नीली आँखों के समंदर में खड़ा पहाड़

नीली आँखों के समंदर में खड़ा पहाड़

मिट्टी बोल उठी

जैजों शहर के मरासी मुहल्ले में होने वाली सरगोशियाँ चमारों, कुम्हारों, लुहारों के मुहल्लों से होकर उड़ती-उड़ती हमारी छोटी दुकानों वाले बाजार में चक्रवात-सा धूमा करतीं। सब बहुत हैरान थे कि यह कैसे और क्यों हुआ कि कंजर मुहल्ले का खानदानी चौधरी अपनी जवान बेटियों को लेकर लाहौर चला गया। कोई बताता कि उसकी औरत यहीं पर है। उसके अनुसार चौधरी अपने नाते-रिश्तेदारों में गए हैं और फिर वहाँ से उन्हें कराची चले जाना है। कोई कहता, उसकी ‘मोटो’ पर कौन, तबार करता है। कोई बताता कि दीने के पास रहस्यमयी बातों का बहीखाता है, पर वह भी महीने-डेढ़ महीने से पता नहीं किधर गायब हो गया है। चौधरी का नौकर जो लहसुन, प्याज, गोश्त, पान और अन्य छोटा-मोटा सामान नित्य ढोता रहता है, वह भी अब झुटपुटे में ही बाहर निकलता। उसका मुँह यों उतरा दिखाई देता, मानो उसकी चौधरानी चढ़ाई कर गई हो। और फिर, एक दिन दीना और चौधरी का नौकर अकस्मात् चुपचाप आते दिखे। हमारी दुकान पर लालटेन जलती होने के कारण दीने ने पहले की तरह दुआ-सलाम करते हुए पूछा, ‘गोरे, कई दिनों से तेरा बाबा नहीं दीखा। खैर-सुख तो है?’

‘बाबा, मंगू राम के साथ पहले की तरह दौरे पर है। अब किसी काम से जलंधर गया हुआ है।’

‘और तेरी मौसी फातिमा?’ आखिरी बात उसने मजाक के लहजे में पूछी।

‘चार-पाँच दिन पहले आई थी।’

‘अच्छा! क्या कहती थी?’ दीना पता नहीं मेरे से इतनी पूछताछ क्यों कर रहा था।… ‘कुछ नहीं।’

‘अच्छा-अच्छा!’ कहकर वे दोनों आगे बढ़ गए। पर मैं समझ गया कि दीवारों को कान होने का क्या मतलब है। क्या फातिमा भी लाहौर जाने की सोच रही है?–खैर, अब याद नहीं कि मैंने कौन-सी अखबार में पिछले दिनों पढ़ा था–‘2 मार्च को सर खिज़र टिवाणा के इस्तीफे़ के बाद हिंदुस्तान की भाईचारे वाली साँझ के स्तंभों के उखड़ने की गुंजाइश बढ़ गई है। अविश्वास से भरी आँधी चलने के आसार बन रहे हैं–मगर किसी को यकीन नहीं आता।’ यह भी लिखा हुआ पढ़ा था–‘गोरों की आपसी विश्व जंग के बाद अब हिंदुस्तानी कालों की बारी।’

यह सोचते हुए मेरा ध्यान अपने गुमशुदा पिता, कारोबार और मुझे विलैत भेजे जाने की योजनाओं की तरफ चला गया। इन्हें लेकर मेरे ज़हन में बार-बार ख़्याल आते। जब मैं जूतियाँ और अन्य सामान टिका रहा था, मेरे हाथों में से बाबा के कागज़ों का पुलिंदा नीचे गिर गया। मैं बिखरे कागज़ों को, एक-एक कर उठाने लगा और तह लगा लगाकर रखने लगा। एक ख़त की लिखावट पहचानते हुए मैं उसे गौर से पढ़ने लगा। ख़त करीब एक महीने पहले का था। मैं मन ही मन खुश हुआ। नूरदीन बाबा ने लिखा था कि थोड़े दिन बाद वह और ख़त लिखेगा। मैंने वह ख़त अपने कुरते की जे़ब में डाल लिया। अब मुझे नई सोचों ने यों आ घेरा जैसे छोटी-छोटी मधुमक्खियों का छत्ता हो। पर उसके शहद को दूध में डालकर पीने का जब ख़्याल आया तो मन प्रसन्न हो उठा।

सोचने लगा कि हो सकता है, बाबा किसी दूसरे ख़त के इंतज़ार में आदि धर्म के जलंधर वाले दफ़्तर के चक्कर लगा रहा हो। उसको कहाँ चैन मिलता है। दिल की धड़कन की तरह उसकी टिकटिकी और सोच-विचारों का प्रवाह लहू की भाँति नसों में तेज़-तेज़ बहता होगा। उसके लिए क्या, हम सब के लिए भी नूरदीन ही रब का फरिश्ता बना हुआ है। बाबा कई बार मुझसे कहता, ‘गोरे, दुनिया उम्मीद पर चलती है।’ वह नूरदीन की तारीफें करता कि पूरनों पर लिखने के बाद ही लफ़्ज गाढ़े होते हैं और फिर लोग बातें किया करते हैं कि फ़लाना पूरने डाल गया।… मैं सोच-सोच कर थक जाता, लेकिन बाबा के गूढ़-ज्ञान की अकथ कथा मेरे मन में निरंतर चमकती रहती।

इसी दौरान, गलाबू ने बोलकर दस्तक दी, ‘आते-जाते को शीशे में से ही देखता रहेगा। तू किसी को अपनी सूरत दिखाने के लिए मुँह बाज़ारवाली गली की तरफ भी कर लिया कभी…क्या पता आँखें दो से चार हो जाएँ।’

‘आज कैसे महक बिखेरी?’ कहते हुए मैंने उसे पानी का गिलास पकड़ाया। जब मैं स्टोव जलाकर बर्तन में चाय का पानी डालने लगा तो गलाबू कहने लगा, ‘तू क्यों तकलीफ़ कर रहा है सेठ। मैं रखता हूँ चाय, तू अपने ग्राहकों को जूतियाँ पसंद करवा। वो लाहौरी और पिशौरी दरमियानी ऊँची ऐड़ी वाली जूतियाँ बड़ी टिकाऊ हैं। हमारी दुकान से ज्यादातर जनानियाँ यही खरीदती हैं।’

यह सुनकर वहाँ खड़ी औरतों ने उसके मुँह की ओर देखा, मानो वह भी किसी दुकान का मालिक हो।

चाय पीते हुए मैंने गलाबू से पूछा, ‘आज…!’ उसने मेरी बात-बीच में ही लपकते हुए जल्दी से कहा, ‘जोगी चढ़ पहाड़ों को आए, गोरे के पास देख गोरियाँ!’

