मानस का उस

मानस का उस

विमलेश त्रिपाठी, अनमोल और विभाषचंद्र, तीनों बरबीघा के हटिया चौक पर खड़े आपस में गप्पिया रहे थे। तभी बस स्टैंड रोड की ओर से मानस आता दिख गया। विमलेश बोला, ‘देखना आज मानस क्या-क्या करके आया है उसी के मुँह से उगलवाता हूँ।’ तबतक मानस भी नजदीक आ चुका था। विभाषचंद्र बस स्टैंड रोड की दिशा में ही मुँह किये खड़ा था। इसलिए सबसे पहले उसी ने दूर से ही कहा, ‘नमस्कार मानस भाई।’ मानस के जवाब देते-देते दो अन्य जने भी उससे मुखातिब हो गये। मानस ने कहा–‘इकट्ठे नमस्कार, इकट्ठे नमस्कार!’

नमस्कार की पुनरावृत्ति उल्लसित और हर्षित होने का प्रतीक था। नमस्कार के साथ-साथ मानस ने बारी-बारी सबों से हाथ मिलाया। अब तिकड़ी चौकड़ी में बदल चुकी थी। मानस का हाथ पकड़े विमलेश बोले–‘कहाँ से? कहीं गये थे?’ मानस जवाब दिया–‘कहीं तो नहीं गये थे।’ विमलेश बोला–‘कहीं तो गये ही थे।’ फिर दुहराया, ‘आ कहाँ से रहे हैं?’ मानस बतलाया कहीं से नहीं। यूँ ही घूमते हुए, बस! विमलेश बोला–‘कहीं से नहीं!’ मानस ने जवाब दिया–‘घर से आ रहा हूँ। मन नहीं लगा, इसलिए रमण-चमन को भ्रमण पर निकल पड़ा। अड्डे-वड्डे पर आपको देखे थे, वो।’ मानस ने प्रतिवाद किया–‘अड्डा पर? कौन देखा था?’ मानस, स्मृति पर जोर डालो। किस अड्डे पर गये थे, तुम? कुछ देर तक मानस याद करने की कोशिश किया, याद नहीं आई। फिर बोला–‘इधर एक पखवाड़े से तो कहीं नहीं गया। मुझे कुछ याद नहीं।’ अनमोल बोला–‘नहीं! आप गये थे! याद कीजिये। जब अपनी आँखों से आपको विमल दा ने देखा तो गलत तो नहीं होगा। आँखों से देखी बातों को झुठलायी नहीं जाती। आँखों देखा ही प्रत्यक्ष दर्शन है, बाकी स्पर्शन और श्रवण तो हैल्युशिएशन है। वह भ्रामक भी हो सकता है।’ मानस झुंझला गया। ‘यार, हम झूठ नहीं बोलते। यदि किसी अड्डे पर गये होते तो मन में कोई गाँठ नहीं रखते, सीधे-सीधे सच को उगल देते।’ विमल धीमे से मानस का हाथ दबाकर बोले, याद कीजिये, आपके साथ और कोई था। तब अचानक मानस बोल पड़ा–‘अरे हाँ! वो तो आते-आते हर्ष मिल गया था।’ बोला, यार चलो, ले चलता हूँ अपने अड्डे पर। तत्पश्चात् शराब के अड्डे पर लेकर गया था, वह। वह पीने को रमा, तो रमा। उठने का नाम ही नहीं ले। हमें भी दो घूँट चखा दिया कितनी कड़वी लगती है! छिः! छिः! कैसे पीते हैं, लोग? विमल बोले, जैसे आप पी गये! फिर क्या हुआ? मानस बोला–होगा क्या, वहीं जम गया। जब उस पर चढ़ गई तो वह बक-बक करने लगा। मैं उसे वहीं छोड़कर चला आया। कितना रहा होऊँगा, 15-20 मिनट। उसके अलावे और कहीं नहीं गया। विमलेश बोले–मैं उस अड्डे की बात भी नहीं कर रहा। अनमोल टपक पड़ा–मतलब कि आप और कहीं भी गये थे। विभाष बोले–अपनो से क्या छुपाना? यदि कहीं और गये थे तो बता दीजिये।

