पानी
- 1 August, 1951
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- 1 August, 1951
पानी
मंदाकिनी नौकर दाई के दु:ख से बेदम हो उठी थी। नौकर तो उसके कभी था ही नहीं। बेचारी विधवा थी, गाँव से अपने खेत की उपज मँगा लेती थी। वह भी गोतियों को नोचा-नोची से जो बचती। शहर में इसलिए रहती थी कि सताने वालों से यहाँ कुछ परित्राण था। उसके एक विधवा लड़की थी, गोमती, और अठारह-बीस वर्ष का मंद-बुद्धि एक नाती, सरयु प्रसाद। घर का सारा काम तो माँ-बेटी मिलकर कर लेतीं–बरतन मलना, झाड़ू देना, इत्यादि–पर पानी लाने के लिए नौकरानी की आवश्यकता पड़ती थी। शहर में पानी के नल थे तो, पर सड़क पर, मंदाकिनी के गली वाले घर से काफी दूर। नौकरानी कभी आती, कभी नागा कर जाती, और कुछ बोलने पर बात उलटी सुननी पड़ती। जिस दिन वह न आती उस दिन विषम समस्या आ खड़ी होती। घड़ा लेकर शरीफ घर की औरतों को सड़क पर जाना अचिंतनीय था। दैवयोग से पास ही के एक वकील साहब के हाते में कुआँ था; वहीं से दिन में सरयु प्रसाद और रात को मंदाकिनी या गोमती पानी भर लाया करतीं। लुक-छिप कर जाना-आना पड़ता था। पर्दे वाली औरतें, घर से बाहर पैर डालना ही समाज विरुद्ध था, पानी भरकर लाना तो दूर की बात ठहरी। जब बेचारी मंदाकिनी जाती तो लौटकर हाँफती हुई गिर पड़ती। उसका स्वास्थ्य अच्छा न था, हृदय रोग से पैर फूल जाया करते। उधर गोमती की समस्या और ही थी। पानी के बोझ से शर्म का बोझ उसे अधिक दबाता और वह इस तरह जाती और पानी लेकर भागती जैसे चोरी कर रही हो। एक दिन सरयु को ज्वर लगा और शाम को देर तक वकील साहब के दरवाजे पर किसी जलसे या बड़े मुकदमे के कारण भीड़ लगी रही और नौकरानी का पता नहीं। मंदाकिनी या गोमती भी जाए तो कैसे? रोगी के लिए भी पानी घट गया, हाँड़ी चढ़ने की बात तो दूर रही। भाग्य से मुहल्ले की एक ग्वालिन घर का काम निपटा कर चिट्ठी पढ़वाने आ गई। उसी ने एक घड़ा पानी ला दिया। तिसपर भी नौकरानी धमकाती रहती–मेरा मर्द रिक्शा खींचता है, एक सौ रुपये महीना कमा लेता है। हमलोगों ने एक घर किराए पर ले लिया है, मैं खाना पकाने में लगी रहूँगी, आप लोग पानी का कोई और बंदोबस्त कीजिए।
इसी बीच मंदाकिनी ने देखा कि एक धनी प्रतिवेशी ने सड़क के बंबे से अपने घर तक पानी का पाइप लगा लिया है। अब केवल एक-सवा सौ हाथ और पाइप लग जाए तो उसके घर भी पानी चला आयेगा। मंदाकिनी ने बहुत सोचा और एक दिन म्युनिसिपलिटी के चेयरमैन के पास स्वयं जाकर पर्दे के पीछे से अपनी दु:खद कहानी सुनाई। चेयरमैन साहब खुद शरीफ़ आदमी थे, एक ऊँचे घर की औरत को अपने घर आकर इस तरह अनुनय-विनय करते देख संवेदना से कातर हो गए। मंदाकिनी से बोले–एक छोटा-सा बंबा आपके घर के सामने लगवा दूँगा पर इसके लिए पाइप और कलपुर्जे का प्रबंध आपको स्वयं करना पड़ेगा।
