परीक्षा की तैयारी

Portrait of Rodo Reading by Camille Pissarro

परीक्षा की तैयारी

“या अल्लाह…!”

ओ-माँ–नेरे रुपए…! लाल…!

(जोर का चीत्कार) आ-आ-आ-आ!

ओफ्फोह! यह चुड़ैल आज मुझे पढ़ने नहीं देगी! कोई झख इसके सिर पर सवार है। इसकी चिल्ल-पों के मारे पढ़ाई में मन ही नहीं लग रहा है।…बाप रे बाप! साढ़े ग्यारह तो बज गए, मगर सोने का नाम तक नहीं लेती है। आ आ अ…

यों बड़बड़ाते हुए रामस्वामी जोर की जम्हाई लेकर आराम कुर्सी पर पीछे की ओर लेट गया। आगे की ओर निकली हुई कुर्सी की दोनों बाँहों पर एक फुट चौड़ी व ढाई फुट लंबी लकड़ी की पतली तख्ती रखी हुई, उसके एक सिरे पर एक किताब खुली पड़ी और दूसरे सिरे पर लालटेन रखी हुई। किसी भी तरह पढ़ाई में मन न लगते देख उसने दोनों हथेलियों से आँखें झाँप लीं। वह एम.ए. की तैयारी कर रहा है। परीक्षाएँ शुरू भी हो गई हैं। दूसरे दिन सुबह 8 बजे भाषा-विज्ञान का परचा उसे लिखना है। रामस्वामी एक इसी विषय में जरा कमजोर है। भाषा विज्ञान का नाम लेते ही उसका दिल धक्-धक् करने लगता है। ध्वनि परिवर्तन संबंधी नियम व उदाहरण रटते-रटते वह थक-सा गया है, किंतु एक भी उस समय उसे याद नहीं आ रहा है। यदि भाषा-विज्ञान वाले परचे में पास भर हो गया तो सारे इम्तहान में वह दूसरी श्रेणी में अवश्य पास हो जाएगा इसका उसे पूरा विश्वास है। अब जबकि ठीक परीक्षा के कुछ घंटे पूर्व उसने अंतिम बार अपनी स्मरण शक्ति की परीक्षा डरते-डरते ली तो चकरा गया। पहले की रटी हुई चीजों में से कई याद नहीं रहीं। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं, और पोथी खोल कर, अपने भाग्य को कोसता हुआ बैठ गया, फिर से घोखने। कमरे में एक ओर दीवार पर घड़ी टँगी। उसकी पेंडुलम के हिलने की आवाज ही कमरे की निस्तब्धता को भंग कर रही। घड़ी की प्रत्येक ‘टन्’ ‘टन्’ रामस्वामी के दिल पर एक-एक कुल्हाड़ी की मार की तरह पड़ने लगी, क्योंकि वह उसके जीवन की सबसे भयंकर घड़ी–दूसरे प्रात: की परीक्षा–को उसके निकटतम लाती जाती है। वह बीच-बीच में मन ही मन चाहता है कि वह रात किसी भी तरह कटे ही नहीं। संसार की सभी घड़ियाँ एकदम बंद रह जाएँ जिससे कि उसे विस्मृत विषय याद कर लेने का अवकाश मिले। किंतु मशीन की बनी चीज उसकी अंतर्वेदना समझ ही कैसे सकती है? वह लाचार हो कर देह की समस्त शक्तियाँ केंद्रित कर, धमनियों का प्रत्येक रक्त बिंदु एकत्रित कर विषय ग्रहण करने का प्रयत्न करने लगता है। किंतु शोक! प्राणपण से की जाने वाली उस चेष्टा का जौ भर भी लाभ नहीं होता! एक तो उसके मन में बैठा हुआ परीक्षा-भय का भूत अपना स्थान छोड़ने को तैयार नहीं होता, और दूसरी बात उसकी एकाग्रता पर पानी फेरने वाली है, बाहर से सुनाई देने वाली अभागिन पगली ‘सारा वी’ की करुण कराह! रामस्वामी को बीच-बीच में क्षोभ के साथ-साथ महान् आश्चर्य भी होता है कि उस भयंकर रात को उसके (अपने) अतिरिक्त संसार के और किसी भी प्राणी को उतना दुख हो सकता है! यदि आंतरिक दुख व क्षोभ का परिचय कराने का एकमात्र उपाय रोदन ही कहा जाए, तो रामस्वामी अपने चीत्कारों से सारे विश्व को हिला देता! आखिर उस ‘पगली’ को क्या कमी है जो कि इस प्रकार उसका प्राणों से भी प्यारा समय नष्ट कर रही है? यह उसके साथ कब का बैर निकाल रही है!