मानस बोला–हाँ, यार! ध्रुव दा है न! अचानक एक दिन घर पर धमक पड़े और कहने लगे कि दुनिया संसार में कहाँ-कहाँ सुख के खजाने हैं, देख ही लेने चाहिये। ऐसे भी तो जिसको देखो उसके चेहरे पर हवाई। मुर्दनी सूरत लिये घूमते हैं लोग, जैसे कि अपनी लाश ढो रहे हों। कोई खुश दिखता है। किसी की सफलता से, किसी के विकास से? किसी की अच्छाई, किसी के सुख, किसी के विकास, किसी की सफलता की बावत कोई कुछ सुना तो समझो उसके दिल-बगिया में दु:ख के बादल घुमड़ आये। झट से झंझावतों के बाड़ उग आते हैं। टाँग-खिंचाऊ प्रवृतियाँ परवान चढ़ने लगती हैं, तब! इसलिए मैंने भी सोचा कि चलो, क्या ठिकाना कभी सुस्ताने की जरूरत ही पड़े, तो ही सही, काम तो आयेगा न! इसलिए ध्रुव भाई के साथ उस पतित लोक का सैर भी कर आया। लोग कहते हैं उस जन्नत के दरवाजे को–‘कोठा’, मैं कहता हूँ नरक। वहाँ की जिंदगी भी कोई जिंदगी है? मैं वहाँ जाकर जान पाया कि यहाँ तो मैं फँस गया हूँ। विमल बोले–कैसे, क्या हुआ, मानस बोला–विमल बाबू, जिन्हें माँ, बहन, बुआ कहते-कहते जिह्वा नहीं थकती, देवी मानकर, शक्ति स्वरूपा समझकर स्तुति करते हुए नहीं अघाते उसे कहाँ पहुँचा दिया है, पतियों ने। ध्रुव के माध्यम से जान पाया कि नारी किस छलना किस माया का नाम है। क्या आकाश की ऊँचाई, क्या सागर की गहराई? नारी के मन की थाह में सबका निवास है। आशा जिसका नाम है, विश्वास जिसका उच्छवास है। जिसकी प्रतीति से समाज बनता है, जिसकी कुनीति से समाज बिगड़ता है, नारी उसी का नाम है। जानते हो, अड्डे पर का हरेक इनसान गिद्ध दृष्टि से पॉकेट टटोल रहा था, बस! अंदरखाने में गये कि सिगरेट धुकती उस औरत पर नजर पड़ी। मुझे तो लगा कि श्याम बाबू की कुतिया मूतने की मुद्रा में टाँग उठाये भीत नजरों से सशंक इधर-उधर ताक रही है। ध्रुव मेरा हाथ पकड़े था। अनझटके उसके हाथों में थमा दिया। मैं पूर्वानुमान नहीं कर पाया, या कहो अनाड़ी जो ठहरा। मेरा हाथ थामते ही अपनी ओर झटका दे दी। मैं उस पर गिर पड़ा। शराब का एक भभूका नथूनों से टकराया। मैं मिमिया उठा। मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो। अचानक उसने पॉकेट से जेबखर्च के पैसे निकाल लिया और धकेलते हुये बोली–किसको ले आया रे! यह तो नामर्द है। हिजड़ा है, हिजड़ा! ध्रुव टन्न था, वह टल्ली थी, दोनों मुस्कुराये। मैंने सर झुकाये विशेषणों को स्वीकार किया। आप ठीक कहते हो, सज्जन और चरित्रवान नामर्द होते ही हैं। अपने सीधेपन से, भलमनसाहत से लाचार, भले लोग पागल, बेवकूफ और हिजड़ा हो ही जाते हैं। आपलोग ठहरे कर्णधार। आपलोगों को मालूम है कि आप कहाँ जा रहे हैं, किसे कहाँ ले जा रहे हैं और समाज क्यों आपको अपने से काटकर किनारे पर या गुमसी गली में सिमटने को बाध्य कर रहा है? आप इसी लायक हैं! मैं अंड-बंड जो आया बोला और भागा। वह चिढ़कर पीछे के पैंट के पॉकेट पर झपट्टा मारी तो वह फट गई। पर्स वहीं गिर पड़े। हमें अछूत करने को पकड़ना चाह रही थी, वह। सरपट भागा। सीढ़ियों से उतरा। नीचे दो मुस्टंडे तैनात। मैंने शर्ट में छलना के लौटाये पैसे निकालकर उसकी हथेली में थमाये और किसी तरह बाहर निकल आये। क्या यही कोठा है जहाँ चंद सिक्कों के दाम भरोसा मिलता है, विश्वास नहीं। मुझे तो यहाँ भकोसा गया है, इतना ही जानता हूँ, बस!

