साँप की आँखें
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- 1 May, 1964
साँप की आँखें
मोटे चावल का भात चने और खेसारी के साग के साथ सानकर हेमा बड़े-बड़े निवाले निगलती और आँगन में पसरती धूप को देखती जाती थी, तभी अद्धा का घंटा बजा। बाहर बच्चे शोर मचा कर खेल रहे थे। हेमा को लगा जैसे अबतक स्वाद देने वाले अन्न के ग्रास उसके कंठ में अटक रहे हों। वहीं से पुकारा–अरे सोमारे, बेटे, दौड़कर देख आ, सुइयाँ किस पर हैं?
और, कंठ में फँसे ग्रास को निगलने के लिए लोटे में मुँह लगा दिया।
जी भर पानी पीकर उसने लोटा नीचे रखा ही था कि बच्चा दौड़ता हुआ आया–छोटी सुई ग्यारह और बड़ी छह पर है–यानी साढ़े ग्यारह हो गए! हेमा ने हिसाब लगाया।
अरे, सोमा रे, राजा रे, सुन बेटे!
एक काला-कलूटा बच्चा मात्र एक जाँघिया बाँधे उसके पास आ बैठा और हेमा बिना कुछ कहे-सुने ही थाली के शेष भात कौर बना-बनाकर उसके मुँह में खिलाने लगी। बच्चा बिना चबाए ही उसे निगलता रहा। मिनटों का काम सेकेंड में समाप्त हुआ ।
जूठी थाली और बटलोई में पानी डाल कर हेमा ने कमरे की कुंडी चढ़ा दी। कंधे पर एक फटी-सी सूती शाल डाली और बाटा की चप्पल डाल गीले हाथ पोंछती स्कूल की ओर भागी।
दो मिनट की राह लाँघने में देर नहीं होती। बच्चे प्रार्थना करने के लिए कतार बाँध चुके थे। खैरियत थी कि प्रधानाध्यापिका अभी नहीं आई थीं, पर उनका कमरा खोल कर करीने से फाइलें सजाना भी आवश्यक है सो, वह भी पलक मारते ही निबट गया। बच्चा वर्ग का रजिस्टर, खल्ली, झाड़न, खिलौने तथा दवाइयों की पेटियाँ स्वयं हेमा के जिम्मे रहती हैं, उन्हें भी करीने से सजाकर रख चुकी। नल पर दूसरा तौलिया गीला करने गई तो टिफिन बनानेवाली रामी ने स्वयं अपने होंठों पर हाथ रख कर इशारा किया। हेमा को अपनी गलती पर हँसी आए बिना नहीं रही–हड़बड़ी में केवल हाथभर ही धोकर भाग आई थी, मुँह में साग का जूठन लगा था!
प्रधानाध्यापिका आ गई थीं। क्लास में पढ़ने वाले बच्चे अपनी जगह शांति से बैठ चुके थे। नर्सरी क्लास की अध्यापिकाएँ लान में छोटे-छोटे बच्चों को ड्रिल करा रही थीं। एक साथ हवा को चीरते नन्हें-नन्हें सैकड़ों हाथ ऊपर उठते और गिरते थे। धरती पर एक स्वर और ताल से बजते काले जूते और सफेद मोजे वाले उठते-गिरते अनेक नन्हें पाँव और रंगीन छींट के उड़ते अनेक नन्हें फ्राक जैसे नन्हीं-नन्हीं तितलियों का दल फूलों पर मँड़रा रहा हो!
एक छोटी-सी बच्ची दौड़ी आती है–दीदीमाँ, मेली बेल्त तूत गई। जूते का फीता भी धीला हो गया!
उसी के पीछे एक और गुलाबी गालों वाली परी आती है–औल, औल, मेली बी लिबन थुल दई!