दो मिनट तक कुर्सी पर आँखें मींचे पड़े रहने के बाद रामस्वामी लालटेन, पोथी व तख्ती हटा कर कुर्सी पर से उठ खड़ा हुआ और इधर-उधर कमरे में टहलने लगा। दीवाल घड़ी की ओर सभय नयन फेरे, तो और टहलने की हिम्मत न हुई। तुरंत कुर्सी पर बैठ गया और पढ़ाई में लग गया। उसके कानों में बराबर वह हृदय भेदक रुदन पड़ता ही रहा। उसकी आँखें तो पन्ने की एक पंक्ति पर गईं, किंतु जहाँ गईं वहीं डटी रह गईं! आगे बढ़ने का नाम नहीं लेतीं। बात यह है कि आँख और मस्तिष्क का संबंध अश्वत्थ सारथी के संबंध की तरह किसी प्रबल सूत्र से संबद्ध होता है। जब तक वह सूत्र रथिक तथा अश्वों से लगा रहता है और रथी उसे हाथ में लिए रथ-चालन करता है तब तक उसके अभीष्ट मार्ग पर रथ बढ़ता जाएगा। किंतु ज्यों ही वह सूत्र टूट जाता अथवा रथी के हाथ से छूट जाता है, घोड़ों के गमन पर उसका कोई भी नियंत्रण नहीं रहता। वे अपने स्थान पर अड़े रहते हैं अथवा रथ को गुमराह ले जाते हैं। ठीक यही हाल बेचारे रामस्वामी के नेत्रों व मस्तिष्क का रहा। पुस्तक में अंकित अक्षरों को भाव में परिवर्तित कर मस्तिष्क तक पहुँचाने वाला वह सूत्र एकदम टूट-सा गया। यदि बीच में कभी उस सूत्र के जुड़ने की सूरत निकल भी आती, तो तुरत ‘पगली’ का चीत्कार उस पर हथौड़े चलाता और बेचारा परीक्षार्थी निराश हो आराम कुर्सी में पड़ा रह जाता! ‘पगली’ के खाते में कुछ गालियाँ और जमा हो जातीं।

किंतु इसमें ‘पगली’ ही का क्या अपराध! उसे निठुर संसार ने कब क्या सुख दिया है जो आज उस पर इस कदर उसका एक प्राणी गुस्सा हो उठा है? आखिर वह बेचारी अपनी फरियाद किसके आगे सुनावे, अपना दुखड़ा किसके समक्ष रोवे? आज दुनिया उसे पगली कहती है, उसकी बातों का कोई मूल्यांकन नहीं करती। क्या स्वयं सहृदय रामस्वामी जानता है कि उसके प्रति संसार ने कितना भयंकर अन्याय किया है? वह उसकी निष्ठुरता व अत्याचार की चक्की में पिस कर ही आज इस दुर्दशा को पहुँच गई है? वह (रामस्वामी) तीन साल से उसके पड़ोस में रहता आया है। आज भले ही उसकी पढ़ाई में उसके रुदन के कारण विघ्न पड़ रहा हो, किंतु वह असलियत से मुँह फेर नहीं सकता। वह तो उस अभागिन की जीवन-संबंधी कई बातें जान गया है। उस पर मानवता का दम भरने वाली दानवता के, भ्रातृत्व व मातृत्व का स्वाँग करने वाली पैशाचिकता के जो-जो हृदयहीन प्रहार हुए हैं, उनका कुछ-कुछ ज्ञान उसे भी है। फिर उस बेचारी पर उसका इस कदर झुँझला उठना अनुचित ही नहीं, अपनी मानवता का उपहास करना भी है। बेचारा रामस्वामी अपने किए पर लज्जित न हुआ हो सो बात भी नहीं।