तीनों मुस्कुरा रहे थे। मानस जी, विमलेश बाबू इस अड्डे की बात भी नहीं कर रहे थे। कोई और अड्डा है, आपका, जहाँ अक्सर जाते हैं आप। मानस चिंता में डूब गया। कहीं इन्हें भनक तो नहीं लग गई। यदि पता चल गया होगा कि तुम्हारे दिल में भी जज्बात है जो किसी पर उमड़ने को तैयार है और उसकी झलक पाने को अक्सर किसी-न-किसी बहाने उसके घर की ओर चक्कर लगा आता हूँ तो दोस्तों के बीच कायम धारणा मेरे प्रति अविश्वास में तब्दील हो जायेगी। अविश्वसनीय हो जाऊँगा, तब। मानस बोला–नहीं यार! कहाँ की कह रहे, नहीं जानता। कभी-कभी रोहित के यहाँ जाता हूँ, बस! रोहित? वही, जिनकी बहन ‘अनिमा’ के खूब चर्चे हैं आजकल! मानस बोला–कौना अनिमा! नहीं जानता। हाँ, रोहित की एक सुंदर सुशील, तेज और स्मार्ट बहन है। क्या नाम बताया अनमोल–अनिमा? विभाष बोले–कोई चक्कर-वक्कर? मानस कुछ नहीं बोला। तब रिपीट किया कितने चक्कर काटते हैं, दिन में। अनमोल बोला–यही दो-चार, क्या मानस भाई। मानस अनमने भाव से स्वीकार किया–हाँ। छुट्टी के दिन जरा ज्यादा चक्कर भी हो जाता है। गॉसिप के अलावा डिबेट, ग्रूप डिस्कशन, पढ़ाई-बढ़ाई व परीक्षा की तैयारी भी चलती है, न! मानस बोला आपलोग नहीं समझेंगे–अकेले पढ़ना कितना मुश्किल काम है? कभी-कभी एक ही वाक्य क्या-क्या अर्थ कहते हैं, स्पष्ट नहीं होता। उसका मंतव्य डिस्कशन से ही स्पष्ट होता है। एक संविधान के उपबंधों को स्पष्ट करने के लिए ही न वकीलों की फौज होती है। कभी-कभी पेंच फँसता है तो सहारा लेना ही पड़ता है, किसी-न-किसी का। विमल बोले–हाँ, सहारा जरूर लीजिये, लेकिन सँभलकर। पहले तो नाग-फाँस में लक्ष्मण बाँधे जाते थे। अब है कि बेवसन छवि की छबीली छटाओं में सिमटी घटा घसीट लेती है अपनी गलियों में आज के श्रवण कुमारों को। किसी को ऐतराज नहीं। एक उज्रभर है, दोस्ती का विश्वास विश्वासघात में न बदल जाय। मानस बोला–यदि जो सौगात में बदल जाय, तो? सभी मूक प्रतिक्रियाविहीन ही रहे।

मैंने आपको जिस अड्डे पर देखा था आप उसकी चर्चा नहीं कर रहे। कहाँ की कहाँ उड़ रहे हैं आप। मानस बोला–हो सकता है बस अड्डे पर देखा हो, परसों-तरसों। वो तो रोहित के कहने पर चला गया था अनिल को रिसीव करने। बोला–मेरा ट्यूशन है, तुम जाकर जरा अनिल को ले आना। फिर विमल बोला–वाह, क्या दोस्ती है? एक अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ सकता, दूसरों के भरोसे बहनों को छोड़ सकता है। अपना समय कीमती है, तो दूसरो का समय फालतू है? आपको पढ़ना-बढ़ना नहीं है? मानस बोला–ऐसी बात नहीं है। कभी-कभार होता है कि जरूरी काम आ पड़ने पर दोस्तों की मदद ली जाती है। अनमोल बोला–हमलोग भी गलत नहीं कह रहे। किंतु, पूछ रहे हैं कि आपने अपना काम तो किया ही, दूसरों के सहारे भी अपना काम निकाल लिया; आपने क्या किया उसके लिए? मानस बोला–कुछ नहीं फिर भी सुकून मिला कि चलो दोस्तों के काम तो आया! हाँ, हाँ करते रहो चकल्लस! समय जब चूक जायेगा तो अवसर ढूँढ़ोगे, अपने काम का। नहीं मिलेगा, तब! जब महसूस करना कि आज के लोग अपना हर मतलब दूसरों से साधते हैं, तो वही होशियार हैं। जो साधन बनते हैं, फिर खुद कुछ नहीं कर पाते, अपने सीधाई के चलते नकारे हो जाते हैं तो वही बेवकूफ करार दिये जाते हैं। ऐसे लोग प्रतिगामी दिशा में ही खिसकने की प्रवृति को अग्रसरण समझते हैं। मानस बोला–आपलोग कहते तो भले की हैं। यही युग और परिवेश के हालात भी हैं और डिमांड भी। लोग झट से कह देते हैं कि मुझे तो यह काम है, जरा ये काम कर दीजियेगा तो! लेकिन ये नहीं सोचते कि दूसरों के पॉकेट में अतिरिक्त समय का कोई शिला है क्या, जिसे निकाला और खल्ली की तरह वक्त की दीवार पर मनमाफिक कार्यों की सूरत में नई इबारत उकेर दी। पेट सबके हैं, भूख सबको लगती है, जरूरतें सबों की है, करना सबको होता है। साध्य उसका है, जो साधते कर्मयोग से हैं। फिर अतिरिक्त समय कहाँ से लाये कोई। अपना समय कोई किसी पर कोई क्यों लुटाये? सेवा–सेवाधर्म ही है, ऐसा, जहाँ पुरूषार्थ बढ़-चढ़कर बोलता है, किंतु अपनी जरूरतों को कमकर नहीं तौलता, उसे नजरअंदाज नहीं करता, अपितु ससमय पूरा कर ही समय की मानक इकाइयों को अमूल्य और अनगिनत बनाता है, संस्थागत रूप देकर, मानव-शृंखला बनाकर।

विमलेश बोले–यार, तुम असली बात पर नहीं आ रहे। मैं हवाई अड्डे की बात कर रहा हूँ, क्यों गये थे? नेता-वेता का कोई चक्कर है, क्या? मानस के माथे पर पड़े बल ढीले पड़ गये। ओह! अबतक क्या से क्या बकते रहे और तुमलोग भी हो कि सारे बकवास को सत्तू के घोल की तरह पीते रहे। हाँ, हवाई अड्डा गया था–जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा, पटना–15 मई को ही तो गया