रंग-बेरंग
- 1 March, 2015
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- 1 March, 2015
रंग-बेरंग
अविरल बहती नदी की तरह कभी उछाल मारती तो कभी मंथर गति से निरंतर बहते हुए किसी भी रंग में घुलने मिलने को तैयार, ऐसी ही तो थी वो सरिता, किसी गहरी सोच में डूबती उतराती हुई धुपैले आसमान में उढ़ रही चिड़ियों को अनमनेपन से निहारते हुए अपने में ही गमगीन। कितना तकलीफदेह होता है ये अहसास जब हम अपनो में से ही कइयों के चेहरों पर छिपे शातिर चेहरों को पढ़ना बूझना सीख जाते हैं। सोचते ही अवसाद में डूब जाती है चेतना जब उनके कुटिल इरादे, घातक चालों और धूर्त साजिशों पर पड़ा पर्दा बेरहमी से बदलते वक्त के साथ-साथ चिरता चला जाता है। सचमुच, इस मुए वक्त ने क्या-क्या चालें नहीं चलीं हमारे संग? सब हमारे नसीब को ही दोष देते हैं मगर किसी का ध्यान हकीकत की तरफ क्यों नहीं जाता? क्योंकर एक ही घर के लोगों की किस्मत के रंग ढंग इतने अलग-अलग होते हैं कि सालों बाद उसी तस्वीर को ध्यान से देखो तो आश्चर्य होता है, क्या ये हमीं थे? क्या यही हमारे भाई-बहन थे? क्या ऐसे होते हैं माँ-बाप किसी के? सबके सब अपने-अपने स्वार्थ में डूबे, अवसरवादी और घमंडी। हुंह, बड़े होंगे तो हुआ करें, हू केसर्स? उनका ऐसा बड़प्पन किस काम का जो अपने से छोटे को बात-बात पर दुत्कारते या डाँटते फटकारते फिरें? किस कदर भाई बहन दोनों ने अपना-अपना शानदार करियर बनाया और कितनी चालाकी से अपनी-अपनी दुनिया में रच बस गए। ऐसे होते हैं किसी के भाई-बहन? वह जितना ज्यादा अपने रक्तसंबंधियों के बारे में सोचती जाती, उतनी अथाह पीड़ा से उसका कलेजा चिरने लगता। हर रिश्ते कालांतर में अपने चेहरे बदल लेते हैं और मुखौटे चढ़ाए चेहरे की असलियत पता चलते ही कितना बड़ा धक्का लगता है, ओफ…बड़े-बड़े बंगलों व गाड़ियों पर सवारी करते ऐसे अपनो को देखकर यकीन नहीं होता कि किसी जमाने में इनके साथ हमने अपना बचपन बिताना था। हर समय का अपना अनूठा मिजाज या निराले रंग होते हैं और हर उम्र का अपना आनंद भी। छूटपन की बेवकूफियाँ का अलग मज़ा था, जब वह आए दिन राह चलते कहीं भी रुककर दोने में कुछ भी खाने पीने लगती थी। सहेलियों संग मस्ती करती घंटों सड़क पर चलते-चलते देर तक घर पहुँचती तो उसे खूब डाँट खानी पड़ती, मगर बचपन से ही वह झूठ बोलने में माहिर थी, सो कोई सटीक बहाना बना डालती। ऐसी हाजिरजवाबी पता नहीं कहाँ से सीखी उसने कि एक बार अपने ननिहाल में फ़्रॉक में अनाज भरकर बाज़ार से कुछ खरीदने जा रही थी कि रास्ते में नाना जी ने उसे डाँटा–‘कहाँ जा रही है ये अनाज लेकर, चल घर, अभी लेता हूँ तेरी खबर?’
‘नन्ना, हम तो सब्जी वाले से मीठी अमिया लेने जा रहे थे, बस…’
‘मगर, इस टैम सब्जी वाला कहाँ से मिलेगा तुझे, झूठ बोल रही है?’
‘अरे वो तो भूल गयी थी तभी रास्ते में साँप दिखाने वाला मिल गया, सो हम साँप देखने को। सो उसी को अनाज देना पड़ा।’
जैसे ही वे चुप हुए, वैसे ही वह चटपट घर के अंदर। ऐसी तमाम झूठों का घालमेल करते हुए फिर से अनायास एक नया झूठ गढ़ देना उसकी फितरत थी। पता नहीं इतने सालों बाद जब वह पीछे मुड़कर देखती तो ऐसा लगता जैसे ये कल की ही बात हो जब उसने स्कूल में ‘कृष्णा कन्हैया’ का नाटक खेला था। यादों में बसा वो सुंदर समय भुलाए नहीं भूलता। ऐन मौके पर पता चला कि कृष्णजी का रोल करने वाले मनोज को चोट लग गयी सो उसके घुँघराले बाल देख टीचर जी ने पूछा–‘सरिता, तुम कर पाओगी?’
‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं? मुझे तो नाटक के सारे डॉयलॉग भी याद हैं। वो मनोज मुझे ही तो रटकर सुनाया करता था, सुनाएँ क्या?’ और उनकी इजाजत लिए वगैर उसने सारे संवाद जस के तस सुना दिए। वे विस्मयविमुग्ध नजरों से उसे देखती रही–’ अरे वाह! वंडरफुल, आज तो तुमने एक बड़ी समस्या से चुटकी में राहत दिला दी सरिता। चलो सँभालो ये कान्हा जी का मोर मुकुट, पीतांबरी वस्त्र और मुरली वगैरा।’
सच तो यही था कि शुरू से ही उसका मन सजने सँवरने या एक्टिंग करने जैसे कामों में रमता था मगर नामालूम से उस कस्बे में न तो ऐसी सुविधाएँ थीं और न लड़कियों को बाहर भेजकर नाटक करने के वैसे मौके मयस्सर हो पाते सो सरिता को भी अपने घर से बाहर निकलने पर आए दिन डाँट पड़ती; पर इन सबसे बेखबर वह कभी बाजार में खरीदारी करती दिख जाती तो कभी नए खुले ब्यूटीपार्लर पर बाल कटवाने या भौंहों का शेप देने की कलाएँ सीखने में जुटी रहती। देर रात लौटने पर फिर वही बहन भाइयों की डाँट खानी पड़ती मगर अब वो पलटवार करना सीखती जा रही थीं। सबकी नसीहतों को एक कान से सुनकर दूसरे से उड़ा देती। न पढ़ने में कोई लगन या दिलचस्पी थी सो जब जैसा तैसा मिलता गया, उसी के मुताबिक जिंदगी आगे खींचती ले गयी। कभी कम नंबर आने पर बहन डाँटती भी तो वह फिक्क से हँस देती–’ क्या करें, आपकी किस्मत में 60 परसेंट लिखे और हमारी में चालीस सो अब इसे कौन पलट सकता है? आप वाकई लकी हैं दीदी…’ कहकर मस्का लगा उन्हें खुश कर देती। बात आयी गयी हो गयी और वे अपने करियर को बनाने में डूबी रहीं और इसी बीच भाई भी मुंबई नौकरी पर चला गया सो घर में बची एक वह और एक छोटी बहन सो आए दिन वह उस पर रोब जमाने में लगी रहती।
उम्र के एक खास वक्त में वह दौड़ रही थी। पहले लंबी दौड़ तो फिर रस्सीकूद तो कभी हाईजंप। तब के किशोरवय में कितनी तरह के ज्वार भाटे जबरदस्त तूफान लाते रहे। ऐसे में समुंदर कहाँ देखा पाता है कि तट कूल महफूज रहें सो अपनी अंदरूनी धुन में मगन सरिता पड़ोस में रहने वाले संजय संग प्रेम की नित नयी उड़ान भरने लगी। वे कभी रेस्टोरेंट साथ-साथ जाते देखे जाते तो कभी बगीचे के पेड़ों तले फिल्मी अंदाज में प्रेम करते नजर आने लगे। कितना जबरदस्त प्रेमावेग था जो तिनका तिनका उड़ाए ले जा रहा था उसके वजूद को। सचमुच, उसे कस्बे का बंधा-बंधाया रूटीन जीवन जरा भी रास नहीं आता उसे, सो कैसे भी वह नया थ्रिल भरने में जुटी, रहती। हवा की ताजगी लिए उसका नैसर्गिक सौंदर्य किसी को भी विचलित करने में समर्थ था। बगीचे के एकांत में हर पेड़ से झरती थी खुशबू धरती पर बिछे पत्तों पर चलते हुए उसके कदम कितने भी रेगिस्तानी सूखे रेतीले मनों में हरियाली को खोज लेते। पढ़ाई से उसका जी उचटा रहता सो आए दिन वह संजय संग कैसी भी रूढ़ियों परंपराओं को नकारते हुए अपने जीवन में जोश भरती रहती। उसका ये सिलसिला इतना जबरदस्त था जो कैसे भी थमने का नाम ही नहीं ले रहा था, मगर अचानक आ धमका वो बवंडर जिसने तार-तार करके उड़ा दी उसकी रातों की नींद। संजय संग घूमते फिरते उसकी हिम्मत इतनी बढ़ गयी कि वह किसी के खाली पड़े घर में जाकर संजय से मिलने की साहसिक योजना बना डाली। बस तभी जैसे काली आँधी आ गयी। अचानक ऐसा लगा जैसे किसी ने कमरे की छत पर बने अनजान से झरोखे से झाँककर उन्हें एक दूसरे से चिपटे हुए देख लिया सो उस घड़ी ऐसा लगा जैसे पैरों तले की जमीन हिलने लगी हो। उसे भूचाल ने उसके समूचे आत्मविश्वास, निडरता या दबंगई को हिलाकर रख दिया। डगमगाते रहे पाँव, थरथराती रही चेतना और झरने लगे ताबड़तोड़ आँसू। अब क्या होगा अंजाम? उसके आलिंगनबद्ध जोड़े के किस्से नमक मिर्च लगाकर कस्बे में इतना दुष्प्रचार किया गया कि उसका साँस लेना दूभर हो गया। अफवाहों, कुचर्चाओं और कुत्सित घटनाओं के मनगढ़ंत किस्सों से माहौल गर्म था। ये सारी बातें घर से चलकर बाजार तक आतीं फिर क्या था, जिसे जो कहने सुनने का मौका मिलता, नसीहतों की पट्टी पढ़ाने घर चला आता।
‘कैसी नाक कटा दी इसने खानदान की। अब तो इसकी झटपट शादी कर डालो और कोई रास्ता नहीं सूझता।’
‘मगर ऐसी कुलच्छिनी से शादी के लिए कौन तैयार होगा?’
