नजर ही नजर

नजर ही नजर

“अजी, कुछ मेरी भी सुनो! अखबार के पन्ने ही उलटते रहोगे या कुछ नाश्ता भी करोगे? नौ बजने को हैं। फिर ऑफिस की भागदौड़ शुरू हो जाती है।”

मानिकचंद चुप।

“भोर हुआ नहीं कि अखबार के पन्ने चाटने लगते हो। आखिर यह भी कोई लगन में लगन है? रेडियो में चार-चार बार खबर सुनते ही हो, उस पर भी जब जो अखबार मिला पन्ने चाटने लगे। शायद सारी दुनिया का दु:ख-दर्द तुम्हीं झेलना चाहते हो।”–विमला ने इस बार जरा रुखाई से कहा।

“लो बाबा, लो–अखबार रख देता हूँ। मैं तो तुम्हारी ही भलाई के लिए ‘मैट्रिमोनियल’ देखता रहता हूँ। रात-दिन सर खाए रहती हो कि चित्रा का अब क्या होगा–चित्रा बड़ी हो गई, एम. ए. भी पास कर लिया–अब क्या होगा? कितने दिन बेटी को घर पर बिठाकर रखोगे? उसके लिए वर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जूते की एड़ी घिस गई मगर सभी जगह असफलता ही मिली। अब हर राज्य के अखबारों का ‘मैट्रिमोनियल’ देख रहा हूँ–शायद कहीं कोई रास्ता निकल आए।”–मानिकचंद ने अखबार अलग रखकर खाने की मेज पर बैठते हुए कहा।

विमला झट मुलायम हो गई–“मैं कहाँ कहती हूँ कि तुम अखबार न पढ़ो। मैं तो यह कहती हूँ कि समय पर नाश्ता करके इतमीनान से अखबार न पढ़ो। सेहत का भी खयाल रहे और बेटी के वर की खोज भी जारी रहे।…हाँ तो कुछ अच्छा विज्ञापन आज देखने को मिला?”

विमला अब बहुत मुलायम हो गई है।

“अच्छा नहीं, बहुत अच्छा विज्ञापन आज ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में देखने को मिला। अपनी बिरादरी ही का लड़का–कैनेडा में इंजीनियर–दस हजार महीना कमानेवाला–छुट्टी में आया है। शादी कर सपत्नीक लौट जाएगा। कोई भी लेन-देन नहीं।”–मानिकचंद की आँखों में रोशनी जगमगा गई। रोनी सूरत खिल उठी। विमला भी गैस का चूल्हा बंद कर खाने की मेज पर आकर बैठ गई।

“अब देर न करो, आज ही कैजुअल लीव लेकर भाग चलो–बेटे के बाप से झट मिल लेना है नहीं तो आज का विज्ञापन देखकर उसके यहाँ मार पड़ने लगेगी। बिना लेन-देन का ऐसा लड़का–सोने में सोहागा!”

“भागकर किसके पास जाओगी? कोई पता-ठिकाना हो तब तो! यहाँ तो पोस्टबॉक्स नंबर छपा हुआ है–द्वारा हिंदुस्तान टाइम्स। फोटो तथा पूरा ‘बायोडाटा’ की माँग है–जैसे किसी नौकरी के लिए अर्जी देनी हो–फिर बाकायदा इंटरव्यू होगा–एक से नहीं, तीन-तीन से–बेटा, बाप और उसकी माँ। इतने तट से निकलो तब कहीं बेड़ा पार हो!”

“बेड़ा पार होकर ही रहेगा–मेरी बेटी सुंदर भी है और खूब पढ़ी-लिखी भी। अपनी औकात के मुताबिक सामान भी हम अच्छा ही दे देंगे। फोटो तो तैयार है ही–आज ऑफिस में सब लिख-लिखाकर टाइप करा लो और आज ही रजिस्ट्री से सब भेज दो। जरा चटकवाही करो। बेटी की शादी जो ठहरी!”

विमला फिर गैस के चूल्हे के पास चली गई। आज पतिदेव के लिए नाश्ता बनाने में उसे बड़ा मजा आ रहा है। और दिनों से एकाध ज्यादा ही चीजें बना गई।

उधर मानिकचंद माथा खपा रहे हैं–‘बेटी का ‘बायोडाटा’ तैयार करना भी ऑफिस की ड्राफ्टिंग से कम मुश्किल न होगा। चलो, भगवान मालिक!’

