नेत्रदान
- 1 January, 1974
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- 1 January, 1974
नेत्रदान
आज नटवार बाजार में बड़ी भीड़ है। शादी का मौसम–खरीद-फरोख्त के लिए सभी टूटे पड़ते हैं। शहर से बहुत दूर–इस पिछड़े इलाके का एकमात्र बाजार।
गाँव की औरतें टिकुली और चुनरी, चूड़ी और चोटी की खरीदारी में मशगूल हैं तो मर्दों को किराना सामान और कपड़ों की मोलमोलाई से फुरसत नहीं। बहुत दिनों बाद आज बच्चों की भी बन आई है। सभी अपने-अपने गोल-गिरोह में घूम रहे हैं–चहक रहे हैं। कोई माँ का आँचल खींचते ‘लेमनचूस’ खरीदने को ललक-मचल रहा है तो कोई चर्खी पर चक्कर लगाने के लिए अपने पिता के सर पर सवार है। हाँ, जो ज्यादा तंग करते उन्हें तड़ी भी मिलती।
मगर इस बदनछिलती भीड़ में सूरदास का यों ही भटकते फिरना बड़ा बेतुका लग रहा है। उसे झड़ी और तड़ी पग-पग पर मिलती–‘अबे ओ अंधे! जरा रास्ता देखकर तो चल!’ ‘भला इस आंधर मरद को तो देखो, औरतों की टोली में ही घुस पड़ता है!’ ‘देखो सूरदास! तुम अपनी हरकतों से बाज नहीं आओगे। एक घूँसा जमा दूँगा–बस, सारी हैकड़ी भूल जाएगी। लालची कहीं का! आज बाजार का ही दिन तुमने भीख माँगने को चुना है? किसी दूसरे दिन आते। यहाँ तो खड़े होने की भी जगह नहीं और तुम हो कि लाठी टेकते हुए सभी से टकराते चलते हो। जरा औरतों पर भी तो खयाल रखा करो!’
“बाबा, मैं अंधा, किस्मत का मारा–यदि आँखें रहतीं और पहचान पाता तो इस तरह टकराता? मुझे माफ करना, मैं अंधा जो ठहरा!”
बच्चे उससे ठिठोली करने पर तुले हैं। उसकी लाठी छीनकर भाग जाते हैं और वह बेचारा निस्सहाय हाथ फैलाकर टटोलता आगे बढ़ता। उस भीड़-भाड़ में उसके हाथ किसी से टकरा जाते तो फिर कुछ न पूछिए, उसके सात पुश्त तर जाते। कोई उस पर रहम नहीं खाता–जैसे वह कोई तमाशे की वस्तु हो।
“अरे भाई, क्यों परेशान हो रहे हो? इस भीड़ में तुम पैसे नहीं, फटकार ही पाओगे। भले आदमी की तरह शिवालय में एकतारा लेकर बैठ जाओ और चादर बिछा दो। कोई दयावान ऊपर से निकलेगा तो कुछ पैसे उस चादर में फेंक देगा। भला इस तरह दर-दर ठोकर खाने से फायदा?”
फिर किसी दर्दमंद ने उसका हाथ पकड़कर उसे शिवालय तक पहुँचा दिया और वह वहीं जम कर छेड़ बैठा कबीर की वही चिरपरिचित कड़ी–‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया…।’
सूरदास के गले में माधुर्य की कमी नहीं है। जन्मजात अंधे के जीने का एकमात्र साधन भी तो यही है। यदि उसमें यह माधुर्य, यह आकर्षण नहीं रहता तो आज वह कहीं का न रहता। नियति ने उससे उसकी आँखें तो छीन लीं मगर उसके बदले गले में ऐसी मिठास भर दी कि स्वर और सुर की दीवानी दुनिया उसकी मधुर ध्वनि सुनते ही टूट पड़ती। फिर तो भजन-गान की तल्लीनता में वह अपनी सुध-बुध खो बैठता और उसकी चादर रिजकारियों से भर जाती।
आज भी वही हुआ। दर-दर ठोकरें खानेवाला सूरदास जब एकतारा लेकर बैठ गया तो और दिनों की तरह आज भी भीड़ उमड़ चली। उसकी चादर रिजकारियों से भरने लगी और वह आत्मविभोर हो कबीर की बानी का जीता-जागता प्रतीक बन गया। उसकी आवाज उस कोलाहलमय वातावरण को चीरती हुई हर कोने में थिरकने लगी और हरिजन-सेवक-संघ के सेवा भावे जी को अभिभूत करती रही। आखिर वह उसके स्वर के आरोह-अवरोह पर तैरते हुए उसके समीप जाकर खड़े हो गए। जब ‘जस की तस धर दीनी चदरिया’ पर लाकर उसने अपने लय का विलय किया तो सेवा भावे जी ने धीरे से कहा–“सूरदास!”
“जी! कौन?”