अच्छा जी! हेमा के अभ्यस्त हाथों ने पलक मारते ही सभी कुछ दुरुस्त कर दिया। तभी ‘आं’ की एक दीर्घ व्यापी ध्वनि दीवारों को कँपाती तारसप्तक पर चढ़कर रुक जाती है! कल जो नया लड़का आया है, दौड़ते समय गिर जाने से घुटने छिल गए हैं। अरे-रे! होंठों से इतना खून!
हेमा व्यस्त होकर दौड़ती है। बच्चे को गोद में उठाकर अपने टेबुल पर लाकर बैठाती है। डेटोल के घोल से उसको कुल्ली करवाती है, होंठ पर जरा-सा दाँत लग गया है, वही लार के साथ बहता है। चलो, दवा लगा कर पट्टी कर दी। घुटने पर स्प्रिट भिंगोई रूई से पोंछ कर टिंचर बेंजिन लगाना है, फिर पट्टी। मगर बच्चा है कि स्प्रिट की शीशी देखते ही चीखने लगता है। लगातार लात चलाए जा रहा है। हेमा के कपड़े फाड़ देता है, फिर पलट कर उसकी बाँह में दाँत गड़ा देता है। हेमा सभी कुछ बर्दाश्त करती जा रही है! क्रोध, वेदना और विवशता के जल आँखों में ही पीकर उसे पुचकारे जा रही है। पट्टी कर चुकने पर उसने आलमारी में से निकाल कर दो चाकलेट उसके हाथ में थमा देती है। बच्चा चाकलेट का रंगीन कागज पहचानता है। आँसू से धुली आँखों में सफेद दंतपंक्तियों की चमक खिल उठती है। भरे-भरे गोरे-गुलाबी गालों में गढ़े पड़ जाते हैं, तो हेमा का मन होता है, एक मिट्ठी ले ले। मगर यह कृत स्कूल की सीमा में वर्जित है। बहुत दिनों की एक साध ऐसे ही सुंदर-स्वस्थ और गोरे बच्चे को प्यार करने की भी, जो पिटपिटा कर मन ही में सो गई थी, वह इस बच्चे को देख कर फिर जग उठी। मगर, बाप रे! प्रधानाध्यापिका का कमरा सामने ही है। वह कुर्सी पर धँसी सेक्रेटरी से बातें कर रही है। नहीं, नहीं, हेमा उसके केश सहला भर लेती है।
बच्चा उसकी गोद में और धँसा जाता है। सफेद दूध-से दाँत लाल-लाल होठों की परिधि में खिल कर बड़े प्यारे लगते हैं। वह चाकलेट खाता है और उसके मुँह से लार बह आता है। हेमा अपने रूमाल से उसे पोंछ देती है और बच्चे को छाती से सटा लेती है।
–आँती! बच्चा उसकी ओर देखता है और फिर आलमारी की ओर संकेत कर और चाकलेट की माँग करता है। हेमा उसे पुचकारती है–जाओ, सिस्टर के पास जाओ। और, एक पतली-सी चीख कानों को छेद डालती है–रैवतक! रैवतक पर्वत! हेमा मन-ही-मन हँसती है। रेवती का पुत्र रैवतक! इतना प्यारा-सा बच्चा, ‘रवि’ भी तो नाम धरा जा सकता था? जैसे, उस नन्हीं-सी पंजाबिन गुड़िया का नाम है ‘रावी!’ बच्चा मौन की दीवार से टकराता है फिर उसकी कठोरता से झुँझला कर अपने झुंड में दौड़ जाता है। हेमा अनमनी-सी उदास बैठी रेवती, रेवा, रैवतक और रवि के जाल में उलझ रही है।