जी. पी. ओ. में रजिस्ट्री से फोटो भेजकर जब शाम को ऑफिस से थके-माँदे मानिकचंद घर लौटे तो पाया कि आज चाय पर विमला ने तरह-तरह की मिठाइयाँ और नमकीन बना रखी हैं।

“विमला, अभी इतना खुश न हो–पहले पत्र का उत्तर तो आने दो।”

“उत्तर ठीक ही आएगा। बस, मेरे मन का लड़का मिल गया। उत्तर आते ही मैं तो वहाँ चली।…”

“तुम कल्पना-लोक में विचर रही हो और इधर मेरी नींद आज से हराम होने जा रही है। लड़केवालों के नखरे होते हैं बड़े अजीब!”

विमला सपने देखने लगी, मानिकचंद अखबार के पन्ने उलटने लगे।

आखिर हफ्ते बाद उत्तर आ ही गया। प्रस्ताव मान लिया गया। वाराणसी के लोग हैं। तीनों के इंटरव्यू में यदि चित्रा सफल निकल गई तो बात आगे बढ़ेगी। घर पर आने को भी वे तैयार हैं या मानिकचंद ही सपरिवार वाराणसी चले आएँ। पूरी गोपनीयता बरती जाएगी।

चित्रा को वाराणसी ले जाना ही दोनों ने ज्यादा उचित समझा। घर पर दिखाने से मुहल्लेवाले तरह-तरह की अटकलें लगाने लगेंगे।

तो एक दिन तीनों वाराणसी पहुँचकर एक अच्छे होटल में ठहर गए। संध्या समय माँ-बाप और बेटा तीनों जने–होटल में धमक गए। चाय-नाश्ता के बाद बाजाब्ता इंटरव्यू शुरू हुआ। बाप ने चित्रा की पढ़ाई-लिखाई की पूरी जाँच-पड़ताल की तो माँ ने उसके मिजाज को परखने की कोशिश की। कुछ मनोवैज्ञानिक फारमूले के आधार पर सवाल भी पूछे गए ताकि उसके मन के अंतराल में कुछ घुसपैठ हो। फिर बेटे ने उसके रूप-लावण्य को हर कोने से परखा। अंत में जब तीनों ने उसे पास किया तब विमला और मानिकचंद की साँस में साँस आई।

जब वे जाने लगे तो मानिकचंद ने बड़े विह्वल होकर पूछा–“तब आगे क्या करना होगा?”

“कल आप दोनों हमारे घर पर पधारें। लड़के के हाथ में कुछ दे दें। मैं भी यहाँ आकर लड़की को एक हार पहना जाऊँगा और शादी की सारी विस्तार की बातें तो कल सुबह ही आपको बता दूँगा।”

मानिकचंद और विमला उन्हें होटल से विदा कर चित्रा के भाग्य को सराहने लगे और पिछले सारे तरद्दुदों को भूल गए। जब शुदनी जुटती है तभी शादी पक्की होती है–ऐसा उनका विश्वास जम गया।

दूसरे दिन लड़के के हाथ में एक गिन्नी तथा अक्षत-फल-फूल रखने के पहले मानिकचंद ने रूमाल पर एक सौ एक रुपये रखकर अपने भावी समधी को नजर पेश किया। फिर विमला के इशारे पर उनसे गले-गले मिल भी लिए। जब रस्म के बाद चाय का दौर चला तो बेटे के बाप कृष्णदास ने बड़ी आजिजी से कहा–“मानिकचंद जी, मैं तो विज्ञापन के मजमून पर आज भी अटल हूँ। हमें आपसे कुछ लेना-देना नहीं। मेरी कोई माँग नहीं।”

“फिर भी आप कुछ भी तो आज्ञा करें।”

“आज्ञा-वाज्ञा नहीं, मैं तो कुछ सलाह ही दे सकता हूँ।”