था। हम दोनों सेंट स्टीफेंस कॉलेज में एक साथ पढ़े थे। उन्होंने फोन कर सूचित किया था कि आपके पटना में मेरा आगमन है, चाहता हूँ कि पटना-दर्शन आपके दर्शन से शुरू हो। आप हवाई अड्डे पर उपस्थित रहो। सुबह मैंने बरबीघा से सुमो गाड़ी भाड़ा पर लिया और राहुल जी को लिवाने चला गया। विमलेश बोले–यही बात पहले बोल देते तो इतनी चर्चा की जरूरत ही नहीं पड़ती। तो फिर जानकारी कैसे होती कि छुप-छुप के आप क्या करते फिरते हैं। और फिर–हम बेरोजगारों का फालतू समय कैसे कटता? बेरोजगारी से तो ऐसे भी युवा ऊर्जा कट जाती है समय की धार पर। बेरोजगार तो निभते ही हैं विडंबनाओं की कगार पर, बुरे हालात की दुधारी तलवार पर। खुद को सँजोना बहुत मुश्किल होता है, यार! तुम तो राहुल के दोस्त हो, कहीं जो प्रधानमंत्री बने तो कहीं भी किनारे लग जाओगे। नहीं भी बने, तो तुम्हे किनारे लगने में संदेह नहीं। उनके अजीज जो हो। हमसबों का क्या ठिकाना? किसी नौकरपेशा, किसी अच्छे व्यवसायी को देखता हूँ तो हसरतों की कंटीली पाँखें खुल जाती है और हम युवजन उससे चिपके-लटके यहाँ-वहाँ उड़ते फिरते हैं। जब-तब काँटों की रगड़ या उसका हल्का-सा स्पर्श छीलकर रख देता है, दिलों को। रेती की धार से रगड़ खाये धार की तरह ऊर्जा नश्तर तो होती है, किंतु ओजस्विता व तेजस्विता को आसमान छूने का अवसर नहीं मिलता तो जंग खायी वही धार जानलेवा होती है। डर होता है कि कहीं टेटनस की तरह अस्तित्व कहीं खुद स्तंभित न रह जायँ। कोई सही मार्ग तो सूझे! कोई राह दिखाई नहीं पड़ती, फिलवक्त। तभी अनमोल बोला–बहुत देर तक खड़े-खड़े बात हो गई। चलिये, चाय की चुस्की लेते हैं। विभाष बोला–अर्थव्यवस्था क्या कहती है? तभी अनमोल बोला–इंडोनिशिया कंगाल जरूर हुआ है, किंतु चाय पीना नहीं भूला। विमलेश मानस का हाथ पकड़े-पकड़े बोले–तो चलिये! क्या ठिकाना, जो चाय की चुस्कियों से औपनिवेशिक सत्ता की समस्याओं के समाधान निकल जायें। चाय की चुस्कियों के बीच ही तो लार्ड इर्विन से लेकर विंस्टन चर्चिल तक ने कूटनीतिक चालों की निस्सीम संभावनाओं को तलाशा था। युवा दिलों की धड़कन से बड़ी औपनिवेशिक सत्ता नहीं होती, यार! हमें अपनी समस्याओं का समाधान निकालना है। नहीं तो आज लोगों की नजर में लफुआ हैं, कल घर की नजरों में लफुझंग हो जायेंगे। बबुआने खतरे में है! चलो!