हेमा! चीखती-सी प्रधानाध्यापिका की आवाज कानों में हथौड़े की चोट से भी कठिन प्रहार करती है–हेमा, देखो तो पिंकी, नीलू, सब-के-सब कैसे धूल में लोट रहे हैं। छिह, छिह, देखो, रेखा की नाक भी बह रही है! उई माँ! शी! शी! और हेमा डेटल में भींगी रूई, सूखा रूमाल और तौलिया लेकर पहुँचती है।
प्रधानाध्यापिका का उपदेश जारी है–तुम बैठी-बैठी जाने क्या सोचा करती हो? जानती हूँ तुम्हारा मन अपने आदमी के लिए बेचैन है। मगर तुम लोग मुहब्बत का माने सिर्फ बच्चा बनाना जानते हो? वहाँ उसके सुधार का मौका है। तुम मन लगाकर अपना काम देखो, यही तुम्हारे बच्चों की रोटी है।
–छिह, छिह, छोटे-छोटे बच्चों के सामने ऐसी फूहड़ बातें निकालने में इन्हें शर्म नहीं आती? हेमा के कान तक लाल हो उठते हैं। ये कान्वेंट में पढ़ी देशी मिसें हैं! इनकी नजर में प्रेम करके बच्चा जनने वाली सभी औरतें जाहिल हैं। और, ये स्वयं क्या करती है? सेक्रेटरी से इनके संबंध की बातें कौन नहीं जानता? स्वयं हेमा ने उन्हें टहाटही चाँदनी में अस्तव्यस्त दशा में उनके बँगले से आते हुए देखा है।…ये भी प्रेम करती हैं, पर दिल की प्यास मिटाने के लिए नहीं, तफरीह के लिए और इनके मौसमी प्रेम के बीज जब अँकुरते हैं, गर्मी की लंबी छुट्टियाँ पड़ जाती हैं, जहाँ पहाड़ों की गोद में इनके प्रेम का नन्हा बिरवा असमय ही दफन हो जाता है!
गर्भ का भार तो मूढ़ नारियाँ ढोती हैं।
एक का घंटा घनघनाता है। टीचर्सरूम में सभी अध्यापिकाएँ और सेक्रेटरी तथा अन्य अपरिचित लोगों के ऊँचे अट्टाहास के स्वर तुमुल हो-हो उठते हैं।
हेमा चौंक उठती है, उसके चतुर्दिक घिरे शून्य के सागर को मथ कर ये चंचल लहरों के देव उसे छू-छू जाते हों। मानो इस अथाह सागर में पड़ी वह भी मूक शिला नहीं, एक प्राणवान् वस्तु है।
हाथ में पीतल का घंटा और ताँबे की पट्टी लेकर स्कूल का चपरासी बैजू आता है। पान का दाग उसके होठों तक भर उठा है। वह घनी-घनी मूछों में मुस्कुरा उठता है। वह जहाँ कहीं भी होती है, वहीं खड़ा होकर वह जोर-जोर से घंटा बजाता है। उसी लय से जैसे मंदिर के घंटे गाँव की संध्या को कँपा कर रो जाया करते हैं।
गाँव की साँझ! हेमा आँखें मूँद कर अतीत संध्या की गहराइयों में डूब गई। बैजू ने एक अँधेरी साँझ में ही उसका हाथ पकड़ लिया था–देख तो री, मेरे कान के पास सींग तो नहीं निकला आ रहा है?
धुत्! हेमा की हँसी जुही की कली-सी बिखरी थी। फिर कई शाम दोनों उन्मुक्त भाव से कुएँ की जगत पर बोलते-चालते रहे थे। उनकी मित्रता का अंत नहीं हो जाता यदि बैजू ने अपने मन के छिपे शैतान का प्रदर्शन नहीं किया होता!
