शारदा की शादी
- 1 January, 1946
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- 1 January, 1946
शारदा की शादी
नई धारा के संस्थापक उदय राज सिंह जी की लिखी यह कहानी ‘शारदा की शादी’ चौथे दशक में पटना से निकलने वाली ‘कहानियाँ’ मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
शरद की सुबह और शारदा से मुलाक़ात
आँखें खुलीं तो देखा, भोर के तारे धुँधले हो रहे हैं, आकाश की कालिमा लालिमा में परिणत हो रही है और शरद की पछेया बयार शरीर के रोएँ-रोएँ को बेध रही है। लिहाफ से निकलने को जी नहीं चाहता और इधर नींद भी आने को तैयार न थी। फिर तो शाल ओढ़कर और जरा जी कड़ा कर बाहर बरामदे में चला ही आना पड़ा।
मगर बाहर का तमाशा देखकर मैं तो हैरत में पड़ गया। इस कनकनी सर्दी में भी हेमवती का नौकर शारदा बड़ी तेजी से कुदाल चलाता अपने ‘क्वाटर’ के सामने वाली सहन को बराबर कर रहा है।
बदन में बस एक झीनी बनिआइन पड़ी है। उसके रोएँ जाड़े से खड़े हो गए हैं मगर बाजू में गजब की गर्मी है, बदन में अजब फुर्ती है।
मुझसे न रहा गया। अपनी उँगलियों को शाल में छुपाते हुए मैं पूछ ही बैठा–“अरे, आज तुझे क्या हो गया है? इस जाड़े में इतना तड़के तेरे सर पर शामत तो न सवार हो गई! आखिर कौन-सी आफत आ गई कि इस सर्दी में जान दे रहा है?”
उसके चेहरे पर एक सहज मुस्कान की रेखा दौड़ पड़ी। उसने जरा झेंपते हुए कहा–“बाबू जी, शादी है।”
“शादी?”
“जी, उस वृहस्पतिवार को–आज से पूरे सात दिन हैं।”
“तो बीवी के आने की तैयारी में जाड़े से मोर्चा लिया जा रहा है–यह बात है!”
“जी,–”
मुझे हँसी आ गई और वह उसी तरह कुदाल चलने लगा।
शारदा की बीवी
शारदा की बीवी आ रही है–बीवी! सुंदर, शर्मीली और अलबेली भी। उसकी खुशी में कार्तिक की सर्दी खलल नहीं पहुँचा सकेगी, उसके उत्साह में भोर की तीखी बयार कमी न ला सकेगी।
क्षणभर रुककर मैंने फिर पूछा–“क्यों, तूने देखा है अपनी बीवी को?”
“हाँ, बाबू जी!”
“कैसी है रे?”
“बड़ी सूरतवाली है। आँखें बड़ी-बड़ी और सदा हँसती नाचती रहती।”
“वाह! तब तो बड़े किस्मतवर हो यार!”
वह मुस्कुरा पड़ा। उसका कोना-कोना नाच उठा। वह दुगुने उत्साह से कुदाल चलाने लगा। नई बीवी की याद ने हाथ में चौगुनी ताकत ला दी। अब तो उसका जी चाहता, घड़ीभर में सारी सहन को बराबर करके धर दे।
वाह री बीवी! तुझमें यह शक्ति, यह आकर्षण!
दूसरी घड़ी देखा कि शारदा टोपी लगाए और कंधे पर एक झोली लटकाए बड़ी तेजी से कहीं चला जा रहा है। मैं उसे देखते ही पूछ बैठा–“कहो भई, किधर चले?”
“बाबू जी, एक साहब के यहाँ मजदूरी भी करता हूँ। आज कुछ देर हो गई…।”
“तो छुट्टी क्यों नहीं ले लेते? शादी तो करीब है!”
“छुट्टी ले लूँ तो फिर खाऊँ क्या? रोज कुछ पैसे मिल जाते हैं–उसी से…”
वह सलाम करता काम पर दौड़ गया।
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। वाह, इन्हीं कुछ पैसों पर उसको इतना बड़ा नाज है, इतनी खुशी है। वाह री आमदनी और वाह री दिलदारी! शायद दिल की पपड़ियों का उभरना रुपये की झनकार पर निभर नहीं है, हृदय की उछल-कूद कुछ सोने पर मुनहसर नहीं है। हृदय का खेल देखना हो तो धन के जंजाल से जरा सरककर खड़े हो जाओ। धन हृदय को फंदे में फँसाता है, गरीबी उसे बंधन-मुक्त करती है। अमीर हँसता है तो जरा थमकर बगल में झाँकता है मगर गरीब तो हँसता है ठठाकर–दिल खोलकर।
शादी की तैयारी
संध्या समय मैंने फिर देखा कि शारदा उसी तरह नंगे बदन अपनी कोठरी की सफाई में भीड़ गया है। मुझसे न रहा गया। मैंने उसे झट बुलाकर पूछा–“क्यों जी, अभी सफाई नहीं खत्म हुई?”