‘किसी दुहाजू से, अधबूढ़े से या विधुर से…’
‘मगर कोई ये तो बताए, हमने किया क्या है? हाँ, हम वहाँ संजय से मिलने जरूर गए थे, बाकी बातें बकवास हैं सब…’ कहते हुए बाल खोलकर बड़ी-बड़ी आँखें चौड़ी करते हुए अचानक वह फिर से रणचंडी बनकर चीखने चिल्लाने लगी–‘कक्का, हमारा मुँह मत खुलवाओ। तुम्हारी दन्नों को भी तो किसना के संग शहर में देखा है हमने, सो? अब बोलो? और बिरजू चाचा, अपने को आइने में देखा है कभी ठीक से? एक बार आपके संग साइकिल में स्कूल गयी थी तो आपने रास्ते में ही छेड़खानी शुरू कर दी थी। याद करो कि किस तरह मैंने अपनी कोहनी मारकर आपको रोका था, याद है कि वह भी भूल गए?’ पूरी ताकत से उन सब सलाहकारी को पटखनी देने में जुट गयी वो मगर उनमें से जो मास्टरमाडंड होते हैं, वे धीमे से चुपके से मगर पीठ पीछे वार करते हैं। सो कुछ लोग तो इस तमाशे से तुरंत बाहर हो गए और कुछ घात लगाकर बैठे लोगों ने उसे घेरना शुरू कर दिया था। ‘न, अब यह बच्ची नहीं रही सो इसकी तुरंत शादी करनी पड़ेगी।’ ऐसा सुझाव दिया हरनाम चाचा ने।
‘बताओ, ऐसे अचानक किससे कैसे कर डालें, शादी ब्याह कोई हँसी-मजाक थोड़े न होता है? अभी इसकी बड़ी बहन कुँवारी बैठी है सो अचानक इसकी खातिर कायदे के लड़के कैसे मिल पाएँगे? समझा करो, कुछ प्रैक्टिकल दिक्कतें हैं।’ शायद भाई के बयान पर सभी ने गौर किया सो शादी टल गयी मगर जमाने की आँच ने सरिता को खूब तपाया। अगले साल बहन भोपाल यूनिवर्सिटी पढ़ाई करने चल दी और भाई ने मुंबई में अपनी पसंदीदा लड़की से शादी कर ली सो वे अब अपनी-अपनी शानदार जानदार जिंदगियों में मस्त व व्यस्त होते गए। इनको कहाँ हमारी फिक्र होगी, सोचकर वह उदास हो उठती। वह अपने को किसी से न तो कमतर समझना चाहती थी, न किसी से खुद को छोटा मगर वक्त उसे उनकी होड़ में हमेशा पटखनी देता रहा। मन उसका पढ़ने में तो लगता नहीं था यानी किसी तरह पास भर हो पाती थी सो एक दिन माँ ने साफ कर दिया–‘इतना पैसा तुम्हारी पढ़ाई में खर्चने से क्या फायदा? थर्ड डिवीजन पास होने से हासिल क्या रहा? उन लोग के घर से निकलने पर तो तुम और ज्यादा आजाद हो गयी हो। पढ़ती कहाँ हो तुम? हर समय संजय पीछे घूमता रहता। कल तेरी दीदी फोन पर पूछ रही थी, ये संजय कुछ करता धरता तो है नहीं। लोहे की दुकान पर बैठता है उसका बाप सो बेटे को पैर तो धरने नहीं देगा वो। संजय की माँ तो सब जगह कहती फिरती कि उन्हें तुम जैसी आवारा लड़की नापसंद है सो किसी कीमत पर अपने घर पर पैर तो रखने नहीं देगी। फिर क्या होगा तुम्हारा? इंटर पास है संजय सो नौकरी वगैरा कैसे क्या मिलेगी उसे, मिलेगी भी तो छोटी मोटी दो चार हजार वाली। आगे के बारे में सोचा है कुछ, कैसे क्या होगा?’