“बेशक–अवश्य।”–दोनों दंपती एक बार कह उठे।

“आप तो जानते ही हैं कि हमारा बेटा कैनेडा में काम कर रहा है। अभी तो उसे कुछ सामान चाहिए नहीं। इसलिए मैं तो आपको यही सलाह दूँगा कि ड्राइंगरूम-डाइनिंगरूम फर्नीचर, पलंग, ड्रेसिंग टेबुल, फ्रिज तथा अन्य जरूरी चीजों के बदले आप अपनी बेटी को पंद्रह हजार का एक ड्राफ्ट ही दे देंगे। जब वे भारत में रहने लगेंगे तो इसी रुपये से अपनी पसंद से चीजें खरीद लेंगे। आपको भी झमेला न रहेगा और वे भी जब आवश्यकता समझेंगे–अपनी गृहस्थी बना लेंगे।”

विमला और मानिकचंद को यह सलाह बड़ी सुंदर लगी। दोनों एक स्वर से बोल उठे–“हाँ, यह तो हमें सहर्ष स्वीकार है। इससे अच्छी सलाह और क्या हो सकती है? वाह, क्या खूब! आपने भी खूब फरमाया!–और कोई सलाह?”

“नहीं, अब कोई नहीं। मेरी तो कोई माँग नहीं। मैं तो जानता ही हूँ कि आप एक खानदानी घराने के हैं–अपनी बेटी का अपने मुँह लायक विवाह करेंगे ही–फिर अब मुझे छेड़खानी करने की जरूरत? मुझे अब क्षमा करें।”

रात्रि में चित्रा को साड़ी और गहना उपहारस्वरूप देकर वे चले गए तो मानिकचंद ने कहा–“कल ट्रेन पकड़ने के पहले बाबा विश्वनाथ और संकटमोचन के दर्शन झट कर लो। विश्वनाथ की नगरी में हमारे सभी संकट टल गए। ऐसा परिवार तुम्हें न मिलता। बेटी बड़ी भाग्यशालिनी है।”

“हाँ-हाँ, इतने सस्ते में सब मामला पट गया। सामान तो तुम देते ही। अब वह न देकर नकद ही दे दो। सब झंझट से दूर। दर्शन के पहले दशाश्वमेध घाट पर स्नान भी कर लेंगे।”

“हाँ-हाँ, अवश्य।”

वाराणसी से लौटने के बाद अब मानिकचंद को अखबार के पन्ने चाटने से निजात मिल गई। विमला गैस पर तरह-तरह के पकवान बनाकर अपने पतिदेव को खिलाती और दोनों घंटों बैठकर शादी की तैयारियों के विषय में बातें करते रहते।

एक शनिश्चर-इतवार को लड़का भी आया। उसे होटल में ठहराया गया मगर चारों ने शाम को घर पर ही खाया-पिया। उसकी खूब खातिर-बात हुई। एक शाम वह चित्रा को अपने साथ सिनेमा भी ले गया। मुहल्लेवाले कुछ-कुछ भाँप भी गए मगर जब शादी पक्की हो गई थी, दोनों ने उन्हें इतनी छूट दे दी।

लड़के के लौट जाने के पंद्रह दिनों बाद कृष्णदास की एक चिट्ठी आई। मानिकचंद ऑफिस गए थे, इसलिए विमला ने ही उस पत्र को खोला। लिखा था–‘लड़का-लड़की के भावी सुख के लिए लड़की के पिता-माता से उन्हें कुछ आवश्यक बातें करनी हैं। झट वाराणसी आ जाएँ।’

विमला के पैर तले से मिट्टी सरक गई। अब क्या होगा? उसने झट पतिदेव को फोन किया। वह फोन पर न मिले, अपने ‘बॉस’ से मिलने कहीं गए थे। शाम तक विमला का बुरा हाल रहा। जब मानिकचंद घर लौटे तो खत पढ़ते ही उन्होंने कहा–“मेरा दिल बराबर धक-धक करता रहा कि जरूर कहीं कोई गलती हो रही है।”

“मगर बूढ़ा कुछ कहता तब न!”–विमला ने चट कहा।

“तो आज कह रहा है न…!”

“तब?”

“तब क्या? अभी रात की गाड़ी से वाराणसी चले चलें। जब ओखल में सर पड़ ही गया तो अब जो हो।”

बेटे के बाप का तेवर आज कुछ बदला-बदला लगा। मानिकचंद और विमला चुपचाप उसके ड्राइंगरूम में बैठे हैं। अभी चाय का दौर चल रहा है। प्रणाम-पाती तथा शिष्टाचार की अन्य बातों के अलावा अभी सभी केंद्र-बिंदु से दूर ही हैं।

तो मानिकचंद ने उस भयानक शांति को भंग करते हुए कहा–“तो और कोई हुक्म?”