मैं मुस्करा दिया और शुक्र मनाया कि ग्राहक औरतें जा चुकी थीं। तभी, गलाबू ने अपनी गुलेल में से एक और लफ़्जी छुरली छोड़ी, ‘असीं रब दे पराहुणे आ,… लोकीं सानूँ छड़े आखदे!’

‘मैं तो वीरे पूछता था कि आज कैसे छापा मारा?’

‘लाला रेलू राम ने एक तीर से दो निशाने लगाए हैं। एक तो मैं उसके कारोबारियों से मिल लूँ, और दूसरा उसने मेरे हाथ संदेशा भेजा है कि अगर गोरा दुकान पर हो तो कहना, वह घर चला जाए।’

‘वीरे, कल-परसो जाऊँगा। कारीगरों और स्टेशन के काम भी देखने हैं।’ मैंने सहज-स्वभाव बताया।

‘पर क्यों?’ मैंने पूछा।

‘मुझे जो कहा गया, मैंने तेरे तक पहुँचा दिया। आगे तू जाने कि क्या करना है और क्या नहीं करना है।’ पलभर बाद खुशी में उमग कर कहने लगा, ‘गोरे, इस बार इतवार को बैसाखी है। 13 अप्रैल को। पूरे नौ दिन तेरे सिर पर मेले की मौज करनी है, समझ गया।’ गलाबू ने मेरे साथ योजना बनाई।

थोड़ी देर बाद उसने कहा, ‘गोरे, मेरा घर जाने को चित्त नहीं करता। मैं अपनी माँ की ख़ातिर वहाँ जाता हूँ, पर कुत्ते जितनी कदर नहीं और कुत्तेखाणी अलग। जब गाँव जाता हूँ तो कुछ देकर ही आता हूँ। थोड़ा-बहुत सामान भी ले जाता हूँ। मेरा अपना कपड़ा-लत्ता, कभी कभी नशा-पत्ता, किराया-भाड़ा और दूसरा खर्चा…। गोरे, अगर कहे तो आज तेरे पास ही ठहर जाऊँ?’

‘वीरे, यह भी कोई पूछने वाली बात है?… वो मंजे-बिस्तरे पड़े हैं। और फिर मेरा भी मन लगा रहेगा। तेरा मन बने तो परसों को तू भी मेरे साथ गाँव को चले चलना। साइकिल अपने पास है ही।’ गलाबू की दुखती रग को समझते हुए मैंने कहा।

‘गोरे, पता नहीं आज तेरे साथ दिल की बात कैसे साझी कर ली। तू पच्चीस-छब्बीस साल का, मैं पैंतालीस पार हो गया।’

गलाबू की पल पल बदलती मनोस्थिति का मुझे पहले से पता है, पर आज उसके अंदर की दरकन, टूट-फूट और मायूसी गंभीर शब्दों में बाहर आ गई। उसकी चितकबरी-सी महीन कतरी हुई खुरदरी दाढ़ी उसके मन के भिन्न-भिन्न ख़्यालों की गवाही भरती दिखाई दी।

‘गलाबू वीरे, वो बहते पानी की ताकत देख। वह पत्थरों के साथ टकरा कर आगे बढ़ जाता है। जब खड्ड के अंदर वाले गड्ढों में जा गिरता है तो उनकी बेढंगी-सी शक्ल-सूरत को भी ढँक देता है…और जब कोई ज्यादा ही माथा भिड़ा, तो उसको अपने साथ बहा ले जाता है। इन बर्तनों की तरफ देख। इस गिलास में पड़ा पानी गिलास की शक्ल का और जग-मग में डला पानी उनकी शक्ल अख़्तियार कर लेता है।’ मैंने बाबा से सुनी-सुनाई बातें, उसके मन की अवस्था को भाँपते हुए कही ताकि वह हालात के साथ किसी तरह समझौता कर ले।

‘गोरे, अपने बाबा, व्यापारियों-कारोबारियों और यहाँ आते-जाते लोगों के साथ रह कर तू सयाना हो गया है। और गोरे, इन्हीं विचारों के कारण दिन-कटी हो रही है, नहीं तो वन में अकेले वृक्ष की क्या औकात?’

हमने रात में अपनी दुकान के आगे चारपाइयाँ बिछा लीं। गलाबू ने कहा, ‘गोरे, कल पूर्णिमा है। देख, चाँद की किरणें कैसे जलवे बिखेर रही हैं अपने निखार के।’

‘अभी आँधी-गुबार नहीं चढ़े। सारा वातावरण और नीचे से ऊपर आसमान तक रात बिलकुल साफ़ है।’

‘ओ मेरे रब्बा! कहीं मेरी अँधेरी रातों में चाँद चढ़ा होता और उसकी चाँदनी में किरणें नहाती होंती।’ गलाबू ने जैसे धीमे-धीमे बोलकर अपने आप को सुनाते हुए कहा हो।

‘गलाबू वीरे, कल शनिवार है। हम सोमवार या मंगलवार को सारे काम निपटाकर तसल्ली से चलेंगे।’

‘गोरे, जैसा तू कहे।’

…और फिर हम लंबी-लंबी कहानियों, किस्सों की बातें करते रहे। इन बातों के साथ अपनो को लेकर अन्य प्रसंग शुरू हो गए। गुरु साहिबान की सोच से लेकर कुरबान हुए अपने शहीदों और गुरु की लाड़ली फौज में मुसलमानो के भरपूर शामिल होने तक के प्रसंग। गलाबू बातें करते-करते बताने लगा, ‘गोरे, मुसलमान फिर भी अच्छे हैं, नफ़रत नहीं करते। जात के अहंकारी सिखों जिन्होंने गुरु की सिख-शिक्षा नहीं मानी, वे खूब छुआछूत और ऊँच-नीच को हिंदुओं की तरह मानते हैं।’

‘चलो, दिल बदलेंगे एक दिन। मंगू राम, अछूता नंद और अंबेडकर जैसे विक्षन लोग दिन-रात एक कर रहे हैं, बराबरी के लिए।’

‘गोरे, मैं भी सेठ-साहूकारों और सयाने लोगों की बातें सुनता रहता हूँ कि ये जात-पात का किला इतना मजबूत है, इसका ढहना कौन-सा आसान है! फिर भी, ज़मीन-आसमान किसी सच्चाई से बँधकर ही खड़े हैं।’ थोड़ा-सा रुककर कहने लगा, ‘सो जा गोरे! अब रातें छोटी और दिन काफ़ी बड़े हो गए हैं। पर मुझे तो हमेशा दिन छोटे और रातें बड़ी ही लगती रहती हैं।’