चारो जने राय जी की चाय-दुकान पर चाय पीने लगे। उधर अदहन खदकती रही, उबलती रही; इधर चारों आपस में गपबाजी में मशगूल अपनी-अपनी मजबूरियों की अनुभूतिपरक ईंधन से वैज्ञानिक-अवैज्ञानिक तर्कों को आत्मसात करने लगे। उस समय दो रुपये, चाय की भी भारी पड़ रहे थे–नहीं आते तो अच्छा, कम-से-कम बच तो जाता–एक लिखो-फेंको तो हो ही सकता था। बातों के दरम्यान बात सामने आयी। दोस्त-मुहिम तो कहता है कि नौकरी में इन पढ़ाई-लिखाई का कोई उपयोग ही नहीं है आपकी समझ, आपकी मेहनत और सार्थक पहल ही सफलता की गारंटी है। भला होता कि व्यावसायिक कोर्सो को भी साथ-साथ पूरे करने की छूट या व्यवस्था स्कूलों-कॉलेजों में होती। तबतक चाय तैयार हो गई। मानस को छोड़कर तीनों जने अपनी-अपनी जेबों को लुक-लुकाकर खँगालने लगे। बेइज्जती के भय से सहम गये।

मानस ने अपनी जेब पर जोरदार चपत जमाया, गोया कह रहा हो कि वंदा शहीद होने को तैयार है। तब आश्वस्त हो सबों ने चाय-कप अपने-अपने हाथों में थामा। किंतु, इसके पहले एक का दो कप करवा ही लिया; क्योंकि उन्हें पता था कि एक बार का शहीद पुनः शहीद तभी होगा जब उन्हें भान हो कि युद्धक्षेत्र में उनका शहीद होना उसकी जेब का बोझ नहीं बनेगा। क्योंकि आजकल हर कोई अपना जनाजा आप ढोने को अभिशप्त है, आज की जिंदगी बार-बार की शहादत की दास्तान है। अलबत्ता, बुरे दौर से गुजर रही सांस्कृतिक विरासत यही गवाही देती है कि आज की जिंदगी मरी हुई है, उसकी साँसें उड़ी हुई हैं। फिर भी हमारी कामनायें ‘हम यही करेंगे’ कि जिद पर अड़ी हुई है। एक साथ बहुरूपियों का रोल करती जिंदगी खालिस नकलिस्तान लगती है। असली जिंदगी जीने के मजे जिन संघर्षो में है उसे तो अभी जी रहे हैं, समस्याओं की अंबार पर। काश, जो रोजी-रोटी का जुगाड़ हो जाय और हमारी संघर्ष करने की यह उत्कटता तब भी यथावत रहे–खूब धारदार! अपनी जमीन से जुड़े रहें, जमीन न छोड़ें। आसमान में उड़ें–और खूब उड़ें, किंतु जमीन से जुड़ी जड़ें कभी अपनी मिट्टी न छोड़ें। तभी चारों ने आपस में मिलकर कुछ फुसफसाया। पूछा–राय जी आप दो कट्ठा जमीन रईस इलाके में खरीदे हैं न, हाल-फिलहाल! राय जी बोले–हाँ बाबू, हम भी काफी निराश होकर यहाँ आये थे, जिंदगी से। किंतु आज जिंदगी से बेजार नहीं–सफलताओं से बाग-बाग हैं। अब जिंदगी से कोई शिकायत नहीं। जिंदगी तो इम्तहान लेती ही है। जिंदगी परीक्षा नहीं लेगी, तो कौन लेगी? मौत! तब सफलता असफलता के स्वाद जीव-जान क्या जानेंगे? चारों अपनी-अपनी राह चल पड़े। आँखों-आँखों में कुछ बातें भी हुई।