“मैं हूँ हरिजन-सेवक-संघ के सघन क्षेत्र का प्रभारी सेवा भावे।”
“आज्ञा महाराज!”
“आज्ञा नहीं, तुम्हारे लिए एक खुशखबरी लाया हूँ।”
“क्या महाराज?”–वह आँखों से उन्हें देख नहीं पाया, बस, उसकी विनयभरी पलकें उसकी जिज्ञासा जताती रहीं।
“लो यह इश्तहार!”
वह मायूस हो जाता है–“महाराज! मुझे आँखें कहाँ कि इसे पढ़ पाऊँ?”
“तो लो, सुनो, निकटवर्ती ग्राम सूर्यपुरा में हमारे संघ की ओर से नेत्रदान-शिविर खुलने जा रहा है। राँची के सबसे बड़े आँख की बीमारी के विशेषज्ञ डॉ. सिन्हा अपनी टीम के साथ पधार रहे हैं। मोतियाबिंद का ऑपरेशन करेंगे। तुम भी अपनी आँखों का ऑपरेशन करा लो।”
“मगर, महाराज, मैं तो जनम का अंधा हूँ, भला मेरा ऑपरेशन क्या होगा! जब बड़ा हुआ तो घरवालों ने मुझे घर का भार समझ एकतारा देकर लाठी थमा दी और घर से बाहर करके सीख दी–बेटा, चला जा, इसी से कमाते-खाते रहना–जिंदगी कट जाएगी, घर पर पड़े-पड़े तो तुझे दो मुट्ठी अनाज के भी लाले पड़ जाएँगे। जा, भगवान तेरा भला करेगा।…तो महाराज, आजतक भगवान भला करता रहा–आगे भी वही करेगा।”
एक गहरी निराशा की घटा ने उसे घेर लिया।
“नहीं-नहीं सूरदास, इतने निराश न हो। आँख की हर बीमारी का इलाज होगा। घर पर खबर तो भेजो। किसी एक साथी के साथ अगले इतवार को हमारे शिविर में पहुँच जाओ। भोजन हम देंगे। ओढ़ने का सामान तुम लेते आना। अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी, भगवान चाहेगा तो तुम्हारी आँखों में रोशनी अवश्य लौट, आएगी। नियति की मार से आज विज्ञान ही बचा पाता है। हिम्मत न हारो।”
भावे जी इश्तहार बाँटते हुए भीड़ में खो गए और सूरदास आशा और निराशा के थपेड़ों में डूबता-उबरता रहा।
× × ×
सूर्यपुरा स्कूल में नेत्रदान-शिविर का आयोजन संघ द्वारा किया गया है। एक कमरे में ऑपरेशन थिएटर सजाया गया है। ब्लॉक के फैमिली प्लानिंग सेंटर तथा स्थानीय अस्पताल से शल्य-चिकित्सा संबंधी सारे सामान जुटाए गए हैं। स्टोव पर छुरी, कैंची इत्यादि को उबाला जा रहा है। बगल के तीन कमरों में मरीजों के सोने के लिए पुआल बिछा दिया गया है। स्कूल के हॉल में चिकित्सक मरीजों की जाँच-पड़ताल कर रहे हैं।
इस गरीब अंचल में नेत्रदान-शिविर का आयोजन कभी नहीं हुआ था। पहली बार जो शिविर खुला है तो मरीजों का ताँता बँध गया है। संघ के राज्य संगठन महोदय मरीजों को कार्ड देते-देते परेशान हो गए हैं। चिकित्सक भी इतनी गरीबी और मरीजों की इतनी बड़ी संख्या देखकर अचंभित हैं। बड़े-बड़े शहरों में रहनेवाले ये चिकित्सक इतने बेशुमार मरीजों को देखकर घबरा-से गए हैं। मरीजों को वे स्कूल के बालचरों (Scouts) के सहारे तीन पंक्तियों में बिठा रहे हैं। एक–जिन्हें केवल चश्मा देना है, दो–जिन्हें आँख में सिर्फ दवा डाल देनी है, तीन–जिनका ऑपरेशन होगा–जैसे, ग्लुकोमा, मोतियाबिंद, नाखूना इत्यादि के मरीज।
इसी भीड़ में भावे जी को खोजता हुआ एकतारा लिए सूरदास भी पहुँच गया। साथ में उसके बूढ़े पिता थे। भावे जी की आवाज सुनते ही वह जोरों से चिल्लाया–“महाराज, मैं आ गया।”
मैंने भावे जी से पूछा–“यह कौन मरीज है?”