बेशक सचाई सामने खड़ी बोल रही थी मगर संजय सरिता के दिलोदिमाग पर बुरी तरह रचा बसा था। उसने पैसों के सब्जबाग जो दिखाए थे उसे, मगर उसने अपने प्रसंग से विषयांतर करते हुए उलटवार किया माँ पर–‘आपके बड़े बेटे और बेटी ने तो अपनी पसंद से शादियाँ कर ली, तब तो आपने उनसे कुछ नहीं कहा। पर अब जब मेरी बारी आई तो इस तरह सयानपंती दिखा रहे हैं। शातिर किस्म के धूर्त लोग हैं वे जो एक चेहरे पर एक ही समय कितनी तरह के मुखौटे चढ़ाकर इतनी चतुराई से आगे निकलते गए जिन्हें पीछे छूट गए हम जैसे लोगों के हालचाल लेने की याद तक नहीं रहती।’
‘तेरे ऐसे कटखन्ने बोलों से ही उन दोनों ने खुद को पूरी तरह काटा है तुझसे। समझी कुछ? न समझना चाहो तो भाड़ में जाओ।’ अब न तो वह माँ की नसीहतें सुनती और न किसी से ज्यादा उम्मीदें पालती। वक्त ने दिनोंदिन उसे अकेला बना दिया कि संजय से शादी करने के अलावा उसे कोई और रास्ता सूझता ही नहीं था। संजय के घर वालों ने उसे सचमुच नहीं स्वीकारा सो दिनोंदिन अकेली पड़ती गई। संजय के घर में पनाह न मिलने के चलते उन्होंने कहीं एक कमरे का घर किराये पर लिया और ब्यूटीपार्लर खोलकर नून तेल रोटी के घनचक्कर में पैसों के तिकड़मी खेल के खिलाड़ी बनकर जीना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे अराजक जीवन शैली से उपजती जटिलताओं ने उसके व्यक्तित्व की सरसता को कुतरना शुरू कर दिया। कई मोर्चो पर एक साथ जूझते हुए वह तमाम त्रासद हालातों से जूझ रही थी। एक बार का वाक्या रह रहकर याद आने लगता–घर में आटा खतम हो गया तो रात का खाना कैसे बनेगा तभी अचानक दो लड़कियाँ आई और उनके आईब्रो बनाकर हमने राहत की साँस ली।’ सरकते वक्त में धूप किसी और छोर पर पड़ने लगी तो क्रमशः हालात बदले। पिता जी के बीमार पड़ने पर संजय की माँ ने उसे अपने घर के ऊपर वाले हिस्से में रहने दिया सो इस तरह उनकी रुकी जिंदगी का पहिया धीरे-धीरे सरकने लगा।
सरिता थमकर सोचने लगती, आखिर क्या चाहिए था उसे जिंदगी से? जो चाहा, पाया मगर फिर भी वह खुश नहीं। बहन भाइयों के ऊँचे ओहदे पर देखकर मन ही मन कुढ़ती मगर उन सवालों से सीधे भिड़ना उसे गवारा नहीं। क्यों नहीं की पढ़ाई तुमने, सवाल पर दायें बायें मुड़कर किसी न किसी पर आरोप मढ़ने से नहीं चूकती–‘सबने तो अपनी अपनी पसंद से शादियाँ की हैं सो अगर हमने कर ली तो इतना हायतौबा क्यों? लेकिन अब हमें भी चाहिए सबके बराबर हिस्सेदारी और हम लेकर रहेंगे। ‘घर पर जबरदस्त तनाव की स्थिति पैदा कर दी उसने और कोर्ट कचहरी तक घसीट लेने की धमकियाँ देने लगी। उस वक्त उसने पूरी ताकत से अपने हिस्से पर हक जमाया और लेकर मानी। इसी गम में पिता जी की साँसें उखड़ गईं। फिर क्या था, पिता जी के हार्टअटैक के बाद तो उसके चेहरे से ही चिढ़ने लगे घर वाले। सब उस पर यही इल्जाम ठोकते कि दिन रात पैसों का लालच, हवस, स्वार्थपरता, कुटिलता, छलबल और चतुराई के बूते वह सारी गोटियाँ सालों से इधर-उधर खिसकाने की कला में इतनी पारंगत होती गई कि सामान्य इनसान की तरह बर्ताव करना भूल गयी। मानसिक ग्रंथियों के अनगिनत तागे आपस में एक दूसरे से इतने उलझते गए कि भावुकता भरी बातें उसे जी का जंजाल लगती। न उसके मन में किसी के प्रति सद्भाव रहा, न भावनात्मक तरलता। कोई अगर कुछ मदद करना भी चाहे तो झट से दोनों हाथ फैलाकर पैसा लपक लेगी मगर प्रतिदान में धन्यवाद के दो बोल बोलने से परहेज करती। सचमुच, अनगिनत हिस्सों में बाँट रखा है उसने खुद को या यूँ कहें कि अलग-अलग मौकों पर वह अवसरों के अनुकूल एक ही चेहरे पर कितनी तरह के कपड़े पहनकर चतुराई साधने की कला में माहिर होती गई वह।
बेशक उसे अपनी सराहना पसंद है सो उसके सामने अगर कोई किसी और की सराहना कर दे, वह इसे कैसे भी सहन नहीं कर पाती। न जाने कितने मुखौटे चढ़ाने का हुनर सीखती गई वह। मनोनुकूल काम कराना होता तो झटपट चिकनीचुपड़ी बातों वाला नकाब ओढ़ लेती–’ अरे भाईसाब, आपका बेटा इतना क्यूट है कि क्या बताएँ, कितने स्टायल से अँग्रेजी में फटाफट बतियाता है कि हमारी आँखें तो फटी की फटी रहा गयीं…’ मक्खन लगाते हुए वह फिर येन केन प्रकारेण अपना मतलब साधने का हुनर सीखती गई जिसके चलते एक कामयाबी जरूर मिली उसे।