एक बार आँखें बंद कर वह कुर्सी पर पड़ा रहा, तो पिछले तीन वर्षों का ‘पगली’ का जीवन-चित्र उसके मनोदेश पर खिंच गया। तब वह ‘पगली’ की उपाधि से अलंकृता नहीं थी। अपनी माँ तथा भाई की झोंपड़ी के समीप ही उसकी अपनी अलग कुटी रही। उसमें अपने द्वादश-वर्षीय लड़के का मुँह देख कर पति-वियोग की पीड़ा भूलने का प्रयत्न करती थी। आसपास के संपन्न घरों में कुटौनी व पिसौनी कर के किसी प्रकार अपने तथा बच्चे का पेट भर लेती। उसका बच्चा भी निठल्ला नहीं था। उसे सदैव अपनी माँ को खुश रखने की चिंता लगी रहती। दस वर्ष की उम्र से ही वह तमाखू की एक कंपनी में 5 रुपए मासिक पर नौकरी करने लग गया था। किंतु ‘सारा बी’ अपने बच्चे की कमाई से एक पाई भी नहीं लेती थी। उसकी इच्छा थी कि किसी तरह दो-तीन सौ रुपए हों, तो उससे एक बैलगाड़ी खरीदेगी और उसका लाल, मनहूस नौकरी छोड़, अपने बाप ही की तरह गाड़ी हाँक कर, इज्जत की कमाई खायेगा। इसी इरादे से वह ‘फरीद’ का वेतन कंपनी के मालिक के ही यहाँ जमा कर रखती थी। धीरे-धीरे 150 रुपए हो गए। उस अभागिन की आशाएँ भी पल्लवित होने लगीं। किंतु हाय! निष्ठुर नियति उसके उस अल्प सुख से ही जल उठी! दस पाँच दिन में चेचक के बहाने उस प्रेम की प्रतिमा की गोद सूनी कर दी! पुराना घाव अभी भली-भाँति भर न पाया कि उस पर भारी ठेस लगी। अरमानों के सारे महल ढह गए! आँखों के आगे अँधेरा छा गया। वह अपनी किस्मत को कोसेगी भी कैसे? वह जानती थी कि वह स्वयं डायन है। तभी तो पति और पुत्र दोनों को खा बैठी!
कंपनी के मालिक ने उसे बुला कर 150 रुपए उसके हवाले कर दिए। सब के सब चाँदी के सिक्के थे। आँसुओं से भिगो कर उसने उन्हें अपनी साड़ी की एक छोर में बाँध लिया था। रुपए हाथ में लेने के दो दिन पहले एक रात को वह रो-रो कर चुपचाप आँखें बंद किए पड़ी थी। अभी उसे नींद नहीं आई थी कि, माँ और भाई की आपस की बातें इस प्रकार उसके कानों में पड़ने लगीं।

“कसद! ‘सारा’ सो गई रे?”

“हाँ, मालूम होता है सो गई। चुड़ैल दिन-रात रो-धो कर आँखें खराब कर रही है और हमें भी तंग कर रही है, माँ।”

“छिनाल, बड़ी पतबरतागीरी बघार रही है। लाख दफे कह चुकी हूँ, ‘अरी दूसरा खसम कर ले, क्यों रो-रो कर जान देती है।’ मगर खुदा की मार! एक भी नहीं सुनती है। हठधरमी लिए बैठी है।”

“साली दूसरा खसम न कर लेगी तो खायगी क्या? जब हाथ-पाँव नहीं हिलेंगे, तो करेगी क्या? आखिर कौन कारूँ का खजाना लिए बैठी है?”