मैं ‘हूँ-हूँ’ करता रहा। अब चाँद हमारे सिर पर आ गया था।

हमने माहिलपुर से घर का सामान खरीदकर साइकिल पर लादा और अपने गाँव ‘छन्ना’ जा पहुँचे। आँगन का किवाड़ लाँघ गलाबू कहने लगा, ‘तुम्हारा भी बनियों जैसा हाल है। रुपये बनाने वाली मशीनें बने हुए हो, दादा-पोता पर…।’ मैं कोई जवाब देता, उसने फिर कहा, ‘गोरे, देख तो, आँगन की बाड़ में घास कैसे चढ़ा हुआ है। धूल-मिट्टी ने सारे फूल-बूटों को ढँक रखा है। कई काम औरतों के वश नहीं। पानी-वानी पीकर चल साफ़-सफ़ाई करें। मैं भी समझूँगा भई कि रोटी खाने लायक काम कर लिया।’

गलाबू ने कुछ ही समय में बाड़ यों साफ़ कर दी, मानो किसी मुगल बाग के माली ने अपने हुनर का प्रदर्शन किया हो। गलाबू जब आँगन में गिरे शीशम के पेड़ के आस-पास की जगह साफ़ करने लगा तो मैंने बाड़ के पौधे पानी के छिड़काव से धो दिए। वे यों दिख रहे थे जैसे बारिश के बाद निखरे हों। हमने शाम तक खुरा, नाँदें, कुटिया और छप्पर को अच्छी तरह सँवार दिया। दादी ने पूछा, ‘बेटा गलाबू, चाय या दूध और बनाऊँ? इसी तरह मेरे बेटे तू चक्कर लगा जाया कर। जीतू जितने लायक है, बहुत कुछ करता है, पर उसका पशुओं के लिए पट्ठे-चारे का काम ही खत्म नहीं होता।’

‘चाची, बहुत बार तुम्हारा नमक खाया हुआ है। इस घर से लेकर मुल्तान तक। आते-जाते चक्कर लगाता रहूँगा।’

इस दौरान, जीतू चाचा ने बरसीन और सेंजी (हरा चारा) की भारी-भरकम गाँठ भूसे के गुंबद के पास लाकर फेंकी जिससे मिट्टी का हल्का-सा गुबार उठा।

‘ले भई चाची, अब चाहे कल को जीतू का ब्याह कर दे। हर वक्त मिट्टी के साथ मिट्टी और पशुओं के साथ…।’ गलाबू बात की लड़ी के साथ लड़ी जोड़ता गया। परंतु, दादी ने बीच में बोलकर कहा, ‘तेरा मुँह भागों वाला हो, तेरा जीना दरवेशों वाला हो। बातों में तू किसी की बारी नहीं आने देता, पर तू दिल और मन से साफ़ बंदा है।’

‘चाची, तेरे ये बोल सुनकर मुझे अपनी माँ याद आ गई, जो दो वक्त की रोटी के लिए भरजाई के हाथों की तरफ देखती रहती है…और चाची, घर में मेरी कोई कदर नहीं, तभी तो महीने, बीस दिन में घर जाता हूँ।’

‘तूने मेरे मीतू के साथ भी अच्छा वक्त गुजारा। अब तक उसकी तलाश में मदद की। गलाबू फिक्र न कर, दु:ख-सुख के वक्त हमारा टब्बर तेरे साथ है।’

…और फिर, मैं जीतू चाचा, गलाबू और अपने लिए थालियों में दाल-चावल और आम की चटनी ले आया। इस अन्न-पानी की महक से मेरे मुँह में पानी भर आया था। दरअसल, माँ और दादी के हाथों की बनी रोटियाँ, दुप्पड़ें (दो तह वाली तली हुई रोटी), बड़े-बड़े फुलके, खमीरे आटे के तंदूरी बब्बरू, तुख्हार लगाकर बनाया खट्टा और आमों का छिछ्छा (आमों से बनाया खट्टा-मीठा तरल पदार्थ) खाने के लिए मैं कई दिन से तरस रहा था। और गलाबू की बात बार-बार स्मरण हो आ रही थी, ‘गोरे, पैसे के पीछे भागते आदमी को घर भूल जाता है और सजन प्यारे भी।’

‘गोरे, थोड़ा गुड़ ला, अंदर गई धूल-गर्द नीचे चली जाए।’ गलाबू ने कहा।

खाना खा कर गलाबू बोला, ‘लो भई अपनी तो निशा हो गई। मैं तो चला हूँ सोने। आ जा जीतू। गोरे का जब दिल करेगा, सो जाएगा।’

अगले दिन सुबह का नाश्ता-पानी करने ही वाले थे कि माँ कुटिया से बाहर निकली और अचानक ऐड़िया उठा-उठाकर बाड़ के ऊपर से बाहर की तरफ झाँकने लगी। फिर वह तेज़ी के साथ बाड़ की तरफ गई। पागलों की तरह ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगी, ‘गोरे, दौड़कर आ…माँ भागकर आ…वो देखो, कौन-कौन आ रहे हैं! गोरे, दौड़कर आ।’

देखते-देखते माँ ने किवाड़ खोला। नंगे मुँह और नंगे पाँव ही फुर्ती से फिरनी (गाँव का बाहरी वृत्ताकार कच्ची राह) पर चली गई। वह जाते ही बढ़ी हुई दाढ़ी वाले व्यक्ति के साथ धाह मारकर जा लिपटी और उसके साथ कितनी ही देर तक चिपटी खड़ी रही। दादी, चाचा और मैं दौड़कर गए, मानो एक अरसे से बिछुड़े घर के सदस्य का स्वागत करना हो। माँ और दादी रो-रो कर पागल हो गईं। खुशी में रोने का नजारा शायद मैं पहली बार देख रहा था। मेरा बाबा और नूरदीन बाबा, यह सब देखते ही आँसू बहाने लगे।

‘गोरे, रब की रहमतों और तुम्हारी मेहनतों के सदके तेरा अब्बा अपने दौलतखाने में आ गया है।’ नूरदीन बाबा ने खुशी भरे बोल बोले।