“बाबू जी, बाहर की सफाई तो हो गई, अब कोठरी की सफाई में हाथ लगा है। बड़ी पुरानी कोठरी है–गर्दगुबार और जाला से भरी।”–उसने मुस्कुराते हुए कहा।
मैंने देखा, वह भी गर्द से भर गया है और ललाट पर दो-चार पसीने की बूँदें उग आई हैं। हाँ, मुँह में पान जरूर है। भला आज शौकीनी न होगी तो कब होगी! नई बीवी जो आनेवाली है!
“तो क्या उसी छोटी कोठरी में तुम दोनों का गुजर हो जाएगा?”
“बड़े मजे में बाबू जी!”
“हाँ, एक बात तो बताते जाओ–तुम्हारी बीवी सोएगी किस चीज पर–तख्ते पर?”
“नहीं-नहीं, खाट तैयार हो रही है। ठहरिए, मैं अभी दिखाता हूँ।”–वह एक छलाँग में अपनी कोठरी से एक खाट निकाल लाया।
सचमुच वह खाट बड़ी अच्छी थी। उसे देखते ही मुझे जरा मजाक सूझ गया–“खाट तो अच्छी है मगर चौड़ाई जरा ज्यादा है।”
वह हँस पड़ा।
“मगर अभी बुना तो नहीं है।”
“बाबू जी, कल मेरी बहिन का मर्द आनेवाला है। वह आ जाएगा तो हम दोनों मिलकर इसे बुन देंगे। बस, एक दिन का काम बाकी रह गया है। फिर तो देखिएगा यह खाट इतनी नफीस उतरेगी कि मेरी बीवी दाँतों उँगली काटेगी।”
खाट की शान में उसकी छाती दुगुनी चौड़ी हो गई। वाह री शान! यह किसी को भी नहीं छोड़ती।
मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। मैंने दबी जबान से कहा–“चलो, जरा तुम्हारी कोठरी तो देखूँ!”
“हाँ, जरूर।…”
उसकी कोठरी क्या थी, बस एक घरौंदा। उसकी नई चारपाई उसमें मुश्किल से अँट पाती थी। फटे-पुराने कपड़े एक कोने में पड़े थे। दो-चार रंगीन कपड़े भी देखने को मिले। दीवार की मिट्टी गिर रही थी। और दूसरे कोने में किसी टूटे हुए अँग्रेजी चूल्हे का ईंट और मिट्टी का अंबार पड़ा था। मेरा तो उसमें दम फूलने लगा मगर उसे पूरा संतोष था, उसकी प्रणयरात्रि बड़े हौसले के साथ कटेगी उस घरौंदे में। सुहागरात के लिए उसे रंगमहल की जरूरत नहीं, गंगा-जमनी के पलंग की भी आवश्यकता नहीं, परंतु फिर भी, इस सादगी में भी शौकीनी का पुट रहेगा। झोपड़ी है तो क्या, उस दिन जलेगी तो बिजली की बत्ती–तेल का चिराग नहीं। आखिर नई बीवी जो आनेवाली है! गरीबी उसकी शौकीनी में खलल न पहुँचा सकेगी।
मैंने रोशनी का सवाल उठाया तो उसने झट कहा–“बाबू जी, उस दिन बड़े बँगले से तार लगाएँगे और बिजली बत्ती जलेगी उस रात–बिजली बत्ती! बाहर सहन में बिरादरी वाले भोज भी तो खाएँगे।”
“मगर तूने अभी मुझे अपनी बीवी के कपड़े नहीं दिखाए–आखिर क्या खरीदारी हुई है?”