“देखिए, आप बार-बार हुक्म, आज्ञा, ऑर्डर, ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर मुझे शर्मिंदा न करें। आपके दिल में यह बात समा गई है कि मैं कोई माँग करूँगा मगर मेरी तो कोई माँग नहीं। मैंने तो आज आपको सिर्फ इसलिए बुलाया कि हम एक दूसरे को अभीतक जान नहीं पाए हैं। यदि हम जान जाएँ तो आपकी भी जान में जान आ जाए।”

“जी-जी” कहते मानिकचंद चुप हैं और विमला उन्हें आँखें फाड़-फाड़ कर देख रही है।

“तो आप यह जान लें मानिकचंद जी, कि हमारे खानदान में नजर का बहुत रिवाज है। आपने केवल मुझे ही नजर देकर मुझे इतना शर्मिंदा किया है कि कुछ न पूछिए। मैं अपने घर में सब जगह से गालियाँ सुन रहा हूँ। मेरे भाई, भाभी, ताऊ, ताई, बहनें सबको आपको नजर देना था और मिठाई-फल देना था, मगर आपने सबकी कटौती कर परेशानी बढ़ा दी।”

“तो अब जो कहें…।”

“मैं क्या कहूँ? आपने तो मुझे कहीं का न रखा।”

“तो अब इस गलती को कैसे सुधारा जाए?”

“मैं सुधारने की बात नहीं कहता मानिकचंद जी, ऐसा तो मेरा कभी भी खयाल न रहा। मैं तो यही चाहता हूँ कि हम एक दूसरे को जान जाएँ–समझ लें ताकि शादी में ऐसी फिर कोई गलती न हो।”

“जैसा कहा जाए!”

“मैं क्या कहूँ…मैं तो अभी ऑफिस जा रहा हूँ। आप सब रस्म-रिवाज के विषय में मेरी पत्नी राजरानी से समझ लें। ये सब तो औरताना बातें हैं।”

“जी-जी…।”–मानिकचंद और विमला को लगा कि बेटा का बाप उन्हें जनानी कोर्ट में सुपुर्द कर खुद भाग निकला।

“समधिन साहबा का जो हुक्म।”–विमला ने बड़ी नम्रता से पूछा।

“देखिए, आपने भी फिर वैसे ही पूछा–आज्ञा, हुक्म। मैं तो कहती हूँ कि हमारी कोई माँग नहीं। सिर्फ हम एक दूसरे को जान जाएँ–समझ लें तो हमारा बेड़ा पार हो जाए।”

“जी…जी…।”

“देखिए, जैसा कि हमारे पतिदेव ने कहा–हमारे यहाँ नजर का बहुत रिवाज है। कदम-कदम पर नजर–और कुछ भी नहीं। एक गलती तो आपने कर दी, अब फिर दूसरी गलती न हो।”

“यानी…?”

“यानी तिलक में भी हमारे यहाँ घर भर का नजर आता है।”

मानिकचंद और विमला का माथा ठनका। पंद्रह हजार के ड्राफ्ट के बाद यह नजर का भूत उनके सामने नाचने लगा। उनके ललाट पर पसीने की बूँदें चमक गईं।

“तो तिलक में क्या नजर देना होगा…?”–दोनों ने डरते-डरते पूछा।

“लीजिए, फिर आप मुझे ही बदनाम करना चाहते हैं–मैं तो कुछ माँगती नहीं। मैंने तो एक सलाह दी–तिलक में भी नजर आता है हमारे यहाँ–बस।”–राजरानी चुप हो गईं।

मानिकचंद और विमला एक-दूसरे को देखने लगे। बुरे फँसे वे दोनों।

“आखिर कुछ भी तो कहिए।”–मानिकचंद ने पूछा।

“कुछ भी नहीं।”–राजरानी ने झट कहा।

“खैर, जाने दीजिए, यही बता दें कि आपकी शादी में कितना नजर आया था–” विमला ने बात को एक नया मोड़ दिया।

“अरे, छोड़िए उन पुरानी बातों को–पच्चीस साल पहले का जमाना, डिप्टी कलक्टर से मेरी शादी–उसकी तुलना अब आप क्यों कर रही हैं?”–राजरानी ने बात को टालते हुए कहा।