दो-तीन दिन बाद आवश्यक तैयारियों के साथ चारों जने पुनः राय जी की दुकान पर चाय पीने को इकट्ठे हुए। मानस ने शुरू किया–यार, दूसरों के भरोसे आगे बढ़ने की सोचना भयाक्रांत करता है। श्रेय तो लेगा ही, हर जगह भुनाता फिरेगा कि मैंने अमुक-अमुक को कहाँ पहुँचा दिया। आज वह जो भी है उसकी बदौलत है। ऐसे में बड़ा आदमी भी काफी छोटा हो जाता है। बौनेपन का यह अहसास जिंदगी के मायनों को बेमतलब कर देता है। जिंदगी का जायका बिगड़ जाता है, जीने का अहसास सफलताओं के बावजूद कचोटता है तब। इसलिए अपने बलबूते अपने पाँव पर खड़ा होना है। हम सभी आपस में मिलकर एक-दूसरे का सहकार बनकर एक-दूसरे की हँसी-खुशी, दुःख-दर्द बाँटकर अपनी-अपनी पहचान बनायेंगे। तभी विमलेश ने पूछा–लेकिन कैसे? शुरुआत कहाँ से हो।

अभी वार्त्ताक्रम शुरू ही हुआ था कि वहाँ मँडराते एक पीव बहते अधगले अंगोंवाले भिखारी, जिन्हें उसका युवा पुत्र चलने-चलाने और माँगने-माँगाने किसी को देख अकस्मात् घबराहट में छुपने की कोशिश करने लगा। चारों जने की नजर सामने से आते एक वर्दीधारी पुलिस पर पड़ी, जो खुद राय जी की चाय का कायल था। वह सिपाही उस युवक को पहचान गया। पूछा, बाप भी साथ में है? वह अभी बापू को छुपाने में ही व्यस्त था। खुद को समेट पाता, उससे पहले ही पुलिस महाराज ने पुकार लिया। डपटकर बोला–अरे, बाप को भी निकाल। कहाँ छुपा रहा है उसको? किसी तरह कूख-कूखकर भिखारी को निकाला। देखा होठों के पास मवाद लिथड़े हुये। दोनों हथेली पूरी की पूरी सड़ी गली। अँगुलियाँ नखविहीन, काली-काली। कपड़े-लत्ते गंदगी का ढेर, तिसपर मचलती मक्खियों की मौज। उबकाई होने को आई। तभी सिपाही जोर से डपटा–यह स्वाँग नहीं छोड़ेगा, तुमसब? स्साला, भगवान इतना हट्टा-कट्टा बनाया है, शक्ल-सूरत इतना अच्छा दिया है, लेकिन कोई काम नहीं कर सकते। हराम की कमाई खाते हो, भीख माँगते हो। कमाई का जोर ढूँढें तो क्या हो? मेहनत का एक बूँद पसीना कई-कई सागर-महासागर की आलोड़ित उमंगों को पछाड़ सकता है। श्रम में सामर्थ्य है, इसलिए श्रमिक की असली मुसाहिब है। वह दोनों भयभीत टुकुर-टुकुर ताकता रहा। नहीं बाबू, नहीं बाबू करता रहा। जैसे गले में कोई जबुरिया जहर या पीसा हुआ शीशा उड़ेल दिया हो। तब पुनः डपटा-निकालता है नकाब कि नहीं। तुम्हारी टाँग कटी हुई है, दिखाऊँ? तब अचानक देखा कि अपना सारा-सर सामान छोड़ वह दोनों भिखारी एक घुड़की से डरकर बंदरों की तरह उछलते-कूदते भागा। उस वक्त चारों यकीन नहीं कर पाये कि अभी-अभी भागनेवाले दोनों इनसान कुछ देर पहले पॉवविहीन सड़े-गले अंगों वाला वही भिखारी था, जिन्हें उसका बेटा आसान कमाई में सहयोग करने में लीन था। ऐसा बंदर-बच्चा होता है, आसान कमाई खाने वाला इनसान। फिर पता चला कि रेल विभाग में नौकरी करते पहली दफा सिपाही ने इस भिखारी को देखा था। तब अगले दिन खूब पीटा था, दोनों को। नसीहतें भी दी थी, उसे। ऊँच-नीच का कोई असर नहीं पड़ा, कहे का। उस दिन के बाद फिर आज यहाँ दीख गया।

