मुस्कान

मुस्कान

“क्या कर रही हो बेटा ?” बुड्ढे ने खाँसते हुए कहा । उसकी आवाज़ में थरथराहट थी।

“कुर्ते में पैबंद लगा रही हूँ, बाबा। क्या है ?”–जुमनी ने बाप के करीब आकर कहा।

“कुछ नहीं–शाम के लिए चावल तो न होंगे! दो दिन से कोई मुर्दा नहीं आया! अब सिर्फ यह अठन्नी हमारे पास रह गई है। बेटा, जब तू बच्ची थी, इसी कब्रिस्तान में रोज़ दो-दो, तीन-तीन मुर्दे आया करते थे। दूर-दूर तक और कोई कब्रिस्तान न था। मुझे दिन-दिनभर फुर्सत न रहती थी। अकेला आदमी। दफ़न का सारा प्रबंध मुझे ही करना पड़ता था। पैसे की कोई कमी न थी। पर जो भी मिलता उठा देता। इस दिन की खबर न थी…। एक तो यहाँ अब केवल गरीबों के ही मुर्दे आते हैं–लड़-झगड़ कर उनसे कहीं दो-चार पैसे वसूल होते हैं। बरस-छ: महीने में कोई धनी मुसाफिर मरा और उसके निकट संबंधी आ गए तो कुछ रकम मिल गई। पर आजकल तो ऐसा सन्नाटा है कि दो-दो, चार-चार दिन तक कोई मुर्दा नहीं आता। अब यह अंतिम अठन्नी रह गई है। कोई कपड़ा हो तो दो रात के लिए कुछ खाने का सामान ले आएँ। कोई आए तो मेरा इंतज़ार कराना।” यह कहते-कहते बुड्ढे के सूखे चेहरे पर एक चमक छा गई।

बुड्ढे ने अपनी लकड़ी उठाई और झोपड़ी से निकल गया। उसके शरीर पर एक मैला कुर्ता था जिसमें चारों ओर पैबंद लगे थे। बाल लटके हुए और लंबी सफेद दाढ़ी। बरसों से हज़ाम ने उन पर हाथ न लगाया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं और कमर कमजोरी से झुक गई थी। पैर चलने में डगमगाते और कदम मुश्किल से जमते। वह कब्रिस्तान का मुज़ाविर था। कब्रिस्तान आबादी से बहुत दूर था। सुनसान मैदान में कहीं-कहीं पत्थर के कब्रों के निशान दीख पड़ते और दीखता बुड्ढे का जीर्ण-शीर्ण झोपड़ा। मुर्दों की इस बस्ती में यही दो जीवित प्राणी थे–जुमनी और उसका बाबा। जुमनी की माँ बचपन में ही सिधार गई। बुड्ढे ने फिर ब्याह न किया। वह जुमनी को बहुत चाहता था। जुमनी के सिवा उसका कोई अपना न था।

बाप के जाते ही जुमनी फिर पैबंद लगाने बैठ गई। उसे भी आश्चर्य हो रहा था कि लोग अब क्यों नहीं मरते? अब यदि मुर्दा न आए तो उसका बाप क्या करेगा? दाल-चावल कहाँ से आएँगे और वह बाप को क्या पका कर देगी? देर तक वह सोच न सकी। उसका मस्तिष्क अभी इन विचारों पर सोचने के योग्य नहीं हुआ था। उसकी उम्र ही क्या थी। उसका मस्तिष्क केवल भूत और भविष्य के आज़ाद चित्र ही प्रगट कर सकता था। वह सोचने लगी–पिछले साल क्या अच्छे दिन थे जब सारे शहर में हैजे का प्रकोप था। कब्रिस्तान में दिनभर लाशों का ताँता लगा रहता था। उसका बाप कितना प्रसन्न रहता। दिन-रात व्यस्त रहने पर भी वह खुश रहता। वह उसके लिए तरह-तरह की मिठाइयाँ लाता। इतनी मिठाई उसने कभी न खाई थी–किसी त्योहार में भी नहीं। उसके अच्छे कपड़े सब उसी जमाने के थे। वह कुर्ता भी जिसमें वह पैबंद लगा रही थी–कैसा अच्छा कपड़ा था। इतना पुराना होने पर भी उसकी रौनक वैसी ही थी और वह साड़ी जो उसने ईद पर पहनी थी–उसका बाप कहता था कि वह साड़ी उसे बड़ी भली लगती थी। इस बार त्योहार पर वह फिर उसी साड़ी को पहनेगी।