…और फिर काहिली के साथ दादी, चाचा और मैं भाइये (बापू) के साथ लिपट गए। यह नजारा देखकर कई लड़कियाँ, बूढ़ी स्त्रियाँ, पुरुष, बच्चे और बड़े लोगों का एक छोटा-सा मजमा लग गया जो जुलूस की शक्ल में बदल गया। बापू चुपचाप आगे-आगे चल पड़ा और फिर किवाड़ से होकर अंदर चला गया। सभी आश्चर्यचकित रह गए यह जानकर कि बापू ने घर सहित सभी को पहचान किया है। जब मेरे बापू की आँखों में से पानी रिस आया तो हमारे चेहरों पर मुस्कान आ गई। दादी ने धरती को नमस्कार किया। माँ में अब बिजली जैसी चुस्ती पता नहीं कहाँ से आ गई थी। उसके पैर जमीन पर नहीं लग रहे थे। उसने पानी का गिलास मेरे बापू को पकड़ाया तो बापू ने मेरी माँ की तरफ देखकर एक ही साँस में गटागट पानी पी लिया। मेरी माँ की आँखों में आँसू छलक आए। इसके साथ ही बापू कटिया के अंदर जाकर इधर-उधर देखने लगा, मानो नए-पुराने सामान को मन ही मन जोड़-घटा रहा हो।

‘गोरे, अपने बापू के पास मंजे पर बैठ जा।’ जब माँ ने कहा तो बापू ने मेरी तरफ देखा और मेरा दायाँ हाथ एक बार फिर पकड़कर मुझे अपनी ओर खींचा और मुझे अपनी बाँहों में कस लिया। मेरी फिर तेज रुलाई फूट पड़ी। बापू, माँ और दादी जैसे न बोलकर भी बोले जा रहे थे।

मैं कुटिया से बाहर आया। देखा, लोगों से सारा आँगन भरा हुआ था। बाबा और नूरदीन बाबा एक ही चारपाई पर चुपचाप बैठे थे, मानो उनके पास बातें खत्म हो गई हों। गलाबू उनके पास से पानी वाले गिलास उठाकर चौके की ओर चला गया। तभी, चाचा दूध का गिलास ले आया। देखते ही देखते, एक बदली पहाड़ की ओर से आई, हलकी-हलकी बूँदों के साथ बरसने लगी। आँगन में से लोग धीरे-धीरे खिसक गए। बाबा और नूरदीन बाबा, दोनों हाथों में गिलास पकड़े कुटिया के अंदर आ गए।

‘जीते…ओ गोरे, वो खाकी झोले में से लड्डुओं का डिब्बा ला और पहले अपने नूरदीन बाबा का मुँह मीठा करवा।’ बाबा ने आवाज लगाई।

‘वो भी कर लेंगे, पर गोरे झोले में से हमारे मुल्तान की सौगात निकाल पहले–रेवड़ी मुल्तान मोहन हलवा। दो तरह के डिब्बे हैं।’

मिठाई के चौकोर, ऊँचे और लंबे दोनों प्रकार के टुकड़ों को मैंने एक थाली में सजाया। इन टुकड़ों के अंदर और ऊपर सूखे मेवे लगे हुए थे। माँ और दादी ने एक-एक टुकड़ा उठाया। माँ ने बापू के मुँह के पास मिठाई का टुकड़ा किया तो उसने थोड़ा-सा दाँत से काटा। फिर शेष बचा टुकड़ा माँ के मुँह की तरफ कर दिया। ऐसा करने पर माँ लज्जा गई और उठकर चौके की ओर चली गई।

‘बचनिए, बदली छँट गई। ठंडी हवा घर के बाहर बह रही है जिसका इंतजार सालों साल करना पड़ा।’ बाबा ने कहा।

‘भाई साहब की मुलाकात का सबब हमारे लिए रब हो गया।’ दादी ने शुक्राना अदा करते हुए कहा।

‘कुदरत असीम है औलाद वालो! गलाबू की जूती की कील ने तुम सबके दिलों में रात दिन चुभते कील को निकालने का सबब बना दिया।’ नूरदीन बाबा ने बताया, ‘मीतू ने मौत को मात दे दी। मेरे देखते-देखते इसके ऊपर नीम का मोटा टहना टूटा था। खैर, वक्त का अपना खेल है।… किसी ने बताया कि मुल्तान सूबे के सुलेमान पहाड़ों में एक हकीम दिमागी नुस्खों का इलाज करता है, चाहे वजह कोई भी हो।’

‘और भाई साहब, बोल कब पाएगा ये, कुछ बताया?’

‘बहन, कुछ रोज पहले मीतू ने ‘प्यारो-प्यारो’ कहा था। फिर गाड़ी में आते हुए ‘माँ’ और ‘प्यारो’ शब्द बोले थे। हकीम कहता था कि तीन-तीन महीने के बाद दो बार दवाई ले जाना। फिक्र न करो, लड़का बिलकुल चंगा हो जाएगा।’

दादी ने एक बार फिर दोनों हाथ जोड़कर धरती को नमस्कार किया और फिर हाथ माथे से छुआए।

‘मीतू की सोच और समझ सुस्त हो गई है। हकीम बताता था कि माहौल बदलेगा तो उसके अंदर पहले जैसी चुस्ती लौट आएगी।’

‘भाई साहब, आपका जितना शुक्रिया करें, उतना कम है। आपने हमारे बेजान शरीरों में जान डाल दी।’ दादी की आँखें और मन भरे हुए थे।

इस बीच गलाबू ने कहा, ‘शुक्र है, हमारा भाई घर आ गया। और क्या चाहिए!’

चाचा ने बाबा को मुखातिब होकर कहा, ‘भाइया, तू भी मुल्तान चला गया था? नूरदीन ताया के पास? हम रोज तुम्हारी ही बातें करते रहे।’

‘हाँ, जलंधर आदि–धर्म के दफ्तर में नूरदीन का खत आया हुआ था। उसके मुताबिक हमने जाने का बंदोबस्त कर लिया।’

तभी, मेरी माँ घूँघट निकाले आई और बोली, ‘रोटी तैयार है।’

‘बेटा प्यारो, अब तू पल्ला न किया कर। ये दोनों जन तेरे बाप बराबर हैं। और फिर शरम तो आँखों की होती है। गोरे, जा जाकर माँ के साथ रोटी-पानी रख।’

…और मेरे बापू को देखने आने वाली स्त्रियों को माँ शाम तक किवाड़ पर से ही यह कहकर लौटाती रही कि तुम्हारी आशीषों-अरदासों के सदके ही मीतू ठीक है। दो-चार दिन रुक कर आना।’

जब काले बुर्कों और हिजाब के अंदर छिपी दो औरतें आईं तो मैंने थोड़ा-सा पहचानते हुए कहा, ‘अंदर आ जाओ।’ दादी हैरान हुई कि मैं उन्हें जानता हूँ। उधर बाबा उठकर हमारी तरफ बढ़े और बोले, ‘फातिमा!’