मंदाकिनी–सरकार, काट-छाँट कर चावल बेचा है और कुछ रुपए जमा किए हैं। मरने-जीने का सवाल है सरकार, जो हुक्म हो, किसी तरह दाखिल कर दूँगी।
चेयरमैन–रुपया दाखिल करने से नहीं होगा। हमारे पास पाइप और कलपुर्जा नहीं है। यह सब आप ही को मँगाना पड़ेगा, परमिट लेकर।
मंदाकिनी चुप रही। परमिट और कलपुर्जे का इंतजाम उसके किए के बाहर था। उसने समझा था चेयरमैन साहब के दरबार में लाज छोड़कर किसी तरह पहुँच जाने पर पानी का प्रबंध हो जाएगा। उसे चुप देख चेयरमैन ने कुछ सोचा और सरयु की तरफ दिखाकर बोले–अच्छा आप इन्हें कल ऑफिस भेज दीजिएगा, मैं बता दूँगा क्या-क्या करना होगा।
सरयु ऑफिस जाकर इधर-उधर झाँकने लगे तो चपरासी ने डाँट बताई। पर चेयरमैन साहब मंदाकिनी के दु:ख से इतना प्रभावित हुए थे कि सरयु का इंतजार कर रहे थे। आवाज पहचानते ही कमरे से निकल सरयु को बुलाया और भीतर ले गए। एक फारम पर दो सौ फुट की सिफारिश लिख दस्तखत मुहर लगाकर सरयु को दिया और बोले–इसे डाइरेक्टर आफ इंडस्ट्रीज के पास भेजो तब पाइप का परमिट मिलेगा। परमिट मिलने पर कलकत्ते की दूकान पर दाम के साथ उसे भेजना होगा, वहाँ से पाइप आ जाएगा।
सिफारिशी चिट्ठी लेकर सरयु प्रसाद जब घर आए तो मंदाकिनी आनंद से ओत-प्रोत हो गई। उसने हाथ जोड़कर ऊपर की ओर सर उठा कंपित स्वर में कहा–दीनदयाल परमात्मा, तुमने आखिर एक बेकस विधवा की पुकार सुन ही ली। अब दु:ख सहा नहीं जाता था भगवान।
रजिस्टरी करके म्युनिसिपलिटी का सिफारिशी कागज डाइरेक्टर आफ इंडस्ट्रीज के पास तुरंत भेजा गया। साथ में एक चिट्ठी भी दी गई, खास आरजू मिन्नत की, अपनी दु:खद कहानी की। आशा थी कि एक हफ्ते में परमिट चला आएगा, और हद से हद एक महीने में पाइप भी लग जाएगा। पानी की सुविधा की कल्पना से वर्तमान कष्ट भी पराया कष्ट बन गया।
पर आशा के विपरीत हफ्ता बीता, दस दिन गए, पक्ष बीता, महीना भी आ लगा, और परमिट का कोई पता नहीं। रोज डाकिए की पदध्वनि की ओर परिवार के कान लगे रहते और उसकी कष्टमोचन झोली की ओर आँखें। इस अर्से में दो-एक पत्र जो आए भी वे संबंधियों के थे जिनमें उस तरह के निमंत्रण थे जहाँ निमंत्रित व्यक्ति गौण है, उसके रुपए प्रधान। महीने भर के बाद डाइरेक्टर के पास एक स्मारक पत्र भेजा गया। उसका भी कोई फल न हुआ। फिर दूसरी और तीसरी चिट्टियाँ गईं। वे भी असफल। इसी तरह तीन महीने बीत गए। मंदाकिनी ने समझ रखा था कि म्युनिसिपलिटी से जब मंजूरी हो गई तो काम हुआ ही समझना चाहिए। किसी दूसरे के लिए चेयरमैन साहब इतनी दया न करते क्योंकि शहर के बंबों में पानी की कमी थी और नये बंबों का लगाना मना-सा था। इतने दिनों तक उसे कोई चिंता न हुई। सोचती, कुछ हो गया होगा, परमिट आता ही होगा, आज नहीं कल सही। पर जब तीन महीने बीत गए और डाइरेक्टर साहब के कान पर जूँ भी न रेंगी तब मंदाकिनी को चिंता हुई। मानसिक कष्ट ने शारीरिक कष्ट को विषमतर बना दिया। नौकरानी ने अपने रिक्शा खींचने वाले पति की सेवा के लिए काम छोड़ दिया था। दूसरी नौकरानियाँ जितना माँगती थीं वह मंदाकिनी के बूते के बाहर था।