“जुमनी!” बुड्ढे ने झोपड़ी का दरवाज़ा खोलते हुए पुकारा। उसके काकुल और दाढ़ी के बाल धूल से भर गए थे। चेहरे की शिकनों में धूल के जर्रे भर गए थे जिससे चेहरा कुछ भरा नज़र आ रहा था! उसके कंधे पर दो छोटी-छोटी गठरियाँ थीं। उनकी वज़न कुछ वैसी न होगी। फिर भी बुड्ढे की कमर और झुक गई थी। उम्र का बोझ ही उसकी पीठ पर कब कम था जो वह और अधिक बोझ सह सकता था। ज़िंदगी का भी वज़न होता है जो हर साँस के साथ बढ़ता जाता है। इसी से शायद अंतिम अवस्था में कमर झुक जाया करती है।

जुमनी ने गठरियाँ बाप के कंधे से उतार कर जमीन पर रख दी। बुड्ढा चटाई पर बैठ गया। उसकी साँस फुल रही थी। चेहरे का पसीना शिकनों में बैठी धूल को गुँथ रहा था और साँस के वेग से भींगी हुई धूल के खुर्दबीनी पुतले बन रहे थे।

“बेटा, कोई आया था?” उसने जुमानी से पूछा।

“नहीं बाबा!” जुमनी ने कहा और बाप की फटी हुई कफनी तह कर के अलगनी पर डालने लगी।

“कोई नहीं आया?…अब हमारा भाग्य ही बिगड़ गया है। नहीं तो इतनी कम मौत शहर में शायद कभी न हुई थी। बाप-दादा का पेशा है। छोड़ा नहीं जाता, नहीं तो प्याला लेकर दर-दर भीख माँगना इससे अच्छा होता। फिर इज्ज़त भी तो कोई चीज़ है। इस समय सभी मुझे इज्ज़त की निगाह से देखते हैं–‘शाह साहब’ ‘शाह साहब’ कहते हैं। भीख माँगने निकलूँगा तो जाने कौन किस तरह पेश आए। किंतु अब इस पेशा से रोटी क्यों कर चलेगी! जवानी तो ऐश-आराम में बीती! अब बुढ़ापे में ऐसी मुसीबत। या अल्लाह !”–बुड्ढा यह कह कर रोने लगा। आँसू की दो बड़ी-बड़ी बूँदें धूल के सने चेहरे पर अपना निशान छोड़कर बुड्ढे की दाढ़ी में खो गईं । बाप को रोता देख कर जुमनी बाप के गले से लिपट कर रोने लगी। दुनिया वाले किसी की मौत पर रोते हैं, ये बाप-बेटी दुनियावालों की ज़िंदगी पर आँसू बहा रहे थे।

रात के दो बजे थे। बुड्ढा चटाई पर लेटा खाँस रहा था। जुमनी बेखबर सो रही थी। रात निहायत अँधेरी और भयावनी थी। बूड्ढे का दिमाग भविष्य के विचारों में डूबा हुआ था–उसके बाद जुमनी का दुनिया में कोई न था। उसकी ज़िंदगी किस तरह कटेगी? वह यदि उसे ब्याहने के पहले मर गया तो उसका निर्वाह कैसे होगा? उसे जुमनी का भविष्य अंधकारपूर्ण दिखाई दिया। रात्रि के अंधकार में झोपड़ी के अंदर टिमटिमाते हुए चिराग की एक लौ थी। किंतु बुड्ढे की ज़िंदगी के अंधियारे में कहीं प्रकाश का नाम न था।

“शाह साहब ?” निस्तब्धता को चिरती हुई एक आवाज़ उसके कानों में पहुँची। वह उठ बैठा।

झोपड़ी के बाहर कोई उसे पुकार रहा था।

“कौन है? मुझे बुलाते हो?…क्या काम है?”