“नहीं रे, उसे बड़ा गुमान और भरोसा है फरीदे के 150 रुपए का। वह रकम मिल के मालिक यहाँ जो पड़ी है।”

“अच्छा! यह बात है! आखिर वह रकम रखेगी तो हमारे ही पास न? एक बार उसे हाथ लगने दो। फिर देखो तो इसकी सारी हैंकड़ी दूर कर देता हूँ या नहीं। हमारे सिवा इसका अपना और कौन है? रुपए हाथ लगा कर फिर चुड़ैल को टाँग पकड़ कर!”

बेचारी ‘सारा बी’ और आगे न सुन सकी। दोनों कानों में जोर से उँगलियाँ दबा लीं। उसकी छाती बड़े जोरों से धड़कने लगी। अपने भी कभी पराए हो सकते हैं, नहीं अपना दुश्मन बन सकते हैं, इसका अनुभव तब तक उतने उग्र एवं स्पष्ट रूप से उसे नहीं हुआ था! पति की मौत के बाद अलबत्ता माँ-भाई के बरताव में उसे रूखापन नजर आया। मगर लड़के का मुँह देख कर उसने उनकी परवाह नहीं की थी। किंतु आज जबकि वह तिनके का सहारा भी छिन गया, उसे अपनी वास्तविक परिस्थिति का स्पष्ट भान हो गया। रात भर अँधेरे में आँसू बहाती रही, उस नए उपद्रव से बचने का उपाय सोचती रही।

जिस लखपती के यहाँ वह बर्तन माँजना, चावल कूटना वगैरह काम किया करती थी, उसके घर दूसरे दिन वह चुपके से गई। मालिक के पैर अपने आँसुओं से धोकर सारा दुखड़ा सुना दिया। उसका विश्वास था कि वह यजमान उसके पुत्र की कमाई हिफाजत के सात रखेगा। वह रकम खा जाने की पापेच्छा एक लखपती के मन में नहीं उठेगी, क्योंकि 150 रुपए उसकी (लखपती की) दृष्टि में कोई चीज ही नहीं होती। लड़के ने खून की एक-एक बूँद पसीने के रूप में बहाकर जो रुपए इकट्ठे किए थे उन्हें स्वयं अपने ही सुख के लिए खर्च कर वह उसका खून पी जाना भी नहीं चाहती थी। वह रकम उसके कलेजे के टुकड़े-की निशानी है। वे डेढ़ सौ रुपए उसकी नज़र में चाँदी के सिक्के मात्र नहीं हैं; प्रत्येक रुपए में उसके ‘लाल’ का खून लगा हुआ है। फिर वह उन्हें कैसे नष्ट कर सकेगी? लखपती ने सहानुभूति का अभिनय कर, चुपके से 150 रुपए तिजोरी में रख लिए और जरूरत पड़ने पर उसे दे डालने का वादा कर दिया।

तीन-चार दिन बाद माँ और भाई ने उससे पूछा–“सारा, फरीद के 150 रुपए मिल मालिक ने दे दिए?”

“हाँ।”

“तो फिर लाओ, हमें दे दो। हिफाजत से रखेंगे। बुढ़ापे में जब हाथ-पैर नहीं चलेंगे, तुम्हारे ही काम आएंगे।”

“नहीं भैया, मैं बड़ी ही अभागिन हूँ। रुपए लेकर आते समय रास्ते में खो गए हैं। मेरी किस्मत ही ऐसी है।”

असद के तेवर बदले। कर्कश स्वर में पूछा–“क्या कहा, खो गए! डेढ़ सौ रुपए कैसे खो गए?”
“रास्ते में कहीं गिर गए।”

माँ उसी की-सी आवाज में बोली–“रास्ते में कहीं गिर गए! चुड़ेल कहीं की! हमीं से परदा करती है? सीधी तरह से दे दे। वरना खाल निकलवाऊँगी।”

“सच ही कहती हूँ माँ। रुपए खो गए हैं। बाद को बहुत ढूँढ़ा, मगर मिले नहीं। जब मरद और लड़का ही नहीं रहे तब रुपए ही अल्लामियाँ कैसे भोगने देगा?”