“नहीं, यों ही पूछा–एक जिज्ञासा है।”–विमला ने फिर उत्सुकता जताई।

“जहाँ तक मुझे याद है–दस हजार रुपये नजर में आए थे, मगर बीती बात बिसारिए…। अब तो सबका रेट…” राजरानी ने पिछली बातों को कुछ भूलते हुए कहा।

मानिकचंद तो अपनी कुर्सी में डूब गए और विमला–उसकी आँखों तले अँधेरा छा गया। दोनों कुछ समझ ही न सके कि आगे क्या कहें! एकदम किंकर्त्तव्यविमूढ़।

कुछ क्षण बाद विमला ने अपने में हिम्मत बाँधी और कहा–“तो आधी रकम नजर में ले लें–इतना तो बहुत ज्यादे…।”

“लीजिए, फिर वही बात। मैं तो कुछ माँगती नहीं। कुछ कहती भी नहीं। यह तो आपने बार-बार पूछा तो मैंने सच्ची बात अपनी शादी की बता दी। मेरा तो कोई डिमांड नहीं।”

“हाँ, यह तो आपकी महत्ता है, मगर पाँच हजार पर ही मान जाएँ।”

“लीजिए, मैं भी मुँह खोलूँगी और वह भी कैनेडा में दस हजार माहवार कमाते हुए अपने लड़के के लिए, तो भला सिर्फ पाँच हजार के लिए–छी-छी…मुझे माफ करें।…आप हमें गलत न समझें। हम कुछ भी नहीं माँगते–कुछ भी नहीं चाहते। हाँ, एक-दूसरे को जान अवश्य जाएँ।”–राजरानी यही बराबर कहती गईं।

“और कुछ कहना है?”

“हाँ, एक बात और। नजर का हमारे यहाँ बहुत रिवाज है। इसलिए बारात जब आपके यहाँ जाएगी तो आपको हमारे रिश्तेदारों का तीन बार नजर करना होगा। पहली बार द्वारचार के समय, दूसरी बार भात के पहले तथा तीसरी और आखिरी बार बारात विदाई के समय। बेटे के बाप, चाचा, फूफा और मामा का एक रेट से तथा अन्य लोगों का अन्य रेट से। उसके विषय में मैं आपको जानकारी करा दूँगी। अभी जल्दी क्या है! जैसे-जैसे जो रस्म याद आते जाएँगे–आपको बताती जाऊँगी। आप तनिक भी न घबराएँ। सब पार लग जाएगा। आपकी तरफ से जरा सोच-विचार की कमी है–और हाँ, जैसे-जैसे हम एक-दूसरे को जानते जाएँगे–सब ठीक होता जाएगा।”

राजरानी और बातें करने के मूड में आ रही थीं कि मानिकचंद घड़ी देखते एकाएक खड़े हो गए।

“क्यों, आप इतनी जल्दी…”

“हाँ, एक जगह और जाना है। कुछ सरकारी काम भी लेता आया हूँ। उसे भी निबटा लूँ। अब इजाजत दें।”

विमला भी अबतक खड़ी हो गई थी।

“ठीक है–फिर इतमीनान से बात होगी…।”

“अवश्य-अवश्य…” कहते मानिकचंद बाहर चले गए। पीछे-पीछे विमला भी।

बाहर दरवाजे पर उनका भावी दामाद भी खड़ा था। उसका अभिवादन ले जब वे मोटर पर सवार हुए तो मानिकचंद ने कहा–“विमला! मुझे एकाएक सूझा कि अब यहाँ से भाग चलो नहीं तो राजरानी के रस्मों का सिलसिला कभी टूटेगा ही नहीं। अब तो पंख फड़फड़ाकर पड़े रहना है। जैसे छप्पन वैसे घप्पन!”

“कुछ भी कहो, दामाद को देखकर मैं अपना सब दुःख भूल गई।”

“हाँ, यह तो ठीक कहती हो, मगर एक-दूसरे को जानने की हमारी यह यात्रा अच्छी रही। अब धीरे से वाराणसी से खिसक चलो। जो होगा–पत्राचार से होगा।”

विमला भी मानिकचंद के साथ मोटर में डूबती-उतराती रही।

(आकाशवाणी के सौजन्य से)

उदय राज सिंह द्वारा भी