“दिल्ली वाले सौदागर के लड़के की मृत्यु हो गई। जनाज़ा सुबह सबेरे यहाँ आएगा। आप कब्र-आदि का प्रबंध कर रखेंगे।”

दिल्ली वाले सौदागर का नाम सुनकर बुड्ढे का दिल खुशी से धड़कने लगा। यह परदेशी बड़ा व्यापारी था। बुड्ढे को रुपए काफी मिल जाएँगे। अत्यधिक आनंद में उसने रात का शेष भाग आने वाले रुपयों की चमचमाहट और खनखनाहट के ख्याल में जाग कर बिताया और सुबह से पहले कब्र के इंतज़ाम में झोपड़ी से बाहर निकल गया। उसकी सूखी टाँगों में फुर्ती आ गई थी और कमर की झुकान में कुछ कमी। अत्यधिक प्रसन्नता में ही शक्ति और साहस का राज छिपा रहता है, भले ही उनके आधार काल्पनिक हों।

जुमनी सुबह उठकर झोपड़ी में झाड़ू दे रही थी। बाहर से कुछ लोगों के गुज़रने की आहट मिली। जुमनी द्वार पर आकर देखने लगी। बहुत सारे लोग एक जनाज़े के पीछे-पीछे आ रहे थे। कुछ लोग आपस में बातचीत करते जा रहे थे–एक ने कहा–“कैसा कड़ियल जवान था।”

दूसरे ने जो पास ही से जनाज़े के साथ हो गया था पूछा–“आख़िर उस बिचारे को हुआ क्या था?”

“क्या बताएँ भाई!–एक औरत से उसका कुछ दिनों से अनुचित संबंध हो गया था । उस चुड़ैल ने अपने एक प्रेमी के बहकाने से कल रात उस बिचारे को ज़हर दे दिया। दिनभर उसकी हालत बुरी रही और अंत में शाम तक वह चल बसा। अफसोस, मेरा बड़ा दोस्त था।” पहले ने उत्तर दिया।

जुमनी उनकी बातें ध्यान से सुनती रही और जब वे कुछ आगे निकल गए तो अपनी दृष्टि जनाज़े पर जमाए जोर से हँसने लगी। और फिर झोपड़ी में जाकर जाने कब तक हँसती रह । झाड़ू देने में आज उसे विशेष आनंद आ रहा था। और दिन वह शीघ्र झाड़ू देकर दूसरे कामों में लग जाया करती थी। पर आज उसका जी चाहता था कि बराबर झाड़ू देती रहे और साथ ही हँसती जाए। आज के झाड़ू देने के अंदाज़ में नृत्य का एहसास था, झाड़ू की हरकत और कमर की लोच में एक अनोखी बात थी। कोई नृत्यकार नृत्य के इस ढंग पर मुग्ध हुए बिना नहीं रहता।

बुड्ढा कब्रिस्तान से झोपड़ी में आया तो उसके नेत्र खुशी से चमक रहे थे। चेहरे पर असीम उल्लास ने उस पर के शिकनों को फैला दिया था। बुड्ढे का मुरझाया यौवन फिर से लौटने का प्रयास कर रहा था। मनुष्य यदि सदा प्रसन्न ही रहता तो कभी बुड्ढा न होता परंतु फिर खुशी भी तो निरर्थक और बेअसर हो जाती। बुड्ढे को रुपए काफी मिल गए थे। उसने काँपते हाथों से उन्हें जुमनी के हवाले किया। जुमनी ने साल भर से इतने रुपए न देखे थे। वह देर तक उन्हें हथेली पर रखे देखती रही। चाँदी के सिक्कों की चमक ने उसके मुख पर कांति ला दी थी।

“जुमनी !” हनीफ़ ने बाहर से आवाज़ दी। उसके हाथ में डाक का थैला था। प्रत्येक सप्ताह उसे पास की बस्ती में डाक ले जाना पड़ता था। आते-जाते वह प्राय: बुड्ढे के यहाँ कुछ देर बैठ जाता। जुमनी अपने बाप के सिवा केवल हनीफ़ को जानती थी। वह उससे खुल कर बातें करती। उसका पालन-पोषण ऐसे वातावरण में हुआ था जहाँ समाज के सारे बंधन, सारी रुकावटें हास्यास्पद समझी जातीं। फिर वह इन रुकावटों को क्या जानती जिन्हें हम ‘लज्जा’ के नाम से पुकारते हैं।

हनीफ़ जवान था। खूबसूरत बदन, लंबा कद। बुड्ढे को उससे इतनी घनिष्ठता हो गई थी कि उसका जुमनी से इतना मिलना कभी भी नहीं खटकता। “क्यों, शाहसाहब कहाँ हैं?”