जीवन में इतनी आपाधापी, मारामारी और जबरदस्त उठापकट के बाद आज पूरे 8 साल एक महीने बाद ये दिन देखने को मिला जब वह राहत की लंबी साँस लेगी। यहाँ इस सरकती राह पर कहीं भी पैर टिकाना आसान कतई नहीं बल्कि मुश्किलों भरा सफर था जहाँ इतनी सारी चुनौतियाँ, इतनी बाधाएँ और अवरोध पसरे थे कि कहाँ तक क्या बताए वह। कहाँ कैसे लोगों से वास्ता पड़ा। कोई कुछ सलाह देता तो कोई कुछ मगर सारा कुछ अकेले ही सहना पड़ा। तभी उस दौर में रमन जी जैसे गहरी दृष्टि वाले अधिकारी ने उसे व्यावहारिक राह दिखायी और बीच का रास्ता सुझाया कि किस तरह मृतक आश्रित के कोटे से सरकारी नौकरी पायी जा सकती है। पिता जी के न रहने पर निराश्रित माँ की मदद करने की नई कहानी फटाफट गढ़ ली उसने सो उन्होंने सचमुच मदद की। इस एक लम्हे के लिए इतनी लंबी प्रतीक्षा की। घर पर तो सबने उम्मीद ही छोड़ दी थी परंतु जब किस्मत के दरवाजे खुलते हैं तो अपने आप बिगड़े काम बनने लगे। दौड़भाग से राहत मिली तो मुक्ति की साँसें लौटी और अब वह सरकारी स्कूल में प्राध्यापिका बन गई तो खुशियों ने दस्तक दे दी।
पहले अनंत खालीपन पसरा था उसके जीवन में। कितनी तो दुविधा और लगातार अनिश्चितता के बीच जीते रहने की विवशता को घूँट घूँट पीते हुए अनगिनत बार जीने मरने के भँवर में घूमते हुए जीने की ताकत बटोरना, बाप से, कितना कितना झेला है हमने। हालात सचमुच हमारे वश में कहाँ होते हैं और हर व्यक्तित्व के अनगिनत शेड्स होते हैं जिन्हें चाहकर भी नहीं पकड़ा जा सकता है। सो एक दिन मौका तककर उसने खुद निदेशक के पास जाकर अपनी रामकहानी बढ़ा चढ़ाकर इस ढंग से की कि बस बात बन गई और उन्होंने ऐन मौके पर उसे शहर के कल्याणविभाग में नौकरी का नियुक्ति पत्र थमा दिया। जब उसे लगा कि अब वह आर्थिक रूप से आजाद हो गयी यानी अब उसे रोज-रोज की उठापटक से राहत मिली, बस उसी क्षण से बाहरी शोरगुल तो जरूर थम गया मगर अंदरूनी शोरगुल बढ़ता ही गया। बड़ी ताकत से दबाई गई अतृप्त इच्छाएँ अब फिर फन उठाकर फुफकारने लगी। अपने ही भाई बहनों के समकक्ष खड़ी होने में सक्षम है वह, सोचकर उसका अंतस खिल उठता। उसके पास अब सुकून था, जीवन में स्थिरता और संतुलन भी सो उसकी तमाम सोयी शक्तियाँ जगने लगी। कहाँ तो पहले जिंदगी का एक ही मकसद था कि येन केन प्रकारेण पैसों को जोड़ना या पैसे पर निगाहें लगाए रखना मगर अब उसकी भागदौड़ का केंद्र पैसा नहीं रहा तो उस हिसाब से सुस्ती, शिथिलता और आलस्य उसे घेरने लगे। पैसों से सुविधाएँ बढ़ी तो अपने भाई बहनों के सामने खुद को दर्शाने की जबरदस्त ललक जगी कि वह जब-तब उनसे फोन पर बतियाने लगी। मौके मिलते ही वह अपनी नौकरी से मिलते ठाठ बाट की चर्चा करने का कोई मौका नहीं गँवाती मगर इतने सालों तक वंचना और अभाव की मार दांतों तले पैसे पकड़कर जीने की आदत के चलते अब उसके स्वभाव में घनघोर कंजूसी घर कर गई कि वह पैसे खर्चने का ख्याल तक नहीं लाती बल्कि हर किसी से पैसा खींचने के स्वभाव या आदत के चलते धीरे-धीरे सब उससे कटने लगे। यहाँ तक कि संजय से भी बात-बात पर झगड़ा हो उठता। उसके माँ-बाप ने अपने घर पर रहने की जगह जरूर दी मगर तभी से संजय को अपने पास खींचने की जुगत में लगी रहतीं।