असद गरज पड़ा–“सीधे से ला कर देती है या जबान खींच लूँ।”

सारा सहज ही बोली–“लाऊँ भी कहाँ से भैया?”

पास ही कच्ची इमली की टहनियाँ पड़ी थीं। गुस्से से पागल असद ने उनमें से एक मोटी-सी ले ली और उसके पत्ते हटा कर बहिन की पीठ पर तड़ातड़ जमाता गया। उसके निर्दय प्रहारों से अभागिन की पीठ दो-चार जगह छिल गई! खून बह निकला और जब वह बेहोश गिरी तो उसे वहीं असद छोड़ गया। एक घंटे के बाद वह होश में आई और गिरती-उठती अपनी कुटी में चली गई। दिन भर उसने न खाया न पीया। दूसरे दिन मुट्ठी भर चावल खा कर पानी पी गई और माँ-भाई की आँखें बचा कर लखपती के घर गई। ठीक उसी समय महाजन तिजोरी के पास बैठ कर रुपए गिन रहा था। उनकी खन-खनाहट बगल के बरामदे में खड़ी ‘सारा’ के कानों में पड़ने लगी। ऐसा लगा कि मानों उसका लड़का, स्वजनों की क्रूरता की शिकार माँ को मीठे वचनों से तसल्ली दे रहा हो। वह साँस रोक कर वहीं खड़ी हो गई और आँखें बंद कर भावमग्न-सी उस ध्वनि का आकंठ पान करती रही। थोड़ी देर के लिए उसकी सारी पीड़ा व जलन शांत हो गई! उसके नेत्रों से खुशी के आँसू उमड़ने लगे? माँ-भाई उसे लाख सताएँ, वह सब कुछ सहने को तैयार है; इतना सुख तो महाजन के घर पर उसे मिलता रहे! बस वह और कुछ नहीं चाहती। महाजन इसी प्रकार उसके कलेजे के टुकड़े की आवाज जब-तब उसे सुनने दे, उसकी झलक भर देख लेने दे! उस उपकार के बदले वह जनम-जनम उसकी गुलामी करेगी! मगर किसी भी हालत में अपने हृदय धन को ले कर उन कसाइयों के हवाले न करेगी!

‘क्या है री सारा? कब से यहाँ खड़ी है आँखों में यह पानी कैसा?’ महाजन के प्रश्न ने उसकी सुख-समाधि मानो तोड़ दी!

‘नहीं मालिक, रो नहीं रही हूँ। अपने लड़के की प्यारी-प्यारी आवाज सुन रही हूँ।’

‘दुत् पगली! कहाँ? वह तो कभी का मर चुका है।’

सारा का हृदय काँप उठा। वह क्षण भर भी उस अप्रिय सत्य को सुनना नहीं चाहती थी। कातर होकर बोली–‘नहीं मालिक, मेरे लाल की लंबी उमर है। वह आपके यहाँ सकुशल है!’

‘पागल कहीं की, कहीं चाँदी के टुकड़े भी लड़का बन जाते हैं?’

इस निर्मम प्रश्न का वह क्या जवाब दे? उस धातु ही की तरह कठोर हृदय रखने वाले महाजन को वह समझाएगी भी कैसे कि उसके 150 रुपए मात्र चाँदी के सिक्के नहीं हैं, बल्कि उसके लाल के जिगर के 150 अंशों का समाहार ही है, जो कि उसकी जीवन-यात्रा का एकमात्र संबल है!

कुछ क्षणों के बाद धीमी आवाज में बड़ी सतर्कता के साथ वह बोली–‘मालिक, एक विनती है।’

‘हाँ, हाँ, कहो क्या है? पैसा चाहिए?’