“बाज़ार गए हैं। आते ही होंगे। तुम उस हफ्ते नहीं आए? मैं तुम्हारी राह देखती रही। बाबा भी पूछ रहे थे।”

“उस दिन छुट्टी लेकर घर चला गया था। तुम राह क्यों देखती रही? क्या कोई काम था?”

“नहीं तो। यूँ ही पूछ लिया। गुमान हुआ कि शायद तुम बीमार पड़ गए। नहीं आना था तो पहले ही कह देते। हम लोगों को कुछ ख्याल न होता।”

“घर से भाई की अचानक चिट्ठी आ गई। वह बीमार पड़ गए थे। उसी दिन छुट्टी की दरख्वास्त मंजूर करा कर चला गया। तुम्हारी ओर आने का समय ही न मिला। क्या दिनभर तुम इंतज़ार करती रही?”

हनीफ़ की बातों में मुहब्बत की झलक थी। उसकी आँखें राश-फाश कर रही थीं। हनीफ़ को जुमनी से मुहब्बत थी बेथाह। पर इसका ज्ञान दोनों में से किसी को न था। मुहब्बत अपना पहला वार चोरी से किया करती है और इतना हल्का कि मुहब्बत करने वालों को इसका पता तक नहीं चलता। फूलों की मार से भी चोट लगती है। पर इस चोट का असर चोट की तरह नहीं होता। यदि मुहब्बत का पहला ही वार चोखा हो तो फिर कोई इसे दिल में प्रवेश ही क्यों करने दे? कयामत तो तब शुरू होती है जब मुहब्बत दिल में अपना घर कर लेती है।

“क्यों इंतज़ार करती रहती? क्या और कोई काम न था मुझे?” जुमनी के उत्तर में शोखी और शरारत थी जो हनीफ़ को बहुत प्रिय मालूम हुई।

“अच्छा अब जाना है। बहुत सी डाक बाकी रह गई है। शाहसाहब आएँ तो सलाम कह देना।”

जुमनी ने गर्दन की जादूभरी हरकत और ओठों की हल्की मुस्कुराहट के साथ उसे विदा किया।

बुड्ढा बुखार से हाँफ रहा था। जुमनी सिरहाने बैठी उसका सिर दबा रही थी। बुड्ढे को दो दिन से बुखार था। जोरों की खाँसी के साथ उस सुनसान बस्ती में कोई न था जो बुड्ढे के लिए कहीं से दवा लेकर देता। उसका बुखार बढ़ता गया। यहाँ तक कि उसके मस्तिष्क पर भी इसका प्रभाव पड़ा। जुमनी ने आजतक किसी को बीमार होते न देखा था। उसकी माँ उसके बचपन में मर गई थी और उसका बाप कभी इस तरह बीमार न पड़ा था। इस बीमारी का क्या नतीजा हो सकता है उसे इसकी खबर न थी। उसे केवल बाप का कष्ट देख बेचैनी हो रही थी। वह बाप के कान के पास पुकारती और कोई उत्तर न पाकर क्षुब्ध हो उठती। उसे क्या खबर थी कि बुड्ढा दम तोड़ रहा था और जिस प्रकार उसने अपनी ज़िंदगी में कितने सूरमाओं को जमीन के नीचे छुपा दिया था उसी प्रकार उसका निशान भी खाक के अंदर खोया जाने वाला था। सुबह होते-होते बुड्ढे के प्राण पखेरू उड़ गए।

जुमनी ने मुर्दे हजारों देखे थे लेकिन कफन के अंदर ढंके हुए। मौत का खुला दृश्य उसने पहली बार देखा। उसके बाप की आँखें पथरा गई थीं। साँस का चलना बंद हो चुका था। बदन ठंढा हो गया था। यह हालत देख जुमनी का दिल भर आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। वह इसलिए नहीं रो रही थी कि उसका बाप उससे सदा के लिए छुट गया, वरन् इसलिए कि बाप की यह असाधारण अवस्था को समझने में असमर्थ थी। उसके आँसू उसकी अज्ञानता की विवशता को प्रगट कर रहे थे। हम प्राय: जब मजबूर और बेबस हो जाते हैं तो रोने लगते हैं जिससे दूसरों को हमारी असमर्थता का अनुमान हो।