‘हाँ बाबा, आदाब।’

‘ये तेरा नूरदीन बाबा मुल्तान से आया है, हमारे मीतू को लेकर।’

‘सलामालेकम बाबा…’ कहकर उन दोनों ने अपने चेहरों पर से हिजाब हटाकर सिर पर कर लिए। मेरे बापू की आमद की खुशी ज़ाहिर करने और खैर-खबर पूछने के पश्चात फातिमा ने कहा, ‘बाबा, इतने दिनों से जैजों नहीं आए, सोचा कि पता करें, और…।’

‘शुक्रिया फातिमा।’ बाबा ने नूरदीन को बताया, ‘इसे मेरी बेटी समझो।’ जरा रुककर उसने कहा, ‘लौटने की उतावली न करना। आज यहीं रह लो।’

‘आज का दिन?… हालात बहुत खराब हो रहे हैं। हमें और कहाँ जाना है? अब तो तेरे आसरे हैं, चाहे रखो, चाहे मारो। कई जगहों से हिंदू-मुसलमानो के बीच आपसी खींचतान की ख़बरें आ रही हैं। हम मौका देखकर और जान बचाने की खातिर तेरे पास पनाह लेने आई हैं। हमारा खून का रिश्ता किसी के साथ नहीं। न चाचा-ताये, न मामा-मामियाँ और न ही कोई बुआ-फूफी। हम यतीमों को तेरा आसरा है बाबा।’

चाय-पानी का दौर यद्यपि खत्म हो गया था, पर दरवाजे पर हुई दस्तक के साथ दादी और बाबा के चेहरों पर परेशानी गहरी हो गई। इस बीच, नूरदीन ने मेरे बाबा को बहाने से अंदर एक तरफ आने के लिए इशारा किया। चाय वाले बर्तन उठाती दादी भी उनके पीछे हो ली।

अब माँ हमारे पास आ गई। मैंने माँ का उन अजनबी औरतों के साथ परिचय कराते हुए कहा, ‘मेरी मौसी जैसी है न फातिमा। ये बहुत बार कपड़े उसके जैसे ही पहनती है। दूर से देखकर मुझे ऐसा लगता है जैसे मौसी आ गई।… और ये है फातिमा की सहेली।’

वे दोनों चारपाई से उठकर मेरी माँ से गले लगकर मिलीं। उन्होंने मेरे पिता के सालों बाद सही-सलामत लौट आने के बारे में बातें की। उधर, चाचा और गलाबू पशुओं के चारा-पानी में लगे बीच-बीच में हमारी तरफ देख लेते। अचानक गलाबू ने मुझे इशारा किया। जब मैं उसके पास गया तो वह बोला, ‘गोरे, हम दोनों चौपायों की टहल-सेवा करते हैं। ये जो पनाह माँगती हैं, इनकी देखरेख और सेवा की जिम्मेदारी भी हमारी। औरत की सेवा का आनंद ही अलग हैं, क्यों मीतू?’ चाचा हलका-सा मुस्कराया, पर मुँह से कुछ न बोला।

गलाबू ने आहिस्ता से कहा, ‘जीतू, औरत का कोई मजहब थोड़े होता है। सयाने कहते हैं कि पानी को जिस बर्तन में डाल दो, वैसी ही शक्ल अख्तियार कर लेता है।’ थोड़ी देर रुककर गलाबू ने कहा, ‘रब करे, जग में हमारा लहू भी मिल जाए। बेशक तू उन्हें कह दे कि वे इधर भी मेहरभरी नजर कर दें।’

गलाबू के लगातार बोले जाने की तरह करीब खड़ी गाय का बछड़ा बार बार गाय के थनों को मुँह मारे जा रहा था।

दोनों बाबा और दादी कुटिया से बाहर निकलकर आँगन में बिछी चारपाइयों पर आ बैठे। मेरा बापू अभी भी अंदर लेटा हुआ था। नूरदीन बाबा ने बड़ी सहजता से फातिमा से पूछा, ‘फातिमा बेटी, पनाह से तेरा मतलब विवाह है?’

‘कहा जा सकता है। और मेरी सहेली का भी यही मतलब है।’

‘तुम किस तरह के खाविंद तसव्वुर करती हो अपने?’

‘जिस तरह के भी हों। मेहनत करने वाले हों तो थोड़े में भी गुजारा हो जाता है।’

‘रुकईया बेटी, तेरा क्या ख्याल है?’

‘इज्जत के साथ दो वक़्त की रोटी मिल जाए…।’

‘और बेटा, लाहौर तुम जाना नहीं चाहती…जात-मजहब के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?’ अब मेरे बाबा ने बात खोलकर पूछी।

‘बाबा, तेरे से हमारा आगा-पीछा छिपा थोड़े हैं।’ फातिमा ने धीमे से कहा। वह बताने लगी, ‘हमारे पास व्यापारी, सेठ-शाहूकार, जागीरदार और जमींदार आते हैं। कोई किसी मजहब का तो कोई किसी का। कइयों की तो हमें बोली भी समझ में नहीं आती, पर हमारे धंधे में बोली की जरूरत ही नहीं होती। मुझे लगता है, औरतजात के साथ उसका कोई मतलब भी नहीं। मर्द ने अपने हक-पक्ष में कई अहम फैसले किए हुए हैं।’

वह थोड़ा रुककर भरे मन से बताने लगी, ‘और मैंने भी अपने आप को जलते कोयलों पर तपा लिया है, बहुत पछता कर देख लिया है। रुकईया की भी मेरी वाली हालत है। कुदरत ने हमें जो भी हालात दिए, उसका कुछ नहीं हो सकता। पर अब हम उस नरक भरी जिंदगी में से बाहर निकल आई हैं। हम बढ़िया इनसानी जिंदगी जीना चाहती हैं। पीछे के साथ हमारा पीछा भी गया।… सो, हमने सभी मजहब बदन पर भोगे-झेले हुए हैं। मजहबी-फरेबी लोग आजमाये हुए हैं। हमारे लिए पाक रसूल की खैरों-मेहरों के साथ बाबा संगतिया और तुम जैसे असली इनसान से मुलाकात होना, बड़ी बात है। तुम हमें अपने लगते हो। हम मुसीबत की मारियों के लिए इनसानियत का धर्म बहुत ऊँचा है। इसीलिए तुम अक्सर कहते हो–‘अव्वलि अलह नूर उपाइया, कुदरत के सब बंदे…।’