दूसरे दिन हेमा ने पानी लाने से इनकार कर दिया। भाभियों ने गालियाँ दीं, गाल मसके, हाथ उमेठे तब जाकर उसने बैजू की हरकतों का हवाला दिया। बड़ी भाभी बूढ़ी होकर भी छरहरी और चाल में लोचदार थीं। सो उन्होंने हेमा की साड़ी पहन ली और घड़ा लेकर लुकती-छिपती, डरती-इठलाती हेमा की चाल की ऐसी अनुकृति की कि बैजू धोखा खा गया। जैसे ही उसने पीछे से आकर उन्हें दबोचा–बड़ी भागती है तू छोरी, अब बता तो?…
कि तभी वह स्वयं भय से चौंक उठता है। अनचेता ही भाभी का नपा हुआ मुक्का ठीक उसकी नाक पर बजता है–मुँहझौंसा, गड़ही में मुँह धो जाकर, हमारी हेमो ऐसी-वैसी नहीं। उसके पाँव की धूल बराबर भी है? और फिर देखते-न-देखते भीड़ जमा हो जाती है!
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दूसरे ही महीने पाँच भाइयों के बीच की, माँ-बाप की टुअर बहिन हेमा की डोली उठ जाती है। घर में किरानी पति और बुढ़िया सास के सिवा कोई नहीं है। पति देर रात को शराब के नशे में झूमता आता है। साध से हेमा के सँजोए भोजन और अरमानों की उँसाई सेज पर काँटे बिखर जाते हैं!
वह मात्र हेमा की देह चाहता है, जिसे प्यार की संज्ञा देते भी हेमा को उबकाई आती है।
और फिर इसी प्यार-घृणा की धर-पकड़ में उसकी झोली में तीन बच्चे आते हैं। फिर इसी प्यार का रूपांतर मार में होता है। आते ही आते गहरी कुटम्मसा मार और चीखें। बुढ़िया सास बीच-बीच में अपने खरखराते शब्दों से बेटे को श्राव्य-अश्राव्य सब सुनाती कभी चिलम देने में ढील अथवा देह दबाने की पारी बीत जाने पर कुलच्छनी बहू के साथ पुरखों का उद्धार करती।
एक दिन वह भी होता है जब बुढ़िया सोई-की-सोई ही रह जाती है। अब रोज घर आने की फाँस भी पति के गले से खुल जाती है। वह छूट कर जुए खेलता है। जेल जाता और वह सभी कुछ करता है। जिससे स्वाभिमानिनी हेमा का मस्तक लज्जा और संताप से झुक जाता है।
तीनों बच्चों को लेकर वह मैके आ जाती है। यह तो सर्वविदित है, ऐसे अतिथियों का स्वागत बात-बात के अपमान से ही होता है। फिर वही संध्या और वही आँसू से ढलमल नयनों वाली हेमा भारी घड़ों का बोझ सम्हाले राह तै कर रही होती है।
हेमा! हेमा! ओ हेमा! कोई पीछे से पुकारता है। अँधेरे में जो छाया दृष्टि के आगे मूर्त्त होती है, उसे देखकर उसे साँप सूँघ जाता है।
–डर मत हेमा, अब मैं वह बैजू नहीं। तुम्हारा इस तरह बलि हो जाना मेरे लिए जीवन भर का सबक मिला। तू मेरी बहन है। यहाँ तुम्हारी दुर्गति नहीं देखी जाती। सातवीं तक की शिक्षा क्यों गोबर में डाल रही है?
–तो फिर कहाँ उपले पाथूँ?
–तो? हमारे स्कूल में एक स्कूल मदर का स्थान खाली है। कल फार्म भर कर दे देना। कम-से-कम बच्चों की ओर देख, हेमा। हाँ, मैं कल दोपहर में बड़े भैया से मिलूँगा।
हेमा घर आकर चूल्हे की बुझी राख कुरेद-कुरेद कर अपने को ही टटोलती है–स्कूल मदर, बैजू और पेट की समस्या?