सुबह को नित्य की भाँति हनीफ़ डाक का थैला लिए झोंपड़ी में आया। जुमनी उसे देख मुस्कुरा पड़ी। वह देर से हनीफ़ की बाट देख रही थी। उसे विश्वास था कि वह उसके बाप की इस विचित्र दशा का रहस्य बता सकेगा। हनीफ़ से वह बराबर कुछ इस प्रकार के प्रश्न करती जो उसकी समझ के परे रहते थे और हनीफ़ उनका समाधान कर देता।

“देखो तो, बाबा को क्या हो गया है?” हनीफ़ ने बुड्ढे के समीप जाकर देखा। उसके ललाट पर हाथ रखा। उसकी आँखों से अनायास आँसू निकल आए। जुमनी भी रोने लगी।

“शाहसाहब सिधार गए। उनके दफ़न का सामान ठीक करना चाहिए–” हनीफ़ ने आँसू फोंछते हुए कहा और झोपड़ी से बाहर चला गया। कुछ देर में वह चंद व्यक्तियों को साथ लेकर आया। मुर्दे को नहला-धुला कर कब्रिस्तान ले जाया जाने लगा तो जुमनी के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। वह मुस्कुराने लगी और जनाज़ा जब तक आँखों से ओझल न हुआ वह मुस्कुराती रही। जब जनाज़ा दफ़न हो चुका तो अचानक उसकी चेतना लौटी और उसके मुख पर विषाद की कालिमा छा गई। कब्रिस्तान से लौटने वालों में उसका बाप न था। यह उसके लिए विचित्र बात थी। नेत्र भर आए और मुस्कुराहट का स्थान आँसुओं की दो बढ़ती हुई धाराओं ने ले लिया।

हनीफ़ जुमनी को अपने घर ले गया और दोनों का ब्याह हो गया। जुमनी के लिए हनीफ़ का घर एक नई दुनिया थी। वह पहले केवल अपने बाप और हनीफ़ को जानती थी। स्त्री और पुरुष का भेद उसने कभी महसूस न किया। इसलिए कि उसका किसी स्त्री से संपर्क न रहा था। यहाँ उसे बहुत-सी औरतों से वास्ता पड़ा। कब्रिस्तान के वातावरण के लिए जुमनी अपने बाप के साथ मर चुकी थी और जिस प्रकार उसका बाप इस दुनिया से दूसरी ही दुनिया में पहुँच गया था, जुमनी भी एक दुनिया से आकर दूसरी में बस रही थी। हम ज़िंदगी में भी कितनी बार मर कर जीते हैं। जवानी का जन्म बचपन की मौत से होता है, बुढ़ापे का आगमन जवानी की मौत का पैगाम है।

हनीफ़ जुमनी को परवानोवार चाहने लगा। एक मिनट भी उससे अलग रहना उसे असह्य जान पड़ता। जुमनी भी हनीफ़ की अनुपस्थिति में बेकरार-सी रहती।

पड़ोस का एक लड़का रात को मर गया। जुमनी को सुबह इसकी खबर मिली। शीघ्र ही घर का सारा काम समाप्त कर वह पड़ोस के घर जाने लगी। वह आज बहुत खुश थी। उसका चेहरा चमक रहा था। किंतु उसका आकर्षण कम हो गया था। हनीफ़ इस खुशी का कारण न समझ सका। जिस समय वह पड़ोस के घर जा रही थी हनीफ़ ने पूछा–“क्यों, आज बहुत खुश नज़र आ रही हो?” जुमनी ने कोई उत्तर न दिया और मुस्कुराते हुए बाहर निकल गई। हनीफ़ के दिल-दिमाग़ पर जुमनी की मुहब्बत इस तरह छाई थी कि वह उसके लिए कुछ न सोच सकता था। उसकी इस निरर्थक मुस्कुराहट पर उसने ध्यान न दिया।

जिस समय जुमनी पड़ोसी के यहाँ पहुँची उस समय बच्चे की लाश दफनायी जा रही थी। वह एक ओर खड़ी हो गई। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट खेल रही थी जैसे उसे बहुत आनंद आ रहा हो। बराबर की एक स्त्री ने यह देखा। पर वह कुछ समझ न सकी। जुमनी इन सबों में बहुत प्रिय थी। उसके विरुद्ध किसी को कोई संदेह न हो सकता था।