‘ना मालिक, मैं कह चुकी हूँ कि मैं पैसे में हाथ नहीं लगाऊँगी।’

‘फिर क्या चाहती है?’

‘मालिक, अगर मेरे भाई और माँ आप से इन 150 रुपए के बारे में पूछें तो कहिएगा कि आपके पास नहीं है।’

‘वह मुझसे पूछेंगे ही क्यों?’

‘नहीं मालिक, उनकी शैतानी नजर उस रकम पर पड़ी है। कल मैंने कह दिया था कि पैसा खो गया, तो मुझे भाई ने बुरी तरह पीटा। देखिए तो सही मेरी पीठ।’

‘राम! राम! कैसा मारा है बदमाश ने? पीठ पर खून जम गया है। साले के हाथ एक पाई भी लगने न दूँगा। तुम बेफ्रिक रहो।’

जब ‘सारा’ संतोष की साँस लेकर अपनी कुटिया में चली गई, तो महाजन की आँखें लालच और दुर्भावना से चमक उठीं। ‘चमड़ी चली जाए मगर दमड़ी न जाए’ वाले सिद्धांत के कायल उस धूर्त के समक्ष यह एक सुनहला अवकाश था! उसे वह कब हाथ से जाने देगा? बेचारी ‘सारा’ चील के घोंसले ही में माँस का टुकड़ा रख गई! उसे पूरा भरोसा है चील की सहृदयता और अहिंसा की नीति पर! उसकी वज्र मूर्खता पर महाजन को बड़ी ही हँसी आई। अब तो उसका रास्ता और भी साफ हो गया। उसे असद की ओर से जो एक मात्र खटका बना रहा, उसे भी उस मूर्खा ने हटा दिया! कैसी पागल है वह! हहह :–

उसके बाद दो-तीन महीने तक सारा महाजन के घर जाती-आती रही। उसके घर का कामकाज भी करती। जब कभी रुपयों की खनखनाहट कानों में पड़ती तुरत हाथ का काम वहीं छोड़ कर बरामदे में चली जाती और आँखें बंद कर सुनती! महाजन के यहाँ आने वालों में से कोई उसके अकारण आनंद का रहस्य पूछता तो खिलखिला कर कहती–‘मेरा लाल बैठा है महाजन की तिजोरी में!’ आगंतुक उसकी वह बेतुकी बात समझने से रह जाते और प्रश्नमयी दृष्टि सेठ की ओर डालते। महाजन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगतीं। मगर वह ठग तुरंत हँसी की आड़ में बात उड़ा देता–पगली है! पगली!

किंतु महाजन को, मौके-बे-मौके ‘सारा’ की तिजोरी के पास जाना और वैसा बेढंगा बरताब करना अच्छा न लगता था। उसे कभी-कभी दूसरों के आगे ऐसे अवसरों पर झेंपना भी पड़ता था भले ही उसे वह प्रकट होने नहीं देता हो! अत: वह उससे पिंड छुड़ाने की फिक्र में रहने लगा। एक दिन जब वह बिचारी एक सज्जन के सामने अपने आनंद का कारण बताने लगी तो महाजन ने आँखें लाल-पीली करके उसे फटकारा–हट जा! चुड़ैल! तेरा लड़का मेरी तिजोरी में बैठा है? कैसी बेतुकी बात करती है। अब आगे मेरी देहरी पर कदम रखा तो टाँग तोड़ दूँगा! भाग यहाँ से! रुपए कहीं खो कर मेरे पीछे क्यों पड़ी है?