इस बीच, बाबा ने दायाँ हाथ ऊपर उठाकर फातिमा को रुकने और अपनी बात कहने के लिए मानो इशारा किया। परंतु, फातिमा अपने वेग में बोलती चली गई, ‘चाहे इस्लाम है या सिख धर्म या फिर आदि धर्म, ये सभी एक रब में यकीन रखते हैं। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता।’

‘फातिमा, बहती हवा की तरह तूने अपना मन खँगाल कर हलका कर लिया।’ फिर, दादी ने फातिमा और रुकईया से कहा, ‘तुम दोनों अंदर चलो।’

‘तुम्हें लगता है, मैं बेपरवाह होकर बोलती चली गई हूँ। खैर, अब मुल्क में धर्मों के ठेकेदारों ने हालात ऐसे बना छोड़े हैं कि जाएँ तो कहाँ जाएँ।’

‘फिक्र न करो तुम फातिमा, अब तुम दोनों हमारी हो गई हो।’ दादी के यह कहने की देर थी कि उन दोनों ने दादी को अपने कलावे में भर लिया। यह देखते ही उन तीनों की तरह बाबा और नूरदीन बाबा की भी आँखें सजल हो उठीं और मैं गवाह बन गया।

‘देखो फातिमा, मुहम्मद साहिब ने औरत को आदर-मान देने और सोहबत के लिए शादियाँ कीं जिनमें बेवा यानी रंडी औरतें भी थीं। मुझे अब लगता है, मेरे भाईजान संगतिया ने मुहम्मद साहिब के औरत समर्थक ख़्यालों को अपनी जिंदगी में ढाल लिया है। मेरी भाभीजान बचनी ने अपने खाविंद के वचन को पूरा करने के लिए हामी भर दी है। तुम बेफ्रिक हो जाओ। लाहौर, मुल्तान जाने को मन नहीं माना तो खुदा ने तुम्हारा यहाँ घर बसाना मंजूर कर लिया।’

‘हालात बंदे से क्या-क्या नहीं करवा देते, फातिमा। मुहम्मद साहिब पच्चीस साल के थे जब उनकी शादी चालीस साल की खादिजा बिन खुवेलिद के संग हुई। फिर उन्होंने बहुत कम उम्र की लड़कियों के साथ विवाह किए। जहाँपनाह ने यतीमों और बेसहारा औरतों को आसरा दिया।’ नूरदीन बाबा ने औरत के पक्ष में दलीलें दी।

‘बाबा नानक ने औरतों पर होते ज़ुल्मों के खिलाफ़ बीड़ा उठाया था और मर्द को उसकी हैसियत बताई कि तू है तो आखिर औरत की औलाद ही।’ कहकर बाबा ने मानो नूरदीन का पक्ष लिया।

फातिमा और रुकईया ने लगभग एक साथ ही कहा, ‘हमें पता है कि आप हमारे लिए अच्छा सोचने वाले हैं और हमारे खाविंद भी सही ही तलाश करोगे।’

‘मेरे दिल में एक बात यह आती है कि तुम बुर्के और हिजाब उतारकर अपने आप को इस घर के माहौल के मुताबिक आजाद महसूस करो।’ बाबा ने सलाह दी।

‘अंदर से तो हम भी यही चाहती हैं।’ इस बार रुकईया ने अपनी आज़ादी की सहमति प्रकट की।

‘दूसरी बात यह कि हम गुरुग्रंथ साहिब की हाजिरी में विवाह करेंगे और तुम दोनों के नाम बदलेंगे। हमारे इलाके में मुसलमान भाईचारे की बहुतायत है।’ बाबा ने चिंता प्रकट की।

‘यह बात तो पहले ही खत्म हो गई थी कि औरत का कोई मजहब नहीं होता। और फिर हमारी तो वैसे भी कोई शर्त नहीं। हम और कहीं नहीं जाना चाहती हैं।’ थोड़ा रुककर फातिमा फिर कहने लगी, ‘और अब हमें दूध से भरे ताजे बर्तन मिल गए हैं–खुशबूओं भरे। हम भी कढ़ कढ़कर सुर्ख हुए दूध की तरह हैं। फिक्र न करो…हम मक्खन की मुट्ठियाँ भर भरकर तुम्हें देंगी।’

‘शाबाश मेरी बेटियो! तुम खुश रहो, आबाद रहो।’ नूरदीन बाबा ने कहा।

इस बीच दादी उठी और बड़े हक के साथ फातिमा और रुकईया से कहने लगी, ‘अंदर चलो और हाथ-मुँह धो लो।’ मुझे लगा कि दादी ने फातिमा को बता दिया था या उसे भनक लग गई थी कि वह जीतू की दुल्हन बनेगी और रुकईया गलाबू की। दरअसल, फातिमा ने जीतू को दो-तीन बार जैजों वाली दुकान पर देख रखा है और गलाबू को भी। जीतू का कम बोलना और संकोची स्वभाव फातिमा को पहले से ही पसंद है और वह कई बार बाबा के साथ अपने विचार साझे भी कर चुकी है। वैसे भी, उसने अंदरखाने गोरे की ‘मौसी और चाची’ बनने का इशारा मेरी दादी को कर दिया था। नूरदीन बाबा ने जीतू और गलाबू को उनका खाविंद होने का इशारा पहले ही कर दिया था। जब वे पशुओं की नाँद में चारा डाल रहे थे, तब फातिमा और रुकईया भी बीच-बीच में उनको देखती-निहारती रही थीं।

‘भाई संगतिया, जिंदगी भी एक झमेला है। आदमी को कुछ समझ में नहीं आता। देखो, जन्मता वह कहीं है, कमाई करने कहीं और जाता है और न जाने कहाँ कहाँ चुग्गा चुगता है। मोह-मुहब्बत ने सबको बाँधकर रखा हुआ है। दु:ख भी इसी में से निकलते हैं। कई बार लगता है कि जिंदगी दुखों का पहाड़ है। बाबा फरीद ठीक फरमा गए हैं–फरीदा मैं जाणिया दु:ख मुझको, दु:ख सबाइया जग/कोठे चढ़ के देखिया, घर घर गेहो अग्ग।’

इसी दौरान बाबा ने हाँक मार कर जीतू को पास बुलाया और कहा, ‘जीतू, तू गलाबू को साथ ले जा। माहलपुर वाले मकान की साफ-सफाई करो। परसों को उसकी चट्ठ (गृह-प्रवेश) करेंगे।’ फिर गलाबू को नजदीक आते देख उसने कहा, ‘तुम दोनों जन कपड़े-लत्ते ले लो। समझ में आया!’