मुहल्ले में कोई मौत होती तो जुमनी वहाँ जरूर पहुँचती और दूर से खड़ी हो कर मुस्कुराती रहती। उसकी इस अनोखी खुशी की चर्चा सर्वत्र होने लगी और जुमनी पर अब सबको संदेह होने लगा। हनीफ़ को भी इसकी भनक मिलती रही। वह जुमनी से इस संबंध में कुछ पूछता तो वह घबड़ा उठती। ऐसा लगता मानो निरपराध पर कलंक लगाया जा रहा हो। हनीफ़ ने जुमनी को मना कर दिया कि आइंदे वह किसी मौत की खबर सुन वहाँ जाया न करे। जुमनी ने न जाने का वादा किया। पर जब कभी उसे मौत की खबर मिलती, उसके बदनों में बिजली-सी फूर्ती आ जाती और वह बिना कुछ सोचे घर से निकल पड़ती। हनीफ़ को जुमनी से कुछ भय होने लगा। हमें अपनी समझ से बाहर की वस्तु से भय होने लगता है।

जुमनी का बच्चा तीन दिन से बीमार था। वह दिनभर उसकी सेवा में लगी रहती। डॉक्टर ने निमोनिया बताया। हनीफ़ ने दवा की दो शिशियाँ लाकर दी–एक खाने की, दूसरी सीने पर मालिश करने की। मालिश करने वाली दवा की शीशी पर ‘ज़हर’ की चिट लगी थी। “इस दवा को अलग रखना। इसमें ज़हर है”–हनीफ़ ने जुमनी से कहा। जुमनी ने दवा अलग ताक़ पर रख दी। शाम तक बच्चे की हालत कुछ-कुछ संभलने लगी। बुखार और खाँसी में कमी हो गई। तीन रात से जगी रहने के कारण बच्चे के पास बैठी हुई जुमनी वहीं सो गई। आधी रात को वह एक स्वप्न देख रही थी–वह अपनी झोपड़ी के द्वार पर खड़ी है। उसका बाप कब्रिस्तान में है। सामने से कुछ लोग एक लाश कंधे पर लिए कब्रिस्तान जा रहे हैं और आपस में बातें कर रहे हैं–‘एक औरत ने इस बिचारे को ज़हर पिला दिया।’ जुमनी एकाएक बिस्तर से उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर मौत का सा पीलापन था। आँखें बाहर को निकली आ रही थीं। ओठों पर थरथराहट के साथ एक भयावनी हँसी थी। उसके बदन कड़े हो रहे थे। उसकी मुर्दा-सी सख्त टाँगों में हरकत पैदा हो गई थी। उसने ताक़ की ओर तेजी से कदम बढ़ाया और बाहर वाली शीशी हाथ में ले ली। उसका चेहरा और भयानक हो गया। यमदूत की तरह लपक कर शीशी को मुट्ठी में जकड़े वह बच्चे के निकट गई और उसके मुख को अपने लोहे-से सख्त हाथों से खोल कर शीशी की सारी दवा उड़ेल दी और खिलखिला कर हँसती बिस्तर पर गिर पड़ी। वह जल्द ही सो गई। कुछ देर बाद बच्चे के कराहने से उसकी नींद टूटी। बच्चा बहुत बेचैनी से तड़प रहा था। आँखें पथरा रही थीं। सारे बदन में ऐंठन थी। बच्चे की हालत देख जुमनी ने उसे कलेजे से लगा लिया और फूट-फूट कर रोने लगी। पास ही हनीफ़ सोया था। उसकी भी नींद खुल गई। बच्चे का अंत निकट था। थोड़ी देर में वह निष्प्राण हो गया। सुबह की रोशनी में हनीफ़ की नज़र ज़हर की खाली शीशी पर पड़ी जो बच्चे के सिरहाने ताक़ पर रखी थी। “तुमने बच्चे को दवा रात किस समय दी थी?” हनीफ़ ने डाँट कर पूछा। “मैं तो शाम ही से सोई थी। उठी तो इसकी यह हालत थी?”–जुमनी ने सिसकते हुए कहा। “फिर यह खाली शीशी यहाँ कहाँ से आई?” हनीफ़ ने शीशी हाथ में उठाते हुए कहा। जुमनी की नज़र शीशी पर पड़ी। वह खुद हैरान थी कि उसे ताक़ से किसने लाया? जुमनी को विस्मित देख हनीफ़ का सर चकराने लगा। उसका दिमाग कोई फैसला न कर सका। ज़हर की शीशी ताक़ रख बेहोश होकर बिस्तर पर गिर गया। दूसरे दिन सबेरे पड़ोस की स्त्रियाँ बच्चे का कुशल-मंगल पूछने आईं तो एक ओर हनीफ़ बिस्तर पर पड़ा था, दूसरी ओर जुमनी दु:खी हो बच्चे को पागल की तरह छाती से लगाए बैठी थी। बच्चे की मौत पर किसी को विस्मय न हुआ क्योंकि उसकी हालत कल दिन में ही बुरी थी। लोगों ने मिलकर बच्चे को दफनाने का प्रबंध किया। हनीफ़ को होश न था। सबों ने समझा–पहली चोट है। बच्चे की लाश जब कब्रिस्तान जाने लगी तो जुमनी अचानक उठ खड़ी हुई। उसकी आँखें जनाज़े की ओर टिकी थीं और चेहरे पर वही रहस्य भरी मुस्कुराहट खेल रही थी।