पता नहीं कब और कैसे उनके बराबरी वाले संबंधों में आपसी आदर भाव इस हद तक चुकता गया कि उसे अहसास हुआ कि उनके बीच प्रेम का नाजुक तागा तो कब का गल चुका। आपसी गर्माहट अपने आप चुकती गई, तभी तो वह आए दिन कठोर कटखन्ने बोल सुना जाता। संजय को इतना भी अहसास नहीं कि उसके ऐसे कुबोलों से बेटे पर कितना बुरा असर पड़ेगा। अक्सर झगड़ा पैसों पर होता। वह संजय से पैसा माँगती और वह देने से मना कर देता। किसी न किसी बात पर वे आपस में ही उलझ पड़ते फिर नौबत आपसी गालीगलौच तक आ गई कि एक दिन उसकी माँ ने फरमान सुना दिया–ऐसी घटिया बोल बोलने वाली कंचड़ औरत अब और नहीं रह सकती यहाँ। उसने भी आव देखा न ताव, बस अपने कपड़े लेकर चलती बनी वहाँ से अपने दो साल के बेटे को साथ लेकर। उसे अहसास हुआ कि कोई किसी को अपने भीतर साथ लेकर नहीं जीता। बाद में ऐसे रिश्ते महज दिखावटी होकर रह गए। उनके बीच प्यार के कोमल अहसास धुआँ-धुआँ बनकर अनजान दिशा की तरफ उड़ते गए। आपसी रिश्ते ठूँठे पेड़ में तब्दील होते गए जिनमें किसी चमत्कार की उम्मीद लेकर जीना व्यर्थ है। धीरे-धीरे वह अपने बेटे संग अकेले ही जीने की आदी होती गई। हाँ, महीने पंद्रह दिन में संजय अपने बेटे से मिलने जरूर उसके पास आता रहा। अब रिश्तों में ठहराव तो आ ही गया था मगर रोज-रोज की किच-किच से तो राहत मिली, सोचकर मन समझा लेती वह। बेशक उसके पास एक अच्छी नौकरी थी मगर बावजूद इसके, एक तरह की सुस्ती, अनमनापन या उदासी जरूर उसे घेर लेती गोया भीतर से अंदरूनी चहक को कोई उससे जबरन छीन ले गया हो।
उस दिन सीला सीला सा मौसम और धुंधनुमा सुबह थी जब उसकी बहन ने दिल्ली चलने का प्रस्ताव रखा तो वह मना नहीं कर सकी। शायद इससे मन बदलेगा और जीवन रस के मुंदे रंध्र फिर से खुल जाएँ। सो अपनी छोटी बहन नीता के बेटे का एडमीशन कराने बड़ी बहन के पास दिल्ली जाने का प्लान फटाफट बन गया। इतने बड़े शहर में नौकरीपेशा उसकी बहन के पास बिना फोन किए यूँ ही टपक जाना उसके पति को जरा भी रास नहीं आया सो उसका रवैया उसके प्रति नाखुश व अनमना सा बन रहा। मगर बहन ने जरूर अपने ऑफिस से छुट्टी लेकर उसे दिल्ली घुमाने का प्रोग्राम बनाया। हर नयी चीज के प्रति कौतूहल से भर वह उसकी हर फरमाइश को पूरा करती रही मगर–हमें तो ये भी चाहिए मगर क्या करें, इस बार पैसे नहीं लाए। प्लीज दीदी, दिलवा दो ना। आधी बात कहकर वह उसे बहन के पाले में छोड़ देती जिसे वे हँसी खुशी पूरा कर देती। मौका मिलते ही चाशनीनुमा मीठे बोल उसके अंतस से किसी झरने की तरह रिसने लगते। बहन से पैसे चाहिए थे सो उसकी बेटी की तारीफों के पुल बाँधने शुरू कर दिए–’ और बताइए डॉक्टर साहिबा, कैसी हो, यार कितनी मीठी आवाज है तुम्हारी, सुनकर मेरा सीना चौड़ा हो जाता और मैं सबको बताती कि मेरी बिटिया मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी पढ़ रही। सुन मिनी, कितने कायदे से काजल लगाती है तू कि न, बस मन करता है, देखती ही रहूँ।’ तारीफ करने में कंजूसी कतई नहीं करती वह मगर मतलब निकल जाने पर पीछे से निंदा का मौका भी नहीं छोड़ती।
बहन से काम निकालने का बस यही मौका था कि उसने पैसों की माँग भी कर डाली–‘दीदी, मकान बनवाना है सो आपकी मदद चाहिए थी। वैसे भी आपने या किसी ने भी आज तक मेरे लिए किया ही क्या है…?’ बातों से दबाव बनाकर वह चतुराई से हिसाब बिठाने लगी–‘मेरे वास्ते तो किसी ने कुछ नहीं किया।’ अनायास उसका खटराग शुरू हो गया। ‘तू इतनी जल्दी पिछला सब भूल जाती है, याद कर, पिछली दफे जब आयी थी तब पूरे पाँच हजार दिए थे।’
‘कब, कहाँ दिए थे? सच्ची में, मुझे तो एकदम से याद ही नहीं।’ तुरंत बात पलटते हुए वह अपने पूर्वरूप में आ गई। ‘अरे, तुझे इतनी बड़ी बात याद नहीं, बाकी सब याद रहता है…।’ बड़ी बहन मीता ने उसे बुरी तरह झिड़क दिया तो वह न जाने क्या सोंचकर उस समय तो चुप लगा गई मगर जब उसे लगा कि उसके पासे गलत पड़ने लगे तो वह बौखलाकर यहाँ वहाँ फोन मिलाकर अपने को सही व दूसरे को गलत साबित करने के तर्को कुतर्को की झड़ी लगा देती। औरों के सामने अपने रिश्तेदारों के बारे में अनापशनाप बककर चीख चिल्लाते हुए भड़ास निकालते हुए फिर कुछ दिनों तक शांत बनी रहती। वैसे उसे एकाधिकारवाद या अधिकारसंपन्नता की चाह तो थी सो इसकी खातिर वह सबसे पहले उसी की कुर्सी पर धक्का मारने से नहीं चूकती जिसने उसे कुर्सी मुहैया कराई हो और ताज्जुब की बात तो ये थी कि ऐसा करते हुए उसे कभी कोई ग्लानि या पछतावा तक नहीं होता। बात बेबात किसी से भी कभी भी उलझ जाती या सीधे शब्दों में कहें तो झगड़ पड़ती फिर रिश्तों में लिहाज करने का तो सवाल ही नहीं उठता। जिंदगी से उसे सब कुछ चाहिए, मानसम्मान, पैसे, रुतबा और पावर भी, मगर इसके लिए करना कुछ न पड़े उसे।