लोगों ने सलाह दी, डाइरेक्टर के ऑफिस में खुद जाना पड़ेगा। लाचारी खर्च इत्यादि का प्रबंध कर सरयुजी तैयार हुए एक जानकार आदमी के साथ जाने के लिए। डाइरेक्टर जिस शहर में रहते थे वह डेढ़ सौ मील दूर था। वहाँ क्या-क्या करना पड़ा उसे पोशीदा ही रखा जाए। तीन-चार दिन की तपस्या और खर्च के प्रताप से परमिट आखिर मिल गया। पर सरयु थककर परेशान हो गए और मनुष्य के अधम लोभ और बेईमानी का यह उदाहरण उनका पहला अनुभव था।
परमिट मिल जाने पर मंदाकिनी की आशा फिर लौटी। अब तो अंतिम बाधा भी जाती रही। मंदाकिनी जैसे मरकर जी उठी।
परमिट कलकत्ते भेज दिया गया और दो सौ फुट का दाम छ: आने फुट के दर से। बिल्टी भी यथासमय आ गई। माल चल चुका था।
कलकत्ते से मालगाड़ी पर सामान आने में आठ दस दिन लगना चाहिए था। पर सरयु का पाइप महीने तक नहीं आया। सरयु हर दूसरे तीसरे स्टेशन जाता पर हर दफा एक ही जवाब मिलता–माल अभी तक नहीं पहुँचा। इसी तरह दो महीने बीत गए। तब लिखा-पढ़ी आरंभ हुई। लिखा-पढ़ी का जवाब मिला कि माल का कहीं पता नहीं चलता, न कलकत्ते में, न रास्ते में। अनुमान किया जाता है कि कहीं गुम हो गया। और भी दो चार लोगों ने पाइप मँगाया था। उन सभी का माल गुम था।
मंदाकिनी हताश हो उठी। पानी का कष्ट दिन पर दिन और भी असह्य होता गया। एक तो लाज बचाने की समस्या और जग हँसाई से बचने की–जिस परिवार और समाज में औरतें घर में भी घूँघट डाले रहें उनके लिए बाहर कुएँ से पानी भर कर लाना–दूसरे इनके शरीर में ही कितना बल था कि घड़ा-घड़ा पानी भरा करें रोज-रोज। अब पाइप की तलाशी में सरयु भी अधिकतर बाहर ही रहता है। दिन में भी मंदाकिनी या गोमती को झटके से घूँघट गिराए कुएँ से पानी भर लाना पड़ता है। अब तक तो आशा ने कष्ट को हल्का कर रखा था–जब घर दीखने लगता है तो रास्ता कुछ नहीं मालूम होता–पर अब मंदाकिनी को चारों ओर अँधेरा लगने लगा। टूटे पतवार वाली नाव की तरह वह घर में मँडराया करती। चेहरे और आँखों से विषम चिंता, असह्य मानसिक वेदना और निराशा झलक रही थी। बेचारी गोमती मंदाकिनी का मुँह देख घबड़ाती पर आश्वासन के शब्द भी वह कहाँ से लाए? और गरीब सरयु को पानी का पाइप मृगमरीचिका बना रात-दिन भरमाता रहता।
संबंधियों और शुभचिंतकों की सलाह से सरयु प्रसाद वकील के पास गए। वकील साहब ने कागज देख-दाख कर राय दी कि सरकारी रेल विभाग पर मुकदमा करना पड़ेगा। दूसरा कोई उपाय नहीं है। सरयु को सहमते देख वकील ने कहा–इसमें डरने की बात कोई नहीं, ऐसा तो हुआ ही करता है। पाइप का दाम जो आपने दिया है वह खर्च के साथ आपको वापस मिल जाएगा।