‘चाचा…।’ गलाबू इतना ही कह सका। उसकी आँखों में पानी छलक आया और इससे आगे वह बोल न सका। करीब बैठा नूरदीन बाबा उठा और उसने गलाबू को बाँहों में भर लिया और बोला, ‘फिक्र न कर गलाबू, अब तेरा बाप संगतिया है…सभी के माँ-बाप बैठे थोड़े रहते हैं।’

‘जाओ मेरे पुत्ता! परसों को सभी कारज पूरे हो जाने हैं, हिम्मत रखो।’ बाबा ने कहा।

‘मैं तेरे भाई के साथ बात करता हूँ। गोरे, तू साइकिल उठा और मंगू राम को ये रुक्का दे आ।’ बाबा ने उर्दू में लिखे थोड़े-से लफ्जों वाला पुर्जा मेरे हाथ में पकड़ा दिया।

अगले दिन वैशाखी से तीन दिन पहले हमारे परिवार पर मेहरबानी हुई कि मेरा बापू, मेरी माँ के साथ-साथ रहने लगा। वह उसे अपने से दूर नहीं कर पा रहा था। मुझे महसूस हुआ जैसे वह वक्त क्षरा डाले गए फासले को जल्द से जल्द कम करना चाहता हो। जब उसने ‘प्यारो-प्यारो’ कहा तो माँ और दादी के चेहरों पर मुस्कान तैर गई। कुछ देर बाद उसने ‘गोरे’ कहा तो मैं तुरंत उसकी छाती से लिपट गया। फातिमा और रुकईया अपनी जगह बैठीं खुश होकर यह नजारा देखती रहीं, पर मुँह से कुछ न बोलीं।

कुछ देर बाद जब मैं दोनों बाबाओं को पानी पिलाकर आया तो दादी और माँ, फातिमा और रुकईया को सिले-सिला, सूट दिखा रही थीं। माँ ने उन्हें दो-दो सूट पेटी में से निकाल कर दिए। दादी ने कहा, ‘तुम दोनों को खूब फबेंगे। नाप भी तुम तीनों का एक जैसा है।’ दादी ने उन तीनों को बराबर बराबर खड़ी करने के बाद कहा, ‘शुक्र है रब का कि अब सारे काम सीधे हो रहे हैं। ये मेरे मीतू के आने का प्रताप है।’

मैंने देखा कि अब फातिमा के मुँह में पहले वाली ज़ुबान न रही। शायद, वह मोहब्बतों और खुशियों के बोझ तले दब गई है। वह अब दादी को ‘अम्मा-अम्मा’ कहकर बात करती। रुकईया तो पहले से ही कम बोलती है, पर बातें बड़े ध्यान से सुनती है। खैर, उनके दिल की वही जानें।

दादी को मानो अकस्मात् कुछ याद आ गया हो। बोली, ‘हम तीनों शाम को माहलपुर चली जाएँगी। जो छोटा-मोटा कुछ लेना होगा, वो ले लेंगी। यहाँ से जो-जो सामान ले जाने वाला है, वो ले चलेंगी। प्यारो और मीतू अपने आप कल सवेरे-सवेरे आ जाएँगे। गली-मुहल्ले को ज्यादा इकट्ठा नहीं करना। सादी रस्मों के साथ सब कुछ कर लेंगे हम। बाबू मंगू राम तो ज़ोर ही इन बातों पर देता है।’ दादी ने आगे कहा, ‘इसे कहते हैं, झट मँगनी, पट विवाह! तुम्हारी तो मँगनी भी नहीं हुई। हालात ने तुम्हें मजबूर करना था और ये संजोग बनने थे।… और फिर तुम्हारा नूरदीन बाबा कहता है, ये जो रब ने संजोग बनाया है, इसे पूरा करो और लड़के-लड़कियों को अपनी घर-गृहस्थी सुख-चैन से बसाने-चलाने दो।’

मेरी माँ, फातिमा और रुकईया खामोश थीं, पर उनके चेहरों पर रौनक साफ झलक रही थी।

‘क्या पता, गुरक्षरे वाले गुरुग्रंथ साहिब की ‘बीड़’ दें भी कि ना?’ बाबा के हमख़्याल रुलदा राम ने शंका प्रकट की, जब कुछ आदि धर्मी हमारे न, घर के आगे खड़े होकर जाति-धर्म की चिंता पर विचार-विमर्श कर रहे थे।

‘देंगे…देंगे क्यों नहीं?’ एक बुजुर्ग ने बड़े भरोसे के साथ कहा। इस बुजुर्ग को मैं पहले नहीं जानता था। उसने अपनी दूधिया लंबी और भरवाँ दाढ़ी पर ऊपर से नीचे की ओर हाथ फेरते हुए कहा, ‘गुरुग्रंथ सब का साझा है जिसमें अलग अलग जबानों के संतों-भगतों और गुरुओं की बानी दर्ज है।’

‘बात तो सही है, पर जात के अहंकारी हम नीच जात वालों को गुरुग्रंथ को माथा तो टेकने नहीं देते।’ रुलदा राम ने नुक्ता रखा।

‘वे स्वार्थी, धर्मत्यागी, गुरमत से इनकारी लोग हैं। गुरु रविदास, गुरु कबीर और गुरु नानक जी महाराज की बानी है ही हम जैसे नीच कहे जाने वाले लोगों के लिए।’ लंबी दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने कहा, जिसे कई ‘ज्ञानी जी’ कहकर बात करते।

‘जट्टो, रामगढ़ियों, लुबाणियों के गुरद्वारे अज्ञानता के कारण बने हैं। अछूतों को करीब नहीं फटकने दिया तो उन्होंने रविदासी उदासी डेरे बना लिए। गुरुओं ने ‘एक पिता ऐकम के हम बारिक’ उच्चारित कर निपटारा कर दिया, फिर पता नहीं कहाँ से आ गए अलग-अलग जातियों के गुरक्षरे! मुँह में गुरबाणी की तोता रट और असल में, ब्राह्मणों की तरह ऊँच-नीच, जात पात और छुआछूत।’ ज्ञानी जी ने अपने ज्ञान का सुर जारी रखा, ‘और बताऊँ, भाई किहर सिंह रविदासिया ने दो सौ ग्यारह साल पहले गुरु ग्रंथ की बीड़ का उतारा किया था। पर इन मनमुखी लोगों से कोई पूछने वाला नहीं कि गुरबाणी सब की साझी है।’

‘क्या?… अब तो 1947 चल रहा है। इस हिसाब से उतारा 1736 में हुआ?’