बहन को अनायास पिछली घटना याद आ गई कि इसने उसकी बचपन की दोस्त से कितने खुले शब्दों में निंदा की थी–‘वे चाहें तो हमारे लिए कुछ भी कर सकती हैं मगर बड़ी मतलबी निकली वो तो। उन्होंने किया ही क्या है मेरे लिए, नथिंग…आँखें मटकाते हुए वो चल दी वहाँ से, किसी और से अपना मतलब साधने कहीं और का रूख कर लेती। सच तो ये है कि पिछले कई सालों की तंगी ने उसे इतना तंगदिल बना दिया कि उसकी जिंदगी अपने पैसों के इर्द-गिर्द ही सिकुड़ती चली गई। धीरे-धीरे नौबत यहाँ तक आ गई कि वह हर चेहरे में मतलब साधने की कला में सिद्धहस्त होती गई। जिस किसी भी रिश्ते को निचोड़कर अपना मकसद पूरा करना उसके लिए रूटीन सा बनता गया। काम निकल जाने पर इतनी बेरूखी से पेश आती कि जैसे उसे वो जानती ही न हो। वैसे उसे समझना खासा मुश्किल था। कभी-कभी उसके मीठे बोल ऐसे झरते कि सामने वाला एक बार जरूर प्रभावित हो जाता मगर सचाई खुलने पर कन्नी काटने लगता। काम निकालते वक्त न तो उसे अपनी गरिमा की फिक्र रहती, न स्वाभिमान बचा रहता। येनकेन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करने पर जुटी रहती। चूँकि ऐसा कई दफे करके उसे कामयाबी मिलती रहीं सेा यही उसे रास आने लगा। पैसों का आकर्षण, लोभ, लालच और बात-बात पर सामने वाले से अपने काम निकालने की जुगत में लगी सरिता धीरे-धीरे अपनो से दूर होती गई।
औरों से सहानुभूति बटोरने की चाहत कभी-कभी इतनी प्रबल होती चली जाती कि वह ऐसा करते हुए जब हदें पार कर जाता है तो अकेलापन उसे घेर लेता है और तमाम मानसिक बीमारियाँ उसे चैन से जीने नहीं देती। सो उस रात तो वह शांत पड़ी रही मगर सुबह उठते ही बोली–‘मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती दीदी, सो मुझे आज तो डॉक्टर को दिखाने जाना है। क्या आप मुझे अस्पताल तक छोड़ देंगी?’
‘सरिता, आज तो समय नहीं। दफ्तर के लिए निकलते हुए तुझे चौराहे से ऑटो पकड़वा दूँगी। ठीक?’
‘निकलना है आज ही, घर, बेटा अकेला है…।’ बुरा सा मुँह बनाते हुए वह तख्त पर बिखरे अपने कपड़े समेटने लगी। ‘नीता को साथ नहीं ले जाएगी क्या? वो बेचारी अकेली कैसे जाएगी यहाँ से?’ उन्होंने चिंतातुर स्थिति में कहा।
‘अब जैसे भी जाए, मैं क्या जानूँ, मैंने क्या उसे ले जाने का ठेका ले रखा है? ऐंठते हुए उसने पासा पलटा।’
‘दीदी, आप दफ्तर निकल जाओ, मैं टिकट लेकर चली जाऊँगी, आप चिंता न करें।’ अभी उसने यह शब्द उचारे भर थे कि वह पूरे तैश में आकर उससे झगड़ने लगी। एक दूसरे से चीख चिल्लाकर बोलने की आवाजें इतनी ज्यादा बढ़ने लगी कि बड़ी बहन मीता ने डाँटते हुए निर्णयात्मक लहजे में अपनी बात रखी–‘ऐसा है ये सभ्य लोगों की कॉलोनी है जहाँ चीख चिल्लाकर गालीगलौच की आवाजें दूर तक सुनाई देंगी सो ये सब भद्दा लगता है। सरिता को जाना है सो अकेले ही निकल जाने दो। चलो सरिता, तुम्हें अभी स्टेशन तक छुड़वा देते हैं।’
‘हाँ, हाँ, मुझे सब पता था कि आप उसी को चाहती हैं, हम तो बेगाने हैं सो आप हमें अपने घर से भगा रही हैं, हम तो यहाँ वैसे ही नहीं आना चाह रहे थे। यही चुड़ैल लेकर आई हमें, वो भी अपने बेटे के एडमीशन की खातिर चले आए हम यहाँ वरना हम तो अपने ही घर में भले। मेरी तबीयत तो वैसे ही ठीक नहीं रहती, आपने अस्पताल भेजने से तो मना कर दिया मगर स्टेशन के नाम पर आप हमें भेजने को तुरंत तैयार हो गई। हम क्या समझते नहीं कि आप खुद कितनी मतलबी हैं…कितनी चालाक हैं आप, हाँ, हम इतने बुद्धू नहीं जो आपकी चालें नहीं समझते। अभी जीजा जी को अपकी सब बातें बताते हैं कि आपने उन्हें बिना बताए छोटी वाली को 50000 दिए थे न, और क्या-क्या करती है, कहाँ अकेले आती जाती है या किससे क्या संबंध हैं। आपके…!’
