठाणे, नवी मुंबई दादर, चर्चगेट और वीटी पर भी टीमें भेज दी हैं। मंत्रालय पर मनीषा पाटनकर है और पुलिस मुख्यालय पर प्रफुल्ल सरदेसाई।

अनुराग लगातार आ रही ख़बरों को देख, सुन रहा था। पहला संस्करण जल्दी ही प्रेस में भेजना है। बदहवास-सा वह घर पर फोन पर हिदायत दे रहा था। वह बार-बार प्रेस को बता रहा था कि जितनी जल्दी मशीन चालू हो सके कर दो। हमारा अखबार सबसे पहले बाजार में आना है।
ख़बरें आ रही थीं–

‘सिद्धिविनायक, महालक्ष्मी और बाबुलनाथ मंदिरों की सुरक्षा बढ़ाई गई।’

‘पुलिस मुख्यालय में आए एक गुमनाम फोन के कारण सभी पुलिस स्टेशनों को तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था करने के आदेश दिए हैं।’

‘एक उत्पाती भीड़ ने नरीमन प्वाइंट स्थित एक स्टॉल को आग के हवाले कर दिया।’

‘कांजुर मार्ग पर कुछ युवकों ने ट्रेन से उतारकर यात्रियों को जमकर पीटा।’

‘नवी मुंबई में हिंसक भीड़ ने एक हिंदी स्कूल की इमारत को आग लगा दी।’

अनुराग हर ख़बर पर नजर रखे था। पहला संस्करण प्रेस में जा चुका था पर अनुराग की बदहवासी थम ही नहीं रही थी। वह हर संवाददाता से फोन पर जुड़ा था। वह उनसे पल-पल की ख़बर ले रहा था।

फोन की घंटी बजी। दूसरे छोर पर अर्चना थी। उसकी आवाज काँप रही थी। उसने सुना, ‘यादव भाभी के घर दिनभर बिजली की सिगड़ी जलती है। किचन तक उन्होंने किराये पर दिया है। अभी-अभी काॅलोनी से किसी ने फोन कर उसे बताया तो वह दहल गई। बब्बू, यदि घुटुअल चलता सिगड़ी तक पहुँच गया तो, मैं घर जा रही हूँ।’

अनुराग की रीढ़ में जैसे किसी ने करंट उतार दिया। उसके पोर-पोर से पसीना बहने लगा। न चाहते हुए भी उसे कर्नल भाटिया का वह पिलपिला चेहरा याद आ गया जो उसने कुछ साल पहले आगरा के पागलखाने में देखा था। अपनी विक्षिप्त पत्नी के सामने थके-थके खड़े कर्नल को देख वह हिल गया था।

तीन लड़कियों के बाद कर्नल को एक बेटा हुआ था। रसोई में काम करते-करते मिसेज भाटिया अचानक नहाने चली गईं और जमीन पर जलती बिजली की सिगड़ी के पास ही खेल रहे उसके इकलौते बेटे ने उसे छू लिया। जब तक मिसेज भाटिया किचन तक पहुँची तब सब कुछ खत्म हो चुका था। कर्नल के घर पहुँचने तक बच्चे की साँसें थम चुकी थीं। बच्चे की निर्जीव देह देख मिसेज भाटिया ऐसी खामोश हुईं की दुनिया का कोई इलाज उन्हें ठीक ही नहीं कर सका। वे उठते-बैठते चीखतीं–‘मेरा बेटा मुझे वापस दे दो।’ उनकी जानलेवा चीखें जब घर से बाहर तक आने लगीं तो उन्हें मानसिक चिकित्सालय में भरती कराया गया। सालोंसाल से वे उसी परकोटे में चक्कर लगा-लगाकर अपने बेटे को याद करती हैं।

अनुराग ने सोचना बंद कर दिया। जब वह स्टेशन पहुँचा तो फास्ट ट्रेन आ चुकी थी। सड़कों पर सुबह के उत्पात के निशान मौजूद थे। वह चलती ट्रेन पर लटक गया। वह भीड़ के बीचोंबीच फँस गया। उसकी साँस रुकने को हुई। वह घिघियाता हुआ अंदर की ओर घुसा। वह रोना चाहता था पर उस क्षण कोई ऐसा कोना नहीं था जहाँ वह अपना सिर टिका कर रो सके। उसने फोन लगाया, फिर काट दिया। फिर फोन लगाया। घंटी सुनी पर डर के मारे फोन का बटन ही बंद कर दिया।

उसने ट्रेन के बाहर देखा। उसे लगा इतना बेरंग, बेरौनक आसमान तो उसने पहले कभी नहीं देखा। उसने सूख रहे अपने होंठों पर जीभ फेरी। फिर उसे लगा अर्चना से बात कर ली जाए। फिर उसने फोन लगाया पर घंटी बजती रही, बजती ही रही।

अनुरागरत्न उपाध्याय अब बुरी तरह डर गया। जरूर कुछ अनिष्ट घट गया है। इतनी देर हो गई। अर्चना तो फोन करती कि आखिर क्या हुआ? क्यों वह इस ख़बर पर इतना डर गई कि यादव भाभी के घर दिनभर बिजली की सिगड़ी जलती है। फिर उसने खुद को टटोला। यदि कुछ हो गया तो? अब वह कुर्ला स्टेशन पर था। प्लेटफाॅर्म नंबर नौ पार कर वह कार रोड के बगलवाली सड़क पर बाकायदा दौड़ रहा था। उसने देखा उसकी बिल्डिंग के बाहर भीड़ जुटी है। वह रुक गया।

अब क्या करे अनुराग? क्या वापस मुड़े और देर तक अकारण स्टेशन पर ही घूमता रहे या दनदनाता घर की सीढ़ियाँ चढ़ जाए। जो होना होगा, वह तो हो चुका होगा।

तब उससे डरने का क्या मतलब?

वह अबकी अपने घर के दरवाजे पर था। उसने देखा अर्चना सब्जी काट रही है और बब्बू पलंग पर सो रहा है। एक नामालूम-सा सन्नाटा अर्चना और उसके बीच न जाने क्यों धीरे-धीरे पसर रहा था।


Image : The Desperate Man (Self-Portrait)
Image Source : WikiArt
Artist : Gustave Courbet
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हरीश पाठक द्वारा भी