सारा को ऐसा लगा कि जमीन फट गई है और वह उसमें धँसी जा रही है! उसे सहसा अपने कानों पर से विश्वास उठता प्रतीत हुआ। किंतु उसकी आँखें तो कानों की सच्चाई का स्पष्ट समर्थन करने लगीं। महाजन का तमतमाया हुआ चेहरा, फड़कने वाले ओठ, कट-कट बजने वाले दाँत, लाल-पीली आँखें, यह सब क्या उसके अविश्वास के ही भाजन हैं? नहीं-नहीं! महाजन का असली स्वरूप आज उसके आगे खुल गया है! कच्चे धागे के सहारे लटकने वाली एकमात्र आशा भी टूट चली! यह प्रहार उसके कमजोर दिमाग के लिए बहुत अधिक हो उठा! एक मिनिट तक चुप रहकर एकाएक चीख उठी–क्या कहा? रुपए नहीं हैं?–मेरे डेढ़ सौ!–मेरे लाल की निशानी!

दानवता ने रही-सही कसर पूरी कर दी। महाजन ने उसे जोर का धक्का दे कर दरवाजे के बाहर कर दिया! वह जाकर टूटे हुए शीशे के टुकड़ों पर गिर पड़ी। बाई जाँघ का कुछ हिस्सा छिल गया, खून से धोती भींग गई। किंतु उसे इसका कुछ भी ज्ञान न रहा। चुपके से उठकर बड़बड़ाती हुई चली गई–मेरे रुपए नहीं हैं? डेढ़ सौ; हाय लाल!

जो कोई सामने से गुजरता, तो दौड़कर उसके पास जाती और आँखें बड़ी-बड़ी करके पूछती–मेरे रुपए नहीं हैं? दो-चार बार माँ और भाई के यहाँ गई तो उन्होंने डाँट लगाई–घर में पैर रखा तो टाँग तोड़ देंगे!

आज, पंद्रह दिन हुए उसका दिमाग ठीक नहीं रहता है। शीशे के टुकड़ों में से एक उसकी जाँघ में कहीं अटक गया है। इससे वह हिस्सा सूज कर उसे मर्मांतक पीड़ा देने लगा है। अब वह उठ-बैठ नहीं सकती। रामस्वामी के कमरे के दक्षिण-पार्श्व वाले नीम के पेड़े के नीचे पड़ी कराहती है। चार-पाँच दिन से तो भूखी भी है। कोई दयालु किसी जून एक दो मुट्ठी चावल उसके आगे फेंकता तो खा लेती है। जाँघ के सड़ जाने से बदबू भी निकलने लगी है। ऐसे दुर्दशाग्रस्त प्राणी पर झुँझलाना कहाँ तक उचित है यह सोचते-सोचते रामस्वामी की आँख कब लग गई वह जान न सका। ठीक चंद्रमा के अस्त होते समय, तीन बजे, रोगी का प्रलयंकर चीत्कार सुनकर वह हड़बड़ा उठा! आराम कुर्सी पर नीचे की तरफ फैले हुए पाँव खट से ऊपर खींच लिए, तो कुर्सी की बाँहों पर रखी हुई तख्ती पलट गई। लालटेन जोर का धक्का खा कर नीचे गिर गई और शीशा चकनाचूर हो गया। बत्ती बुझ गई। बाहर से रोगी अंतिम बार चीख उठी–

“मेरे रुपए!…आह डेढ़…सौ!!…लाल…!!!”

फिर चारों तरफ निस्तब्धता का अखंड राज्य फैल गया। कमरे का अंधकार बाहर के अंधकार में मिल कर एकाकार हो उठा। बिंदु सिंधु में समा गई!

रामस्वामी की पत्नी की भी नींद उचट गई–‘राम! राम! यह छिनाल रात भर कान के पास अपनी शैतान की शहनाई बजाती ही रही, आज आँख लगी ही नहीं…हैं! यह क्या? घर में अँधेरा कैसा! ए, जी! बत्ती बुझ गई है?’

‘हाँ भई, लालटेन टूट भी गई है। लाओ दियासलाई।’

सुबह होते ही खबर मिली कि ‘पगली’ की लाश नीम के तले पड़ी है और चींटियों की पंक्तियाँ दावत उड़ा रही हैं। रामस्वामी भारी हृदय लिए परीक्षा-भवन की ओर चल दिया।


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Artist: Camille Pissarro
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