“मंत्री जी, यह बलिया का सूरदास है। जन्म का अंधा। बड़ी उम्मीद लेकर आया है।”
मैं निराश हो गया–‘भला इसका क्या होगा?’ मगर अपनी निराशा की भावना को दबाते हुए मैंने कहा–“सूरदास, घबराओ नहीं, भगवान पर भरोसा रखो–शायद तुम्हारी और तुम्हारे बूढ़े बाप की वह सुन ले। मैं तुम्हें डॉक्टर से अभी दिखाता हूँ।”
मैंने चिकित्सक से सिफारिश की–“इसे भी जरा गौर से देखें। मैं तो नाउम्मीद हूँ, मगर इसके सच्चे पारखी तो आप ही हैं।”
चिकित्सक महोदय ने मुझे समझाते हुए कहा–“देखिए, आप संघ के मंत्री हैं। यदि पंक्ति आप ही तोड़ देंगे तो इसका औरों पर बहुत बुरा असर होगा। इसलिए इसे अपनी जगह पर खड़ा कराइए। मैं घूमते-घूमते वहाँ भी पहुँचूँगा और जो कुछ भी संभव होगा, इसके लिए किया जाएगा। अभी जवान आदमी है। देखिए…”
और चिकित्सक महोदय मरीजों को देखने में तल्लीन हो गए।
मैं बाहर स्कूल के मैदान में गाँव के मुखिया जी के साथ बैठकर गप लड़ाने लगा।
कुछ देर बाद डॉक्टर साहब सूरदास को लिए मेरे पास आए और बोले–“यह केस निकल जाएगा। हमें पूरी उम्मीद है, इसका ऑपरेशन सफल होगा। बात यह है कि गर्भवती माँ को जब फूलमती माता निकल जाती है तो उसके बच्चे को गर्भ में ही मोतियाबिंद हो जाता है। यह वैसा ही केस है। ऑपरेशन में मोतियाबिंद निकाल दिया जाएगा और इसकी आँख में रोशनी आ जाएगी। मैं इसे आज की लिस्ट में रख रहा हूँ। आज ही इसका ऑपरेशन होगा।”
भावे जी बड़े खुश नजर आ रहे हैं। सूरदास के पैर तो जमीन नहीं छू पा रहे। फिर भी आशा और निराशा की लहरें समान रूप से उसके चेहरे पर खेल रही हैं। उसके बूढ़े पिता को एक सहारा मिल गया। कभी मुझे देखता और कभी डॉक्टर साहब को। जब डॉक्टर साहब सूरदास को कोकेन का इंजेक्शन देने का आदेश अपने कंपाउंडर को देकर ऑपरेशन थिएटर में घुसे तो मुखिया जी ने फरमाया–“सूरदास, अब तो तुम्हारी दुनिया बदलने जा रही है। एक भजन तो सुनाते जाओ।”
उसने एकतारा उठाया तो मैंने झट कहा–“नहीं-नहीं, आज इसका ऑपरेशन होनेवाला है, इसे आराम करने दें–फिर कभी…”
मगर सूरदास तो पूरे उल्लास में था, चट एकतारा पर छेड़ बैठा–“श्याम सलोना टोना करि गए रतिया।…”
हर बार की तरह लोगों की भीड़ होने लगी। मगर सबों ने महसूस किया कि सूरदास दिल की गहराई में डूबना तो चाहता है जरूर, मगर वह सलोना श्याम उसकी पकड़ के बाहर होता जा रहा है। ये आँखें अब अंदर न जाकर बाहर आने को लालायित हैं जैसे।
मैंने उसे रोकते हुए कहा–“सूरदास, तुम बहुत गा चुके; आज इतने ही पर रहने दो। भगवान तुम्हें आँखों में ज्योति दे देगा तो फिर हमें चौपाल में सुनाना।”
मध्यरात्रि के उपरांत सूरदास का ऑपरेशन हो गया। उसे पट्टी बाँधकर और स्ट्रेचर पर अपने कमरे में भेजकर डॉक्टर साहब मेरे पास आए और भावे जी तथा मुझे बधाई देते हुए बोले–“लीजिए, सूरदास का ऑपरेशन सफल रहा। हमें पूरी उम्मीद है, पट्टी हटाने के बाद उसे रोशनी आ जाएगी।”
और सचमुच तीसरे दिन जब पट्टी हटी तो सूरदास की आँखों में रोशनी आ गई।
आज पहली बार उसने ज्योति देखी। फिर कुछ दिनों बाद उसने यह अद्भुत संसार देखा–अपने माता-पिता तथा स्वजनों को पहचाना।
एकतारा उसके हाथ से छूट गया। कबीर तथा सलोने श्याम दिल की दरीचियों से उतरकर कहीं अनजाने पथ की ओर निकल गए और सूरदास अपनी इस कोलाहलमयी दुनिया में वापस आ गया।
पूर्वजन्म के शाप तथा पाप-पुण्य के गोरखधंधे से निकलकर विज्ञान ने उसे दो आँखें दे दीं।
‘वाह! कितनी बेजोड़ हैं ये आँखें, कितनी अनमोल हैं ये आँखें!’
(आकाशवाणी के सौजन्य से)
Image: The Blind Beggar
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Artist: Jules Bastien-Lepage
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