उसकी बड़बड़ाहट सुनते हुए ऐसा लगा जैसे अभी भी वह छोटी सी शिकायती ईर्ष्यालु बहन के रूप में सामने खड़ी होकर वैसे ही लड़-झगड़ रही है, मार-पीट कर रही है, चीख-चिल्ला रही है कि अपने सिवाए किसी का कहा न मानने या किसी और की न सुनने की जिद ठान ली है जिसके इसी बर्ताव के चलते वह कभी किसी की स्नेहभाजन नहीं बन सकी। शुरू से ही ये अहमक इतनी कि अपनी गलती को कभी भी स्वीकार नहीं करेगी, फिर नतीजे कुछ भी हों। जिंदगी ने इसे इतनी बार पटखनी दी पर ये जिंदगी से सबक क्यों नहीं सीख पायी। हर बार वही स्वार्थपरता, वही पैसे माँगने के लिए मुँह खोलना और न मिलने पर बड़बड़ाना। इसे बार-बार यूँ देते रहने से भी क्या, कृतज्ञता के दो लफज तक नहीं निकलेंगे। न, अब और नहीं।
‘चुप रहेगी या नहीं? अभी गाड़ी चलाने दे मुझे। बकवास करना बंद कर…’ बहुत देर चुप रहने के बाद वे अचानक चीख पड़ी। तब तक स्टेशन आ चुका था। सामान उतारते हुए वे वापस कार की तरफ मुड़ी जहाँ भूरे आसमान में यहाँ वहाँ छोटे-छोटे बादल अलग-अलग घेरे बनाए बिखरे हुए थे। न, इन्हें समेटना आसान नहीं होता। कभी नहीं। सच तो ये है कि हममें से अधिकांश अक्सर अपने से ही भागते रहते, यह जानते हुए भी कि हमारे आसपास वाले भी वही खोज रहे हैं जो हमें चाहिए, अपनापन, निश्छल प्यार और निःस्वार्थ लगाव जिन्हें पाना तो हर कोई चाहता है मगर देना नहीं। फिर भी हम हैं कि उसकी तलाश में यहाँ-वहाँ बेवजह निरर्थक यात्राएँ करते रहते और फिर एक दिन ऐसा आ धमकता कि हम थक हारकर पस्त पड़ जाते। हमारे हौसले या हिम्मत की दीया धीरे-धीरे मद्धिम पड़ने लगता लेकिन कुछ लोगों की फितरत या स्वभाव कभी नहीं बदलता, शायद बदलने की सोचना ही बेवकूफी है। जब पैसा केंद्र बन चुका हो या जीने की आदत में शुमार हो गया हो तो बाकी चीजें मसलन, थोड़ी सी शरारत, थोड़ी सी मासूमियत और ढेर सारा उत्साह जैसे गुण देर सवेर परिधि में जाना तय समझो।
‘अरे, अरे मैडम, कहाँ खोयी हैं, बचाकर चलाइए प्लीज…पास से जा रहे खुद को कार से बचाते किसी अनजान साइकिल सवार के कार की खिड़की से झाँककर ठकठकाकर टोका तो अचानक उसकी खोयी तंद्रा लौटी।
‘ओके, ओके, धन्यवाद…’ कहते हुए उसने स्टीयिरिंग काटते हुए गियर बदला और हवाखोरी के लिए पूरी खिड़की खोल दी। अनायास आसमान की तरफ देखा जहाँ थोड़ी देर पहले बिखरे खूबसूरत रंग एकमेक होते ही बेरंग होते गए। कितने विचित्र और कितने अबूझ होते हैं कुदरत के नियम और शायद उतना ही अबूझ होता है इंसानी व्यक्तित्व भी जहाँ कोई भी नियम कतई लागू नहीं किए जा सकते। बहन के घर से लौटने के बाद फिर उसी तरह की बेचैनी, निरर्थकताबोध, अजीब सी बोझिलता और छटपटाहट सरिता को घेरने लगी। कितनी बार खुद को रोकने की कोशिश की मगर रह रहकर बड़ी बहन से बात करने की लालसा अपना सिर उठाने लगती। उनके पति का जाने ऐसा क्या अनकहा खिंचाव उसे घेरे रहता और फिर एक दिन, सरिता ने अपने मन के अदृश्य से तटबंध तोड़कर उन्हें फिर से फोन मिलाने शुरू कर दिए।
‘हैलो, हाँ, दीदी, मैं…अरे क्या बताएँ, इतना तनाव घेरे रहता कि रात-दिन नींद नहीं आती। क्या करें, डिप्रेशन में हूँ और कैसे भी चैन नहीं पड़ता। मुझे कॉलेज में एक टॉपिक पर बोलना है, प्लीज आप ही मदद कर सकती हैं, हैलो, हैलो, हैलो…’ देर तक मोबाइल को पकड़े-पकड़े सोच में डूबती गयी।
Artist: Anunaya Chaubey
© Anunaya Chaubey