खैर, दूसरा उपाय तो था ही नहीं, मुकदमा दायर हुआ। मुकदमे का खर्च लगा, और हर पेशी पर ऊपर से खर्च। पानी की परेशानी से बचने के लिए जो काम उठाया गया उसने और भी परेशानी पैदा की। सरयु अब वकील के घर घंटों बैठता, सारा दिन कचहरी का मैदान छानता, और शाम को सूखा मुँह और कागजों की पोटली लिए घर लौटता तो उसका मुख-मंडल एक अवर्णनीय दर्पण बना रहता करुण विवशता और उत्साह का। उसकी बेकसी के साथ विचित्र दयनीय उत्साह मिश्रित रहता, मानो सब कुछ भूल कर मुकदमा करना ही आजन्म उसका काम है। उसकी अवस्था उस लदने पहाड़ी गधे की थी जो उत्साह पूर्वक थकता-थमकता अपना अज्ञात बोझ ले चढ़ता जाता है और जहाँ रास्ते में फाँक आई वहाँ मालिक के इशारे के लिए एक क्षण रुक कर फिर उसी उत्साह से बढ़ने लगता है। दिन भर थक रात को सरयु शांति की नींद सोता। उसे क्या पता कि बेचारी मंदाकिनी के बाह्य निश्चल गंभीर मुद्रा के पीछे झंझा वायु किस तरह मृत्यु को जगा रही थी।
मुकदमा चलता गया। अंत में मंदाकिनी की डिग्री हुई। महीनों की लिखा-पढ़ी के बाद रेल विभाग से रुपए वसूल हुए। म्युनिसिपलिटी के चेयरमैन से फिर सिफारिशी कागज लेकर डाइरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज के पास नए परमिट के लिए दरखास्त की गई। फिर उसी तरह दौड़-धूप और लेन-देन के बाद सुनवाई हुई। सरयु के पैर थक गए, सर का पसीना एड़ी तक आ गया। कभी-कभी तो वह इतना परेशान होता कि उसका जी चाहता धरती फट जाए और मैं समा जाऊँ कि इस दु:ख से उबारा हो। खैर, परमिट भी मिल गया यथोचित पूजा-अर्चना के बाद। मंदाकिनी की गिरी आशा फिर उठ खड़ी हुई। इस बार तो पाइप आ ही जाएगा। अब भगवान दु:ख पार लगा देंगे।
परमिट दाम के साथ कलकत्ते की दूकान पर फिर भेजा गया। वहाँ से बिल्टी भी आ गई और माल चल चुका। पर इस बार भी ठीक पहले की तरह कांड हुआ। फिर माल का कोई पता नहीं। महीनों की इंतजारी के बाद भी स्टेशन से यही जवाब मिलता कि माल अभी नहीं पहुँचा। रेल के बड़े दफ्तर से खोज-पड़ताल के बाद आखरी जवाब आया कि माल गुम है। अनुभवी लोगों ने बताया कि रेल के कर्मचारी पाइप को खास तरह से गुम कर देते हैं और चोर बाजार में बेच डालते हैं। रेल विभाग ने इन कर्मचारियों से लापरवाही के कारण छ: आने फुट के दर से दाम वसूल किया क्योंकि मुकदमा हारने पर रेल विभाग को इसी दर से क्षति-पूर्ति करनी पड़ती है। उधर डेढ़ रुपए से दो रुपए फुट तक इन्हें चोर बाजार में मिल गया। रेल के चोरों को ले-देकर खासा मुनाफा रहता है। पाइप पहुँचे तो कैसे?
मुकदमा फिर दूसरी बार दायर हुआ! मुकदमे की पैरवी सरयु प्रसाद पूरे उत्साह से कर रहे थे। पर इसी बीच में एक दिन मंदाकिनी पानी का भरा घड़ा लिए फिसल कर पक्के फर्श पर गिर पड़ी और वहीं उसका प्राणांत हो गया।