“अभी दिखाता हूँ–” कहकर उसने कंट्रोल की एक साड़ी, एक हरी चादर और डोरिए के दो-चार टुकड़े मेरे सामने लाकर रख दिए।
“इसे मेरी बीवी पहनेगी और इसे ओढ़ेगी–” उसने संतोष की साँस लेते हुए कहा।
“वाह, लाजवाब है! बड़े अच्छे कपड़े जुटा रखे हैं तूने…”–मैंने जुल दिया।
“बस, बाबू साहब की कृपा है।”–उसने हेमवती की ओर कृतज्ञता भरी आँखों से देखते हुए कहा।
उसे न चाहिए शिफ्रन और टीसू की साड़ियाँ, ब्राकेड और जार्जेट के ब्लाउज। बस, यह कंट्रोल की साड़ी उसके तमाम हौसलों को पनाह देने को काफी है। बस, उसे वह लाल रंग में रँग देगा, फिर तो वह उदयपुरी लहालोट चुनरी का मजा देगी। फिर उसमें खिलकर जब उसकी बीवी उसके सामने आएगी तो इंद्रपुरी की अप्सरा न सही, किसी मन की मेनका से तो कम न होगी! इस बात का इतमीनान था उसे।
हो गई शादी, आ गई दुल्हन
शारदा की शादी में शामिल होने की मेरी बड़ी इच्छा थी, मगर किसी जरूरी काम से उस समय मैं शहर से बाहर चला गया। जब लौटा तो सुना कि शारदा पूरा छैला बना एक छोटी-मोटी बरात लेकर अपने ससुराल गया और एक कमसिन बीवी साथ लेता आया। घरवाली के आने पर बड़ी खुशियाँ मनाई गईं। बिजली की बत्तियाँ लगाई गईं, बिरादरी का प्रीतिभोज हुआ, पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ बनीं, गोश्त भी बना और चुक्कड़ में देशी आसमानी भी चला। हौसलों को पूरा करने में किसी बात की कमी नहीं रही। मस्ती में दो-चार गाने भी गाए गए, किसी ने फूहड़ मजाक भी किया।
फिर मैंने हेमवती से झट पूछा–“भई, यह तो बताओ, उसकी बीवी कैसी है? खुशियाँ तो मनाई ही जातीं मगर बीवी का नाक-नक्शा–”
“अच्छी ही है। दबा हुआ रंग, उम्र में कुछ छोटी है और बदन भी अभी नहीं भरा है।”– उसने जरा दबी जबान से कहा।
तब तो शारदा का सारा अरमान मिट्टी में मिल गया होगा। अपनी बीवी के रूप-गुण का बड़ा गान गाया करता था वह।”
“नहीं, यह बात तो नहीं–वह तो खुशी में नाच रहा है! जब से बीवी आई है–अपना सुध-बुध खो बैठा है। काम पर भी ठीक समय पर नहीं आता।”
मुझे जरा आश्चर्य हुआ। बीवी हसीन नहीं, फिर भी यह उन्माद–यह उत्साह!
दूसरे क्षण देखा, कंधे पर झोली लटकाए, मुँह में पान का बीड़ा दबाए, और कुछ गुनगुनाता-मुस्कुराता वह चला आ रहा है। मैंने आवाज दी और वह हँसता मेरे पास दौड़ा चला आया।
मैंने पूछा–“कहो, बीवी अच्छी मिली?”
“वाह! बड़ी अच्छी है। सुंदर है!”
“मगर मैंने सुना है, जोड़ अच्छा नहीं भिड़ा। उम्र में कुछ छोटी…”
“नहीं बाबू जी, बिलकुल मेल है–देखने ही लायक है। क्या कहूँ, दूसरे ही दिन उसका बाप लिवा ले गया और अब भेजता ही नहीं। कहता है, शायत ही नहीं–अब माघ में–”
“यह तो बड़ा जुल्म हुआ। किसी तरह…”
“हाँ बाबू जी, वह मेरी है–” उसने गुस्से में कहा।
और मैं हँस पड़ा। उसे इसी बीवी पर नाज है। सूरत और सीरत क्या! आखिर बीवी तो है वह! उसे न चाहिए वैसी बीवी जिसे दुनिया परी कहती हो, जिसे कला और संगीत से प्रेम हो सौंदर्य और फैशन में बेजोड़ हो। वह तो इसी साँवली और देहाती छोकरी में संसार का सारा सौंदर्य देखेगा, इसी माटी की मूरत में वह अपने तमाम अरमानों को सन्निहित पाएगा। शारदा की नजरों में वह किसी रूपसी से कम नहीं।
वाह री नजर! अजब है तू! तुझे जितना ही नजर पेश करो, उतना ही तू नजर तलाशती जाती है। हमें लालची बना देना तो तेरे आए दिन का खेल है!
(चौथे दशक में पटना से निकलने वाली ‘कहानियाँ’
मासिक पत्रिका में प्रकाशित)