सभी भाई अलग-अलग हो चुके हैं। वह जमाना भी नहीं रहा। बड़ी भाभी ने सबसे बड़ी बेटी को अपने पास रख लिया और दोनों बेटों को लेकर हेमा बैजू भैया के साथ स्कूल मदर बन कर शहर आती है। स्कूल बोर्डिंग के पीछे ही उसे एक कमरा दे दिया जाता है। बैजू स्कूल के सेक्रेटरी साहब के यहाँ–जिनकी विशाल हवेली से ही सटा हुआ स्कूल है, पहरे का काम भी करता है, इसलिए रात में वहीं रहता है।
स्कूल में उसके काम से किसी को कोई शिकायत नहीं। वह भी पूरी तरह संतुष्ट है, लेकिन कई महीनों से इस बैजू का सोया शैतान फिर जागने लगा है। वह एकांत देख कर उसे चिढ़ाता है–माताजी! हेमा ने कुढ़ कर देखा–क्या है बेटा जी?
और बैजू च्च, च्च कर अपनी जीभ काट लेता है। फिर बच्चों के शोर-गुल में गाता हुआ आगे बढ़ जाता है–हम तो दिवाने हैं तेरे नाम के!
–हुँह, बड़े आए दिवाने। स्त्री-पुरुष का प्यार फिर एक नए मानव का आमंत्रण नहीं तो और क्या है? भरपाई वह ऐसे प्यार से। ऐसा प्यार तो वह पति भी कर लेता था।
जाने क्यों प्यार की परिभाषा में शराब से भरी श्वासों, बेहूदे शब्दों और पशुवत् चेष्टाओं से परे हेमा के मन में और कुछ दूसरा चित्र आता ही नहीं था। छिह, थूड़ी है, ऐसे प्यार पर!
एक-एक कर सभी बच्चों का टिफिन वह देती है। रूमाल और प्लेटें निकाल कर सजा देती है और जब वे टोली में गोल बना कर बैठ जाते हैं, हेमा उन्हें कहानियाँ सुनाती हैं–देश-विदेश की कहानियाँ, राष्ट्र और देश प्रेम की कथाएँ, इतिहास और भूगोल की कहानियाँ, पर आज उसका मन कहानी में नहीं लग रहा है।
तभी वह गुलाबी गालों वाली गुड़िया ठुनक उठती है–नहीं, अम तो लाजा-लानी की कहानी छुनेंगे।
और हेमा के शब्द प्रवाहित हो उठते हैं–एक राजा था। उसकी रानी थी। उनके महल में बहुत बड़ा बगीचा था। वहाँ तरह-तरह के फूल, रंग-बिरंगी तितलियाँ थीं।
लेकिन हेमा के अंदर दूसरा ही कथानक चल रहा था–हेमा के स्वप्नों का वह राजा जो कभी आया ही नहीं। रानी हेमा जो स्कूल मदर बनी बड़े-से लान में रंग-बिरंगे फूलों और तितलियों जैसे लुभावने बच्चों के बीच बैठी कहानी सुना रही है।
उफ! इतने बच्चों को वह देख रही है। कई बच्चे उसके बिल्कुल पास खिसक आए हैं। वह नन्हा गुड्डा तो साधिकार उसकी गोद में बैठा है! पर इतने बच्चों के बीच उसके मासूम बच्चों के पैठ की आज्ञा नहीं है। कहीं कोई छोटा बच्चा रो रहा है। उसे लगता है, बच्चे ने छोटे को मारा है–अरे? सहसा ध्यान टूटता है । वह सँभल जाती है–सुनो टुनू । बच्चे चिल्लाते हैं–कहानी कहो, दिदीमाँ, कहानी कहो।
–एक दिन रानी पेड़ की छाया में आराम कर रही थी। हेमा की विवश दृष्टि सहसा ही पेड़ के नीचे उठ जाती है–कई अध्यापिकाएँ हरी-हरी घास पर लेटी हैं। प्रधानाध्यापिका सेक्रेटरी के साथ कहीं मिटिंग में जा चुकी हैं। उनके कमरे से रेडियो की मीठी-मीठी गत सुनाई पड़ रही है और टेबुल के ऊपर दो बर्फ-से सफेद कोमल पाँवों की पिंडलियाँ दीख रही हैं–शायद कोई सिस्टर विश्राम कर रही हैं।