चर्चा मूल पथ पर आ गई। कुछ भी हो, अपना अस्तित्व सुरक्षित-सुरभित रहना चाहिये; हमसब कुछ ऐसा ही करेंगे। ऐसा कुछ न करेंगे जिससे पर-परिवार, अपना वजूद या देश के गुमान को कोई ठेस लगे। अभियान का कारक बनेंगे, बद-गुमान का नहीं। मानस बोला–विमलेश दा, क्या मिलता है किसी को धोखा देकर? धोखा तो खुद खाता है दूसरों की आँखों में धूल झोंकने वाला। जब तक हवा विरुद्ध है तबतक सुरक्षित, यदि पक्ष है तो–अपनी ही आँखों में पड़ेगी न! अनमोल बोला–हम सबलोग देखते हैं कि जहाँ सकारात्मकता हमें ऊँचाई देती है, वहीं नकारात्मकता सफलता के बावजूद खड्ड में ही धकेलता है–पर्याप्त नीचाई तक। सकारात्मक सोच, सकारात्मक कार्य की जरूरत है। परिणाम सकारात्मक तो स्वयं ही मिल जायेंगे। विभाष बोला–आमतौर पर देखेंगे कि जब गलत सेंस में कुछ आरोपित करोगे, तो झट से कह देगा–उसने कहा था, मैं नहीं उसका किया-धरा है। जब सही अर्थ में अच्छे अर्थ में बात करोगे तो श्रेय को झट से कह देगा–आखिर किसकी सोच है? किसका किया है, जानते हैं? यह सब जो हुआ है मेरे कारण ही हो सका है। यह प्रथम पुरुषवादी ‘मैं’ अहंमन्यतासूचक है और उत्तम पुरुषवादी ‘उस’ आरोपमूलक; ‘मैं’ एकवचन है, उस भी। जरूरत है सकारात्मकता की। यदि हम सकारात्मक हो जायँ तो ‘मैं’ का भाव सुषुप्त करना पड़ेगा और ‘उस’ का भाव जगाना पड़ेगा। उसने ऐसा कर लिया, उसने कर दिखाया को प्रेरणार्थक मान लें तो मानस का उस निश्चय की मुकाम देगा। किसी पर अपनी कमजोरी, भूल, आरोप, अपराध थोपने के बदले उसे अपने ऊपर लेने की जरूरत है। जिस ‘मैं’ कार से इनसान का क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष जागता हो, उसे दफन करना ही अच्छा। यदि जो ऐसा कर पायें तो व्यष्टिवादिता समष्टिवादी होकर व्यक्ति-विशेष का महत्त्व-स्थापन करेगा। इसलिए ‘उस’ को जगाना है; ‘मैं’ को मारना है; किंतु हर-हाल में सकारात्मक ही रहना है। फिर विमलेश–फिर विभाष–फिर अनमोल और मानस भी बोला–चाहे चाय बेचेंगे, जानवर पालकर डेयरी फॉर्म चलायेंगे, बैंकों के संपर्क में रहकर, सरकारी नीतियों का लाभ उठाकर आगे बढ़ेंगे। देखना, कैसे प्रेरणार्थक होकर मेरी राहें आसान बनायेगी ‘उस’।

और फिर–राहें आसान होती चली गई। समस्याओं ने निस्तार की सत्ता का संवरण किया और लक्ष्मी एवं सरस्वती, दोनों पर विजयश्री पाई–फलस्वरूप विस्तार की सत्ता का प्रतिफलन हुआ।  मानस का उस गंगोत्री की तरह पावन हो, तो हजारों दुआओं का फल मिलता है उससे। यह बात छुपी नहीं है कि ‘मैं’ से–उन चारों ने पहचान कर सच्चाई की तसदीक कर ली है। बह रहे हैं सफलता की रौ में ‘मानस की उस’ धारा में। सकारात्मक मनःस्थितियों के कारण जिंदगी की राह सरल हो जाती है, जिसपर निरंतर चलने से विद्वान और सामान्य, किंतु भली-भाँति अक्षर-ज्ञान पाए साक्षर, दोनों की नजरों में ‘ककहरा’ सरीखी होती है जिंदगी की विथियाँ, गुत्थियाँ। बाकी बचा काम तो इनसान का हौसला और उसका उत्तरदायित्व कर देता है।


Image: Maharaja in the garden with his harem
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