‘हाँ जी।… और गुरसिख के तौर पर ग्रंथी को ‘अनंद कारज’ के लिए बीड़ लाने के लिए मनाही नहीं करनी चाहिए।’

यह विचार-चर्चा चलते समय मैं पहले की भाँति दादी के कमरे में झाँकने गया, जहाँ फातिमा और रुकईया मेंहदी वाले हाथ एक-दूजी को दिखा रही थीं। उनके पास बैठी-खड़ी गाँव की कुछ स्त्रियाँ बातें करती दिखीं।

…और फिर, कुछ देर बाद जीतू चाचा और गलाबू के फातिमा और रुकईया के साथ ‘अनंद कारज’ पढ़े गए। फेरे हो गए। दोनों लड़कियों ने नाम बदलने के लिए ‘वाक’ लिया तो ‘न’ अक्षर निकला। बाबा, दादी और मेरी माँ नामों के बारे में सलाह-मशवरा करते नजर आए। आखिर, फातिमा का नाम निरलेप बीबा और रुकईया का निर्मल बीबा हो गया।

बाबा ने नूरदीन बाबा का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, ‘नूरदीन, सबाब और पुण्य का यह काम तेरे हाथों होना था। बहुत बहुत मुबारक!’

‘भाईजान, मुझे फ़ख्र महसूस हो रहा है कि अल्लाह ने मुझे बेटी की दात नहीं बख्शी और आज बाप के तौर पर दो बेटियों के विवाह का पुण्य-कारज करवा कर मैं खुशनसीब हुआ हूँ। रब दोनों जोड़ियों को सलामत रखे। तेरी बहुएँ और बेटे आबाद रहें। मीतू और प्यारो सदा खुश रहें।’

इस दौरान, दादी ने मेरी माँ को उत्साह में भरकर बताया, ‘प्यारो देख, दोनों को कैसा रंग-रूप चढ़ा है। दोनों को सलवारें-कमीजें कैसे ठीक आई हैं, जैसे इन्हीं का नाप लेकर सिली गई हों।’

‘माँ करेवा (चादर-अंदाजी) वाले कपड़े फब गए। मैं तो तेरी जेठी बहू हूँ ही, दो बहुएँ और मिल गईं। वो भी मेरे करेवा वाले सूटों में।’

अब मेरी माँ के बोलने का लहजा पहले से बिलकुल अलग था। लगता था, जैसे वह खुश थी कि करेवा वाले कपड़े उसके लिए इस्तेमाल नहीं हुए थे।

‘बेटी, जो होना होता है, वह होकर रहता है। तेरे भरोसे के कारण दोनों की किस्मत क्या से क्या हो गई…मेल-जोल कैसे जुड़ा और संजोग ने मेरे जीतू और गलाबू के घर बसा दिए। जो कहती थीं, इस दुनिया में हमारा कोई नहीं, वे अब घरवालियाँ हो गईं। कुदरत की यह लीला बंदे की समझ से परे हैं।’

यह वार्तालाप सुनती मेरी नई चाचियाँ खुश हो रही थीं। चाचा जीतू जो पहले संकोची और शरमीलू-सा था, अब गलाबू की तरह इधर-उधर आते-जाते कमरे में झाँक-झाँक कर देखता। इसी बीच, गलाबू की एक बार फिर आँखें भर आईं, जब वह मेरी दादी के चरण-स्पर्श के लिए झुका। पर दादी ने उसको बाँहों में भरते हुए कहा, ‘गलाबू, जैसे मेरे मीतू और जीतू हैं, वैसे ही तू है। ये आँगन की तरफ खुलता एक कमरा तेरा। निर्मल और तू दोनों मिलकर कमाओ और खाओ-पियो। अब मिलकर रहो। रब तुम्हें खुश रखे।’

इसी दौरान, नूरदीन बाबा ने मेरी दादी को मुबारक देते हुए कहा, ‘बीबी बचनी, मेरी बेटियों का ख़्याल रखना। मैं भी चक्कर लगाता रहूँगा।’

तभी, मेरा बाबा आ गया तो नूरदीन बाबा कहने लगे ‘मंगू राम, एम.एल.ए. ने अपनी छोटी-सी तकरीर में बड़ी बात की है। मेरे दिल-दिमाग के दरवाजे खोल दिए हैं कि अछूत, शूद्र, कबाइली, ईसाई और मुसलमान बने लोग हिंदुस्तान के असली बाशिंदे हैं। हमारे रंग-रूप, पुश्तैनी पेशे एक जैसे हैं। जात पात, छुआछूत और ऊँच-नीच का विस्तार करने वाले हमारे बीच से नहीं।’ पलभर रुककर नूरदीन बाबा ने कहा, ‘भाई संगतिया, मंगू राम ने बड़े मार्के की बात की कि हिंदुस्तान के असली बाशिंदों के अब जो अलग अलग फिरके हैं, इसका कोई मसला नहीं है…अलग-अलग पहचान का मसला नहीं है, पर सब मिलजुल कर एक बड़ा फिरका अपने बाशिंदों का बना सकते हैं।… और नीली आँखों के भीतरी समुंदर में उठती नफरतों की लहरों पर मुहब्बत की परत चढ़ सकती है। वाकई बहुत ऊँची सोच का मालिक है मंगू राम।’

ग्रंथी भाई, रुलदा राम और मैं काफी देर से चुपचाप बैठे दोनों बुजुर्गों की लहरों जैसी बातें सुन रहे थे।

नूरदीन बाबा शायद अभी और बोलता रहता, यदि मेरा बाबा बीच में यह न कहता, ‘नूरदीन, हम अब नीली आँखों वाले समुंदर में जैजों की पहाड़ियों से भी ऊँचा पहाड़ बनकर खड़े हो गए हैं।’

ये शब्द कहने-सुनने की देर थी कि मेरा बाबा संगतिया, नूरदीन बाबा और ग्रंथी भाई संगत सिंह फुर्ती के साथ उठे और तीनों ने आपस में कलावा भर लिया। यह देखकर मेरी दादी, मेरी माँ और दोनों नई चाचियों, रुलदा राम और मेरे चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ गई। मैंने बाहर देखा। अब आसमान में बादल छँट गए थे और सूरज की किरणें चमकने लगी थीं।


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