उसका मन भी ज़रा धूप में लेटने को हो रहा है। घर से ज्यों-ज्यों खाकर दौड़ी आई है। आलस लग रहा है। जम्हाइयाँ आ रही हैं, लेकिन स्कूल मदर के दायरे में विश्राम वर्जित है।
–हाँ, दीदीमाँ, रानी आराम कर रही थी तो आगे क्या हुआ? बच्चों का शोर बढ़ता जाता है।
–वहीं बिल में एक काला नाग रहता था। हेमा का मन डाँवाडोल कर उठता है, काले नाग से रानी को कटवाए या नहीं? तभी बैजू घंटा लेकर जोर-जोर से पीटने लगता है। छुट्टी हो गई। घर होता तो बच्चे बिना सुने उठते नहीं, तब हेमा मुश्किल में पड़ जाती, पर स्कूल के नियम-कानून और हैं। आँखों में अतृप्ति और नन्हें होठों में असंतोष लिए बच्चे क्लास की ओर दौड़ते हैं। हेमा को भी उठना है–उनके जूते, टाई, रिबन और किताबें सभी ठीक-ठाक कर उसी भाँति उन्हें घर भी भेजता होता है।
बैजू पास आता है–क्या सोच रही हो, हेमा?
–कुछ नहीं।
कुछ तो जरूर? कम-से-कम वह बिल का काला साँप ही? बैजू ठठा कर हँसता है–याद रख हेमा, वह कभी रानी को डँसेगा ही नहीं।
–हाँ, हाँ वह तुम्हारे मन का पाप है। इसीलिए तुमने यह खाल ओढ़ी थी?
–मगर साँप सदैव साँप ही है, हेमा। वह अपनी ही ज्वाला से आप फुँका जा रहा है, मगर जहर बाँटेगा नहीं। कम-से-कम हँस बोल तो लिया कर, हेमा। मैं तुझसे और क्या चाहता हूँ?
और हेमा का मन घुटा जा रहा है, तो क्या बैजू उससे कुछ नहीं चाहता? ये अनुशासन में बँधे आचार और समय का सरकता साँप? साढ़े तीन का घंटा और उसी की मात्र उसी की प्रतीक्षा में द्वार की देहरी पर बैठे दो धूल-धूसरित अर्द्धनग्न बच्चे। आँसू से डबडबाई आँखें और फड़कते होठों पर असंख्य शिक्वा और शिकायत। कभी-कभी यह बैजू ही है जो उन्हें कंधे पर बैठा कर बाजार से घुमा लाता है। खिलौने, टॉफियाँ या बैलून खरीद देता है। कल ही कह रहा था–बच्चों के कपड़े नहीं हैं, कहा क्यों नहीं? रविवार को इन्हें बाजार ले जाऊँगा। बैजू के भानजे ऐसे धींगड़ बने नहीं जँचते।
बच्चे फिर चारों ओर से घेर लेते हैं–सिस्टर ने कहा है हम राजा-रानी की कहानी सुनेंगे। कहानी पूरी करो, दीदी माँ।
स्वप्न में डूबी हेमा के स्वर आर्द्र हो उठते हैं–वह साँप बोला–रानी तू यहाँ मत आया कर। यहाँ एक खजाना गड़ा है।
बैजू की आँखें हँसी से चमक उठी हैं। हेमा फिर गड़बड़ा जाती है–फिर, फिर वह रानी अपने घर चली जाती है। तुम भी घर जाओ।
हेमा को लगता है यह जो बैजू का साँप गेंडुरी मारे बैठा है, उसकी आँखों में सम्मोहन का बड़ा ही प्रलोभक आकर्षण है। ज़रा भी चूक की कि गई! नहीं-नहीं, वह डंडा ताने ही रहेगी।
Image Courtesy: Dr. Anunaya Chaubey
© Anunaya Chaubey