हनीफ़ बिस्तर पर गिरा तो फिर न उठा। जुमनी उसकी आँखों के सामने एक भयावनी डायन के रूप में घूमती रहती। उसे ऐसा मालूम होता कि जुमनी उसका गला दबा रही है और वह रह-रह कर चीख उठता। जुमनी की निरर्थक मुस्कुराहट उसके हृदय और मस्तिष्क में चुभ रही थी। उसका शरीर भय और आतंक से करकरा रहा था। होश ठिकाने न थे। उसका भाई उसकी बीमारी की खबर सुन कर आ गया। लाख प्रयत्न करने पर भी हनीफ़ की हालत न सुधरी। जुमनी गम से घुल कर आधी हो गई। आखिर एक दिन रात के दो बजे हनीफ़ की हालत बहुत खराब हो गई। उसका भाई सिरहाने बैठा रो रहा था। जुमनी अलग मुँह छुपाए रो रही थी। हनीफ़ के मुँह से ये शब्द निकल रहे थे–“जुमनी डायन है। उससे मुझे बचाओ। यह मुझे खा जाएगी। ज़हर–उसने ज़हर…।” और इसके बाद उसकी साँस रुक गई। उसका बदन ठंढा हो गया। हनीफ़ के शब्दों पर किसी ने ध्यान न दिया। उसका भाई बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने लगा।

सुबह को हनीफ़ की लाश अन्य क्रियाओं के बाद कब्रिस्तान ले जाया जाने लगा तो जुमनी पर वही पुरानी मुस्कुराहट खेल रही थी। वही डरावनी हँसी। मौत की देवी को संभवत: ऐसी हँसी आती होगी कभी। हनीफ़ के भाई ने जुमनी की मुस्कुराहट देख ली। उसका ध्यान झट हनीफ़ की अंतिम शब्दों की ओर गया। दफ़न से लौटने पर उसने जुमनी को बुला कर पूछा–“चुड़ैल, शौहर की मौत पर मुस्कुराती क्यों थी?” जुमनी के पास इसका कोई उत्तर न था। और होता भी तो गम के जोर ने इतनी शक्ति कहाँ छोड़ी थी कि उसके ओठ हिलते। वह चुप रही। हनीफ़ के भाई को विश्वास हो गया कि जुमनी ने हनीफ़ को ज़हर दिया है। खबर उड़ती-पड़ती थाने तक पहुँची और पुलिस पूछताछ के लिए आ गई। हनीफ़ के भाई ने हनीफ़ के मरते समय की बातें और नज़र से देखने पर जुमनी की हँसी का इज़हार पुलिस को दिया। जुमनी हिरासत में ली गई। मकान की तलाश हुई। ताक़ में ज़हर की खाली शीशी पड़ी थी। पुलिस के पास संदेह की गुंजाइश न थी।

जुमनी पर खून का मुकदमा चला। अपराध प्रमाणित होने के लिए काफी सबूत मिल चुके थे। जुमनी को हमेशा के लिए कैद की सज़ा हो गई। वह अब तक कैदखाने में ज़िंदगी के दिन काट रही है। वह सदा उदास और दु:खी रहती है। पर अब भी उसकी नज़र किसी कैदी की लाश पर पड़ जाती है तो वह खिलखिला कर हँस देती है और देर तक पागलों की तरह हँसती रहती है। उसकी यह भेदभरी हँसी कैदियों के लिए भी एक पहेली है ।


Original Image: Woman Stitching the Shawl
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Artist: Nikolay Bogdanov Belsky
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